बोझ की तरह

1


एक
स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित
गुण डाले जाने लगते हैं | जैसे-जैसे वो बड़ी होती है
, उसके अन्दर वो गुण विकसित होने लगते है
| प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएं वो किसी के लिए संजोने लगती है और
मन ही मन किसी अनजाने अनदेखे राज कुमार के सपने देखने लगती है
फिर उसी अनजाने से मन
ही मन प्रेम करने लगती है | किशोरा अवस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है,
तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है | 


गाजे बाजे के साथ वो सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों
से उससे प्रेम कर रही थी, उसे ले कर अनेकों सपने बुन रही थी | उसे लगता है कि वो
जहाँ जा रही हैं किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके
स्वागत को खड़े हैं, इसी झूठ को सच मान कर वो एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई
अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है | कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने
आ ही जाता है | सच कब तक छुपा रहता और सच जान कर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती
है, उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं फिर भी वो राजकुमार से प्रेम करना नही
छोड़ती | आँसुओं को आँचल में समेटती वो अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती हुई
आगे बढ़ती रहती है; पर आखिर कब तक ? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट
नही सही जाती | आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर
उंगुली उठाना सहन नही होता, वो भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से | वर्षों से जो
स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ
और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वो मन चाहा प्रेम
नही मिलता है ना ही सम्मान तब वो बिखर जाती है, हद तो तब होती है जब उसके चरित्र
पर भी वही उंगुली उठती है जिससे वो खुद चोटिल हो कर भी पट्टी बांधती आई है | तब
उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत में परिवर्तित होने लगता
है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वो, एक बोझ की तरह |

                        

दूसरी
तरफ़ क्या वो पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है, जिसके लिए एक स्त्री ने सब कुछ
छोड़ कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया ? वह उसे जीवन भर भोगता रहा, प्रताड़ित करता
रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई दे कर उसे हर बार वश में करता रहा |
क्या एक चिटकी सिन्दूर उसकी मांग में भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे
जीवन उसकी आत्मा
, सोच,उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका ?
क्या किसी का प्रेम जबरजस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है ? क्या यही सब एक
स्त्री एक पुरुष  के साथ करे तो वो पुरुष
ये रिश्ता निभा पायेगा या बोझ की तरह भी ढो पायेगा इस रिश्ते को ? क्या यही प्रेम
है एक पुरुष का स्त्री से ? 




नही, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और
समर्पण भी उपजता है | सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए
समर्पित रहे ना कि सिर्फ छीनना जाने कुछ देना भी जाने | वही सच्चा प्रेम है जो
निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे के प्रति किया जाए नही तो प्रेम का धागा एक बार टूट
जाए तो लाख कोशिशो के बाद भी दुबारा नही जुड़ता उसमे गाँठ पड़ जाता है और वो गाँठ एक
दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नही जाते ढोए जाते हैं एक बोझ की
तरह  | शायद इसी लिए रहीम दास जी ने कहा है

               रहिमन धागा प्रेम का, मत
तोरेउ चटकाय |
               टूटे से फिर ना जुरै, जुरै
गाँठ परि जाय ||

मीना पाठक
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