अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

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अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

 

जिन दरवाज़ों को खुला होना चाहिए था स्वागत के लिए, जिन खिड़कियों से आती रहनी चाहिए थी ताज़गी भरी बयार, उनके बंद होने पर जीवन में कितनी घुटन और बासीपन भर जाता है इसका अनुमान सिर्फ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अपने आसपास ऐसा देखा, सुना या महसूस किया हो।
रिक्तता सदैव ही स्वयं को भरने का प्रयास करती है। भले ही इस प्रयास में व्यक्ति छीजता चला जाए या शनै-शनै समाप्त होता चला जाए…
रिश्तों में आई दूरियाँ और रिक्तता व्यक्ति को भीतर ही भीतर न केवल तोड़ देती हैं,अकेला कर देती हैं बल्कि उसका स्वयं पर से, दुनिया पर से भरोसा भी डिगने लगता है। ऐसे सूने जीवन से जूझते पात्रों की भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी है ‘अब तो बेलि फैल गई’ उपन्यास में।

 

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

 

कविता वर्मा किसी लेखकीय परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके रचना कौशल, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों से उनकी सम्बद्धता के साथ ही स्पष्टवादिता और निडरता से भी हम सभी भलि भांति परिचित हैं। बावजूद इसके उनके स्नेहिल मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों की बड़ी संख्या यही बताती है कि वे अपनी जगह कितनी सही हैं।
इस उपन्यास में भी उनके पात्रों में उन्होंने तमाम मानवीय और परिस्थितियों से जुड़ी कमज़ोरियों के साथ ही इन गुणों को भी अवस्थित किया है जिनके बल पर वे पात्र सही-गलत के पाले में झूला झूलते हुए सही पाले में जाकर रुक जाते हैं और कहानी एक खूबसूरत मोड़ पर पहुँचती है।

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मध्यम वर्गीय जीवन की विरूपताओं और विडंबनाओं को अनावृत करने वाले घटनाक्रमों की एक बड़ी श्रृंखला के बीच, पुनर्मूल्यांकन और नैतिकता को किसी ऐसे कुशल चितेरे की भांति अपनी कृति में सजा दिया है कि सब कुछ सहज ही प्रभावित करने वाली अनुपम कृति में सामने आया है।

रिश्तों के ताने-बाने में उपेक्षा, छल, अपमान, कटुता और अलगाव के काँटे हैं तो वहीं प्रेम, विश्वास, आदर, अपनापन, सहयोग और समायोजन के बेल-बूटे और फूल-पत्ती की कसी हुई बुनावट भी है जो पूरे उपन्यास को सम्पूणता प्रदान कर रही है।

कविता वर्मा

लेखिका- कविता वर्मा

इस उपन्यास को ट्रेन यात्रा के दौरान इसे पढ़ा, पढ़कर कई बार मैं स्तब्ध सी रह गई थी कि इतना महीन सच का धागा लेकर कैसे ही इतने खूबसूरत और मजबूत उपन्यास की चादर बुन ली है! जिसको‌ चाहे हम ओढ़ें, बिछाएं या शॉल की तरह लपेटें, हम खुद को एहसासों की गर्मी से नम ही रखेंगे! एहसासों की ये गर्मी कभी झुलसाती भी है तो कभी ठंडे पड़ते रिश्तो में गर्माहट लाने का काम भी करती है!

उपन्यास की कथा वस्तु दो आधे-अधूरे रह गए परिवारों के संघर्ष, पछतावे और इन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करने के इर्दगिर्द घूमती है।

एक हैं मिस्टर सहाय जिनके मन में अत्यधिक ग्लानि और पछतावा है अपनी भूलों को लेकर। जो कुछ अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए,वही सब एक अन्जान परिवार के लिए करते हुए स्वयं को एक अवसर और देने की कोशिश करते हैं।
तो दूसरी तरफ नेहा है, संघर्ष जिसके जीवन में स्थाई रूप से ठहरा हुआ है और जो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। बिना किसी गल्ती के उसके जीवन में अकेलापन भर गया। रिश्तों ने कदम-कदम पर उसे छला है। परन्तु अनजाने में ही एक अनजान व्यक्ति पर किया गया भरोसा उसके मन में दुनिया से उठते हुए भरोसे के दंश पर मरहम लगाने का काम करता है।

जो बीत गया उसे बदला तो नहीं जा सकता,पर आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। मुझे इस उपन्यास का मूलभाव यही लग रहा है। आज हमें ऐसे ही कथानकों की ही भारी आवश्यकता है जो केवल संघर्ष, दुख-दर्द, आपत्तियों और विपत्तियों का ही मार्मिक चित्रण कर सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य पर काम न करके, कुछ ऐसा प्रस्तुत करें कि बहने की बजाय खुद जाएँ आँखें कि अरे हाँ! रोते रहने की बजाय जीवन को ऐसे भी जिया जा सकता है… कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। इस दृष्टि से यह उपन्यास एकदम सफल है।
मिस्टर सहाय के साथ उनके बेटे सनी की बात चलती है और नेहा के साथ उसके बेटे राहुल की कहानी चलती रहती है जिसके माध्यम से बालपन और युवावस्था की जटिलताओं, कमज़ोरियों और समझदारी का सहज, सुंदर वर्णन किया गया है।

एक और महत्वपूर्ण पात्र है सौंदर्या, जिसकी चर्चा के बिना बात अधूरी ही रहेगी। मिस्टर सहाय और नेहा की कथा को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पात्र को गढ़ा गया है। हालांकि वास्तविक जीवन में ऐसे पात्रों का होना थोड़ा संशयात्मक है, फिर भी असंभव तो नहीं। और फिर जैसा कि मुझे लगता है कि ऐसे पात्रों को रचकर ही तो समाज में ऐसे पात्रों को पैदा किया जा सकता है, एक राह सुझाई जा सकती है। इसलिए सौंदर्या का होना भी उचित ही ठहराया जा सकता है।
तमाम मानवीय संवेदनाओं के अजीबोगरीब ड्रामे और उठा-पटक के बिना ये संवेदनशील कहानी अपनी सहज गति से आगे बढ़ती हुई मंज़िल तक पहुँचती है और पाठकों के चेहरों पर मुस्कान सजा जाती है।

ऐसी पुस्तकें पढ़कर कभी-कभी मेरे मन में आता है वही कहूँ जो हम पौराणिक व्रत-कथाओं को कहने- सुनने के बाद कहते हैं। हे ईश्वर सबके जीवन में ऐसे ही सुख बरसाना जैसे इस कथा के पात्रों के जीवन में बरसाया है।
मज़ाक से इतर, कविता वर्मा की लेखनी की सदैव प्रशंसक रही हूँ, इस उपन्यास ने उसमें और बढ़ोतरी की है। ऐसे ही अच्छा लिखते रहें। ये लेखन ही समाज को दिशा दिखाएगा। शुभकामनाएँ

शिवानी जयपुर

 

शिवानी जयपुर

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