बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ

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समीक्षा -बंद दरवाजों का शहर
आज बात करते हैं सशक्त कथाकार, उपन्यासकार रश्मि रविजा जी के कहानी संग्रह “बंद दरवाजों का शहर” की | यूँ तो रश्मि जी की कहानियाँ पत्र -पत्रिकाओं में पढ़ती ही आ रही थी और पसंद भी कर रही थी पर उनके पहले उपन्यास “काँच के शामियाने” ने बहुत प्रभावित किया | इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण दस्तक दी | इसके बाद कई वेब पोर्टल्स पर उनके उपन्यास पढे | रश्मि जी की लेखनी की खास बात यह है की वो अपने आस -पास के आम जीवन के चरित्र उठाती है और उन्हें बहुत अधिक शब्दगत आभूषणों से सजाए बिना अपनी विशिष्ट शैली में इस तरह से प्रेषित करती हैं कि वो पाठक को अपनी जिंदगी का हिस्सा लगने लगे | इसके लिए वो कहानी की भाषा और परिवेश का खास ख्याल रखती हैं | यहाँ पर एक बात खास तौर से कहना चाहूँगी की कहानी जिंदगी का हिस्सा लगने के साथ-साथ जिंदगी में, रिश्तों में, मन में इतनी गहरी पैठ बनाती हैं कि कई बार आश्चर्य होता है की हमारे आप के घरों की चमचमाती फर्श के उजालों के के नीचे छिपे अँधेरों तक वो कैसे देख पाती हैं | वो कहानी के आलोचकों की दृष्टि से किए गए वर्गीकरण को नकार देती और वो बिना परवाह किए सीधे अपने पाठकों से संवाद करते हुए वो कहती हैं जो वो कहना चाहती है .. उनकी कहानियों में तर्क हैं, प्रेम है अवसाद है, सपने हैं तो खुशियां भी झलकती हैं और झलकता है एक कहानीकार का संवेदनशील हृदय, तार्किक दिमाग |
तो आइए झाँकते हैं आकर्षक कवर से बंद इन दरवाजों के पीछे | बंद दरवाजे हमेशा से रहस्य का प्रतीक रहे हैं | आखिर कौन रहता होगा इनके पीछे ? क्या होता होगा इनके अंदर ? कैसे लोग होने वो ?

बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ

रश्मि रविजा

रश्मि  रविजा

संग्रह की पहली कहानी “चुभन टूटते सपनों के किरचों की” एक ऐसी कहानी है जो पढ़ने के बाद आपके दिमाग में चलती है .. बहस करती है, दलील देती है | अभी तक हम सुनते आए हैं कि “प्यार किया नहीं जाता हो जाता है” पर ये कहानी प्रेम और विवाह के बीच तर्क को स्थान देती है | प्यार भले ही हो जाने वाली चीज हो .. किसी भी कारण से हुआ आकर्षण, एक केमिकल लोचा आप कुछ भी कहें पर विवाह सोच समझ के लिया जाने वाला फैसला है | पहले ये फैसला परिवार लेता था अपनी सोच -समझ की आधार पर |फिर प्रेम विवाह होने लगे तब ये फैसला लड़का -लड़की प्रेम के आधार पर लेने लगे | जब विवाह हो जाता है तो कई साल बाद फ़र्क नहीं पड़ता कि वो प्रेम विवाह था या माता -पिता द्वारा तय किया गया | सब जोड़े एक से नजर आते हैं | विवाह की सफलता -असफलता के प्रतिशत में भी फ़र्क नहीं पड़ता | ये कहानी नई पीढ़ी के माध्यम से एक नई शुरुआत करती है .. जो प्रेम तो करती है पर प्रेम में अंधी हो कर विवाह नहीं कर लेती | विवाह के समय तर्क को स्थान देती है | यू पी बिहार से आकर मुंबई में रहने वाले एक आम माध्यम वर्गीय परिवार की दो बहनों की अलग परवरिश, अलग सोच, किसी के टूटे सपनों की किरचें, किसी के तर्क के आधार पर कहानी को इस तरह बुना है कि पाठक इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता | इस कहानी पर फिलहाल बाल मोहन पांडे जी का शेर ..
इसीलिए मैं बिछड़ने पर सोगवार नहीं
सुकून पहली जरूरत है तेरा प्यार नहीं
पहली कहानी के ठीक उलट दूसरी कहानी “अनकहा सच” एक मीठी सी असफल प्रेम कहानी है | जहाँ दो बच्चे (क्लास मेट) एक दूसरे से लड़ते झगड़ते हुए एक दूसरे से प्रेम कर बैठते हैं | एक तरफ उन्हें अपना प्रेम नजर आ रहा होता है और दूसरे का झगड़ा | जो उन्हें प्रेम को स्वीकार करने में बाधा डालता है | जब इस प्रेम का खुलासा होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | दोनों अपनी -अपनी जिंदगी में खुश भी रहते हैं पर पहले प्यार की ये चुभन कभी टीस बनके कभी फुहार बन के दिल में बनी ही रहती है | आज के फास्ट ट्रैक लव और ब्रेकअप के जमाने में ये कहानी पुराने जमाने के प्रेम की मिठास याद दिला देती है | हो सकता है की पाठक एक पल को सोचे क्या आज भी ऐसा होता है ? फिर खुद ही कहे हो भी तो सकता है आखिर जिंदगी है ही इतनी अलग ..इतनी बहुरंगी |
दुष्चक्र कहानी जीवन के “सी-सॉ” वाले झूले के उन दो बिंदुओं को उठाती है जिनके बीच संतुलन साधना बहुत जरूरी है | ये दो बिन्दु हैं कैरियर और परिवार, खासकर बच्चे | ये कहानी एक बच्चे की कहानी है जिसके पिता बाकी परिवार के साथ उसे टेन्थ में किसी रिश्तेदार के पास छोड़कर दुबई नौकरी करने चले जाते हैं | कहानी बच्चे के ड्रग के दुष्चक्र में फँसकर ड्रग एडिक्ट बनने और रिहैब में जाकर इलाज करा कर स्वस्थ होने के साथ आगे बढ़ती है | कहानी की खास बात ये है कि ये पूरी तरह से माता -पिता के विरोध में नहीं है | बच्चे का रिस्पॉन्स भी महत्वपूर्ण है.. चाहे वो अपने नए आए भाई -बहन के प्रति हो या परिस्थितियों में बदलाव के प्रति | ये कहानी सभी के मनोविज्ञान की सीवन उधेड़ती है | तो फिर गुलजार साहब का शेर ..
कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
“बंद दरवाजों का शहर” कहानी जिसके नाम से संग्रह का नाम रखा गया है, मेट्रो सिटीज के अकेलेपन को दर्शाती है | हम सब जो छोटे शहरों के बड़े आँगन वाले घरों से निकलकर पहली बार किसी मेट्रो शहर में रहने जाते है तो एक अजनबीयत से गुजरते हैं | यहाँ बूढ़े बुजुर्ग घर की बाहर खाट डालकर मूंगफली कुतरते नहीं मिलते ना ही दरवाजे के बाहर खेलते बच्चे, स्वेटर बुनती महिलाये | दिखता है तो बस कॉक्रीट का जंगल, ऊंची अट्टालिकाओं में ढेर सारे फ्लैट .. और उनके बाद दरवाजे |जो समेटे रहते है एक पूरी दुनिया को अपने अंदर | स्कूल जाने वाले बच्चे,, नौकरी करके वाले पेरेंट्स ….जब आते जाते हैं बस दरवाजा उतनी ही देर को खुलता है, फिर बंद हो जाता है | जैसे विशाल आकाश के गृह | एक आकाश में पर एक दूसरे से दूर मीलों दूर | जो दरवाजा बंद कर बाहर निकल गए वो तो फिर भी ठीक हैं पर जो अंदर रह गए इस अजनबी माहौल में उनका क्या ? ये कहानी महानगरीय जीवन के खोंखलेपन और अकेलेपन का दस्तावेज है | पर ये कहानी महानगरीय जीवन को किसी जीवन को किसी संकीर्ण दृष्टि से नहीं देखती जैसा की ज्यादातर कहानियों में होता है और महानगरीय जीवन के साथ अपने गाँव कस्बे कए मिलान कर लेखक एक नॉसटॉलजिया में चला जाता है | ….ये कहानी दिखाती है लोग हर जगह एक से होते हैं, बस जरूरत है दरवाजे खोलने की फिर लोग, व्यक्ति,, समाज वही तो है | वही तो हैं साझे दुख साझे सुख | अकेलेपन पर विलाप करने के स्थान पर जरूरत है इस साझेपन को समझने की |
शिक्षा सबसे अनमोल धन है जो जीवन को परिष्कृत कर देता है | जीवन के परिष्कार का एक ऐसा ही सपना देखता है रत्नेश शर्मा जो अपने छोटे से कस्बे में जहाँ कोई स्कूल नहीं है .. वहाँ अपनी सीमित संसाधनों से शिक्षा देने का | ये सपना उसका जुनून बन जाता है | और इस जुनून से बनता है कस्बे का पहला स्कूल | जहाँ किताबी शिक्षा के साथ नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा दी जाती है | भजन और देश भक्ति के गीत सिखाए जाते हैं | शिक्षा के साथ विकास कस्बे में आता है और आता है एक व्यापारी इंग्लिश मीडियम स्कूल | जो बच्चों में संस्कार नहीं बोता उन्हें अंग्रेजी गानों पर मटकना सिखाता है | एक आम आदमी को परहित के ही सही पर अपने सपने को जीने में क्या -क्या त्याग करने पड़ते हैं के साथ -साथ हिन्दी के प्रति अभी भी जो दास भाव है कहानी उसको लोगों के बदले नजरिये से परिभाषित करती है | एक जुनूनी स्वप्न अंत की कगार पर है .. क्या होगा इसका पता तो कहानी पढ़ कर ही लगेगा पर ये कहानी “बदलता वक्त “स्वप्न जुनून और हिन्दी सब पर सोचने पर विवश करेगी |
“खामोश इल्तजा” एक ऐसी लड़की की कहानी है जो दो बार असफल रिश्तों का दंश झेल चुकी है और अब उसने अपने को चारों तरफ से कैद कर रखा है ताकि प्रेम की हल्की धुन भी ना मन के भीतर घुस सके | मुझे बलिया के विशाल सिंह दाबिश का एक शेर याद आ रहा है |
कोई सैयाद का ये लुत्फ़ों करम तो देखे
मुझको पर नोच के आजाद किया है भाई
प्रेम की एक खामोश इल्तजा किस तरह इस ‘ना’ को ‘हाँ’ में बदलती है या ‘ना ..ना’ में ही बनी रहती है इसका रोमांच हर बढ़ते पन्ने के साथ बढ़ता जाता है |
अजनबी राह” एक सामान्य सी प्रेम कहानी है | “कशमकश”एक बेरोजगार लड़के की दास्तान है तो “होंठों से आँखों तक का सफर” एक ऐसी स्त्री की कहानी जिसके जीवन के दर्द उसकी हंसी होंठों से आँखों तक नहीं आने देते | कहते हैं वो हँसी या मुस्कान बस बनावटी बनी रह जाती है जो आँखों तक नहीं आती | क्या वो ये सफर तय कर पाएंगी ? “पहचान तो थी .. पहचाना नहीं” कहानी एक प्रेरणा दायक कहानी है, खासकर उन लोगों के लिए जो अपनी जिंदगी में उदासी का पैरहन पहन कर बैठ जाते हैं | और तमाम शिकायतें जिंदगी पर लाद देते हैं | पर कुछ उसी में कुछ सकारात्मक ढूंढ कर जीने लायक बना लेते हैं | साथ ही उस पल की कीमत भी समझाती है जो हमें अभी मिला है | कई बार हम उस पर उस समय ध्यान नहीं देते पर जब वो मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जाता है तो उसी पल को याद कर दुखी होते रहते हैं |
“पराग….तुम भी” आज की स्त्री के सरोकारों से जुड़ी कहानी है | ये कहानी ना सिर्फ़ उस पुरुष से प्रश्न पूछती है जो प्रेमी या पति होने के नाम पर अपना कैरियर अपने सपने अपना जीवन स्त्री से ऊपर रखता है बल्कि समाधान भी खोजती है |
अंत में यही कहूँगी कि कुछ कहानियाँ “विमर्श के लिए लिखी जाती है तो कुछ पूरी सजगता और ईमानदारी के साथ जीवन को इस तरह दिखा देती है की अपने आप में विमर्श बन जाए | इस संग्रह की कई कहानियाँ ऐसी है जो आज की स्त्री की मांगों के साथ खड़ी है, ना वो अति में जा रही हैं ना कम रह रही हैं .. इनमें आपको अपने गाँव की राधिया दिखेगी, पड़ोस की मंजु भाभी, और कभी खुद को या अपनी बेटी को.. जो बस अपनी जिंदगी के जीना चाहती है, फैसले लेना चाहती है और पा लेना चाहती है …. बस अपनी मुट्ठीभर आकाश | स्त्री विमर्श जब विमर्श की तरह आता है तो भटक जाता है या भटकने का खतरा रहता है | पर जब कहानी में अपनी पूरी पृष्ठभूमि के साथ आता है तो हर आम स्त्री की इच्छा को शब्द देता है |
अगर आप साफ-सुथरी अपने आस पास के परिवेश की कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं | अपने सुख -दुख के साथ पात्रो के सुख -दुख में तिरोहित होना चाहते हैं, रोज देखे जाने वाले चेहरों की जीवन में गहराई से झांकना चाहते हैं तो ये संग्रह आपके लिए मुफीद है |
बंद दरवाजों कए शहर -कहानी संग्रह
लेखिका -रश्मि रविजा
प्रकाशक -अनुज्ञा बुक्स
पृष्ठ – 180
मूल्य -225 रुपये
समीक्षा -वंदना बाजपेयी
वंदना बाजपेयी
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