” मेरी बेटी….मेरी वैलेंटाइन “

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            कहते हैं कि बेटियाँ माँ की परछाई होती है। एक-दूसरे की प्राण होती हैं। एक जन्म देकर माँ बनती है तो दूसरी जन्म पाकर बेटी। दोनों एक-दूसरे को पाकर पूर्ण होती हैं, इसी से एक-दूसरे की पूरक बन जाती है। बिना कहे समझ जाती हैं दिल की बात, आवाज़ से ही जान जाती हैं कि दुःख की बदरी सी मन-प्राणों पर छाई है या कोई ख़ुशी छलकी जा रही है। इसका अनुभव अपनी माँ की बेटी बन कर खूब बटोरा, और अब अपनी बेटी की माँ बन कर फिर वही सब जीने का अवसर मिला है। ओस की निर्मल बूँद सी होती हैं बेटियाँ… जो अपने निश्छल प्यार की शीतलता से जीवन में खुशियों का अंबार लगाए रखती हैं, घर को अपनी खिलखिलाहट और चहचहाट से गुँजायमान रखती हैं कि उदासी पसरने ही नहीं पाती। कभी गुनगुनाती हैं, कभी कुछ पकाती हैं, कभी सब उलट-पुलट कर घर को सजाने-सँवारने लगती हैं, तो कभी पूरे घर को आसमान पर उठाए फिरती हैं।सखी-सहेली बनती है तो माँ से बतियाने की कोई सीमा ही नहीं रहती।अतिथि आ जाए तो आतिथ्य की जिम्मेदारी से मुक्त कर स्वयं लग जाती है।
         और यही बेटी जब दुल्हन बन, सात फेरे लेकर  अपने ससुराल चली जाती है तो जैसे घर की सारी रौनक, चहल-पहल अपने साथ ही ले जाती है। पर ये रिश्ता माँ-बेटी का ऐसा है कि इसमें दूरियाँ कोई मायने नहीं रखती। बिना कहे, बिना आए एक-दूसरे को अनुभव करती रहती है, एक-दूसरे को अपने हृदय में जीते हुए एक-दूसरे का साहस बनी रहती हैं।
     बस इसीलिए मैं अपनी बेटी को अपने एकदम निकट पाती हूँ और सोच की गहराइयों में डूब कर अपनी बेटी को ही ” ” “अपना वैलेंटाइन” पाती हूँ।
डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘
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