अंतस से -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें

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अंतस से -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें

                                   कवितायें वैसे भी भावनाओं के कुसुम ही हैं और जब स्वयं कुसुम जी लिखेंगी तो सहज ही अनुमान लागाया जा सकता है कि उनमें सुगंध कुछ अधिक ही होगी| मैं बात कर रही हूँ कुसुम पालीवाल जी के काव्य संग्रह “अंतस से “की | अभी हाल में हुए पुस्तक मेले में इसका लोकार्पण हुआ है | यह कुसुम जी का तीसरा काव्य संग्रह है जो ” वनिका पब्लिकेशन “से प्रकाशित हुआ है |मैंने कुसुम जी के प्रथम काव्य संग्रह अस्तित्व को भी पढ़ा है | अस्तित्व को समझने के बाद अपने अंतस तक की काव्य यात्रा में कुसुम जी का दृष्टिकोण और व्यापक , गहरा और व्यक्ति से समष्टि की और बढ़ा है | गहन संवेदन शीलता कवि के विकास का संकेत है | कई जगह अपनी बात कहते हुए भी  उन्होंने समूह की भावना को रखा है | यहाँ उनके ‘मैं ‘ में भी ‘हम ‘निहित है |

‘अंतस से’समीक्षा  -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें 

 यूँ तो संग्रह में 142 कवितायें हैं | उन पर चर्चा को सुगम करने के लिए मैं उन्हें कुछ खण्डों में बाँट कर   उनमें से कुछ चयनित रचनाओं को ले रही हूँ | आइये चलें  ‘अंतस से ‘ की काव्य यात्रा पर

कविता पर …
                 कवितायें मात्र भावनाओं के फूल नहीं हैं |ये विचारों को अंतस में समाहित कर लेना और उसका मंथन है | ये विचारों की विवेचना है , जहाँ तर्क हैं वितर्क  हैं और विचार विनिमय भी है |  इनका होना जरूरी भी है क्योंकि जड़ता मृत्यु की प्रतीक है | कविता जीवंतता है | पर इनका रास्ता आँखों की सीली गलियों से होकर गुज़रता है … देखिये –

 अक्षर हूँ
नहीं ठहरना चाहता
रुक कर
किसी एक जगह

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जहाँ विचार नहीं है
वहां जड़ता है
जहाँ जड़ता है
वहाँ जीवन नहीं
विचार ही जीवन है
जीवन को उलझने दो
प्रतिदिन संघर्षों से

3…

कविता कोई गणित नहीं
जो मोड़-तोड़ कर जोड़ी जाए

गणित के अंकों का
जोड़-गाँठ से है रिश्ता
किन्तु कविता का गणित
दिल से निकल कर
आँखों  की भीगी और सीली
गलियों से होकर गुज़रता है

रिश्तों पर ….

                    अच्छे रिश्ते हम सब के लिए जरूरी है क्योंकि ये हमें भावनात्मक संबल देते हैं | परन्तु आज के समय का सच ये है कि मकान  तो सुन्दर बनते जा रहे पर रिश्तों में तानव बढ़ता जा रहा है एकाकीपन बढ़ता जा रहा है | क्या जरूरी नहीं कि ह्म थोडा  ठहर कर उन रिश्तों को सहेजें –

आजकल संगमरमरी
मकानों में
मुर्दा लाशें रहती हैं
न बातें करती हैं
न हँसती ही हैं
उन्होंने बसा ली है
दुनिया अपनी-अपनी
एक सीमित दायरे में

२….

ख्वाबों के पन्नों पर
लिखे हुए थे
जो बीते दिनों के
अफ़साने
आज दर्द से लिपटकर
पड़पड़ाई हुई भूमि में
वो क्यूँ तलाशते  रहते हैं
दो बूंदों का समंदर

3 …


सोंचती हूँ… जीवन की आपाधापी में
ठिठुरते रिश्तों को
उम्मीदों की सलाइयों से
आँखों की भीगी पलकों पर
ऊष्मा से भरे
सपनों का
एक झबला बुनकर
मैं पहनाऊं

नारी पर …


                    नारी मन को नारी से बेहतर कौन जान सका है | जो पीड़ा जो बेचैनी एक नारी भोगती है उसे कुसुम जी ने बहुत सार्थक  तरीके से अपनी कलम से व्यक्त किया है |वहां अतीत की पीड़ा भी है , वर्तमान की जद्दोजहद भी और भविष्य के सुनहरी ख्वाब भी जिसे हर नारी रोज चुपके से सींचती है –

दफ़न रहने दो यारों !
मुझे अपनी जिन्दा कब्र के नीचे

बहुत सताई गयी हूँ मैं
सदियों से यहाँ पर
कभी दहेज़ को लेकर
तो कभी उन अय्याशों द्वारा
जिन्होंने बहन बेटी के फर्क को
दाँव पर लगा
बेंच खाया है दिनों दिन

2…

तुम लाख छिपाने की कोशिश करो
तुम्हारी मानसिकता का घेरा
घूमकर आ ही जाता है
आखिर में
मेरे वजूद के
कुछ हिस्सों के इर्द -गिर्द

3…

तुम्हारी ख़ुशी अगर
मेरे पल-पल मरने में
और घुट -घुट जीने में
विश्वास करती है तो
ये शर्त मुझे मंजूर नहीं

4…

चाँद तारों को रखकर
अपनी जेब में
सूरज की रोशिनी को जकड कर
अपनी मुट्ठी में
तितली के रंगों को समेट कर
अपने आँचल में
बैठ जाती हूँ
हवा के उड़न खटोले पर
तब बुनती हूँ मैं
अपने सपनों के महल को

5 ..
सतयुग हो या हो त्रेता
द्वापर युग हो या हो आज
सभी युगों में मैंने
की हैं पास
सभी परीक्षाएं अपनी
तुम लेते गए
और मैं देती गयी

6…

छोटे – छोटे क़दमों से चलते हुए
चढ़ना चाहती थी वो
सपनों की कुछ चमकीली उन सीढ़ियों पर
जिस जगह पहुँच कर
सपने जवान हो जाते हैं
और फिर …
खत्म हो जाता है सपनों का आखिरी सफ़र

7 …

मैं पूँछ ती हूँ इस समाज से
क्या दोष था मेरी पाँच साल की बच्ची का

लोग कह रहे हैं बाहर
छोटे कपडे थे … रेप हो गया
क्या दोष था उसका !
बस फ्रॉक ही तो पहनी थी
पांच साल की बच्ची थी
वो उम्र में भी कच्ची थी

हाय …. कहाँ से ऐसी मैं साडी लाऊं
जिसमें अपनी बच्ची के तन को छुपाऊं !

समाज के लिए ….

                         किसी कवि के ह्रदय में समाज के लिए दर्द ही न हो , ऐसा तो संभव ही नहीं | चाहे वो आतंक वाद हो , देश के दलाल हो या भ्रस्टाचार हो सबके विरुद्ध कुसुम जी की कलम मुखरित हुई है |

वो सहमी सी आँखें
डरती है
एक ख्वाब भी
देखने से
जो गिरफ्त में
आ चुकी हैं
संगीनों के साए में
उनकी आँखों में
भर दिए गए हैं
कुछ बम
और बारूद

2.

ओ समाज के दलालों
कुछ तो देश का सोंचो
मत बेंचो अपनी माँ बहनों को
इन्हीं पर तुम्हारी सभ्यता टिकी है
और उइन्ही से तुम्हारी संस्कृति जुडी है

3.

अंधेरों से कह दो
चुप जाएँ कहीं जा कर
कलम की धर देखो
चमक उठी है हमारी
वहाँ की रोशिनी में
अंधेरों का कुछ काम नहीं

संग्रह से मेरी कुछ प्रिय कवितायें ……..

                                                             आइये अब “अंतस से ‘काव्य संग्रह की कुछ अपनी प्रिय कविताओं की बात करती हूँ | जिनमें 55 साला और का जोश व् फिर से जीने और सपने देखने की ललक काबिले तारीफ़ है | वहीँ , यशोधरा का स्वयं अपने पति को सन्यास मार्ग पर जाने के लिए कहना , यशोधरा की अपने पति के प्रति भावनाओं की गहरी समझ दिखाता है | यशोधरा की कविता से विरोधाभास उत्पन्न करते हुए  ” पत्नी के  नाम एक खत” में सैनिक पति अपनी पत्नी को सोते हुए देश की रक्षा हेतु छोड़ कर जाता है | यहाँ सैनिक बुद्ध के सामान वैरागी है जो देश के लिए अपना सर्वस्य त्याग कर अपने प्राण भी नयोछावर करने जा रहा है| आइये इन कविताओं के कुछ अंशों का आनंद लें –

मनोबल पचपन साला औरत का

वो सुबह तडके उठ कर
नींद से बोझिल …
किन्तु ,
आँखों की
परवाह किये बगैर
लग जाती है अपने काम पर
मानों ,
फिर्किको हाथों में फिट किये
और लगा लेती है वो
पैरों में पहिये
रसोई में पहुँचते ही

२…

जाओ प्रियतम जाओ
जाओ सिद्धार्थ जाओ
मैं यशोधरा
आज तुमसे कहती हूँ …
अब नहीं रोकूंगी
मैं तुमको …
तुमको जाना ही होगा
उस निर्वाण की खातिर
जिसको मैंने
कुछ सालों से तुम्हारी
आँखों में पढ़ा है

3.

एक खत पत्नी के नाम

मेरी हमदम
मेरी जान
लड़ने गया हूँ जंग पर
तुझे नींद में सोता छोड़ कर
मैं अपने देश की खातिर
बाँध लाया हूँ साथ में
तेरी यादों की गठरी को
और छोड़ आया हूँ
तेरे सुर्ख गालों पर
अपने प्यार के प्रतीक को

 कुसुम जी को उनके काव्य संग्रह “अंतस से ” के लिए हार्दिक शुभकामनायें 


वंदना बाजपेयी 

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