काहे को ब्याही …. ओ बाबुल मेरे

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काहे को ब्याही ... ओ बाबुल मेरे




विवाह जन्म -जन्मान्तर का रिश्ता होता है ………पर गरीबी दहेज़ की कुप्रथा और कहीं न कहीं कन्या को बोझ मानने की प्रवत्ति विवश कर देती है बाबुल को अपनी लाडली का हाथ उन हांथों में………..जहाँ विवाह के बाद नहीं लिखी जाती है प्रेम की स्वर्ण -गाथा अपतु समझोता दर समझौता जीवन जिया जाने लगता है मात्र जीने के लिए ……………..बेटियाँ जानती है पिता की विवशता ,चढ़ती हैं डोलियाँ आँखों के आंसूओं में छिपाए यक्ष प्रश्न ……….मात्र हाथ पीले करने के किये “काहे को ब्याही विदेश “और पिता अपने  आँखों में आंसूओं में छिपा लेते है ………..ज़माने भर के दर्द 





 काहे को ब्याही—–ओ बाबुल मेरे  





                                                   
बाबुल  
मैं ही तो थी तुम्हारे 
आँगन की चिरइया 
फुदकती मुंडेर पर चुगती दाना
ची -ची की सरगम छेड़ कर
 गुंजायमान करती 
उस  घर का हर कोना -कोना
जहाँ मेरे जन्म के साथ ही
 तय कर दिया था
 समाज ने 
किसको मिलेगा मुझे डोली 
और अर्थी में बिठाने का अधिकार 
आज विदाई  की बेला में 
लाल साडी  लाल चुनर 
एडी महावर 
और हांथों की मेहँदी में 
अपना बचपन समेटे 
जा रही हूँ 
आखों के आँसूंओ  में 
छिपाए एक यक्ष प्रश्न
मुझे बोझ समझ  
येन केन प्रकारेण
केवल हाथ पीले करने के लिए 
काहे को ब्याही ………ओ बाबुल मेरे  ?
                                                 
१ 
बाबुल
 मैं ही तो थी 
तुम्हारी मुनमुन 
उम्र ही क्या थी मेरी 
खड़ी किशोरावस्था की देहरी पर 
देखे थे मात्र पंद्रह वसंत 
अपरिपक्व तन ,अपरिपक्व मन 
नहीं जानती  
विवाह का अर्थ 
हर ले गए  मेरा बाल मन 
मात्र नए गहने व् कपडे
जब आप ने 
सौप दिया  मेरा हाथ 
चालीस वर्षीय विधुर के हाथ 
जिसे नहीं चाहिए थी जीवन संगिनी 
चाहिए थी कच्ची कली 
मात्र रौंदने को
पवित्र अग्नि और मंत्रोच्चार के मध्य 
बन बैठी मैं 
दो किशोर संतानों की माँ 
और पड गए 
बचपन से सीधे अधेडावस्था में कदम 
आज विदा हो रही हूँ  
आँखों में आँसूओ  में  
छिपाए यक्ष प्रश्न  ?
                                                          २……….
बाबुल 
मैं ही तो थी 
तुम्हारी नफीसा 
अपनी छ :बहनों में सबसे  बड़ी 
पाक जिस्म में समेटे  पाक रूह 
जली थी तिल -तिल 
गरीबी की आँच  में सबके साथ 
 फांके कर काटे थे 
मुफलिसी के दिन 
नहीं की थी उफ़ !
टाट -पट्टी पर सोकर 
पैबंद लगे फ्रॉक पहनकर 
जब सौप दिया  तुमने मेरा हाथ 
दूर देश में 
अरब के शेख के हाथ 
जिसकी कई बीबियों के मध्य 
बन कर रह जाऊँगी  बस एक संख्या 
जो तालाशेगा मुझमें 
खजुराहो का बेजान सौन्दर्य 
और 
सिसकेगी मेरी पाक रूह 
तुम  भले ही छिपा लो 
नोटों की गड्डी में 
गरीबी ,लाचारी से उपजी बेरहमी 
पर मैं 
आज विदा हो रही हूँ  
आँखों में आँसूओ  में  
छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?
                                                  
३ 
बाबुल 
मैं ही तो थी 
तुम्हारी लाडो 
जिसके मन में बोये थे तुमने 
अनगिनत सपने 
समझाया था असंभव नहीं है 
इन्द्रधनुष को छू  लेना 
फिर क्यों कुंडलियों के फेर में 
राहू ,केतू और मंगल बिठाते -बिठाते 
जब पड़ गए तुम्हारे पैर में छाले 
तो थक हार कर 
सौप दिया मेरा हाथ 
वहाँ 
जहाँ गुनाह है स्त्री -शिक्षा 
परम्पराओं और वर्जनाओं की कब्रों में 
दफ़न है औरतों के स्वप्न 
जहाँ घूँघट  में ही देखना है आसमान 
घर का मुख्य द्वार है 
लक्ष्मण -रेखा 
जिसको पार करके 
कभी वापस नहीं आ पाती है सीता 
 विवाह के अग्नि -कुंड में 
जला अपने स्वप्नों की चिता 
आज विदा हो रही हूँ  
आँखों में आँसूओ  में  
छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?
                                                 
४ 
बाबुल 
मैं ही तो थी तुम्हारी चंदनियां 
जिसके स्यामल मुख चन्द्र पर 
बचपन की महामारी ने 
सजा दिए थे कई सितारे 
जिन्हें धोने के लिए 
मैं इकठ्ठी करती रही 
डिग्रियों पर डिग्रियाँ
और गृहकार्य -दक्षता के प्रमाण पत्र 
सुनती रही समाज के ताने 
सत्ताईस बरस की 
“लड़की घर बैठी है “
झेलती रही

एक के बाद एक

अपने रंग -रूप की अवहेलना के दंश 
मुझ वस्तु को देखने आने वाले 
भावी वर -परिवारों द्वारा  
 तभी 
किंचित अपनी बैठी नाक को खड़ा करने के लिए 
तुमने सौप ही  दिया मेरा हाथ 
एक अंगूठा छाप के हाथ 
जिसकी रगीन शामें कटती हैं 
पान की दुकानों पर पीक थूकते 
चौराहों पर गुंडागर्दी करते 
जिसे चाहिए 
ऐसी पत्नी 
जो ना करे कोई प्रश्न 
अपनी काली छाया समेटे 
बस निभाये कर्तव्य 
अपने रूप -रंग के तिरिस्कार के साथ 
आज विदा हो रही हूँ  
आँखों में आँसूओ  में  
छिपाए  यक्ष प्रश्न ? 
   
                                                    
५ 
बाबुल 
मैं ही तो थी 
तुम्हारी रूपा 
यथा नाम तथा गुण 
मासूम सा था मेरा मन 
अपने पंखों को देने के लिए विस्तार 
अर्जित कर रही थी उच्च शिक्षा 
जब एक वहशी ने 
धर -दबोचा  
दुःख की गठरी बन 
 आई तुम्हारे पास 
तो तुम्हें मेरी दुर्दशा से ज्यादा 
सताई  नाक की चिंता 
किये भागीरथी प्रयत्न 
जल्दी से जल्दी सडांध आने से पहले 
हटाने को  मेरी लाश 
आखिरकार मिल ही गया तुम्हें 
झूठा -भात खाने को तैयार 
एक मानसिक विकलांग
जिसे चाहिए थी 
पत्नी नहीं एक सेविका
और मैं 
भिक्षा में मिले सिन्दूर 
दूसरे के अपराध की सजा में मिली डोली में   
आज विदा हो रही हूँ  
आँखों में आँसूओ  में  
छिपाए यक्ष प्रश्न ? 
                                                        
६ 
बेटियाँ डोलियाँ 
चढ़ती रही हैं 
बेटियाँ डोलियाँ 
चढती रहेंगी 
छिपाए हुए आखों के आंसूओं में 
यक्ष प्रश्न ?
बाबुल निरुत्तर से खड़े रहे हैं 
खड़े  रहेंगे 
सबसे पीछे 
पिए हुए आँसूं  
जो दिखते नहीं जलाते हैं रक्त को 
पर झुकी  कमर 
देगी गवाही  
हां !बिटियाँ 
 यही है समाज का सच 
बोझ हैं बेटियाँ 
जिनको उतार कर गंगा नहाना है फर्ज 
हां !बिटियाँ 
 युगों बाद 
आज भी वो हैं जनक 
 और बेटियाँ “जनक दुलारी “
जिसका अस्तित्व  है 
पिता  पर कर्ज 
हां ! बिटियाँ 
 भले ही 
पीली हल्दी से स्याह हो  जाये 
बेटी का जीवन 
पर वह वस्तु  है मात्र दान की 
जो रखी नहीं जा सकती 
हाँ ! बिटियाँ 
 भले ही पर ग्रह  में तिल -तिल मरे 
पर नहीं है 
बेटी की अर्थी पर 
पिता का अधिकार 
सच है  !
 बेटियाँ जानती हैं………….  
 कठोर समाज के नियम
जानती हैं पिता का दर्द
जानती है कन्या के दान का 
तथाकथित पुन्य   
शायद इसीलिए ……………
बेटियाँ प्रश्न नहीं पूछती 
छिपा लेती हैं आंसूंओ  में  
सारे  के सारे यक्ष प्रश्न 
चुप -चाप  चढ़ जाती हैं डोलियाँ 
और पिता को
 उऋण करने हेतू 
गंगा नहाने हेतू 
पर्वत सर पर उठा लेती हैं बेटियाँ

पर्वत सर पर उठा लेती हैं बेटियाँ …………..
वंदना बाजपेयी 
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4 COMMENTS

  1. दीदी सभी रचनायें पढ़ी !! बार बार पढ़ी !! बहुत बहुत सुन्दर !! आपकी रचनात्मकता को नमन — आकाश सक्सेना जयपुर

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