दम-दमड़ी

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“दम–दमड़ी” ये कहानी है वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की, जो रुपये पैसों के ऊपर टूटते –बिखरते रिश्तों का नंगा सच प्रस्तुत करती हैं | एक कहावत है कि “चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाये” | वैसे तो ये कहावत कंजूस लोगों के लिए हैं पर प्रश्न फिर भी वही है कि क्या पैसा इंसान को इतना स्वार्थी बना देता है ? कहानी है एक गरीब कबाड़ी परिवार की जहाँ एक बच्चा अपनी माँ व् पिता के साथ रह रहा है | रेलवे लाइन के पास बसे इस घर में रहने वाली बच्चे की माँ बीमार है | इलाज के पैसे नहीं हैं | तभी उनके घर के सामने ट्रेन एक्सीडेंट होता है | जहाँ घायलों और लाशों के बीच फैला उनका सामान वहां बसने वाले लोगों के मन में नैतिकता के सारे मायने भुला देने को विवश कर रहा है | ऐसे में उस बच्चे के घर में क्या होगा ? आइये जानते हैं ….

 

दीपक शर्मा की कहानी -दम-दमड़ी

रेलवे लाइन के किनारे बप्पा हमें पिछले साल लाए थे.

“उधर गुमटी का भाड़ा कम है,” लगातार बिगड़ रही माँ की हालत से बप्पा के कारोबार ने टहोका खाया था, “बस, एक ख़राबी है. रेल बहुत पास से गुजरती है.”

लेकिन रेल को लेकर माँ परेशान न हुई थीं. उलटे रेल को देखकर मानो ज़िन्दग़ी के दायरे में लौट आई रहीं.

बहरेपन के बावजूद हर रेलगाड़ी की आवाज़ उन्हें साफ़ सुनाई दे जाती और वह कुछ भी क्यों न कर रही होतीं, रेल के गुज़रने पर सब भूल-भूला कर एकटक खड़ी हो जातीं- छत पर, खिड़की पर, दरवाज़े पर. बल्कि कभी-कभी तो बाहर ही लपक लेतीं- किसी न किसी सवारी का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने. कभी-कभार उनकी यहकोशिश सफ़ल भी हो जाती और भेंट में उन्हें कभीखाने की कोई पोटली मिल जाती तो कभी पानी की ख़ाली बोतल. एक-दो बार तो उनकी तरफ़ किसी ने अपना रुमालही फेंक डाला तो किसी दूसरे ने रेज़गारी.

रेल के लिए माँ की यही लपक देखकर बप्पा ने अपना नया शाप गढ़ा था, ‘ठठरी ज़रूर रेलगाड़ी के नीचे कट कर मरेगी.’

“देख, गोविंदा, इधर देख,” उस दोपहर में माँ ने मुझे सोते से जगाया था, “इत्ते रुपएतूने देखे हैं कभी?”

अनगिनत रुपयों के वे पुलिन्दे मेरी आँखों तले क्या आए मेरी आँखें फ़ैल गईं.

 

एक जनाना बटुआ माँ की गोदी में टिका था और उनके सूखे हाथ उन रुपयों की गड्डियों की काट पकड़ने में उलझे थे. कुछ रुपए मैंने भी उठा लिए. लाल रंग का हज़ार रुपए का नोट और हरे रंग का पाँच सौ का नोट उस दिन मैंने पहली बार देखा और छुआ.

“कहाँ से लिए?” इशारे से मैंने माँ से पूछा.

“संतोषी माता ने अपनी बच्ची के इलाज की लागत भेजी है.”

अपनी शादी के बाद लगातार ग्यारह-बारह साल तक माँ ने जो बप्पा के छँटे हुए कबाड़ की मँजाई की, सोवह उनकी गलफाँसी साबित हुई थी. गुदड़ी-बाज़ार ले जाने से पहले बोरा-भर अपना कबाड़ बप्पा सीधे घर लाया करते. यहीं उसमें से मरम्मत के क़ाबिल सामान छाँटतेऔरउसके रोगन या जंग-मैल छुड़ाने का ज़िम्मा माँ पर डालदेते. डॉक्टर के मुताबिक़ माँ की उँगलियों के गलके, मसूड़ोंकी नीली परत, उदर-शूल,जीभ का धात्विक स्वादऔर बहरापन सब उस सीसेकेज़हर की दूरमार थे जो बप्पा केअंगड़-खंगड़को तेज़ाब और रेगमाल से कुरेदते-खुरचते वक़्त या रगड़ते-चमकाते वक़्त माँ की नसों और अंतड़ियों ने सोख लिया था.

“कहाँ से लिए?” मैं चिल्लाया.

“बाहर टक्कर हुई,” माँ ने गाल बजाया. “मुई, इस बटुए वाली जनानी ने ज़ेवर भी ख़ूब क़ीमती पहन रखेथे. लेकिन निकम्मे मेरे हाथ उन्हें अलग न करपाए……”

दो छलाँग में गुमटी पारकर मैं दरवाज़े पर जा पहुँचा. बाहर कुछ ही क़दम परअजीब अफ़रा-तफ़री मची थी. लहूफेंकरही, बिलबिलाती-हुहुआती सवारियों और लोहे, काँच, लकड़ीऔर रोड़ी-मिट्टीकी छिपटियों और किरचों कीटूट-फूट के बीच दो एयरकंडीशन्ड कोच इधर लुढ़के पड़े थे. स्कूल की अपनी तीसरी जमात तक आते-आते अँगरेज़ी के अक्षर जोड़ कर पढ़ने के क़ाबिलतो मैं रहाही.

उसी हो-हल्ले के बीच एक भगदड़ और पड़ी रही. हमारे अड़ोस-पड़ोस में सभी अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे- पहले-पहल, ख़ाली हाथ….. दूसरे पल, अंकवार-भर.

“बोरा लाऊँ?” माँ मेरे पास चली आईं, “मौका अच्छा है.”

“न,” मैंने सिर हिलाया.

सामने एक पुलिस जीप आ खड़ी हुई. सिपाहियों ने नीचे उतरने में फुरती दिखाई.

“मालूम? उधर कितना सामान लावारिस पड़ा है?” –माँ ने मुझे उकसाना चाहा.

“न,” मैं काँपने लगा और अपने टाट पर लौट आया.

“इन्हें गिन तो,” माँ ने रुपए फिर मेरी तरफ़ बढ़ाने चाहे, “मेरे इलाज का बन्दोबस्त तो ये कर ही देंगे. डॉक्टर कहता था पूरी ठीक होने में मुझे साल-दो साल लग जाएँगे.”

“न,” मैंने सिर हिलाया और रुपए पकड़ने की बजाय कोने में पड़ा, अपने स्कूल का बस्ता अपनी गोदी में ला धरा. मेरी कँपकँपी जारी रही.

“चल, भाग चलें,” रुपयों के बण्डल माँ ने एक थैली में भर लिए, “तेरे बप्पा ने मुझे मेरा इलाज नहीं कराने देना. इन रुपयों को देखते ही वह इन्हें अपने कब्ज़े में लेलेगा.”

“न,” मैंने सिर हिलाया और अपने बस्ते से हिन्दी की क़िताब निकालकर माँ को इशारे से समझाया, “मेरी पढ़ाई है यहाँ.”

इस इलाके के स्कूल में जाकर ही मैंने जाना था किसी भी कविता, किसी भी कहानी को ज्यों का त्यों दोहराने में मेरे मुक़ाबले कोई न था. पिछले आठ महीनों में मेरी क्लास टीचर मुझे सात बार बाहर प्रतियोगिताओं में लेकर गई थी और हर बार मैं इनाम जीत कर लौटता रहा था.

“यह क्या वहाँ नहीं मिलेगी?” माँ गुलाबी नशे में बहकने लगीं, “वहाँ इससे भी बड़े स्कूल में तुझे पढ़ाई कराऊँगी….. एक बार, बस मेरा इलाज हो जाए. फिर देख कैसे मैं काम में जुटती हूँ….. सिलाई मशीन खरीदूँगी….. अपनी टेलरिंग की दुकान खोलूँगी मैं.”

उधर कस्बापुर में माँ के पिता टेलरिंग का काम करते थे. दिहाड़ी पर. मरते दम तक सिलाई की अपनी मशीन उन्हें नसीब न हुई.

“न,” कबाड़ की तरफ़ इशारा कर मैं रोने लगा- हमारी गुमटी का एक-तिहाई हिस्सा कबाड़ के हवाले रहा- “यहाँ बप्पा हैं.”

बप्पा मुझे बहुत प्यारे रहे. उनके कन्धों की सवारी में कहाँ-कहाँ न मैं घूमा करता. उनके घुटनों के झूले पर बैठकर कितनी-कितनी पेंग न मैं लेता.

अपने मज़बूत हाथों से जब वे मुझे ज़मीन से ऊपर उठाकर उछालते तो उस ऊँचाई से नीचे फैले उनके हाथ देखकर कैसे-कैसे न मैं उनके दायरे में लौट आना चाहता.

“डरता है?” –माँ ने मुझे एक हल्का धौल जमाया, “बाप से डरता है?”

“चुप,” तभी बप्पा की आहट मुझ तक चली आई और माँ के मुँह पर मैंने अपनी हथेली टिका दी. माँ समझ गईं बप्पा अन्दर आने को रहें.

अपनी थैली समेत वह कबाड़ की ओट में लपक ली.

उस दोपहर बप्पा ने अपना बोरा गुमटी में ख़ाली न किया. उल्टे मेरे स्कूल का बस्ता भी समेट कर उसमें रख लिया और उसे अपने कन्धे पर वापस जा टिकाया.

“तुझे मेरे साथ चलना है,” मेरे हाथ थामकर वे मुझे बाहर घसीट लाए.

बाहर की चीख़-पुकार बढ़ रही थी. पुलिस के सिपाही बटमारी के अपने हिस्से की फ़िक्र में इधर से उधर और उधर से इधर घूम रहे थे.

बिजली की तेज़ी से बप्पा उनसे उल्टी दिशा में बढ़ लिए.

“तारक मेरे शिव महाराज ने मेरे तार आज बाँध दिए,” बप्पा की साँस फूल आई थी, “गाड़ी के आगे बैल जा खड़ा किया और डिब्बे भी जो पटरी से उतरे तो मेरे सामने उतरे. ऐन मेरी आँखों के सामने सवारियाँ जो गिरनी शुरू हुईं तो फिर गिरती चली गईं……”

“इस बोरे में उनका सामान भरा है?” कहकर मैं फिर काँपने लगा.

“हाँ,” बप्पा हँसे, “अब हम बादशाह बन गए हैं. यह इलाका छोड़कर नया ठौर ढूँढेंगे. नई ज़िन्दग़ी शुरू करेंगे.”

“माँ अकेली रहेंगी?” –मेरी कँपकँपी दुगुनी हो चली.

“ठठरी अकेली कहाँ है? उसके पास वह कबाड़ है. रोज़ भी उसे बेचेगी तो भी आधा बचा रहेगा. साँसें उसकी अब इनी-गिनी ही बची हैं.”

मेरी कँपकँपी एकदम ठहर गई. ठीक ही था जो माँ की ज़िन्दग़ी के बारेमें बप्पा की अन्दाज़-पट्टी इतनी ग़लत रही.

माँकी नोचा-खसोटी उनकी जानकारी के बाहर रही. बप्पा को उस जनाने बटुए की बात बताना ग़लत रहता. अब वे रुपए माँ के इलाज के काम ज़रूर आ जाएँगे…..

मेरी हँसी छूट गई.

अपनी हँसी लेकिन मुझे जल्दी ही वापस लेनी पड़ी.

जिस रिक्शे पर बप्पा ने अपने कन्धे ख़ाली किए थे उसके चालक ने बस स्टैण्ड पर पहुँचते ही जाने किस के कान में क्या खुसुर-पुसुर की जो हमें दो पुलिस कांस्टेबलों ने धर पकड़ लिया. मेरी उम्र को देखते हुए हथकड़ी सिर्फ़ बप्पा को ही पहनाई गई.

बप्पा के बोरे की तलाशी ने सारा भेद खोल डाला था.

अलग-अलग तरह के वे चारों सूटकेस और तरह-तरह की वे तीन डोलचियाँ देखकरतो मैं हक्का-बक्का हो होता चला गया था. कैसे-कैसे तो कपड़े और जूते-चप्पल रहे उन सूटकेसों में और कैसे-कैसे व्यंजन रहे उन डोलचियों में.

रेल हादसे की ख़बर जानकर दोनों पुलिस कांस्टेबलों की बाछें खिल गईं.

सड़क पर गुज़र रहे एक भरे टेम्पो की सवारियाँ उन्होंने चटपट नीचे उतरवा दीं और अगले ही पल हमने अपने आपको अपनी गुमटी की दिशा में लौटते हुए पाया.

सभी गुमटियों की जामा तलाशीमें हमारी गुमटी भी ज़रूर शामिल रही थी तभी तो माँ की बटमारी का जनाना बटुआ एक जनाना पुलिस कांस्टेबल ने थाम रखा था और घिरी औरतों में माँ भी खड़ी थी.

“मेरी माँ को छोड़ दीजिए.” मैं उस जनाना पुलिस कांस्टेबल की तरफ़ लपक लिया, “यह बटुआ मैंने लूटा था, मेरी माँ ने नहीं. यह तो बहुत बीमार हैं. आप देख सकती हैं कैसी ठठरी बन गई हैं. एकदम हड्डियों की माला…..”

“क्या यह इसीलिए बहरी भी है?” जनाना कांस्टेबल का दिल पसीज गया.

“आप यक़ीन मानिए,” मैंने एक ज़ोरदार सलाम ठोंका, “यह बहरी ही नहीं, बावली भी हो गई हैं. मेरे बप्पा तो अक्सर कहते हैं, इसकी चूड़ी बिगड़ ली है, अब यह किसी काम की नहीं रही, मौत तक के काम की नहीं…..”

“ऐसा है क्या?” जनाना कांस्टेबल और नरम पड़ गई.

“लेकिन मेरे को ऐसा नहीं लगता,” मेरीहिम्मत बढ़ ली, “मुझे यक़ीन है माँ का इलाज हुआ नहींकिवहफिर से खटाखट काम करने लगेंगी, हँसने लगेंगी, हँसाने लगेंगी…..”

अपनी अच्छी सेहतके दिनोंमें माँ अपनी हँसीमें बप्पाकोभी कई बार शामिल करती रहीथीं…..

“तू अच्छा होशियार लड़काहै,” जनाना कांस्टेबल हँसने लगी, “लेकिन तू नहींजानता इस बटुए के ये दो-तीन सौ रुपल्ली इसके लिए एक इंजेक्शन तक न ख़रीद पाएँगे…..”

“दो-तीन सौ रुपल्ली?” मुँह खोलकर मैं माँ की तरफ़ देखने लगा.

माँ के चेहरे पर शरारत खेल रही थी क्या?

बड़े नोट माँ ने अपने बक्से में जा छुपाए थे क्या? माँ का बक्सा भी भानुमति के पिटारे से कम रहा क्या? उसमें क्या था और क्या नहीं, इसकी पूरी ख़बर माँ के अलावा किसी दूसरे को न रहा करती…..

“क्यों?” जनाना कांस्टेबल हँस पड़ी, “बटुए में ज़्यादा रुपए रहे क्या?”

“नहीं, नहीं,” मैं झेंप गया, “सब आप की मरज़ीहै. बस, मेरी माँ को ज़रूर छोड़ दीजिए…..”

“ठीक है,” बटुआ अपनी छाती से चिपकाकर जनाना कांस्टेबल ने कहा, “तू अपनी माँ को अन्दर ले जा…..”

बटुआ लिए-लिए वह स्वयं भीड़ से अलग हो ली.

अन्दर बप्पा का समूचा अंगड़-खंगड़छाना जा रहा था.

माँ औरमैं अन्दर न गए.

हम खिड़की की ओट में जा खड़े हुए.

“इसके जोड़ भी हैं क्या?” एक पुलिस कांस्टेबल कूलर का एक पल्ला बप्पा को दिखला रहा था.

“ज़रूर मिल जाएँगे, सरकार,” बप्पा गहरी उतावली में रहे, “और भी जो आप कहेंगे, मैं ला दूँगा, सरकार. मगर यक़ीन मानिए इस गुमटी में जो भी इस टाइम है वह सब ईमान का ख़रीदा माल है. एक भी सामान चोरी का नहीं. चोरी का जो भी है, वह सब उसी एक बोरे में है-”

“क्यों?” दूसरे कांस्टेबल ने बप्पा को धौल जमाया, “रँडुवे हो क्या?”

“रँडुवा हो जाता, सरकार, तो सही हो जाता,” बप्पा फूट-फूट कर रोने लगे. एकाएक.

माँ और मैं एक-दूसरे की तरफ़ देखते रह गए. रोना तो दूर बप्पा को इससे पहले हमने गीली आँखों में भी कभी न देखा रहा…..

“क्यों?” कबाड़ उलट-पुलट रहा कांस्टेबल ठठाया, “तुम्हें छोड़ भागी है क्या?”

“छोड़ भागती तो भी सही रहता, सरकार,” बप्पा की रुलाई ऊँची हो ली.

तभी एक रेलगाड़ी की आवाज़ हम तक चली आई.

माँ आवाज़ की तरफ़ भाग ली.

जाने मेरे दिल में क्या आया. बप्पा को इस तरह बिलखते हुए देख लेने के बावजूद भी मैं बप्पा के पास जाने के बजाय माँ के पीछे दौड़ लिया.

लेकिन बीच रास्ते की भीड़ और खलबली ने माँ को कब और कैसे, मेरी आँखों से ओझल कर दिया, मुझेकुछ पता न रहा.

घबरा कर मैं बप्पा के पास लौट आया.

“माँ भाग गई हैं,” मैं सुबकने लगा, “चलो. जल्दी चलो. माँ को ढूँढ लाओ. माँ को ढूँढ लाओ…..”

“देखा आपने? सरकार?” बप्पा अभी भी सिसकियाँ भर रहे थे, “कैसी बावली है वह! काबू में नहीं रह पाती. न मेरे. न अपने. इसी तरह रोज़ भाग निकलती है. फिर हमारे बुलाने पर लौटती है. फिर भाग निकलती है, फिर लौटती…..”

“आप सारा सामान ले लीजिए,” मैं एक पुलिस कांस्टेबल के पैरों में लोट गया, “बोरे वाला. यहाँ वाला. माँ के बक्से वाला. मगर मेरे बप्पा को छोड़ दीजिए. माँ को लौटाना है…..”

“यक़ीन मानिए, सरकार,” बप्पा ने हथकड़ी में बँधे अपने हाथ उठाए और गिराए, “यह लड़का अपनी माँ का मुँह देखकर जीता है. उसे कुछ हो गया तो यह बहक जाएगा…..”

“अजीब आदमी हो,” दूसरे कांस्टेबल ने अपने हाथ नचाए, “अभी उसकी मौत माँग रहे थे और अब तुम्हें उसकी ज़िन्दग़ी बचाने की तलबेली तंग करने लगी है…..”

“कोई बक्सा भी है क्या?” अपने पैरों से मुझे अलग करते हुए पहले पुलिस कांस्टेबल ने मुझसे पूछा.

“हाँ,” मैं फफका, “उस बक्से में बहुत से रुपए भी हैं. मगर आप पहले मेरी माँ को लौट आने दीजिए…..”

“वह बक्सा न पहले देख लें क्या?” कूलर के पल्ले को अपने कब्ज़े में करने वाले दूसरे कांस्टेबल ने पहले वाले की ओर देखा.

“देख लीजिए, सरकार,” बप्पा की उतावली भी बढ़ ली, “वह भी देख लीजिए, सरकार…..”

माँ अपना बक्सा अपने कब्ज़े में रखती रही. बप्पा को उसे हाथ तक न लगाने देती.

मगर बटुए वाले रुपए माँ के बक्से में कहीं न मिले. बहुतछानने-खोजने के बावजूद न मिले. मैं ज़रूर ग़लत समझा था. उस जनाना कांस्टेबल ने जान-बूझकर मुझे बहकाया था. बेठीक मारा था. ठग कहीं की!

“यहाँ तो डॉक्टरों की पर्चियाँ हैं और कुछ दवा की गोलियाँ हैं और यह रेज़गारी है,” कूलर के पल्ले को अपने कब्ज़े में करने वाले कांस्टेबल ने मुझे एक ज़ोरदार हल्लन दिया, “तू किन रुपयों की बात कर रहा था?”

“आप भूल रहे हो,” सच्चा साबित होने कीकोशिश में मैंनेकहा, “आपकेआनेसे पहलेभी तो हमारी गुमटी में पुलिस आईरही, पुलिसकी तलाशी हुई रही…..”

“मुझेखोलदीजिए, सरकार,” बप्पानेअपनेबँधे हाथ फिर उठाए और गिराए, “इसी लड़के की ख़ातिर खोल दीजिए…..”

“क्यों?” दोनों कांस्टेबल एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे.

“खोल देते हैं,” किसी ने कहा और बप्पा की हथकड़ी की चाबी किसी एक ने अपनी जेब से बाहर निकाल ली.

मगर जब तक हम माँ को खोजने के लिए निकलते, माँ की ख़बर हमारे पास पहुँच ली.

रेलगाड़ी के नीचे वह कट मरी थीं.

ख़बर सुनते ही दोनों पुलिस कांस्टेबल बप्पा के बोरे के साथ ग़ायब हो लिए.

दीपक शर्मा

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