उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से ओमकार मणि त्रिपाठी की विशेष बातचीत

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उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से विशेष साक्षात्कार
पदों का संक्षिप्त ब्यौरा
महासचिव- स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया (1963.64)
अध्यक्ष-अखिलभारतीय सिख छात्र संघ (1968 .1972) व पंजाबी भलाई मंच
प्रचार सचिव-शिरोमणि अकाली दल (1975.77. 1980 .82)
महासचिव-शिरोमणि अकाली दल (1985.87)
नेता शिरोमणि अकाली दल ग्रुप-आठवीं लोकसभा
केन्द्रीय मंत्री-समाज कल्याण विभाग (1996-98)
राजनीतिक सफर
बलवंत सिंह रामूवालिया का जन्म 15 मार्च, 1942 को पंजाब के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता श्री करनैल सिंह पारस एक सुविख्यात कवि थे। पिता से विरासत में मिला भावुक हृदय बचपन से ही लोगों के दुःख-दर्द को देखकर व्यथित हो जाता। गरीब, बेसहारा और बेबस लोगों के लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए, ये बात उन्हें हर पल बेचैन करती और इसके लिए उन्होंने राजनीति का वो मार्ग चुना, जो त्याग और सेवा के रास्ते पर चलता है।

श्री रामूवालिया ने अपने राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत अपने छात्र जीवन में ही कर दी थी। 1963 में उन्हें स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया का महासचिव चुना गया। तत्पश्चात वे अखिल भारतीय सिख छात्र संघ में सम्मिलित हुए और 1968 से 1972 तक उसके अध्यक्ष रहे।
बाद में उन्होंने अकाली दल की सदस्यता ग्रहण की और दो बार फरीदकोट व संगरूर से सांसद चुने गये। अकाली दल छोड़ने के पश्चात 1996 में वह राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए व केन्द्रीय मंत्री बने। उन्होंने ”लोक भलाई पार्टी“ नामक अपनी एक पार्टी भी बनायी थी, जिसका 2011 में अकाली दल में विलय हो गया। वर्तमान में वे उत्तरप्रदेश सरकार में जेल मंत्री हैं।
विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक
स्वभाव से वे मितभाषी और मृदुभाषी हैं, लेकिन जब बात मानवाधिकारों की आती है, तो वे काफी मुखर हो जाते हैं। समाज के शोषित-वंचित तबके की वेदना और आम आदमी की व्यथा उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। राजनीति के शुष्क धरातल पर एक लम्बे सफर के बावजूद उनके विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक साफ दिखाई देती है। सत्ता को वे साध्य नहीं, बल्कि एक ऐसा साधन मानते हैं, जिसके माध्यम से समाज के उत्थान को नए आयाम दिए जा सकते हैं। जी हां! हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया की, जिन्हें पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है और पदभार संभालने के बाद से वे लगातार जेल सुधार और बंदीगृहों में मानवाधिकारों का उल्लंघन रोकने के लिए प्रयासरत हैं।
हाल ही में ‘अटूट बंधन’ के प्रधान संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी ने श्री रामूवालिया से उनके आवास पर विशेष मुलाकात करके विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर उनका मन टटोलने की कोशिश की। साक्षात्कार के दौरान श्री रामूवालिया ने पूछे गए हर सवाल के जवाब में बड़े ही बेबाक ढंग से अपनी राय स्पष्ट की। सहज एवं सरल जीवनशैली उनके व्यक्तित्व के हर पहलू में प्रतिबिंबित होती है। 74 वर्षीय श्री रामूवालिया इससे पहले पंजाब व केन्द्र सरकार में भी कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर चुके हैं। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश।
उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?
मेरा स्पष्ट मानना है कि सत्ता किसी के भी हाथ में हो, सरकार किसी की भी हो, लेकिन न्याय का शासन होना चाहिए। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को आम लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। सत्ता की चैखट पर कमजोर से कमजोर व्यक्ति को भी इंसाफ मिलना चाहिए। कारागार मंत्री के रूप में मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता यही है कि जेलों में किसी भी कीमत पर कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन न होने दिया जाए। जो लोग विभिन्न कारागारों में बंद हैं, वे भी इसी देश के ही नागरिक हैं। जेल में बंद किसी भी कैदी के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं होना चाहिए, जिसे अमानवीय या अमानुषिक कहा जा सके। पदभार संभालने के बाद से मैं लगातार जेल व्यवस्था में सुधार के लिए प्रयासरत हूँ।
आपको पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है। उत्तर प्रदेश आपको कैसा लगा?
उत्तर प्रदेश की जो बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी, वह है ज्यादातर लोगों में सामाजिक व सांप्रदायिक सद्भाव की भावना। यहां सिख समुदाय के लोगों और हिन्दुओं में जो भाईचारा देखने को मिलता है, वह काफी काबिले तारीफ है।
आपकी नजर में इस समय समाज की प्रमुख समस्याएं क्या हैं और उनके समाधान किस तरह तलाशे जा सकते हैं।
हमारा समाज वैसे तो कई समस्याओं का सामना कर रहा है, लेकिन दहेज व्यवस्था अभी भी हमारे समाज के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है। दूध में आप जितनी शक्कर डालोगे, दूध उतना ही मीठा हो जाएगा, लेकिन शादी में आप जितना दहेज डालोगे, शादी उतनी ही कड़वी हो जाएगी। शादी-ब्याह खुशी के माध्यम बनने चाहिए, लेकिन दहेज की वजह से कई शादियां झगड़े की पतीली का रूप धारण कर ले रही हैं। बात सिर्फ दहेज तक ही सीमित नहीं है, शादियों में बेतहाशा खर्च की बढ़ती प्रवृत्ति भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। आज लगभग हर समुदाय की 95 प्रतिशत शादियों में यही देखने को मिलता है कि क्षमता से अधिक खर्च किया जा रहा है। कहीं-कहीं लड़के वालों की तरफ से लड़की वालों पर पंचसितारा होटलों में शादी समारोह आयोजित करने के लिए दबाव तक डाला जाता है। इस तरह की खर्चीली शादियां किसी के भी हित में नहीं हैं। यह धन की बर्बादी तो है ही, साथ ही संबंधों की बर्बादी भी है। फिजूलखर्ची और आडंबर की बुनियाद पर अच्छे रिश्तों की इमारत नहीं खड़ी की जा सकती।
आजकल सहिष्णुता-असहिष्णुता को लेकर देश में बहुत चर्चा हो रही है। इस संबंध में आपकी क्या राय है?
यह मुल्क सहिष्णु मुल्क है। भारतीय संस्कृति विविधता पर आधारित है। समन्वय तथा सामंजस्य भारतीय समाज की विशेषता है, लेकिन कुछ लोग सिर्फ अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो देश और समाज के हित में नहीं है। इससे विघटनकारी और विभाजनकारी तत्वों को बढ़ावा मिलता है। अनेकता में एकता हमारी खासियत है, इसलिए हमें उन मुद्दों को तवज्जो नहीं देनी चाहिए, जिनसे पारस्परिक विश्वास और सद्भाव बिगड़ता हो।
देशभक्ति भी आजकल राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है? इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे?
यह देशभक्ति का मुद्दा सिर्फ वोट बटोरने के लिए उछाला जा रहा है।
देशभक्ति पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से देश में कुछ लोगों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि आज एक राजनीतिक विचारधारा के समर्थन और विरोध को ही देशभक्ति और देशद्रोह का मापदंड बनाने की कोशिश की जा रही है। अगर आप उनके और उनकी विचारधारा के साथ हैं, तो देशभक्त हैं, अन्यथा देशद्रोही हैं। इसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है? किसी को यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वह दूसरों को देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटे।
खास बात यह है कि जोर-शोर से देशभक्ति का नारा उछालने वालों के ही दोहरे मापदंड हैं। हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। वहां कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहलवानों को एक करोड़ का इनाम और तरह-तरह की अन्य सुविधायें दी जा सकती हैं, लेकिन पठानकोट हमले में मारे गए शहीदों के परिजनों को सिर्फ 20 लाख रूपये मिलते हैं।सीमा पर दुश्मनों से लड़ते हुए मारे गये शहीदों के परिजनों को क्या और ज्यादा मान-सम्मान नहीं दिया जाना चाहिए था ? क्या यह देशभक्ति का दोहरा मापदंड नहीं है।मेरी नजर में यह अमानत में खयानत है।
हरियाणा में कुछ ऐसी जगहें हैं, जहां एक घोड़े की कीमत 3-3.5 करोड़ रूपये होती है। पंजाब में कुछ ऐसे स्थान हैं, जहां एक भैंस की कीमत 8 करोड़ तक जाती है, लेकिन देश की सरहदों की रक्षा करते हुए मारे गए शहीदों के परिजनों को सिर्फ 20 लाख रूपये। इससे यह साबित होता है कि उनकी देशभक्ति सिर्फ नारों में है, नतीजों में नहीं। देशभक्ति का मतलब सिर्फ नारे लगाना नहीं है, बल्कि देश की समस्याओं से लड़ना, बेरोजगारी से लड़ना, बीमारियों से लड़ना, गरीबी से लड़ना, सामाजिक कुरीतियों से लड़ना हर देशभक्त का कर्तव्य है।
राजनीति पर पूंजीवाद का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में समाजवादी विचारधारा का क्या भविष्य है?
देश की राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही है। यह राजनीति का संक्रमणकाल है। मौजूदा राजनीति की कुछ विसंगतियों का फायदा उठाकर कहीं-कहीं धन्नासेठों और शक्तिशाली लोगों ने सत्ता पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है, लेकिन यह व्यवस्था लंबे समय तक नहीं टिक सकती। समाजवाद की अवधारणा ही इस मुल्क को उन्नति के मार्ग पर ले जा सकती है।समाजवाद देश के पिछड़े, कमजोर व शोषित समुदायों के हक के लिए संघर्ष करता है। समाजवादी विचारधारा की प्रासंगिकता पहले भी थी, आज भी है और भविष्य में भी बनी रहेगी। मुझे पूरा विश्वास है कि पूरे देश में समाजवादी आंदोलन का विस्तार होगा और यही विचारधारा भविष्य में देश की दशा और दिशा तय करेगी।
आपकी दृष्टि में सफलता का मूलमंत्र क्या है?

सफलता के लिए सही प्राथमिकताओं का चयन बेहद जरूरी है। हमारे नवजवानों को यह ध्यान देना चाहिए कि कौन सी चीजें प्राथमिकता वाली हैं और कौन सी गैर प्राथमिकता वाली। बुद्धि, पैतृक संपत्ति, सामाजिक स्तर, धन आदि के रूप में जो भी साधन मिले हैं, उन्हें गैर प्राथमिकता वाली चीजों पर बर्बाद न करके प्राथमिकता वाली चीजों पर लगाना चाहिए। साहस, संकल्प और परिश्रम सफलता का मूलमंत्र है।

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