आसान नहीं शख्सियतें रचना – गरिमा विशाल

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संकलन – प्रदीप कुमार सिंह 

में एक ऐसे युवा समाज की जरूरत है, जो ज्यादा से ज्यादा योगदान
कर सके और जो अपने जुनून को अपनी आजीविका बनाने में सक्षम हो

ऐसा मानना है बिहार
के मुजफ्फरपुर की
28
वर्षीय गरिमा विशाल का, जिन्होंने ऐसे ही युवा तैयार करने के उद्देश्य से एक खास
स्कूल
डेजावू स्कूल आॅफ इनोवेशनकी शुरूआत की है। पांच लोगों की टीम द्वारा शुरू किए गए इस
स्कूल में बच्चों की पढ़ाई में उन बातों का ध्यान रखा जाता है
,
जो उनकी सोच को साकार कर
पूरा कर सकें।



सोच की शुरूआत

            बच्चों को पढ़ाने में शुरू से ही गहरी रूचि रखने
वाली गरिमा की गणित में अच्छी पकड़ रही। करियर की मांग को देखते हुए मणिपाल
इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाॅजी से सूचना प्रौद्योगिकी में उन्होंने बीटेक की पढ़ाई
2011
में पूरी कर ली। कैंपस
प्लेसमेंट भी इंफोसिस कंपनी में हो गया। सामाजिक और व्यावहारिक पैमाने के हिसाब से
करियर की गाड़ी तेज रफ्तार से चलने लगी
,
लेकिन उनके मन के अंदर बैठा सामाजिक बदलाव की सोच
रखने वाला शिक्षक हमेशा सुगबुगाता रहा।

शुरू हुआ पढ़ाने का सिलसिला

            गरिमा एक वाकया याद करती हैं, ‘तब मेरी पोस्टिंग इंफोसिस के
भुवनेश्वर आॅफिस में थी। एक दिन मैं शेयरिंग वाले आॅटो से कहीं जा रही थी। उस आॅटो
में एक गुजराती परिवार भी अपने बच्चो के साथ था। उनके बच्चे आपस में हिंदी में बात
कर रहे थे। मेरी उत्सुकता बढ़ी कि भुवनेश्वर में गुजराती परिवार के बच्चे इतनी
अच्छी हिंदी में बात कर कैसे रहे हैं। मैंने पूछ ही लिया कि ये बच्चे किस स्कूल
में पढ़ते हैं
?
जवाब मिला कि ये स्कूल में नहीं पढ़ते, क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में उड़िया पढ़ाई
जाती है और पब्लिक स्कूल में वे पढ़ा नहीं सकते। उन बच्चों को मैंने पढ़ाना शुरू
किया। सुबह
7
से 9 बच्चों को पढ़ाने लगी। जल्दी ही बच्चों की संख्या 30 पहुंच गई।



पिताजी का सपना, मेरा अपना

            गरिमा बताती हैं, ‘मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं आईएएस करूं या आईआईएम
या फिर आईआईटी में पढ़ने जाऊं। मैं भी कुछ ऐसा ही चाहती थी। इंजीनियरिंग करने के
बाद में आईआईएम की परीक्षा के लिए तैयारी कर रही थी।
2014
में उसमें मेरा चयन हो गया।
आईएएस में मेरी रूचि नहीं थी। इंजीनियरिंग के दौरान ही मेरे दोस्त रहे अभय (अभय
नंदन) ने पढ़ाने में मेरी बहुत अधिक रूचि को देखते हुए सलाह दी कि तुम्हारा जो मन
है
,
वहीं करो, ताकि जीवन में संतुष्ट रहो।
वह बात मुझे बहुत पंसद आई और दिल-दिमाग दोनों उस हिसाब से सोचने लगे। फिर कुछ और
दोस्तों और परिवार के सदस्यों से विचार-विमर्श के बाद स्कूल शुरू करने का रास्ता
साफ हो गया।
काम आई आईआईएम की पढ़ाई                                                                     
            गरिमा बताती हैं, ‘2014 में मेरे जीवन में दो बड़े
काम हुए। आईआईएम में दाखिला मिला और पांच दोस्तों के साथ मिलकर ऐसे स्कूल की
स्थापना का निर्णय हो  गया
,
जिसका अंतिम लक्ष्य अपने
पैशन को प्रोफेशन बनाने वाला युवा तैयार करना रखा गया।
वे बताती हैं, ‘अब बिहार में स्कूल खोलने की
कोशिश शुरू हुई। आखिरकार मुजफ्फरपुर के माड़ीपुर में स्कूल को स्थापित करने का
निर्णय लिया। स्कूल का नाम रखा डेजावू स्कूल आॅफ इनोवेशन।  डेजावू फ्रेंच भाषा का शब्द है
,
जिसका अर्थ होता है जुड़ाव
महसूस कराने वाला
,
इसलिए स्कूल के माहौल को घर जैसा बनाया और प्ले स्कूल से लेकर दूसरी क्लास तक
की पढ़ाई शुरू की गई।
10
बच्चों से स्कूल शुरू हुआ और आज यहां पांचवी क्लास तक लगभग 100 बच्चे पढ़ रहे हैं। इनकी
बेहतर पढ़ाई के लिए हम शिक्षिकाओं को तो नियमित रूप से प्रशिक्षित करते ही हैं
,
बच्चों के अभिभावकों
को भी समझाते हैं कि वे अपने बच्चे पर घर में किस तरह ध्यान रखें।

बड़े लक्ष्य के लिए बड़े कदम

            गरिमा की एमबीए की पढ़ाई भी 2016 में पूरी हो गई, जिसके बाद में उन्हें
गुड़गांव की जेडएस कंपनी में प्लेसमेंट मिला। इसी वर्ष अभय से शादी भी हुई। अब समय
था
,
नौकरी को पूरी तरह
अलविदा कहने का। गरिमा ने जब नौकरी को अलविदा कहा उस वक्त उनका वार्षिक पैकेज लगभग
20
लाख रूपए का था,
लेकिन पढ़ाने की
सामाजिक जिम्मेदारी उन्हें इन पैसों से भी महत्वपूर्ण  लगी। यही वजह है कि स्कूल में क्लास बढ़ाने से
लेकर यहां के अति पिछड़े इलाके नेउरा से लेकर ऐसी अन्य जगहों पर स्कूल की शाखाएं
शुरू करने के लक्ष्य के साथ उनकी टीम काम कर रही है। गरिमा की मैनेजमेंट की पढ़ाई
यहां खूब काम आती है
,
जब वे बच्चों को व्यक्तित्व के 360 डिग्री डेवलपमेंट का तरीका अपनाती हैं।
प्रस्तुति – सत्य सिंधु  

साभार: हिन्दुस्तान


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