गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

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बीनू भटनागर

 

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

अध्याय दो -थोडा खुश सा बचपन

(हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 1956-63)

बुलंदशहहर में मै जिस स्कूल में पाँचवीं कक्षा में गई मुझे उसका नाम याद नहीं है,पर मेरा नाम बीनू कैसे लिखवाया गया वह कहानी याद है। उस समय जन्म प्रमाणपत्र तो बनते नहीं थे, न नाम रखने की जल्दी होती थी, न स्कूल भेजने की जल्दी होती थी। मुन्नी, गुड़िया या गुड्डी से काम चल जाता था। स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक महीने बाद आने के कारण स्वतंत्र कुमारी या स्वतंत्रता देवी जैसे नामों के सुझाव भी आये थे।बड़ी बहन कुसुम थीं. तो छोटी बहन का नाम कुमुद या कुमकुम घर वालों ने सोचा हुआ था। कुमकुम और कुमुद के बीच से एक चुनने की बात थी………………. फिर मैं बीनू कैसे हो गई! दरअसल हुआ यह कि मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी। बचपन में एक दोस्त था जिसका नाम बीनू था, उस दोस्त की मुझे याद भी नहीं है, मैं उससे और उसके नाम से प्रभावित थी, इसलिये मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी, बचपन में मेरी कितनी बातें मानी जाती रहीं थी ये तो नहीं पता ,पर स्कूल में मेरा नाम बीनू ही लिखा दिया गया, मेरी यह बात मान ली गई,काश यह बात न मानी गई होती तो अच्छा था। इस नाम के कारण जो परेशानियाँ उठानी पड़ीं, उनकी चर्चा आगे आने वाले पन्नों में करूँगी।

हरिद्वार आकर मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था मेरा छोटा सा भांजा था ,उससे खेलने में मज़ा आता था। मेरा दाखिला एक स्कूल में करवा दिया गया था जिसका मुझे नाम भी याद नहीं है, न किसी सहेली का न किसी अध्यापिका का चेहरा जेहन में है। ताज्जुब की बात ये है कि बुलंदशहर की सहेलियों दोस्तों की हल्की सी छवि दिमाग़ में है, पर हरिद्वार के स्कूल के बारे में कुछ याद ही नहीं है। यह स्कूल गंगा नहर के किनारे था, ब्रेक में पानी में पैर लटका कर सीढ़ियों पर बैठकर नाश्ता खाते थे।कोई हादसा न हो इसलिये आगे चेन लगी हुई थीं हरिद्वार के एक साल प्रवास की बस ये ही याद हैं। मैं हमेशा ही पढ़ाई ख़ुद कर लेती थी, वह कोई समस्या नहीं थी। हरिद्वार में भाई साहब का सरकारी बँगला था जो काफ़ी बड़ा था, ज़मीन भी बहुत थी, ख़ूब सब्ज़ियाँ होती थी। लॉन भी बहुत बड़ा और सुन्दर था। लाड़ प्यार और अनुशासन का सही समन्वय चल रहा था , मैं ख़ुश थी।

बुलंदशहर में अब कोई नहीं था।भैया की पढ़ाई ख़त्म हो गई थी वह उत्तर प्रदेश सरकार में बिजली विभाग में इंजीनियर नियुक्त हो गये थे, उनकी पहली नियुक्ति मैनपुरी में हुई थी।मम्मी को उनके लिये अब लड़की की तलाश थी जो भैया के साथ साथ उनसे भी निभा सके।भैया की शादी तय हो गई । बुलंदशहर का जो सामान उन्होनें इधर उधर रखवा दिया था मैनपुरी भेजकर भैया का घर उसके साथ बसाना शुरू हो गया था।मम्मी मैनपुरी और सिकंद्राबाद के बीच आती जाती रहीं, नानी अकेली सिकंद्राबाद रहती रहीं थी, हालाँकि बहुत से रिश्तेदार उसी मकान के अलग अलग हिस्सों में रहते थे।ज़मीने ज़्यादातर बिक चुकी थीं, थोड़ी बहुत बाकी थीं। सिकंद्राबाद का मकान किसका था, किसने किराये पर लिया मुझे नहीं पता । नानी उपर के पिछले हिस्से में रहती थीं। नीचे उनकी छोटी बहन रहती थीं, बाकी हिस्से उनके दूसरे रिश्तेदार रहते थे। मेल मिलाप लड़ाई झगड़े सब होते थे, पर मुश्किल के समय पूरा कुनबा एक हो जाता था।वहाँ मेरे तो सारे मौसी मामा ही थे,उस समय आज की तरह आँटी अँकल नहीं कहलाते थे।।इस मकान का किराया 15 रु था जिसमें से मेरी नानी 3 रु देती थीं।कुनबे के एक सदस्य ये किराया किसको भेजते थे ,इसकी जानकारी मम्मी की कोशिशों के बाद उन्हे नहीं मिली।

हरिद्वार से मैंने छटी कक्षा पास कर लीथी, अब मुझे मैनपुरी बुला लिया गया, मैं वहाँ सातवीं कक्षा में दाख़िल हो गई थी। यह सरकारी स्कूल था ,पर यहाँ पढाई बड़ी लग कर होती थी। हर विषय की बुनियाद काफ़ी मजबूत करवाई जाती थी। मुझे पढ़ाई बोझ नहीं लगती थी ,पढ़ना अच्छे नम्बर लाना मुझे अच्छा लगता था ,परन्तु घर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था चाहें जैसे नम्बर आयें। मम्मी का क्रोध भी कम होने लगा था।

1957 नवम्बर के महीने में भैया की शादी हो गई, बारात बस द्वारा मैनपुरी से मथुरा गई थी । बारात उन दिनो तीन दिन रुकती थी। शादी के बाद भैया को छोड़कर सारे बाराती वृंदाबन घूमने गये, भैया को उनके ससुराल वालों ने रोक लिया था। वृंदावन में एक हादसा हो गया जो आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। वहाँ निधि वन में मैं अपने रिश्तेदारों को छोड़कर किसी दूसरे समूह के साथ चलने लगी कुछ देर बाद अंदाज़ हुआ कि अपने लोग नहीं हैं, सब अजनबी हैं। मैं अपनों से बिछड़कर रोने लगी, मुझे न मथुरा का पता मालूम था, न बस के बारे में कि कहाँ खड़ी है।एक भले परिवार ने मुझे मेरे परिवार से मिलाने की ज़िम्मेदारी उठाई बहुत पूछने पर मैं जो कुछ बता पाई उस मंदिर के बारे में जहाँ हमारी बस खड़ी थी,उसी जानकारी के आधार पर वे लोग मुझे बस तक पहुँचा गये।मैने भी बस चालक को पहचान लिया तो वे लोग चले गये। सारे रिश्तेदार मुझे ढूँढने निकल पड़े थे, सबसे ज्यादा परेशान सुरेन भैया और भाई साहब थे, क्योंकि सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उनकी ही थी,सबसे नज़दीकी वो दोनो ही थे । सबको इक्ट्ठा करने में वक़्त लगा ।बस अंत भला तो सब भला !अब भी सोच के डर लगता है कि भले परिवार की जगह किसी ग़लत गिरोह के लोग होते तो न जाने मेरी ज़िन्दगी क्या होती, पर जो नहीं हुआ उसके बारे में ज्यादा न सोचूँगी न लिखूँगी, बस एक हादसा टल गया था।

भाभी का नाम उषा था, उनके आने से का वातावरण ख़ुशनुमा हो गया था। मेरा व सभी का वो बहुत ध्यान रखती थीं। अगस्त 1958 में मेरा भतीजा पैदा हुआ। भैया की शादी के तीन महीने बाद जनवरी 58 बीबी की बेटी हुई थी।वैसे तो उस ज़माने में महिलायें बारात में नहीं जाती थीं पर मम्मी ने ये रीति तोड़कर कुछ महिलाओं को बरात में भेजा था,परंतु बीबी गर्भवती होने के काण बारात में नहीं गईं थी।

हमारे घर का वातावरण धार्मिक किस्म का नहीं था। दीवाली और दशहरा पर पूजा होती थी। मम्मी और नानी दयालबाग़ आगरा की राधास्वामी सत्संगी थी। साल में एक दो बार वहाँ जाती भी थी। रोज़ वहाँ की किताबों का पाठ भी करती थीं।हम पर सत्संग में बैठने का दबाव नहीं डाला जाता था, न हमारा रुझान उधर करने का कोई परोक्ष या अपरोक्ष प्रयत्न होता था।भाभी के आने के बाद उन्होने अपनी पूजा का एक कोना बना लिया था। दयालबाग़ के सत्संगी आमतौर पर हिंदू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते, इसलिये मम्मी और भाभी के पूजा के स्थान अपने अपने कमरों में थे।भाभी सुहाग चिन्हों चूड़ी बिछुए बिंदी सिंदूर को बहुत महत्व देती थीं। मम्मी को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था।

मैं कक्षा में प्रथम तो कभी नहीं आई, पर पहले पाँच के नीचे भी कभी नहीं गई।मैंने सातवीं और आठवीं कक्षा मैनपुरी से उत्तीर्ण की।मेरे आठवीं पास करते ही भैया का तबादला कासिमपुर हो गया यहाँ पॉवर हाउस था और उनकी कॉलोनी । स्कूल गाँव वाले दूर दराज रहे होंगे।यहाँ से अलीगढ़ बहुत दूर नहीं था परन्तु उस समय यातायात के साधन बहुत कम थे। बीबी भी उस समय नरौरा में थी, भाईसाहब वहाँ निचली गंगा नहर पर सहायक अभियंता थे। सुरेन भैया की शादी नहीं हुई थी वे बरेली में नौकरी पर थे।उस समय यही निश्चय किया गया कि मैं अलीगढ़ में छात्रावास में रहकर पढ़ूँ ।अलीगढ़ का टीकाराम गर्ल्स हाई स्कूल/डिग्री कॉलिज एक ही प्राँगण में थे और एक ही छात्रावास था, टीकाराम अच्छा विद्यालय माना जाता था। यहाँ पढ़ाई का माध्यम हिन्दी ही था।यह सरकारी संस्थान नहीं था पर उतना मंहगा पब्लिक स्कूल जैसा बिलकुल नहीं था।आरंभ मे कुछ दिन घर की याद आती थी पर धीरे धीरे बहुत अच्छा लगने लगा। बड़ी दीदियाँ (कॉलिज की छात्रायें) हम बच्चों से बहुत प्यार करती थीं, रैगिंग का तो सवाल ही नहीं था।आजकल के वातावरण को देखकर हैरान होती हूँ कि मेरी ज़िंदगी में एक भी बुरा इंसान नहीं आया। यहाँ पढ़ाई भी बहुत अच्छी थी, महीने में एक दो बार घर वालों से मिलना हो जाता था। कोई न कोई मिलने आ जाता था या मैं चली जाती थी।दसवीं कक्षा में करीब आधा सत्र बीतने के बाद भाई साहब का पदोन्नति पर अलीगढ़ तबादला होगया, उन्हे बहुत बड़ी कोठी मिल गई। बीबी को लगा अब मुझे छात्रावास छोड़कर घर आ जाना चाहिये। दसवीं कक्षा के अंतिम चार पाँच महीने उनके घर से ही स्कूल आती जाती रही और पहली बोर्ड की परीक्षा वहीं से दीथी।

मैं कक्षा में प्रथम तो कभी नहीं आई, पर पहले पाँच के नीचे भी कभी नहीं गई।मैंने सातवीं और आठवीं कक्षा मैनपुरी से उत्तीर्ण की।मेरे आठवीं पास करते ही भैया का तबादला कासिमपुर हो गया यहाँ पॉवर हाउस था और उनकी कॉलोनी । स्कूल गाँव वाले दूर दराज रहे होंगे।यहाँ से अलीगढ़ बहुत दूर नहीं था परन्तु उस समय यातायात के साधन बहुत कम थे। बीबी भी उस समय नरौरा में थी, भाईसाहब वहाँ निचली गंगा नहर पर सहायक अभियंता थे। सुरेन भैया की शादी नहीं हुई थी वे बरेली में नौकरी पर थे।उस समय यही निश्चय किया गया कि मैं अलीगढ़ में छात्रावास में रहकर पढ़ूँ ।अलीगढ़ का टीकारामगर्ल्स हाई स्कूल/डिग्री कॉलिज एक ही प्राँगण में थे और एक ही छात्रावास था, टीकाराम अच्छा विद्यालय माना जाता था। यहाँ पढ़ाई का माध्यम हिन्दी ही था। यह सरकारी संस्थान नहीं था पर उतना मंहगा पब्लिक स्कूल जैसा बिलकुल नहीं था।आरंभमे कुछ दिन घर की याद आती थी पर धीरे धीरे बहुत अच्छा लगने लगा। बड़ी दीदियाँ (कॉलिज की छात्रायें) हम बच्चों से बहुत प्यार करती थीं, रैगिंग का तो सवाल ही नहीं था।आजकल के वातावरण को देखकर हैरान होती हूँ कि मेरी ज़िंदगी में एक भी बुरा इंसान नहीं आया। यहाँ पढ़ाई भी बहुत अच्छी थी, महीने में एक दो बार घर वालों से मिलना हो जाता था। कोई न कोई मिलने आ जाता था या मैं चली जाती थी।दसवीं कक्षा में करीब आधा सत्र बीतने के बाद भाई साहब का पदोन्नति पर अलीगढ़ तबादला हो गया, उन्हे बहुत बड़ी कोठी मिल गई। बीबी को लगा अब मुझे छात्रावास छोड़कर घर आ जाना चाहिये। दसवीं कक्षा के अंतिम चार पाँच महीने उनके घर से ही स्कूल आती जाती रही और पहली बोर्ड की परीक्षा वहीं से दी थी।

दसवीं कक्षा की परीक्षा देने के बाद भी उस साल मैं गर्मियों की छुट्टियों में अलीगढ़ में ही रही क्योंकि बीबी की ननद की शादी थी, उनके ससुराल का पूरा परिवार वहीं था। सबने बड़ी मस्ती की यद्यपि वो शादी सफल नहीं हुई पर उसके लिये सबने मिलकर एक गाना लिखा था, संगीत में ढ़ाला था, फिर मिलकर ही गाया भी था। वो गाना इतना पसंद किया गया था कि आज तक हमारे परिवार में उसे गाये बिना कोई शादी नहीं होती ! उसका मुखड़ा था-

प्रीतम खड़े हैं तेरे द्वार री दुल्हन अलबेली
नैना झुकाय के शरमाये री दुल्हन अलबेली

दसवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी चूक गई थोड़ा मन खट्टा हुआ, पर चलता है सब।मैं विज्ञान लेना चाहती थी पर घर में सबने दबाव बनाया कि आर्ट्स ही लूँ इतनी मेहनत क्यों करूँ……….. लड़की हूँ, कैरियर तो बनाना नहीं है बस इतना पढ़ लूँ कि घर वर अच्छा मिल जाये,घरवालों के ऐसे ही विचार थे। दूसरे अलीगढ़ में टीकाराम विद्यालय में विज्ञान था भी नहीं।भैया पदोन्नति पर फिर मैनपुरी आगये थे और मैं फिर उस ही इंटर कॉलिज में आ गई जहाँ से सातवीं और आठवीं कक्षा पास की थी।यहाँ भी लड़कियों के सरकारी इंटर कॉलिज में विज्ञान नहीं था।यहाँ सभी शिक्षिकायें ऐसा पढ़ाती थीं कि बात दिमाग़ में जम जाती थी। हिन्दी और इंगलिश दोनो भाषाओं की नींव ने इसी स्तर पर मज़बूती पकड़ी।भूगोल मेरा सबसे प्रिय विषय था, पर भूगोल पढ़कर कैरियर के लिये कौनसे रास्ते खुलेंगे ये मैं नहीं जानती थी।

मम्मी को मेरा स्लीवलैस कपड़े पहना पसंद नहीं था पर वे ख़ुद स्लीवलैस ब्लाउज़ ख़ूब पहनती थीं। इस बात पर मेरी उन से बहस होजाती थी। वे कहने लगती कि वे बूढ़ी हो गईं है क्या पहनें फ़र्क नहीं पड़ता,गर्मी में स्लीवलैस में आराम मिलता है, पर मैं जवान थी सड़क पर चलते लोग ग़लत नज़र न डालें,उन्हें ये चिंता थी। मैं सोचती थी कि फ़ैशन वाले कपड़े पहनने की उम्र मेरी है और फैशन के कपड़े मम्मी बेझिझक पहनती हैं।

मम्मी को संगीत का बहुत ज्ञान था पर सिखाना नहीं आता था, बस ऐसी डाँट पड़ती थी कि मैंपहला स्वर स लगाना भूल जाती थी। मम्मी को क्रिकेट कमैंट्री सुनने का भी ऐसा शौक था कि टाँज़िसटर से दूर नहीं हटती थीं। उनके पास अपना अलग टाँज़िस्टर होता था। उनकी चीज़े उनसे पूछे बिना इस्तेमाल करना गुनाह था. चाहें वो उनका पैन हो या टार्च। यदि उनसे कोई चीज़ माँगों तो दे देती थीं पर शर्त यही होती थी कि वह वस्तु वापिस जगह पर पहुँचा दी जाये।

ग्यारहवीं कक्षा पास करने के बाद भैया भाभी और बच्चों के साथ हम नैनीताल गयेथे।यह मेरी पहली पहाड़ी यात्रा यात्रा थी। उस समय लोग रिश्तेदारों के यहाँ जाने में संकोच नहीं करते थे और रिशेतेदार भी जी जान से स्वागत करते थे। किसी शहर में कोई दूर का रिश्तेदार भी हो और आप होटल में ठहरें तो वेबुरा मान जाते थे। नैनीताल में भाभी की मौसी रहती थीं भैया भाभी तो वहाँ जाते रहते थे, पर इस बार उन्होने हम दोनो यानी मम्मी और मुझे भी बहुत ज़ोर देकर बुलाया था। एक बात और थी कि भाभी के मौसाजी मम्मी के सिकंद्राबाद के थे और उन्हे भुआजी कहते थे। वहाँ हम लोगों को उन्होने ख़ूब घुमाया उनके दो लड़के मेरी ही उम्र के थे। भाभी का एक भाई भीमेरा हमउम्र था। बुजुर्ग लोग भी थे खूब पहाड़ी चढ़ाइयाँ चढ़ी और मज़े किये।नैनीताल की यह यात्रा पर्यटन के तौर पर भी मेरी पहली यात्रा थी क्योंकि उस ज़माने में पर्यटन का कोई रिवाज ही नहीं था। वैसे देखा जाये तो ये भी पर्यटन कहाँ था, रिश्तेदारों के घर जाकर कुछ वक़्त रहना पर्यटन तो नहीं होता !

भाभी की मौसी का मकान बिलकुल मॉल रोड पर था जिससे वहाँ की रौनक दिन भर दिखती थी। शाम को मॉल रोड पर घूमना, आस पास के बाज़ारों में घूमना, ख़रीदारी करने के अलावा मौसी जी हमें कई जगह घुमाने ले गईं। हम बच्चों या बड़े होते हुए बच्चों की पीठ पर भारी भारी थैले लादकर खूब चढ़ाइयाँ करवाई। ऊपर पहुँचकर लकड़ियाँ इकट्ठा करवाई जातीं और उन्हे जलाकर चाय और पुलाव बनता था, फिर वापस सब सामान ढोकर लाते थे। बात बहुत पुरानी है उस वक्त हमारे पास कैमरे भी नहीं थे इसलिये बहुत सी जगहे के नाम याद नहीं हैबस टिफन टॉप याद है।इसके अलावा कुछ मंदिर भी देखे थे। नैनी झील में दो तीन बार नौका विहार भी किया जो अति आनंददायक था। घर के काम सब मिल जुल कर कर लेते थे, उन दिनों बाहर खाने का चलन बहुत कम था। मौसी जी तो बाहर का खाना खाती भी नहीं थीं ।आजकल लोगों को दो एक दिन की मेहमानदारी करने में तकलीफ होने लगती है और हम वहाँ हफ्ता दस दिन रहे थे। ये बदलाव देखते देखते मुझे महसूस हुआ है। आजकल कहीं रुकने मेहमान आते भी नहीं है।किसी के शहर में जाना हो तो अपना इंतज़ाम ख़ुद ही करते हैं, रिश्तेदारों से मिल ले यही बहुत है,ठैरते नहीं है।

इन दो साल मे सुरेन भैया का परिवार भी मैनपुरी आ गयाथा।दोनो भाई एक ही शहर में एक ही घर मे रहे। इस दौरान भाभी के एक बेटी और एक बेटा हुआ आशा भाभी के दो बेटियाँ हुई। जुड़वाँ न होते हुए भी परिवार में तीन भतीजियाँ और एक भतीजा दो साल में आ गये। भाभी के एक बेटा पहले ही था।काफ़ी बड़ा परिवार बच्चों वाला एक छत के नीचे रहता था।

मैनपुरी में जब मैं कक्षा 11 में थी तब श्री राम कमार वर्मा द्वारा लिखित प्रसिद्ध नाटक चारुमित्रा का मंचन हुआ था और मैने इस नाटक में शीर्षक भूमिका निभाई थी जिसे ज़िले में प्रथम और आगरा मंडल में द्वितीय पुरस्कार भी मिला था परन्तु इसके पहले या बाद में भी मैने कभी कोई अभिनय नहीं किया।यह मेरी उस समय की एक यादगार उपलब्धि थी। इस नाटक में एक लम्बी सी, तगड़ी सी लड़की ने ही सम्राट अशोक की भूमिका निभाई थी। हमारा विद्यालय केवल कन्याओं के लिये ही था अतः पुरुष भूमिकायें भी लड़कियों को ही निभानी पड़ती थीं। मुझे अभिनय का कभी विशेष शौक भी नहीं था और बाद में कभी मौक़ा भी नहीं मिला।

एक बार प्रथम श्रेणी छूटी तो छूटती चली गई और 58 % और 60 % के बीच परीक्षा परिणाम मेरीपहचान बन गया। 1963 में बारहवीं यानी उ.प्र. इलाहाबाद बोर्ड की इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।मैनपुरी में मैं खेलकूद संगीत नाटक सभी अतिरिक्त गतिविधियों में भाग लती थी पर कोई अद्भुत प्रदर्शन नहीं हुआ। यदा कदा दूसरा तीसरा इनाम मिल गया हो वो बात अलग है।

बीनू भटनागर
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गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

 

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