रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

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                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं | 



                         

          
 प्रेम और श्रृंगार 




                                    स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है 




शमीम रहती थी 
कभी सामने नीम के———
एक घर था,
जिसमें मेंरी शमीम रहती थी।
वे महज़———
एक खूबसुरत लड़की नही,
मेंरी चाहत थी।
बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया,
फिर काॅलोनी बन गई,
हाय!री कंक्रिट——–
तेरी खातिर नीम कटा,
वे घर ढ़हा——–
जिसमें मेरी शमीम रहती थी।
अब तो बीमार सा बस,
डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर,
यहाँ आता हूँ!
शुकून मिल जाता है इतने से भी,
ऐ,रंग———–
कि यहाँ कभी,
मेरे दिल की हकिम रहती थी!
कभी सामने नीम के——–
एक घर था,
जिसमें मेरी शमीम रहती थी।




  पतझड़ की तरह रोई 
बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——–
रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई।
कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द——
मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई।
सब ठहरते गये—————-
अपनी अपनी मील के पत्थर तलक,
मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई।
लोग सावन में भीग रहे थे,
ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी
जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।    


    सखी हे रे बदरवा 
तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा,
करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा।
सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत,
मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा,
तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा।
चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी,
बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा,
तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा।
अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू,
जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा,
तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा।
मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा,
मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा,
तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा।




पपीहा मुआ 
मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ,
वे भी तो तड़पे है मेरी तरह,
वे पी पी करे और मै पी पी पिया।
मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।
वे रोये है आँखो से देखे है बादल,
मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल,
वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी,
देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया,
मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ।
हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी?
वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी,
की भुल हमने शायद कही पे,
या कि भुल हमने जो दिल दे दिया,
मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।
चल रे पपीहे हुई शाम अब तो,
ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ,
मांगो ना अब और रब से दुआ,
मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।


                              
उन्होंने मुझको चाँद कहा था 
पहले साल का व्रत था मेरा—–
उन्होनें मुझको चाँद कहा था।
तब से लेकर अब तक मै—–
वे करवा चौथ नही भुली।
मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी,
फिर नजर उठाकर देखा तो,
वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे,
मैने उनकी पूजा की——-
फिर तोड़ा करवे से व्रत!
उन्होनें अपने दिल से लगा के—–
मुझको अपनी जान कहा था।
पहले साल का व्रत था मेरा—–
उन्होनें मुझको चाँद कहा था।
बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै,
यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै,
फिर शर्मा उठु कर याद वे पल,
जब पहली बार पिया ने मुझको—-
छत पर अपना चाँद कहा था।
पहले साल का व्रत था मेरा—-
उन्होनें मुझको चाँद कहा था।




चूड़ियाँ ईद कहती है
चले आओ———-

कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है।
भर लो बाँहो मे मुझे,
क्योंकि बहुत दिन हो गया,
किसी से कह नही सकती,
कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—-
अब ईद कहती है।

चले आओ———
कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है।


सिहर उठती हूं तक के आईना,
इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको,
तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं ,
कि चले आओ——–
अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है।


चले आओ———
कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है।







तीन तलाक पर
एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे









बेजा तलाक न दो 

ख्वा़हिशो को खाक न दो!
एै मेरे शौहर———–
सरिया के नाम पे,
मुझे बेजा तलाक न दो।
बख्श दो———
कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे,
मुझ बेगुनाह को——-
इतना भी शाॅक न दो,
बेजा तलाक न दो।
न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे,
मुझ बांदी को सजा तुम——–
इतनी खौफ़नाक न दो,
बेजा तलाक न दो।
न छिनो छत,न लिबास
खुदा के वास्ते रहने दो,
मेरी बेगुनाही झुलस जाये——-
मुझे वे तेजाब न दो,
बेजा तलाक न दो।
सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा,
लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत,
मै उफ न करुंगी!
बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा,
इस्लामी हलाक न दो——-
बेजा तलाक न दो।




तीन मर्तबा तलाक 


एक औरत———
किसी सरिया के नाम पे
कैसे हो सकती है मजाक।
कैसे———–
लिख सकता है कोई शौहर,
अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके,
मोबाइल के वाट्सप पे———
तीन मर्तबा तिलाक।
नही अब औरत को भी———-
उसके हिस्से की इस्लामिक ताकत बख्श़ो,
उसे भी हक दो!
कि वे ले सके एैसे मर्द से एै,रंग——–
तीन मर्तबा तिलाक।




हमने औरत होने का हक़ अदा किया 

हमने औरत होने का हर हक अदा किया,
फिर भी तलाक देके तुमने गमज़दा किया।
हमने औरत होने का हर हक अदा किया।
रोई,सिसकी तेरी बंदिशो मे चराग सी जली,
हाय!कभी उफ कहाँ किया।
हमने औरत होने का हर हक अदा किया।
तेरी मर्दे परस्ती को कहीं चोट ना आये,
मैने तुम्हे इस्लाम के इतर अपना खुदा किया।
हमने औरत होने का हर हक अदा किया।
ये तलाक नही कत्ल है मेरा,
ऐ,रंग—-चंद लोगो के इस्लाम ने,
बेगुनाह औरत को उसका हक
और उसकी वफा का सिला नही दिया।
हमने औरत होने का हर हक अदा किया।
 

जब सिसकती  औरत बोल पड़ी रंगनाथ द्विवेदी की कलम से 

                                        एक औरत हज़ार दर्द , कहीं घर में ही गृहस्थी की तनी हुई डोरी पर सुबह से शाम करतब करती हुई औरत को जरा सी चूक होने पर तवायफ का चाबुक मारा जाता है | कहीं वो अमीर शौहर की बीबी बन कर महज शो पीस बन गयी है | कहीं उसे जबरन तवायफ बना दिया गया है | औरत के हर दर्द को रंगनाथ जी ने बखूबी से उकेरा है 



वेश्या और तवायफ कहा जा रहा है 
लोकतन्त्र में——————-
भाषा का स्तर कितना ढहा जा रहा है,
कोठे तो कोठे थे ही,
अब घर की आबरु को भी——
वेश्या और तवायफ़ कहा जा रहा है।
सदन में दलित और सवर्ण की माथा-पच्ची,
और नजदीकी चुनाव में वोटो की सियासत
के जेरेसाया——————–
इन दलाल नेताओ की वजह से,
माँ और बहन की गाली भी——–
बड़ी निर्लज्जता से सहा जा रहा है।
अब घर की आबरु को भी———-
वेश्या और तवायफ़ कहा जा रहा है।
गुजरात मे वे पिड़ितो के सभी घाव,
उभर आये है मेरी कविता की पीठ पे,
ये सीजन के सियार क्या?जाने,
कि शर्म से—————–
किस तरह गड़ी जा रही है उसकी बेटी,
जो सियासत भी नही जानती,
निर्वस्त्र और नंगी राजनीति हमारे यहां,
कितनी शरीफ हो गई है,
जो खुद वेश्या और तवायफ़ से गई बीती है,
एै,रंग—-उसकी गंदी जुबान से,
एक पाक बेटी को————–
वेश्या और तवायफ़ कहा जा रहा है।


औरत के अंग 


हाँ  मै औरत हू———–
इसलिए तो तुम्हारे उन अंग विशेष,
को मै तकने भर से जान जाती हू,
कि तुम्हारी मंशा मेरे उन अंगो के—–
बस नोचने-खसोटने और मसलने से है।
जबकि एक औरत के वही अंग विशेष,
अपने पती के प्यार पाने के वक़्त भी,
शर्म ओढ़े रहते है,
क्योंकि उसमें किसी तरह की नोच-खसोट नही,
बल्कि एक-दुसरे के परम विश्वास का देव श्पर्श है।
हा!शायद तुम्हारा पुरुषपन अंदर से सध नही पाता,
किसी एक समर्पित अंग से बध नही पाता,
वरना तकते तो तुम्हें भी अपनी पत्नी का वे अंग,
उतना ही आकर्षित करता————
जीतना की पर स्त्री या औरत का।


रईस की ईमारत में दफ़न हूँ 


मै शहर के——————-
सबसे रईस की इमारत में दफ्ऩ हूँ।
मेरा शौहर कितना चाहता है मुझको,
कि महीनो से बेवा किये है बिस्तर,
मै उसी बिस्तर में दफ्ऩ हूँ।
मै शहर के—————
सबसे रईस की इमारत मे दफ्ऩ हूँ।
कालीन बिछे फर्श और इराने आईना,
वे अरब का चराग!
सब कुछ तो है लेकिन मै टूट गई झुमर सी,
बिखर के खत्म हूँ।
मै शहर के————
सबसे रईस की इमारत मे दफ्ऩ हूँ।
वे शीशमे दराज़ मै खोलती नही,
इतनी खामोश हो गई हु——–
की खुदी से बोलती नही!
वे देखो खिड़की के उस तरफ जैसे—–
अब भी खड़ा है मेरी चाहत का बेगुनाह,
मै बेवफ़ा थी उसकी,
ये आह है उसी की एै,रंग—–मै जो
शहर के सबसे रईस की इमारत में खत्म हूँ।



तवायफ की कब्र है 

यहां चराग नही जलते,कोई चादर नही चढ़ती,
ये शहर की—————
मशहूर तवायफ की कब्र है।
आज भी करती है ये रुहे मुज़रा,
फिर फूट के रोती है!
बस आ जाते है खिज़ा में——–
दरख्त़ो के चंद पत्ते आवारगी करने।
यहां चराग नही जलते,कोई चादर नही चढ़ती,
ये शहर की—————
मशहूर तवायफ की कब्र है।
ये जिंदा भी जख्म़ थी
और मर के भी जख्म़ है,
इसकी कब्र भी बनी तो शरीफो से बड़ी दुर,
इसके कब्र को भी दुनिया गँवारा नही करती,
जबकि एक तवायफ ताजिंदगी एै,रंग—-
किसी भी बसे घर को उजाड़ा नही करती।
यहां चराग नही जलते,कोई चादर नही चढ़ती
ये शहर की—————-
मशहूर तवायफ की कब्र है।

क्या पुरुष आज भी घूंघट  और नकाब में ढूंढ रहा है औरत को 


नकाब में देखा था 
वे नायिका विलुप्त हो गई इस सदी में,
जिसके लरज़ते हुये होंठो पे——
कभी कवियो ने तील का दाग देखा था।
वे घुँघट का सौंदर्य कही खो गया,
जिसमें कभी कवि ने———
अपनी कविताओ का चाँद देखा था।
अब तो तोड़ देती है वे दिल बे-मुरौवत,
ऐ,रंग—–कभी शायरो ने
जिस लड़की में शीरी का अक्स़—-
और फरहाद की मोहब्बत का नकाब देखा था।






कन्या भ्रूण हत्या पर 
                                                     कन्या भ्रूण हत्या हो या फौजी की बहन की पीड़ा , सामाजिक सरोकारों पर रंगनाथ जी ने मुखरता से कलम चलायी है | 

उस घर मत जाना माँ 


कन्या भ्रूण का————-
जिस भी घर में कत्ल हुआ है,
एैसे पापी के घर में———–
तुम नौ दिन तक मत जाना माँ।
लाख करे वे ढोंग,सजायें घर मे कलशे,
पहने चुनरी,करे आरती
एक बिटिया के कातिल के घर——–
तुम ना भोग लगाना माँ।
मै रोई,तड़पी,चीखी कितनी
नौ माह से पहले छिन लिया,
मेरी खुशियो को
मै देख नही पाई दुनिया!
आखिर क्या?गलती थी मेरी—-
मुझे बताना माँ।
तुम भी तो नौ रुपो में बेटी हो,
हे!जग की माँ इन्हे सजा दो,
ताकि खत्म हो दुनिया से——
कन्या भ्रुण मिटाना माँ।


राखी पर फौजी भाई का दर्द 

बहन की राखी है 
एक तरफ दुश्मन की गोलियां,
एक तरफ———————–
आज तेरे फौज वाले भाई की छाती है।
मुआफ करना बहन———-
शायद मै आ न सकुंगा!
मै जानता हु कि तुझसे किया——-
एक अहद एक वचन बाकी है।
गर हो सके तो फक्र करना,
अपने शहीद भाई पे!
सुना है शहीद की मौत पर भी,
हमारे मुल्क की बहन करके दिया,
बीना रोये घंटो आरती गाती है।
एै,रंग———————-
तु भी देख लहराते तिरंगे की तरफ,
उसी में बंधी———————
हर बहन की राखी है।




बेटी का दर्द 
                कहते हैं बेटियाँ पिता को बहुत प्यार करती हैं | पर उन्हें पिता का साथ कम मिलता है | यौवन की दलहीज पर ब्याह दी गयीं बेटियाँ ससुराल जातेसमय बाँध कर ले जाती इन पिता का स्नेह | रंगनाथ द्विवेदी जी ने बहुत ही सहजता से उकेरा है उस बेटी का दर्द जो परलोक सिधारे पिता को याद करते हुए
आज  भी अपने को वही दो चोटी वाली गुडिया महसूस करती है | 






अपने पापा की गुडिया 
दो चुटिया बांधे और फ्रॉक पहने,
दरवाजे पे-खड़ी रहती थी———
घंटो कभी अपने पापा की गुड़िया।
फिर समय खिसकता गया,
मै बड़ी होती गई!
मेरे ब्याह को जाने लगे वे देखने लड़के,
फिर ब्याह हुआ,
मै विदा हुई पापा रोये नही,
पर मैने उनके अंदर———-
के आँसूओ का गीलापन महसूस किया,
पीछे छोड़ आई सब कुछ
अपने पापा की गुड़िया।
सुना था बहुत दिनो तक,
पापा तकते रहे वे दरवाज़ा,
शायद ये सोच—————-
कि यही खड़ी रहती थी कभी,
उनके इंतज़ार में घंटो,
फ्रॉक पहने दो चुटिया बांधे
इस पापा की अपने गुड़िया।
फिर आखिरी मर्तबा उन्हे बीमारी मे देखा,
वे चल बसे!
अब यादो में है——————-
कुछ फ्रॉक दो चुटिया
और तन्हा खड़ी—————–
दरवाजे के उस तरफ,
आँखो में आँसू लिये—————-
अपने पापा की गुड़िया।








क्या स्त्री सिर्फ देह है ? 


                                           रंगनाथ द्विवेदी जी कहते हैं की  स्त्री माँ है बहन है बेटी है तो साथ निभाने वाली पत्नी भी |पर क्या कामातुर पुरुष स्त्री के इन विभिन्न रूपों को देख पाता है | या उसे दिखाई देती है सिर्फ स्त्री देह | देह के साथ आत्मा को भी छलनी करते समय क्या पुरुष को उसमें अपनी माँ बहन या बेटी दिखाई नहीं देतीं | पढ़िए कवि ह्रदय की चीत्कार के साथ दो अत्यंत मार्मिक कवितायें  


दो स्तन 



कुछ भिड़ झुरमुट की तरफ देख,
अचानक मै भी रुक गया——–
और जैसे ही मेरी नज़र उस झुरमुट पे पड़ी,
उफ!मेरे रोंगटे खड़े हो गये,
एक पैत्तीस साल की औरत का———–
विभत्स बलात्कार मेरे सामने था,

उसके गुप्तांग जख्मी थे,
और उससे भी कही ज्यादा जख्मी थे—–
उसके वे दो खुले स्तन।
जिसपे पशुता के तमाम निशान थे,
नोचने के,खसोटने के,दाँतो के
बहुत मौन थे,
लेकिन ये मौनता एक पिड़ा की थी,
क्या?इसिलिये ईश्वर ने दिया था,
इस औरत को———-
कि कोई अपनी पशुता से छिन ले,मसल दे
इसके दो स्तन।
जब पहली मर्तबा इसके बलात्कारी ने भी पिया होगा,
अपनी नर्म हाथो से बारी-बारी——-
अपनी माँ का दो स्तन!
तब इनमे दुध उतरा था,
क्यूं ?नहीं दिखा आखिर—–
मसलते,कुचलते,नोचते वक़्त,
शायद देखता तो कांप जाता,
क्योंकि इसकी अपनी माँ के भी थे—–
यही दो स्तन।
इतना ही नही गर कल्पना करता,
तो इसे दिखता————
अपने ही घर मे अपनी बुआ,अपनी चाची
और सीने पे दुपट्टा रंखे अपनी बहन के–
इसी बलात्कार की गई औरत की तरह,
दुपट्टे के उस तरफ भी तो लटके है एै”रंग”—–
यही दो स्तन।



रंडी


अँधेरी रात मे——-
वे शहर की स्ट्रिट लाइट से टेक लगा,
अपना आधे से अधिक वक्षस्थल खोले,
किसी ग्राहक को रिझाने और लुभाने का प्रयास करती है,
किसी रात जब काफी प्रयासो के इतर,
कोई ग्राहक आता और रिझता नही दिखता,
तो अपनी निदाई आँखो की निद दुर करने को,
वे गाढ़ी और सुर्ख लिपस्टिक के उस तरफ,
अक्सर बीड़ी पीने से सँवलाये होंठो के बीच,
एक बीड़ी दबा————–

बड़ी अश्लीलता और निर्लज्जता से वे अपने हाथो को,
अपने अधखुले वक्षस्थल मे डाल,
चारो तरफ जलाने को दियासलाई टटोलती है,
उस टटोलने मे स्त्रियोचित कोई संवेदना नही,
बल्कि बेरहमी से दियासलाई निकाल बीड़ी जला—–
कुछ तगड़े-तगड़े सुट्टे ले जब अपने नथुनो से धुआँ निकालती है,
तो उस धुँये की धुँध उसे अपनी एकलौती जीवन सखी लगती है,
कभी-कभी जब एकाध कस की शुरुआत मे ही किसी ग्राहक को आता देखती है,
तो उसे रोज अपनी तरह जली बीना बुझाये फेक,
कुछ इस तरह झुकती है,
कि उसके अधखुले वक्षस्थल थोड़ा और गहरे खुल,
ग्राहक को यौन मदांध कर बाबले और उतावले कर देते है,
उसकी इस झुकन की कलात्मकता ने ही उसे अब तक,
ज्यादा ग्राहक दिये है!
वे हर रात अपने ग्राहक को शिशे मे उतार,
इस स्ट्रिट लाइट की कुछ दुरी पे बने अपने उस दो कमरे की सिलन की बदबू से रचे बसे कोठरी मे ले जाती है,
और उसी कमरे की एक जर्जर तखत पे सो जाती है,
कभी इसी तखत पे दुल्हन की तरह सोने आई थी,
और इसी तखत पे सोने के लिये,
माँ-बाप का घर छोड़———-
प्रेमी के साथ भाग आई थी ये शायद उन्हिं की पीड़ा का श्राप है,
कि सुहाग तखत पे रंडी बन रह गई।
फिर समय के साथ मैने ख़ुदकुशी न की,
हाँ उस शरीर और अंग से बदला जरुर लेती हूँ,
जिसे अगर कुछ दिन और संभाल लेती तो एक औरत होने का,
संम्पुर्ण ऐहसास करती,
मै बलात भागी थी उसी बलात भागने ने जीवन नर्क कर दिया।
हर रात उसका ग्राहक तृप्त हो जब ये जुमले कहता है कि—–
तेरे अर्धखुले वक्षस्थल ब्लाउज मे तो सुंदर थे ही,
और आजाद हुये तो और कयामत व सुंदर हो गये,
ये सुन उसने हमेशा की तरह अपने ग्राहक को मन ही मन मादरजात गाली दे,
फिर अपने उस ब्लाउज को उठा एक रुटीन की तरह,
बीना किसी कोमलता के जबरदस्ती इधर-उधर ठुस,
और उस ठुसने की रगड़ को,
वे राड़ कह खूब हँसती है वे हँसी अपने को और पीड़ित करने की होती है,
फिर उसी तखत पे अस्त-ब्यस्त लेट,
एक रंडी की तरह पुरा दिन बीता उठती है,
नहा धुलकर,गाढ़ी लिपस्टिक लगा चल पड़ती है,
एक बीड़ी होठ पे लगाये उसी स्ट्रिट लाइट की तरफ,
वैसे ही खड़ी हो फिर किसी ग्राहक को,
अपने अधखुले ब्लाउज से रोज की तरह दिखाने अपना,
अाधे से अधिक खुला वक्षस्थल।



रंगनाथ द्विवेदी






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