बस्तों के बोझ तले दबता बचपन

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जब सुकुमार छोटे बच्चों को बस्ते के बोझ से झुका स्कूल जाते देखतीं हूँ तो सोचती हूँ कि देश मेरांआजाद हो गया पर भारतीय मानस अभी तक परतन्त्र है क्योंकि अंग्रेज भारत छोड़ गये लेकिन अभिभावकों में अपने बालक को सीबीएसई स्कूल में पढ़ा अव्वल कहलाने की चाह स्वतंत्र भारत में भी पूर्णरूपेण जिंदा है । नौनिहालों को देख बरबस ये पंक्तियां फूट पड़ती है ——-
      आज  शिक्षा निगल रही बचपन
बोझ बस्ते का कमर तोड़ रहा
       क्यों करते हो इनसे अत्याचार
भरने दो अब हिरनों सी कूदाल

                 मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा बनाई गई आठ सदस्यों की समिति बनाई जिसकी अध्यक्षता शिक्षाविद् प्रो .यशपाल कर रहे थे इसका उद्देश्य “स्कूली बोझ” का अध्ययन करना ही था इस समिति ने विभिन्न स्कूलों का सर्वे कर  पाया कि “बच्चों के साथ बस्ते के बोझ से भी बुरी जो बात है वह यह कि वे उस बोझ को समझ नहीं पाते है ।
                   उधम , शैतानी की उम्र में किताबों का एक बोझ उन पर लाद दिया जाता है । बालसुलभ मन के एकाकी पन , छटपटाहट एवं खौफ को इस रिपोर्ट में देखा जा सकता है । रिपोर्ट में सुझाव भी दिये गये थे लेकिन उन सभी  सुझावों को सरकार के द्वारा इमानदारी से स्वी�कृत नहीं किया गया ।
                  बच्चों पर जो बोझ है इसके लिए माँ बाप भी कम उत्तरदायी नहीं । कक्षा में अव्वल आने की चाह बच्चों से ज्यादा माँ – बाप को होती है इसलिए जो उम्र खेल-कूद की होती है उसमें बच्चे बस्ते  के बोझ तले होते है प्राय : दूसरी -तीसरी कक्षा से ही अच्छे अंक लाने के लिए पुस्तकों के साथ युद्ध लड़ने लगते है ।
                 केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने भी स्कूल बैग के भार को कम करने की जरूरत के विषय में कहा है कि कक्षा एक या दो के छात्रों को गृहकार्य न दिया जाए और उच्च कक्षाओं में भी समय सारणी के अनुरूप ही केवल जरूरी पुस्तकें लाना सुनिश्चित किया जाए। तथा संचार -प्रौधोगिकी के माध्यम से शिक्षण पर बल दिया जाए।
                  माता -पिता की इन्हीं महत्वाकांक्षाओं का फायदा उठा कर उत्कृष्ट शिक्षा देने की आड़ में स्कूल वाले ज्यादा से ज्यादा वसूलने में लगे रहते है और मनमाफिक पब्लिशर्स से किताबें खरीद बच्चों को देते है या नाम बताकर उसी दुकान से
खरीदने को बाध्य करते है और भरपूर मुनाफाखोरी करते है । स्कूल प्रशासकों के लिए यह धन्धाखोरी का नया साधन है ।
                 एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जे एस राजपूत ने इस सम्बन्ध में कहा कि प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की दोड़ में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं।
 
                  इस सम्बन्ध में सुझाव के तौर पर नये विद्यालयों को मान्यता देना बन्द करना चाहिए और तीस पर एक शिक्षक का अनुपात होना चाहिये । लेकिन सरकारी विद्यालयों में भी ऐसा नहीं है ।
               एसोचैम के सर्वे के अनुसार,  “बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण बच्चों को नन्ही उम्र में ही पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसका हड्डियों और शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है।”
                  बस्ते के बोझ को कम करने के लिए प्रि -स्कूल समाप्त कर आरम्भिक कक्षा में साक्षात्कार की प्रक्रिया को बन्द कर देना चाहिए । प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों को केवल तनख्वाह से ही मतलब न रख छात्रों को पढाना भी चाहिए । इस स्तर पर मोमवर्क का भी बोझ नहीं होना चाहिए , बच्चों को उन्मुक्त वातावरण में जीने देना चाहिए ।
डॉ मधु त्रिवेदी 

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