सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल

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सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन - एक पड़ताल
फोटो क्रेडिट -thelallantop.com


सर्फ एक्सेल वर्षों
से जो विज्ञापन बना रही है उसका मुख्य बिंदु रहता है “दाग अच्छे है | ” ये
विज्ञापन खासे लोकप्रिय भी होते हैं | लेकिन इसी कंपनी के हाल ही में जारी किये गए
 होली के विज्ञापन का बहुत विरोध हो रहा है
| कहीं इसे परंपरा पर प्रहार माना जा रहा है तो कहीं लव जिहाद से जोड़ कर देखा जा
रहा है |प्रस्तुत है इसी विषय पर एक पड़ताल 

सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल 


 मोटे तौर पर देखा जाए तो कम्पनियां व्यावसायिक  उद्देश्य के लिए विज्ञापन बनाती है , ना उन्हें
धर्मिक सौहार्द से कोई लेना देना होता है न इसके बनने –बिगड़ने के राजनैतिक फायदे
से,इस नाते इसे संदेह का लाभ दे भी दिया जाए , तो
 भी ये विज्ञापन अति रचनात्मकता का मारा हुआ होने
के कारण कठघरे में खड़ा हुआ है | इसे देखकर
 लोगों को सद्भावना की जगह ये संदेश  समझ में आ रहा है कि एक हिन्दू त्यौहार दूसरे
धर्मावलम्बियों की राह में मुश्किल खड़ी कर रहा है | अगर लोग ऐसा संदेश समझ रहे हैं
तो उन्हें पूरी तरह गलत भी नहीं कहा जा सकता |

 होली से मिलते-जुलते बहुत से
त्यौहार हैं जहाँ लोग रंग के स्थान पर पानी , टमाटर , तरबूज के छिलके में पैर
डालकर आनंद लेते हैं ,कई देखों में होली की ही तर्ज पर नए त्यौहार चलन में आये
हैं,
 जाहिर है वहाँ भी आम जीवन बाधित होता
है , फिर भी परंपरा
 के नाम पर मनाये जा
रहे हैं | हमारे देश में बहुत से धर्मों और पर्वों को मानने वाले लोग हैं और सब
आपस में सामंजस्य बना कर चलते हैं , एक दूसरे के लिए थोड़ी दिक्कतें सह कर भी ख़ुशी
और दुःख , रीति –रिवाज , त्योहारों में शरीक होते हैं | कौन है जो कह सकता है कि उसके
मुहल्ले में होली गुझियों और ईद की सिवइयों का आस –पड़ोस में आदान –प्रदान नहीं
होता |ऐसे सभी मौकों पर हम एक होना बखूबी जानते हैं |

जहां  तक
इस विज्ञापन की बात है जिसमें दिखाया गया है कि एक बच्ची अपने सभी दोस्तों के रंग
तब तक अपने ऊपर झेलती है जब तक उन के सारे रंग खत्म ना हो जाएँ ताकि वो साफ़ कपड़ों
में अपने दोस्त को मस्जिद तक छोड़ सके और उसके बाद उसके साथ रंग खेले |साथी तौर पर
भले ही कुछ गलत ना दिखे पर लेकिन जरा ध्यान देने पर समझ आएगा कि इसमें बहुत सारी सारी  खामियाँ हैं जिस कारण इसका विरोध हो रहा है |

विरोध का लव जिहाद का एंगल तो मुझे उचित नहीं लगा क्योंकि बच्चे बहुत छोटे व मासूम  उम्र के हैं, इसे इस तरीके से नहीं देखा जा सकता | पर जैसा की मैंने पहले कहा अति रचनात्मकता का मारा,  तो हम सब जानते हैं कि आम तौर पर इतने छोटे बच्चे धर्म के आधार पर
त्यौहार मनाने में भेद –भाव नहीं करते , ना ही उन्हें धर्म के प्रति नियम की इतनी
समझ होती है | क्या आप और हम दस बार खेलते हुए बच्चों को नहीं बुलाते कि आओ और आ
कर प्रशाद ले जाओ, तब भी वो बस एक मिनट मम्मी की गुहार लगाते रहते हैं | हमारी
साझी संस्कृति की यही तो खासियत है कि जब मुहल्ले के बच्चे होली , दिवाली और ईद
साथ –साथ मनाते हैं तो भेद महसूस ही नहीं होता कि कौन हिन्दू , मुस्लिम या इसाई है
|

जबकि  ये विज्ञापन बच्चों की ये कुदरती मासूमियत का
प्रभाव दिखाने के स्थान पर बच्चों के अंदर हम अलग, तुम अलग की बड़ों वाली सोच
प्रदर्शित कर रहा है, इस कारण सद्भावना दिखाने में विफल है (जैसा की विज्ञापन के
समर्थक कह रहे हैं) वैसे भी हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने बावजूद भी होली कोई धार्मिक  त्यौहार नहीं है, इसलिए धर्म का एंगल लाना उचित प्रतीत नहीं होता |हम बच्चों को एक दूसरे के धर्म की इज्ज़त सिखाते हैं और ये भी सिखाते हैं कि जिस समय दूसरे धर्म का कोई त्यौहार मन रहा हो , लोग उल्लास में हो तो उनसे जुडो … अलग होने के अहसास के साथ नहीं |  मसला होली का हो ,ईद का,
 क्रिसमस का या किसी अन्य धर्म के त्यौहार का …
हम अलग , तुम अलग की छवियाँ प्रस्तुत करते विज्ञापन
  आम लोगों में लोकप्रिय नहीं हो सकते … 

ये अलग
बात हो सकती है कि हमेशा लोकप्रिय विज्ञपन देने वाली कम्पनी विरोध करवा कर अपना
प्रचार करना चाहती हो | जो लोग विज्ञापन के मनोविज्ञान की पकड़ रखते हैं वो ये बात
जानते होंगे |
विज्ञापन में बहुत सारी तकनीकी खामी हैं | ऐसा मैं इस लिए कह रही हूँ क्योंकि कम्पनी को होली के त्यौहार की समझ ही नहीं है …जरा गौर करिए –

1) होली पर रंग कभी खत्म होने जैसे बात नहीं होती हैं , क्योंकि रंग सस्ते होते हैं और अगर खत्म हो भी जाएँ तो बच्चे पानी से , मिटटी से , कीचड़ से होली खेलते हैं |

2) जो बच्ची अपनी साइकिल से बच्चे को ले जा रही है वो इतना रंगी हुई है उसके बावजूद  छोटा बच्चा उसके कंधे पकड़ता है और उस पर रंग नहीं  लगते |
3) बिना सीट की साइकिल पर खड़े हुए लगभग अपने उम्र के बच्चे को ले जाते समय  पानी और रंगों से तर सड़क पर बच्ची की साइकिल नहीं फिसलती या रंग के छींटे  बच्चों के कपड़ों पर नहीं लगते | 

4) सबसे अहम् बात जिससे पता चलता है कि कम्पनी को होली के त्यौहार की ज्यादा जानकारी ही नहीं है …. क्योंकि होली के कपड़े दाग छुड़ाने के लिए धोये ही नहीं जाते | होली के दिन पहनने के लिए खास तौर पर पुराने कपडे रखे जाते हैं | अगर कोई गरीब व्यक्ति उन्हें धो कर दुबारा मजबूरीवश पहनता भी है तो बी उसकी हैसियत इतनी नहीं होती कि वो सर्फ एक्सेल से धो सके |

5) होली किसी को पसंद हो या न हो इस पर बात हो सकती है , लम्बे लेख लिखे जा सकते हैं पर होली के साथ जुड़ा नारा ” बुरा न मानों होली है ” छोटे बड़े , जात -पात , धर्म , देश सारे लोगों को रंगने की बात करता है और हमेशा से करता आया है | आप खेलिए ना खेलिए पर  मौजमस्ती के त्यौहार में इतना ” इंटलेकचुएल ” होना भी ठीक नहीं … 


अब इस विज्ञापन से
इतर
ईश्वर अल्लाह तेरों नाम-शार्ट फिल्म के बारे
में बात करना चाहूंगी ,
जिसने मुझे बहुत
प्रभावित किया |


इसमें में एक माँ
अपने बच्चे को दादाजी की बरसी पर टिफिन में पंडित जी के लिए खाना व् उनकी पसंद के
लड्डू देकर कहती है कि , चौकीदार अंकल के साथ जाओं और जा कर मंदिर में पंडित जी को
दे आओ |


बच्चा पूछता है कि
पंडित जी को देने से क्या होगा ? माँ उत्तर देती है कि वो खायेंगे तो वहां दादाजी
को मिल जाएगा | माँ ऑफिस चली जाती है और बच्चा चौकीदार को बिना लिए अकेले ही मंदिर
की ओर निकल पड़ता है | वहां जा कर देखता है कि मंदिर बंद हो चुका है | अब उसे चिंता
होती है कि दादाजी तो भूखे रह जायेंगे | किसी और मंदिर की तलाश में वो आगे बढता है
और मस्जिद में पहुँच
 जाता है | वो खाना वो
मौलवी जी को दे कर उनसे खाने का आग्रह करता है | मौलवी जी मना करते हैं | वो कहते
हैं
  ये मस्जिद हैं मंदिर नहीं | बच्चे और
मौलवी जी के बीच थोड़ी देर तक प्रश्न उत्तर चलते हैं , उनमें से कुछ जो मुझे याद
हैं …

बच्चा – यहाँ क्या
करते हैं ?
मौलवी जी  –इबादत

बच्चा –इबादत मतलब ?

मौलवी जी  –इबादत मतलब तुम्हारी  पूजा

बच्चा -आप  यहाँ क्या करते हैं ? 

मौलवी बच्चे की समझ
के हिसाब से समझाते हैं कि हम वही करते हैं जो मंदिर में पंडित करते हैं |

बच्चा  जिद करता है कि इसका मतलब आप मस्जिद के पंडित जी
हो आप खाना खा लो , नहीं तो मेरे दादाजी आज भूखे रह जायेंगे | उस बच्चे के स्नेह
और मासूमियत के आगे हार कर मौलवी जी वो खाना खा लेते हैं और दक्षिणा किसी जरूरतमंद
को देने को कह कर उसके दादाजी की तृप्ति की दुआ करते हैं |


इस छोटे से वीडियो
का प्रभाव  बहुत देर तक मन पर रहता है और
लगता है कि काश हम हम बड़े भी इतने ही मासूम बने रहते  |


अगर इन दोनों ही
उदाहरणों पर गौर करें तो जहाँ दूसरा उदाहरण अनेकता में एकता की हमारी भारतीय
संस्कृति को परिभाषित कर रहा है वहीँ सर्फ़ एक्सेल का विज्ञापन अलग दिखने की
मानसिकता पर मोहर लगाता है | एक तरफ जहाँ हम अपने बच्चों को पाठ्यक्रम में ऐसी
किताबें पढवा रहे हैं कि उनमें सद्भाव बढें, वहीँ ऐसे विज्ञापन अपने को अलग दिखाने
पर जोर देते हैं | वैसे इस विज्ञापन के पक्ष में लोग तरह तरह के तर्क दे रहे हैं, उन तर्कों को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता ,  पर सच्चाई ये है कि आम जनता पर भावनाओं का असर ज्यादा होता है तर्कों का कम |
सनद रहे की असली
सद्भावना जोड़ने में है तोड़ने में नहीं | 

तो सर्फ एक्सेल ‘जी’आपने बहुत से अच्छे
धागों को धोया है पर
 हमारी एक दूसरे के
साथ मिल-जुलकर त्यौहार मनाने की संस्कृति पर आपके इस अति रचनात्मक विज्ञापन सफल नहीं हुआ है विरोध और पक्ष में खड़े लोगों द्वारा लगाए दुर्भावना के  ये
दाग अच्छे नहीं हैं, जिन्हें आपका सर्फ एक्सेल आसानी से नहीं धो पायेगा |


वंदना बाजपेयी

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2 COMMENTS

  1. बेहद सराहनीय लेख.।वैचारिकी मंधन को प्रेरित करती हुई…आभारी हूँ सादर।

  2. सहमत हूँ अपने विचार से और समझ नहीं पाता की इतने विषय होने के बावजूद ऐसे विषयों पर विज्ञापन क्यों बनाते हैं …

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