गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

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गुजरे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

अब आगे ….

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4

उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह

(लखनऊ और औबरा 1967 से69)

 

एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण  बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics)  का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी।

 

मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई।

 

उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे।

 

ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था,  मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी।

 

इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे।

 

यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था।

 

यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से एम.म्यूज़ थे, आकाशवाणी से शास्त्रीय संगीत के गायक भी थे। शुद्ध शास्त्रीय गायकी के अलावा, वे कई साज़ बजा लेते थे। वे तबला वादक बहुत अच्छे थे। हमारे आग्रह पर वे मुझे ट्यूशन देने को तैयार हो गयेथे।मुझे शास्त्रीय  गायन में बहुत रुचि थी, लग कर नहीं, पर गर्मियों की छुट्टियों में थोड़ा बहुत सीखती रही थी। आठवीं कक्षा तक स्कूल में संगीत एक विषय के रूप में पढ़ा था, जिसे मैने हमेशा गंभीरता से लियाथा ।काफ़ी लोग रेडियो और टेप रिकॉर्डर पर गाने सुनकर बहुत कुछ सीख ही लेते थे।मैनेग़ज़ल गायिकी सुन सुन कर ही सीखी थी।कॉलिज के मनोविज्ञान विभाग में मै ग़ज़ल गायिकी के लिये भी जानी जाने लगी थी, परन्तु उस समय तक मैं ग़ज़ल को एक गायन की विधा समझती थी,ठुमरी या ख़याल की तरह।उर्दू कभी पढ़ी नहीं थी।उस समय हिन्दी में ग़ज़ल की कोई पहचान नहीं थी। मतला, मक़ता, मिसराऔरबहर जैसे शब्दों से कोई परिचय न होते हुए भी बहुतसी ग़ज़लें सुन सुन कर गाईं थी  ,जो किसी न किसी राग पर आधारित होती थीं।मुझे ग़जल गायक का नाम मालूम होता था, पर शायर का नहीं। कभी शायर का नाम जानने या याद रखने की कोई कोशिश भी नहीं की थी।ग़ज़ल के साहित्यिक पक्ष की जानकारी तो बहुत बाद में हुई, हालांकि अभी तक लिखने की हिम्मत नहीं की है।

 

मेरे परिवार के सभी लोग संगीत में रुचि रखते थे।पाँडे जी मेरी प्रतिभा से प्रभावित थे, उनका मानना था कि मेरी सुर ताल कीपकड़ अच्छी थी, पाँडे जी अपने स्कूल में कुछ बेसुरे बच्चों को सारेगामा सिखा सिखा कर ऊब जाते थे ,तो हमारे घर आकर सिखाने में उन्हे अच्छा लगता था। वे चाहते थे कि मैं इलाहाबाद उनके साथ जाकर आकाशवाणी में संगीत की स्वर परीक्षा दूँ, पर ऐसा मौक़ा नहीं लगा, मुझे भी कोई कलाकार बनने का शौक नहीं था, संगीत सिर्फ एक शौक था, एक सकून था।पाँडे जी को स्कूल के अलावा वहाँ के ऑफीसर्स क्लब में होने वाले कार्यक्रमों के लिये भी तैयारी करवानी पड़ती थी। एक बार उन्होनें एक बिलकुल नया प्रयोग किया, अधिकारियों के परिवारों से कुछ ऐसे लोगों को चुना जिन्हे सुर ताल का थोड़ा ज्ञान था। इनमें मेरी मम्मी और भैया के अलावा मैं भी थी, मम्मी को तो हारमोनियम बजाना आता था, पर बाकी सब के हाथ में एक ऐसा साज़ पकड़ा दिया गया जो उन्होने कभी नहीं छुआ था। पाँडे जी ख़ुद तबले पर रहे। मुझे जलतरंग और भैया को बाँसुरी बजानी थी।एक एक सुर रट कर हम बजाते रहे, जल तरंग में तो पानी भी सुर के मुताबिक रोज़ भरकर स्वर से मिलाना होता था, ये काम रोज़ पाँडे  जी करते थे,उसके बाद अभ्यास कराते थे । पहले अलग अलग अभ्यास, फिर पूरे समूह का अभ्यास होता था। सब रटा हुआ था, यदि कोई एक ग़लती करदे तो सँभालना मुश्किल हो जाये।इस कार्यक्रम की बहुत सराहना हुई, सब ठीक से हो गया हो गयाथा।उससे पहले न उसके बाद मैने कभी जलतरंग नहीं बजाया।वह धुन, वह स्वर मैं आज तक नहीं भूली हूँ, अभी भी गुनगुना सकती हूँ, क्योंकि क़रीब एक महीने तक अभ्यास किया था।

 

ओबरा में घर का वातावरण भी कुछ खट्टा मीठा रहता था।  चोखा महाराज के अलावा एक नौकर तो और होता ही था।  भाभी को रसोई के काम का शौक था और चोखा महाराज को दख़ल अंदाजी की आदत नहीं थी। मम्मी को लगता था कि भाभी दिनभर बिना बात खटती हैं। भाभी को तारीफें सुनने की उम्मीद रहती जिसे भैया तो पूरा करते पर मम्मी को तो तारीफ करना आता नहीं था। दूसरी ओर मम्मी और नानी के बीच भी खटर पटर चलती रहती थी।नानी के बूढ़े दिमाग़ में कुछ ऐसी घटनायें, बातें बस गई जो कभी हुई ही नहीं थीं वो कहती ” हमरे घर में एक बार जवाहर लाल नेहरू आकर ठहरे थे….. वो उनकी लौंडिया का नाम था……………हाँ इन्द्रा बड़ी शैतान थी…….”,इसके बाद इन्द्रा की शैतानियों का जिक्र वैसा का वैसा सुनाते जाना,मेरे भतीजों और भतीजी को उनकी बातों में बड़ा मज़ा आता, उधर मम्मी चिल्लातीं ” देखो कैसी मन घडंत बाते कर रही हैं, जिससे कि बच्चे इनको घेरे बैठे रहें।” मम्मी को सोने के लिये अँघेरा चाहिये होता नानी को अँधेरे में नींद नहीं आती थी,एक को खिड़की बंद करनी होती थी तो एक को खिड़की खुली रखना पसंद था। इसी तरह पंखा हल्का चले या तेज़ इस पर चिख चिख़ होती थी।मेरे तो सब सर पे सवार रहते थे,भैया और मम्मी ख़ासकर, मैं उनकी नज़र में वह थी जो घर के किसी काम में दिलचस्पी नहीं लेती थी, न उठने बैठने का शऊर था, अपनी मन की करती थी, किसी की नहीं सुनती थी । इतने साल होस्टल में रहने के बाद मैं इतनी टोका टोकी की बिलकुल आदी नहीं थी,परंतुइन सब बातों को नज़र अंदाज़ करने के अलावा मैं कर भी क्या सकती थी।उनकी नज़रों में मैं हॉस्टल में रहकर काफ़ी निकम्मी हो चुकी थी। मैं क्या सोचती हूँ मेरी जीवन से क्या अपेक्षा है किसी ने जानने की कोशिश नहीं कीथी।स्कूल की नौकरी और संगीत सीखने में समय अच्छा बीत रहा था पर जीवन की कोई दिशा निर्धारित नहीं थी। बस समय के बहाव में बह रही थी।मम्मी को लगने लगा था कि ओबरा में रहते मेरे लियें उचित वर तलाशना मुश्किल है क्योंकि ओबरा इलाहाबाद , वाराणसी और मिर्ज़ापुर से 80, 90 कि मी दूर था बस के अलावायातायात का कोई और साधन नहीं था। जान पहिचान के लोग और रिश्तेदार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरों में थे, संपर्क का साधन केवल चिट्ठी ही होती थी वो भी ओबरा बहुत देर से पहुँचती थी। उपयुक्त वर कैसे ढूँढें उन्हे ये चिंता थी।

 

1968 के दिसम्बर में मेरे एक मौसेरे भाई की शादी दिल्ली में थी ,हम सब लोग वहाँ शामिल होने गये तब मम्मी ने ग्वालियर से एक परिवार को दिल्ली बुला लिया, जिनसे उनका पत्रव्यवहार चल रहा था।अरुण के माता पिता वहाँ आये मुझे देखा, उससे पहले भैया ग्वालियर जाकर अरुण से मिल आये थे या कहूँ कि देख भाल आये थे ।अरुण रेलवे में (आइ. आर. एस. ई.) इंजीनियर थे और विजयवाड़ा आंध्र प्रदेश में कार्यरत थे। दिल्ली में अरुण के माता पिता के ‘हाँ’ करते ही हमारी शादी तय हो गई हमने एक दूसरे को देखाभी नहीं था और रुकाई(रोका) हो गई ।

 

रोका तो होगया पर हमारी होने वाली सासू जी का आग्रह था कि उनकी एक बड़ी ननद दिल्ली में सब्ज़ी मंडी में रहती हैं।वहाँ मुझे जाकर मिलवा लाया जाये, क्योंकि वो बहुत बूढ़ी और बीमार हैं, जबकि यह लोग अगले ही दिन ग्वालियर चले गयेथे ।अजीब सा आग्रह था पर कोई ऐसी माँग तो थी नहीं जिसको न माना जाये । हम लोग दिल्ली में कुछ दिन रहने वाले थे। कुछ लोगों ने कहा कि शादी से पहले लड़कीको ससुराल वालों के घर नहीं जाना चाहिये पर मम्मी और भैया नें निर्णय लिया कि शुरू में ही ज़रा सी बात को लेकर कोई मतभेद नहीं होना चाहियें। रिश्ता किया है तो लचीलापन होना चाहिये।एक दिन भैया भाभी और मैं वहाँ जाने के लिये तैयार हुए ,उन्हे सूचना दे दी गई थी। मम्मी ने उन बुजुर्ग भुआ जी के लिये एक लिफ़ाफा बना कर भैया को दे दियाथा, बाकी लोगों को रुकाई की रस्म पर वाजिब लिफ़ाफ़े रस्म के अनुसार दे दिये गये थे।हम लोग जब उनके घर पहुँचे तो वहाँ दस पंद्रह लोग थे, सबसे परिचय करवाया गया।भैया कुछ काम है, कहकर ग़ायब हो गये।जलपान इत्यादि होने पर भैया ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को लिफ़ाफ़े दिये। उन लोगों की तरफ़ से भी मुझे लिफ़ाफे मिलेथे । हम वहाँ से विदा हुए टैक्सी लेने से पहले ही भैया बोले ‘भगिनी’’ वो मुझे प्यार से भगिनी कहते थे, ‘’भगिनी जो माल मिला है वो निकालो,’’ भाभी से बोले ‘’तुम्हारे पास जो है वो भी निकालो।‘’ हम सोच रहे थे कि क्या हुआ है भैया को!तब भैया ने बताया कि मम्मी ने तो सिर्फ़ भुआ जी के लिये लिफ़ाफ़ा भेजा था वहाँ तो पता नहीं कितने लोग दिख गये ………….उन्हे लगा सबको लिफ़ाफ़ा देना चाहिये। इतने रुपये लेकर वो चले नहीं थे, लिफ़ाफ़े भी नहीं थे, उन्होने पास की किसी दुकान पर जाकर अपनी अँगूठी गिरवीं रखकर पैसे जुटाये लिफ़ाफ़े ख़रीदकर उनमें रु डाले, इसके लिये 40, 45 मिनट के लिये वेग़ायब हो गये थे।मुझसे और भाभी से रुपये लेकरउन्होने अपनी अँगूठी वापिस लीथी।घर पहुँच कर मम्मी को बताया तो वो हँसी तो पर बोली कि ‘’जब भुआ को पैसे देने को कहा था तो उन्ही को देने थे अब वहाँ उन्होने अपने पड़ौसी भी बुलायें हों तो तुम ऐसे अँगूठी गिरवी रखोगे…….’’ हम सब भाई बहनों को मम्मी की ऐसी झिड़कियाँ सुनने की आदत थी।

 

उस ज़माने में भी पढ़े लिखे लोगों में लड़का लड़की के एक दूसरे को औपचारिक तरीके से देखने के बाद ही शादी तय होती थी, पर हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ, हमने पूरी ज़िम्मेदारी परिवार पर छोड़ दी थी। मम्मी चाहती थीं कि ये सब लोग एक बार ओबरा आयें और मैं शादी से पहले अरुण से एक बार मिल लूँ, भले ही शादी तय हुई थी, शादी  हुई तो नहीं थी इसलिये उन्होने ओबरा में सगाई करवाने के लिये उनसे आग्रह किया, जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार कर लिया।अगले वर्ष यानी 1969 के मार्च महीने में अरुण के माता पिता ग्वालियर से, बड़ी बहन सिंदरी(बिहार अब झारखण्ड)से और अरुण विजयवाड़ा से सीधे वाराणसी पहुँचे और वहाँ से ओबरा आने का प्रबंध भैया ने कर दियाथा।भैया के एक मित्र के परिवार के सभी लोग शहर से बाहर गये हुए थे ,वहाँ इन सबको ठहराने का प्रबंध होगया, खाना हमारे घर पर होता रहाथा,अधिकतर समय भी वहीं बीतताथा। सगाई का कोई बहुत बड़ा समारोह नहीं था बस भैया के कुछ दोस्तों के परिवार थे। उस समय एक दूसरे को अँगूठी पहनाने का रिवाज नहीं था यह रिवाज तोकेक काटने की तरह अंग्रेज़ो से आया है। मम्मी ने अरुण को अँगूठी पहना दी और जो उपहार आम तौर पर दिये जाते हैं, उन्हे अरुण को और पूरे परिवार को भी दे दिया ।उनकी तरफ़ से भी अरुण की माता जी जिन्हे सभी चाची जी कहते हैं मुझे कुछ आभूषण और साड़ी दी। बस हो गई सगाई।

 

हमारे परिवार की तरफ से प्रस्ताव दिया गया कि यदि अरुण चाहें तो मुझसे अकेले में बात कर सकते हैं पर वहाँ से जवाब आया कि इसकी ज़रूरत नहीं है।दो दिवस ओबरा में  निवास के दौरान अरुण ने मेरी तरफ़ नज़र उठा कर भी देखा हो मुझे ऐसा नहीं लगा। पूरे समय गंभीर मुद्रा में रहे, मैने मुस्कुराह का एक निशान उनके चेहरे पर नहीं देखा। इसे मैं शालीनता, गंभीरता,बड़ों का लिहाज़ संस्कार समझती या समझती कि उन्होंने परिवार के दबाव में रिश्ता स्वीकार किया है। मैं यह गुत्थी सुलझा नहीं पार ही थी।उनके बारे में मेरे क्या विचार थे यह भी लिखना ज़रूरी है, परिवार द्वारा चुने रिश्ते में भावनात्मक जुड़ाव तो होता नहीं है, बिना मिले जुले व्यक्तित्व का आकलन भी नहीं हो सकता, हाँ क़दकाठी शक्ल सूरत में अच्छे ही लगे,नौकरी बहुत अच्छी थी। परिवार में सब पढ़े लिखे लोग थे, मेरी तरफ़ से रिश्ता अच्छा था, बाकी बातें परिवारवाले देख ही लेते हैं।मेरी बेचैनी बस यह थी कि अरुण  कहीं परिवार के दबाव में तो नहीं थे। यह कैसे पता करूँ! कहाँ विजयवाड़ा कहाँ ओबरा! फोन तो शायद लगता ही नहीं, चिठ्ठी के अलावा संचार का कोई साधन नहीं था।चिट्ठी के लिये भी लड़की पहल करे यह अजीब बात है, बेशर्मी भी समझा जा सकता है! मैने हिम्मत जुटा कर एक पत्र अंदाज़ से सरकारी पते पर भेजा, उन दिनों आँध्र में तूफ़ान आया हुआ था इसलिये कुशलता जानने के बहाने असल बात जानना सरल हो गया, पत्र में सीधे सीधे यह भी लिख दिया कि किसी दबाव में ये रिश्ता स्वीकार न करें। अब उनके संस्कार देखिये ……..जवाब भैया के नाम आया जिसमें ओबरा में उनके निवास और देखभाल का धन्यवाद देते हुए हमारे परिवार से जुड़ने पर ख़ुशी ज़ाहिर की। मुझे अपना जवाब मिल गयाथा!

 

ओबरा में मार्च में सगाई होने के बाद मे शादी में काफ़ी समय था।12 दिसम्बर की तारीख तय हुई थी। उन दिनों ट्रँक कॉल होते थे, मंहगे भी होते थे, चीख चीख कर बोलना पड़ता था।पत्र उधर से आया न इधर से गया।शादी के लिये कोई उत्सुकता नहीं महसूस हो रही थी, बस करनी है तो कर लेते हैं, कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं हुआ था, जब किसी को जानते ही नहीं तो जुड़ाव कैसे होता।धीरे धीरे शादी की तैयारियाँ होने लगी। बनारस जाकर ख़रीददारी होनी थी। साड़ियाँ ……………… फिर ब्लाउज़ पेटीकोट सिलना,स्वेटर बनाना। तब टैंट हाउस नहीं होते थे हर चीज़ व्यक्तिगत तौर पर करनी पड़ती थी, ज़रा ज़रा सी चीज़ के लिये सौ किलोमीटर बनारस जाना पड़ता था। रिश्तेदार न सही पर भैया के सहकर्मी और दोस्त बहुत थे, जो हर काम के लिये तत्पर रहते थे। सबने कुछ न कुछ ज़िम्मेदारी ले ली थी। ओबरा जैसी जगह में दूसरे शहरों से मेहमान आना मुश्किल था। बीबी भी अमरीका से आने की स्थिति में नहीं थी बस सुरेन भैया अपनी तीनो बेटियों के साथ आ गये थे।

 

हमारे परिवार में गीत संगीत का बड़ा शौक है, हमने 1961 की एक शादी में जयमाला के लिये एक गीत बनाया था जिसका मै ज़िक्र कर चुकी हूँ उसी गीत को हमारे संगीत के अध्यापक ने हम परिवार की महिलाओं की आवाज़ में वाद्यो के साथ रिकॉर्ड किया था। वह कैसेट से पहले का ज़माना था जब बड़े बड़े स्पूल वाले टेप रिकॉर्डर होते थे।रिकॉर्ड करना इसलिये ज़रूरी था क्योंकि भाभियाँ उस समय व्यस्त होंगी और उसमें मेरी आवाज़ भी शामिल करनी थी।उस ज़माने मे शादियाँ घर पर ही होती थीं। बग़ल में अधकारियों का क्लब था पर शादी घर छोड़कर कहीं और से हो ये सोच के परे था, जैसे आज घर से शादी होना सोच के परे है।भैया के सरकारी निवास का लॉन और प्रांगण भी अच्छा ख़ासा बड़ा था। मुझे मेरी दो सहेलियों के साथ बाहर आना था ,स्टेज तक उतने बीच रिकॉर्ड किया हुआ गाना बजना था और मेरे आगे मेरी भतीजी और उसकी एक सहेली को नृत्य करना था। एक एक स्टैप की रिहर्सल की थी।मै हँस देती या कुछ बोलती तो भैया कहते तुम्हारी नज़र ज़मीन पर रहनी चाहिये………डेढ दो घंटे ऐसे ही बैठे रहना।

 

मुझे शादी में ज़्यादा तड़क भड़क का शौक नहीं था जैसे आजकल एक दिन के लियें हज़ारों रुपये ब्युटी पारलर, किराये के गहने और लहंगे में ख़र्च हो जाते हैं, वैसा कुछ भी नहीं था। बनारसी साड़ी और असली ज़ेवर काफी थे! मेकअप भैया के एक सहयोगी की पत्नी ने कर दिया। मंडप भी दिन रात मेहनत करके उनही लोगों ने बनायाथा।बारात की अगवानी बनारस से ही शुरू हो गई थी।मेरी मम्मी भैया सभी को सेहरा पढ़ने का शौक था पर उधर से संदेश आया कि अरुण सेहरा क्या पगड़ी पहनने को भी तैयार नहीं थे। अपने घर में भी उन्होने न हल्दी की या लगवाई न घुड़चढ़ी होने दी । आख़िर में मम्मी की ज़िद के आगे हथियार डालकर,  किसी तरह से वह सब पहनने को तैयार तो हो गये ,पर पूरे समय कोई ख़ुशी चेहरे पर नहीं थी, बहुत असहज थे , माला पहनते ही अपने सर पर ज़बरदस्ती का रखा बोझ उतार दिया।फेरों के समय जब पंडित ने कहा कि वर के सिर पर कुछ ढ़कें तो उनके पिताजी जिनको सभी चाचाजी कहते थे, अपनी फर की टोपी पहना दीथी।

 

उन दिनो शादी के तौर तरीके रिवाज आज से बहुत अलग थे। दूसरे शहर से आई बारातें तीन दिन ठहरती थीं ,उनकी हर छोटी बड़ी ज़रूरत के लिये सारे इतज़ाम जनवासे में होते थे जैसे प्रैस वाला, नाई और जूते पॉलिश करने वाला। खान पान की सब सुविधा होती थी। राजसी ठाठ होते थे, लेकिन लड़की वालों के यहाँ शादी की रात हर आमंत्रित व्यक्ति भोजन नहीं करता था। सब आमंत्रित लोगों को चाय या ठंडे पेय के साथ प्लेटों मे नाश्ता परोसा जाता था। बारात को खाना बैठा कर खिलाया जाता था। बारात के बाद घर वाले, घर में ठहरे हुए मेहमान और स्थानीय क़रीबी लोग जो शादी तक रुकने वाले होते थो वो भोजन करते थे।

 

केटरिंग की व्यवस्था भी अलग होती थी । हलवाई होते थे उन्हे सारा सामान लाकर दिया जाता था, कारीगरी के पैसे दिये जते थे। घर के किसी व्यक्ति को  उनकी देखरेख के लिये बैठना पड़ता था।मेरे एक कज़िन इस काम के तजुर्बेकार थे जिन्होने बख़ूबी यह ज़िम्मेदारी निभाई थी ।शादी के कामों मे रिश्तदारों, मित्रों और पड़ौसियों की भागीदारी होती थी, जबकि आजकल सब पैसे से हो जाता है, घर वाले ही विवाह स्थल पर समय पर ही पहुँचते हैं। बदलाव तो नियति का हिस्सा है,  हमेशा हुए हैं होते रहेंगे।

 

आम तौर पर विधवायें किसी शुभ काम में सामने भी नहीं पड़ती परन्तु मम्मी ने माता पिता के सब काम किये, वर की आरती से लेकर, कन्यादान तक।मम्मी के इस क़दम की बारातियों में कोई चर्चा नहीं हुई क्योंकि उन दिनों हमारे यहाँ बारात में पुरुष ही आते थे और ऐसी बातें महिलाये ही सोच सकती है। बाद में भी किसी ने कोई नाराज़गी इस बात पर नहीं जताई। मम्मी कुछ बातों में बहुत प्रगतिशील विचारों की थी और कुछ बातों मेंबहुत पारम्परिक।पहले कभी 30 के दशक में उन्होने और पिताजी ने हमारे ताऊजी की विधवा बेटी का पुनर्विवाह करवाया था।शादी की सारी रस्मे होने के बाद एक दिन पूरी बारात आस पास के जगहों पर घूमने फिरने चली गई, 14 दिसम्बर की सुबह बिदाई होनी थी।14 दिसम्बर को ही भैया का जन्मदिन होता है, उन्होने कुछ दिन पहले ही मज़ाक में कहा था कि उस दिन सब उनका जन्म दिन भूल जायेंगें, पर मुझे याद रहा और मैने उन्हे बधाई दी थी।

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