गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

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गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

 

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

अब आगे ….

 

 

अध्याय 10-लेखन की शुरुआत

(दिल्ली 1997 से 2000)

1997 में अपूर्व ने 10 वीं कक्षा पास कर ली थी। हिंदी तो दसवीं तक ही पढ़ी थी उस समय का एक संस्मरण उद्धरित करके इस अध्याय का आरंभ करती हूँ।–

 

मैं और मेरा बेटा

(संस्मरण 9 )

 

आज कुछ पुरानी बाते याद आ रहीं हैं, अपूर्व मेरा बेटा जब दसवीं कक्षा में था तो  मैं उसे हिन्दी पढ़ाया करती थी विशेषकर कविता। कविता में उसे बिल्कुल रुचि नहीं थी पर परीक्षा देनी थी इसलिये पढ़ना तो था ही। शब्दों का अर्थ समझाने के बाद भावार्थ समझाना बहुत कठिन हो जाता था क्योंकि उसके पाठ्यक्रम की कविताओं में जो विषय लिये गये थे, वो या तो दार्शनिक से थे या फिर उस आयु के लिये बेहद नीरस। अंत में यही होता कि ‘’मां मैं रट लूँगा परीक्षा से 2-3 दिन पहले लिख कर रख दो।  ‘’आखिर मैं कितना लिखूँ और वह कितना रटे!

 

कवियों का जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय भी परीक्षा में अवश्य ही आता था, जब कवि की एक रचना समझना कठिन है तो साहित्यिक परिचय कैसे लिखें!  8-9 कवि और उतने ही लेखक तो होंगे पाठ्यक्रम में।

 

अपूर्व ने ही सुझाव दिया कि ‘’मां एक चार्ट बना दो उस में सब कवियों और लेखकों के नाम फिर जन्म तिथि जन्म स्थान और हर एक की दो दो किताबों के नाम लिख दो बाकी सब  की कविताओं की तारीफ में कुछ कुछ लिख दूँगा नम्बर लेने के लिये कुछ तारीफ करना ज़रूरी है, बुराई तो कर नहीं सकते।‘’

 

मैंने चार्ट बना दिया सुपुत्र जी ने देखा फिर अपने अंदाज में बोले ‘’ये बर्थ डे क्यों याद करनी पड़ती है?अब कवियों को फोन कर के हैप्पी बर्थ डे कहना है क्या !

 

मैं निरुत्तर…

 

फिर उनके जन्म स्थान ‘’अरे माँ ये सब कहाँ कहाँ जाकर पैदा हुए इन छोटे छोटे गाँवों के नाम कैसे याद होंगे दिल्ली मुंबई में कवि और लेखकों जन्म क्यों नहीं लेते ? यहाँ भी हमसे दुश्मनी !’’

‘’ माँ आप कहाँ पैदा हुईं थी?’’ अचानक मुझ पर सवाल दाग दिया ।

 

‘’बेटा, बुलन्दशहर’’ मैंने बताया।

 

‘’तभी कविता लिखने का शौक है’’ उसने निराशा के साथ कहा।‘’

 

उस समय मेरी कवितायें और लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।

 

अपूर्व एकदम बोल पड़ा ‘’लिखना है तो कविता लिखो पर छपवाना बन्द करो।‘’

 

मैंने पूछा ‘’क्यों ?’’

 

‘’अगर किसी NCERT वाले को पसंद आ गईं आपकी कवितायें और कोर्स की किताब में डाल दी गईं तो बच्चे बहुत कोसेंगे। मेरी माँ को कोई बुरा भला कहे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘’उसने मासूम सा, भावुक सा जवाब दिया ।

 

समस्त कवि गण इसे चेतावनी समझ सकते हैं !

कृपया ध्यान दें!

पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले भी विचार करें।

 

संस्मरण का सिलसिला शुरू हुआ है तो एक के बाद एक दो संस्मरण और-

 

 

नाम गुम जायेगा..

 

(संस्मरण 10 )

 

हमारे पति श्री अरुण भटनागर रेलवे में  उच्च अधिकारी रहे हैं, उस समय उनकी आयु 55 के क़रीब होगी। अपने सारे काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। बुद्धिमान हैं, अपने कार्यालय में अच्छी छवि है। याददाश्त इतनी अच्छी है कि क्रिकेट में कब क्या हुआ या कोई ऐतिहासिक घटना हो तुरन्त बता देते हैं। कभी कभी मैं उनसे कहती  थी कि उन्हें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहिये। जब भी यह कार्यक्रम देखते हैं फटाफट उत्तर देते जाते हैं, कोशिश करके एक बार वहाँ पहुंच जायें तो कम से कम 50 लाख तो जीत ही सकते हैं।

 

याददाश्त इतनी अच्छी होते हुए भी इनके लिये मेरा और बच्चों का जन्मदिन याद रखना मुश्किल होता है, पर बच्चे और मैं इन अवसरों के आने से पहले ही इतने उत्साहित रहते हैं कि उन्हें याद आ जाता है। कभी बच्चे पहले आकर कह देते हैं ‘’मम्मी पापा शादी की साल गिरह मुबारक हो’’ तो उन्हें भी याद आ जाता है कि पत्नी को मुबारकबाद दे दें।

 

इनकी सबसे बड़ी परेशानी है कि वे लोगों के और कभी कभी स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। कभी किसी पार्टी में कोई बहुत दिन बाद मिलता और उत्साहित होकर पूछता ‘’कैसे हैं भटनागर साहब, पहचाना नहीं क्या ?’’ ‘’अरे, कैसी बात कर रहे हैं पहचानूँगा क्यों नहीं।‘’ कहने को तो ये कह देते, वे उन महाशय को पहचान भी रहे होते, बस नाम दिमाग़ से फिसल जाता। ऐसे में वहाँ से खिसक लेने मे ही भलाई समझते कि कहीं बात बढ़े और पोल खुल जाये।

 

इनका अपना परिवार काफ़ी बड़ा है। अपने भाई बहनों के नाम तो याद रहते हैं पर उनके बच्चों के नाम कभी कभी भूल जाते है। मेरे परिवार में बहुत लोगों के दो नाम हैं, घर का एक नाम और असली नाम कुछ बिल्कुल अलग!, वहाँ तो उनकी मुश्किल दोगुनी हो जाती है।

इन्हें अकसर सरकारी काम से शहर से बाहर जाना पड़ता है। एक बार ये नई दिल्ली से लखनऊ मेल में सवार हुए। रात का समय था ट्रेन चल चुकी थी वे आराम से सोने की तैयारी में थे, कंडक्टर ने आकर भारतीय रेल का पास देखा, जैसे ही वह जाने को हुआ तो इन्होंने कहा ‘’मुझे हरिद्वार मेये जगा देना।‘’

 

कंडक्टर ने कहा ‘’सर, ये ट्रेन हरिद्वार नहीं जाती।‘’

 

‘’अरे, कैसे नहीं जाती लखनऊ मेल ही है न। ‘’

 

कंडक्टर ने कहा ‘’जी सर, लखनऊ मेल ही है, पर हरिद्वार इस रूट पर नहीं पड़ता।‘’

 

ये कहने लगे ‘’अच्छा, लखनऊ से क़रीब ढाई घंटे पहले कौन सा स्टेशन आता है?’’

 

‘’सर, हरदोई ‘’ कंडक्टर ने जवाब दिया।

 

‘’बस, वहीं जगा देना’’ भटनागर साहब ने कहा।

 

‘’जी सर’’ कहकर कंडक्टर मुसकुराता हुआ चला गया।

 

 

हमने ख़ुद को भी कहाँ छोड़ा अपनी बेवकूफियाँ भी लिख डालीं।-

 

आईने

(संस्मरण11)

 

दर्पण, आईना या शीशा जो भी कहे, आखिर किस काम आता है? ये भी क्या सवाल हुआ! चेहरा देखते हैं सब। स्त्री हो या पुरुष अपना चेहरा सँवारने के लिये सब  को इसकी ज़रूरत पड़ती है। जवानी में ये ज़्यादा ही काम आता है। आमतौर पर आईना स्नानघर और ड्रैसर में ही लगाया जाता है।

 

पिछले कई सालों से आईने का प्रयोग वजह बेवजह कुछ अधिक ही होने लगा है। मॉल के गलियारे में, बड़े बड़े शो रूम की दीवारों पर, सीढ़ियों पर बड़े बड़े महँगी किस्मों के चमचमाते शीशे लगे रहते हैं, पता ही नहीं चलता कि सामने वाला दाई ओर से आ रहा है या बाई ओर से ! कहते हैं कि शीशे लगाने से स्थान बड़ा नज़र आता है, मैं तो कहूँगी कि बड़ा क्या पूरा दो गुना नज़र आता है। साड़ी की दुकान में आप साड़ियाँ देख रहे होंगे सामने पुतले साड़ी पहने सजे होंगे बहुत सी साड़ियां फैला कर सजाई गई होंगी, अगर आपके पीछे वाली दीवार पर पूरा शीशा ही लगा होगा तो ऐसा भ्रम होगा मानो जितना सामान दुकान में सामने है, उतना ही पीछे की ओर सजा है और उतने ही ग्राहक आगे बैठे हैं, उतने ही पीछे, तो हो गया न दोगुने का भ्रम !

 

अब तो शीशे लगाने का रिवाज घरों में भी चल पडा है, जिनके घर छोटे हैं वे घर बड़े दिखाने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं। बड़े मकानों वाले लोग शायद मकान को हवेली दिखाने का भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करते है। घरों की सीढ़ियों पर कमरों की किसी दीवार पर या कभी बाल्कनी या बरामदों में भी बड़े बड़े शीशे लोग लगाने लगे हैं।  इससे एक फ़ायदा और भी है कि घर के लोग भी और मेहमान भी आते जाते अपना चेहरा देख  लें  और ज़रूरत हो तो सँवार लें।

 

आईनों के भ्रम जाल में कई लोग भ्रमित हो जाते हैं, मै भी हुई हूँ, पर एक नहीं  दो बार आइनो की वजह से अजीब सी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। एक बार सरोजनी नगर मार्केट में मैं जनसुविधा का प्रयोग करने गई थी। उस वक्त वह नया नया बना था। उपयोग करने के लिये 2 रु. देने पड़ते थे।  टॉयलेट के बाहर एक आदमी पैसे लेने बैठा था मैंने दो रु.  उसकी ओर बढ़ाये। दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई ‘’मैम मैं इधर बैठा हूँ।‘’ दरअसल मैंने पैसे दीवार में लगे आइने में उसके प्रतिबिम्ब की और बढ़ाये थे। उस वक्त बड़ी झेंप आई थी।

 

दूसरी बार मैं अपने पति के साथ कुछ आभूषण ख़रीदने एक  बड़े शो रूम में गई, शो रूम पहली मंज़िल पर था।  सीढ़ियों पर एक ओर की दीवार पर पूरा शीशा लगा हुआ था। सीढ़ियों पर मैं आगे थीं । मैं ऊपर पहुंच कर कुछ पल के लिये रुक गईं।

 

पति देव ने कहा ‘’चलो न।‘’

 

मैंने ने जवाब दिया ‘’इधर बैठें या उधर।’’

 

पति देव को हंसी आ  गई बोले ‘’दाई ओर चलो बाईं तरफ़ कुछ नहीं है शीशा है।‘’

 

ग़नीमत है इस  बार बात पति पत्नी के बीच ही रही किसी बाहर वाले को हंसने का मौक़ा नहीं मिला। मैं चाहती तो ये घटनायें किसी को नहीं बताती पर पर अपनी बेवकूफियों पर हंसने हंसाने का मज़ा कुछ और है।

 

ये तीनों ही संस्मरण लगभग इसी समय के है परन्तु लिखे बहुत बाद में गये थे क्योंकि उस समय तक लेखन का कीड़ा दिमाग़ में नहीं घुसा था।  लेखन कब कैसे शुरू हुआ इसकी चर्चा आने वाले पन्नों में होगी।

 

बीबी अब भारत जल्दी जल्दी आने लगीं थी ।पूरा परिवार तो कभी भी एक साथ नहीं आया पर सरोजनी नगर में एक बार उनके बेटे अशोक और बेटी नीरू परिवार सहित आये थे। एक बार उनका छोटा बेटा अलग से अपनी पत्नी के साथ आया था।1999 और 2000 की सर्दियों में बीबी और भाई साहब आये थे। रास्ते में बीबी की कुछ तबीयत ख़राब हो गई थी,  ऐसा आकर उन्होंने बताया आधी रात में कुछ चाय टोस्ट भी लिये फिर सो गये। ये अपने समय से ऑफिस चले गये थे। सुबह भाई साहब ने बताया कि बीबी की तबीयत रात भर ठीक नहीं रही थी।  डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा, मैं उन्हें लेकर तुरंत सफदर जंग  अस्पताल गई,  दिनेश भैया ने ई.सी. जी. करवाया तो पता चला कि हार्ट अटैक है। वहाँ से हम लोग सीधे ग्रेटर कैलाश के हार्ट इंस्टिट्यूट पहुँच गये जहाँ उनको भरती कर लिया गया था।  मैं घर वापिस आई फिर उनका कुछ ज़रूरी सामान भी पहुँचाया।

 

नीरू और उसकी बेटी टैरन बहुत कम समय के लिये आये थे उनको भी कुछ शॉपिंग करवानी थी। भाई साहब की बहन मुन्नो जी  के साथ भी नीरू को लेकर मैं काफ़ी घूमी थी तो मुझे ड्राइविंग की बेहद थकान हो गई थी। बीबी ठीक हो रहीं थी पर चिंता तो थी ही। अपनी क्षमता से अधिक शारीरिक और मानसिक थकान के कारण एक बार फिर मैं लगभग लखनऊ में जो गृह प्रवेश में हुआ था उसी स्थिति पर पहुँच गई परंतु इस बार अवधि और तीव्रता दोनों पहले के मुक़ाबले कम थे,  इलाज चल ही रहा था थोड़ी दवाओं की मात्रा बढ़ाने और आराम करने से मैं ठीक हो गई,  पर अब मैं बहुत सावधान रहने लगी थी।  शरीर और मन की थकान को पहचानने लगी थी और वैसा स्थिति आने से पहले सावधान हो जाती थी। बीबी की एंजियोप्लास्टी हुई फिर वे दयालबाग़ गईं। इस बार दयालबाग़ के अलावा और कहीं नहीं गईं। कुछ दिन बाद वापिस अमैरिका चली गईं।

 

मैं वैसे तो लगभग सामान्य थी पर नींद बहुत कम आती थी दवाइयाँ लेने के बाद भी व्याकुलता और बेचैनियाँ कभी कभी चरम सीमा पर होती थीं। तनु 2-3 नौकरियाँ बदल चुकी थी कहीं पर कोई सुविधा नहीं थी। कहीं सीढ़ियाँ ठीक नहीं  होती कहीं टॉयलेट की समस्या, कहीं एक दो फ्लोर चढ़ना उतरना पड़ता था, लिफ्ट हर जगह नहीं होती थी। हर समस्या का बचपन से बहादुरी से सामना करती आई थी। जितनी देर घर से बाहर रहती मैं अंदर ही अंदर उद्विग्न रहती थी।   यद्यपि इसे दोस्त हमेशा अच्छे मिले।  एक बार इसका हिमोग्लोबिन बहुत कम हो गया था क्योंकि पानी बहुत कम पी रही थी। खाने से प्यास ज़्यादा लगती है तो खाना भी कम कर दिया था, जो लोग घर में नहीं रहते थे अकेले रहते थे, उन्हें खाना खिला देती थी। एक बार ब्लड प्लटलेट्स कम हो गये थे, जिसकी वजह भी समझ में नहीं आ पाई थी ।धीरे धीरे कुछ वक़्त छुट्टी लेकर आराम करने से अपने आप ठीक हो गये थे।

 

दूसरी तरफ़ अपूर्व वही मौला मस्त खिलाड़ी अभी तक भी इतने परिपक्व नहीं हुए थे कि पढ़ाई के महत्व को समझें। ऐस.पी.मार्ग के रेलवे क्लब में सभी खेलों की सुविधा थी।  शाम के चार बजे से ही दोस्तों के फ़ोन आने लगते थे फिर तो पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था। क्रिकेट, बैडमिंटन, टेबलटैनिस और स्नूकर बिलियर्डस सभी खेलों में रुचि थी। शाम को ज़बरदस्ती बुलाना पड़ता था फिर खेल कर इतना थक जाते थे कि पढ़ना मुश्किल हो जाता था। मैं सोच सोच के परेशान होती रहती थी कि इसका क्या करूँ ।

 

ये छोटी  छोटी  परेशानियाँ मेरे दिमाग़ पर हथौड़े चलाती रहती थीं। किटी पार्टी में भी कभी कभी मन उचट जाता था जब मातायें कहती कि आजकल 85 % 90 % के बिना कुछ नहीं होता। मैं माँ के रूप में और हर एक रूप में ख़ुद को असफल सा समझने लगी थी। दवाइयों का असर था कि कभी आत्महत्या का ख़याल नहीं आया। दूसरी बात यह थी कि मनोविज्ञान का ज्ञान बीमारी से लड़ने के लिये प्रेरित करता रहा था ।मैं ये भी समझ गई थी दवाइयों के अलावा मुझे काँउसैलिंग और सायको थैरैपी की भी जरूरत है, क्योंकि मैं अपनी उलझने नहीं सुलझा पा रही थी। सच बात तो ये है कि कोई भी नहीं सुलझा सकता चाहें वह मनोवैज्ञानिक हो या मनोचिकित्सक, वह केवल अपनी या  अपने परिवार की मानसिक अस्वस्थता को पहचान सकता है, इलाज नहीं कर सकता।

इन्हीं दिनों आकाशवाणी के ऐफ.ऐम कार्यक्रम में डा. अरुणा ब्रूटा श्रोताओं के लाइव सवालों के जवाब देती थी। इस कार्यक्रम से मुझे इतना समझ में आ गया था कि मुझे इनकी मदद चहिये। आकाशवाणी से तो उनका पता नहीं चला पर किसी और ज़रिये से मैंने उनका फोन नम्बर प्राप्त किया । मैंने उनके घर फोन किया तो पता चला कि वह वीरावाली हॉस्पिटल में थी।  इत्तफाक की बात ये थी कि वीरावाली अस्पताल  हमारे  घर के बहुत पास था। वीरावाली हॉस्पिटल फोन किया तो उन्होंने तुरंत बुला लिया दस मिनट में उनके सामने बैठी थी।  उन्होंने मेरी बातें ध्यान से सुनी और नोट भी की। उन्हें हैरानी थी कि मैं अकेली वहाँ पहुँच गई थी वह भी ड्राइव करके। मानसिक बीमारी वाले लोग जब तक कुछ कर न बैठें उन्हें कौन चिकित्सक के पास लाता है! यहाँ रोगी खुद चला आया था।

 

डॉ.  ब्रूटा से मिलने के एक दो दिन पहले बेचैनी के आलम में मैं बारिश आँधी और ओलों की परवाह किये बिना लोधी रोड स्थित साँई बाबा के मंदिर पहुँच गई थी। रास्ते में कुछ पेड़ भी गिरे हुए दिखे थे। अब लिखते समय कुछ फिल्मी दृष्य लग रहा है परंतु उस समय ऐसा कुछ नहीं लगा था। मन की बेचैन हालत में व्यक्ति कभी कभी  ऐसे काम कर लेता है जो सामान्यतः  वह नहीं करता।जब डॉक्टर ब्रूटा से मुलाक़ात  हुई तो मन में एक बात आई कि ईश्वर स्वयं  कभी मदद करने नहीं आता पर आपके संकट के समय वह किसी भी मनुष्य के रूप में आकर आपकी मदद कर देता है।मैं जानती हूँ हमेशा ऐसी  मदद मिल जाये ये ज़रूरी नहीं है। मेरा दृष्टिकोण  भले ही वैज्ञानिक  हो,मैं धार्मिक भले ही न लगूँ परन्तु मैं नास्तिक नहीं हूँ,यही स्पष्ट करना चाहती हूँ, भले ही किसी इष्ट का नाम लेते रहना मेरी आदत नहीं है।ना ही मैं कोई पूजा पाठ रोज़ करती हूँ।  मै शोलापुर से आते समय शिरडी गई थी,जिसकी चर्चा मैने पहले की है। उसके बाद एक बार तनु को छोड़ने लोदी रोड गई थी तो साँई बाबा के मंदिर के सामने से निकली तबसे मैं वहाँ जाने लगी थी। मन जब भी बेचैन होता था, वहाँ चली जाती थी तो कुछ सुकून ज़रूर मिलता था।

 

पहली मुलाकात में तो डॉ. ब्रूटा ने कुछ खाने पीने में परिवर्तन और व्यायाम बताये, रोज़ डायरी लिखने को कहा। मैंने जो भी बताया वह ध्यान से सुना पर किसी आम चिकित्सक की तरह खुद खोद कर कोई सवाल नहीं पूँछें। मनोवैज्ञानिक की यही खूबी होती है कि सामने वाले पर बिना दबाव डाले बहुत कुछ समझ लेता है और सुझाव भी सांकेतिक होते हैं। यहाँ मैं स्वेच्छा से गई थी, मुझे मनोविज्ञान का ज्ञान था इसलिये काम उतना मुश्किल नहीं था। यदि व्यक्ति को ज़बरदस्ती ले जाया जाता है तो उसे प्रभावित करके उसका विश्वास जीतना पड़ता है और परिवार के दूसरे लोगों को व्यावहारिक परिवर्तन सिखाने पड़ते हैं।

 

मेरी सबसे बड़ी समस्या यही थी कि मैं दूसरों के व्यवहार से आहत हो जाती थी। दूसरी बात यह थी कि मैं जीवन में कुछ करना चाहती…….. यह स्पष्ट नहीं था कि क्या करना चाहती थी। माँ के रूप में भी मैं ख़ुद को सफल नहीं मानती थी, बच्चों के भविष्य के प्रति बेचैन थी।मैं डायरी लिखती थी फिर हर एक समस्या पर थोड़ी चर्चा करते थे।

 

सबसे पहले तो अपने व्यक्तित्व पर काम करना था क्योंकि जो व्यक्ति ख़ुद से संतुष्ट नहीं होता वह दूसरों की बातों से आहत होता रहता है। जब आप ख़ुद से संतुष्ठ होते हैं तो आप ऐसी बातों को अनदेखा अनसुना कर सकते हैं।डायरी लिखने से व्यक्ति के गुण दोष सामने आते हैं और जब सामने एक अनुभवी मनोवैज्ञानिक हो तो रास्ते ख़ुद-ब- ख़ुद दिखने लगते हैं। यहाँ पर मैं अपने एक व्यंग्य आत्म  व्यथा का एक अंश पेश करूँगी।

 

 

आत्म व्यथा से (अंश)

(संस्मरण 12)

हम रोज़ डायरी लिखने लगे। जब डायरी पढ़ते तो अपनी हिन्दी पर तरस आता, जिसमे अनेक शब्द अंग्रेज़ी के डाल देते थे। वैसे ये भाषा हमे बुरी लग रही थी, परन्तु आजकल की तो यही विधा है। लोगों ने तो इसे हिंगलिश नाम भी दे दिया है। हम दुखी थे कि हमारी हिन्दी को क्या हो गया है। कितना ज़ंग लग गया था हमारी भाषा को, अवसाद की उस स्तिथि मे प्रवाह हीन भाषा ने हमे और भी दुखी कर दिया। हमारी मनोवैज्ञानिक हमारा उत्साह बढाती रहीं, उन्होंने हमारा मनोबल टूटने नहीं दिया। डायरी लिखते लिखते हमारी भाषा मे सुधार आने लगा। सीमित शब्द कोष बढ़ने लगा, ऐसा नहीं था कि हम उसके लियें कोई विशेष प्रयास कर रहे थे, बस यों समझिये कि दिमाग़ पर से धूल की जमी पर्तें हट रहीं थीं। भाषा मे प्रवाह वापिस आ गया था। एक दिन हमने अपनी डायरी मे लिखा, “पहले ख़ुद को ढंढू पाऊ फिर अपनी पहचान बताऊँ।“ हमे लगा हमारी भाषा मे वाक्य काव्यात्मक भी होने लगे हैं। हमने अचानक दो कवितायें लिख डाली। उन्हें हमने एक प्रतिष्ठित पाक्षिक पत्रिका को भेज भी दिया और भूल गये।

 

अचानक एक दिन डाक मे एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा आया, हमने उसे अपने पति की मेज़ पर रख दिया आमतौर पर सरकारी लिफ़ाफ़े ऐसे ही होते है। पत्र के साथ एक छोटी सी राशि का चैक भी था । शाम को पतिदेव ने आकर बताया कि हमारी दोनों कवितायें स्वीकृत हो गईं हैं।हम तो बच्चों की तरह उछलने लगे। सबको बताते रहे कि हमारी कवितायें अमुक पत्रिका मे प्रकाशित होने वाली हैं। पत्रिका का हर अंक देखकर हम निराश होने लगे। अब हमे क्या पता था कि स्वीकृत होने के बाद प्रकाशन मे नौ दस महीने का समय लगने वाला है। संपादक महोदय की कृपा से हमारी दोनो कवितायें प्रकाशित हो गईं। हमारा खोया मनोबल और आत्मविशवास लौटने मे इन कविताऔं के प्रकाशन ने औषधि का काम किया। इसी बीच हमने लगभग एक वर्ष मे 40-50 कविताये लिख डालीं, जीवन के अनुभवों और विचारो को लेखों का रूप मिलने लगा।

 

कुछ दिन तक हम अपनी रचनायें उसी पत्रिका को भेजते रहे,र हमारी रचनायें खेद सहित वापिस आने लगीं पता ऩहीं हमारे लेखन का स्तर गिर गया था या उक्त पत्रिका का स्तर उठ गया था। ख़ैर, बाज़ार मे और बहुत सीपत्रिकायें थी, तू न सही कोई और सही।

 

पिछले अनुभव से हम सीख चुके थे कि रचना के भेजने के बाद स्वीकृति और प्रकाशन मे कई महीने का समय़ लग जाता है। हमने निश्चय किया कि अब हम दिवाली पर होली खेलेंगे और होली पर दिये जलायेंगे, ग्रीष्म ऋतु मे शीतलहर का वर्णन करेंगे और सर्दियों मे तवे सी जलती धरती और लू चलने की कल्पना करेंगे। वर्षा ऋतु मे राग बसंत बहार गायेगे ,बसंत के मौसम मे बारिश पर छँद कहेंगे। इस प्रयोग मे हमे एक अन्य पत्रिका से जल्दी ही सफलता मिल गई।

 

अब हमने कुछ विस्तार की योजना बनाई, अख़बार वाले से कहा कि हमे हर महीने अलग अलग पत्रिकाये चाहियें, उसने पूछा कि हमे कौन कौन सी पत्रिकायें चाहियें तो हमने कहा जितनी छपती हैं, सब देखनी हैं। अख़बार वाले चेहरे पर ऐसे भाव आये कि उसका वर्णन करना कठिन है। इस बीच हम बहुत कुछ लिखते रहे । अब तक हम बहुत सी पत्रिकाऔं की संपादकीय नीतियाँ और रूपरेखा समझ चुके थे, उसी के अनुसार हमने अपनी रचनाये भेजनी आरंभ कर दी। इस बार बारी हमारी थी, अधिकतर रचनायें स्वीकृत होने लगीं। एक पत्रिका ने तो कई रचनायें एक साथ स्वीकार करके एक तुरन्त प्रकाशित भी कर दी। अब तो ज़मीन पर पैर रखना मुश्किल होने लगा था।

 

अब हमने महिला पत्रिकाऔं के लियें “उपहार कैसे चुने” और “कम ख़र्च मे आकर्षक गृहसज्जा” जैसे कुछ लेख भी लिख डाले, यही नहीं अपनी रसोई से रोज़ के खाने मे थोड़ी हेरा फेरी करके कुछ पाक विधिय़ां भी लिख डाली, उनके क्लोज़अप फ़ोटो लिये,कुछ धाँसू से नाम देकर उन्हें भी पत्रिकाओं मे भेज दिया।हमने सोचा जो बिक रहा है वही लिख लेते हैं।

 

ख़ैर, हमारा उद्देश्य पैसे कमाना तो था नहीं, जो मानदेय या पारिश्रमिक मिलता था वह तो डाक टिकिट, स्टेशनरी और फ़ोटोस्टेट कराने के लियें भी पूरा नहीं पड़ता था। ऊपर से हर प्रकाशित रचना के लियें बच्चे ट्रीट की मांग करते थे। अतः लेखन भी हमारे लियें घाटे का सौदा ही साबित हुआ। फिर भी हम ख़ुश थे, रात मे कुछ तो करना है जैसे विचार नहीं सताते थे। आत्म संतुष्टि मिल रही थी।

 

समय बीतता है तो बदलता भी है। अब प्रकाशन के क्षेत्र मे भी इंटरनेट का जाल बिछ गया था। संपादको को हस्त लिखित प्रतियाँ पढने मे दिक्कत पेश आने लगी थी। धीरे घीरे सभी पत्रिकाओं ने लेखको को संदेश दे दिये कि टाइप की हुई ई मेल द्वारा भेजी रचनाओं को ही प्राथमिकता दी जायेगी। हम समझ गये कि अब हस्त लिखित प्रतियों को संपादकों की रद्दी की टोकरी मे जगह मिलने का समय आगया है। हमे टाइप करना आता नहीं था, कोई सीखने की कोशिश भी नही की क्योकि हम संतुष्ट थे।

 

प्रकाशन न होने से लेखन भी कम होता चला गया, ना के बराबर रह गया। एक बार हम फिर गुमनाम हो गये। वैसे ऐसा कोई नाम भी नहीं कमा लिया था,जो कहें कि गुमनाम होने लगे। 6-8 पत्रिकाओं मे कुछ रचनाये छपने से कोई लेखक या कवि नहीं बन जाता, यह हम जानते हैं।हमे किसी को कुछ सिद्ध करके दिखाना भी नहीं था। हम जीवन से संतुष्ट थे।

 

इस प्रकार मेरा लेखन शुरू हुआ, परन्तु कुछ वर्ष तक बहुत कुछ नहीं लिखा पर जब छपता तो बहुत ख़ुशी होती थी। मेरी ख़ुशी में कौन कितना शामिल हुआ ये मेरे लिये अब उतना  महत्वपूर्ण नहीं था। अपूर्व को खेल की वजह से डाँटना डपटना बंद कर दिया था पर निर्धारित समय पर पढने के लिये कहना ज़रूरी था। परीक्षा परिणाम के प्रति अनावश्यक चिन्ता बंद कर दी थी। काँउंसैलिंग के और

सायकोथैरैपी के बाद बेहतर महसूस कर रही थी फिर भी पिछले वाकयों को देखते हुए मनोचिकित्सक ने थोड़ी सी दवा जारी रखना उचित समझा।

 

इसी समय 2000 में एक बार हम फिर शिरडी गये, पर अब शिरडी बहुत बदल गया था। अब तक वहाँ के सात्विक वातावरण में व्यावसायिकता आ गई थी। लम्बी लम्बी कतारों के अलावा वी आई पी इसी कतार अलग थीं। हम वी आई पी कतार में थे, पर कुछ अच्छा नहीं लगा। सब तीर्थ स्थलों की तरह ही यहाँ का वातावरण हो चुका था।

 

वापिस आने पर मेरा हिस्ट्रैक्टमी की सर्जरी होनी थी। समस्या कुछ नहीं थी वापिस पर जाँच में कुछ ऐसी संभावना लगी थीं कि भविष्य में गर्भाशय का कैंसर सकता है। पहले रेलवे हॉस्पिटल में ही ऑपरेशन करवाने का विचार था। प्री एनस्थीशिया चैकअप में जब उन्हें बताया गया कि मनोचिकित्सक कुछ दवाइयाँ दे रहे हैं तो उन्होंने कहा कि एक सप्ताह पहले वो सभी दवाइयाँ बंद करनी पड़ेगी। मनोचिकित्सक इसके लिये तैयार नहीं थे। मनोचिकित्सक राम मनोहर लोहिया अस्पताल के थे। दिनेश भैया की सलाह पर ऑपरेशन राम मनोहर लोहिया अस्पताल में करवाया जहाँ ऐनस्थीशिया मनोचिकित्सक की सलाह से दिया जा सके। ऑपरेशन ठीक हो गया । अपूर्व 18 का हो गया था। गाड़ी चलाना सीख तो पहले ही गया था लाइसेंस मिलते ही सड़क पर आ गया। इस समय बहुत काम भी आया। स्त्री रोग विभाग में मेरे साथ रात को कोई महिला ही रुक सकती थी इसलिये लखनऊ से आशा भाभी आ गईं थी। घर तो रघुवीर संभाले हुए था, अतः मेरे घर आते ही आशा भाभी वापिस चली गईं। इधर एक के बाद एक रघुवीर की बीवी बच्चे इतना बीमार पड़े कि अस्पताल में भरती हो गये। मेरी हालत खाना बनाने लायक नहीं थी , इन तीनों ने किसी तरह कुछ दिन सब काम संभाला और पेट भरने का इंतज़ाम किया।

 

1999 में अपूर्व ने 12 वीं पास कर ली। इसका दाख़िला दयालसिंह कॉलेज में हुआ था जो इसे पसंद नहीं आ रहा था। शायद ये समय था जब कुछ परिपक्वता आ रही थी। मेरा डा़ ब्रूटा से संपर्क बना हुआ था। इसको एक अच्छी कोचिंग में दाख़िल करा दिया था जहाँ दोस्त भी अच्छे बने।

 

चिन्ताओं और अवसाद का बोझ अब कविताओं में ढल रहा था। वैसे तो नई शताब्दी 2001 से शुरु हुई परन्तु पहले दो अंको का 19 से 20 होना भी कम रोमांचकारी नहीं था, इसलिये इस बार हमने अपने सब रिश्तेदारों को साल के अंतिम दिन आमंत्रित किया। दिल्ली, एन सी आर में जो लोग थे वे तो सभी आये लखनऊ से भैया भाभी भी आये। अपूर्व ने तो क्लब के कार्यक्रम के मज़े लिये, मामा चाचा वगैरह तो घर में थे ही, क्लब का कार्यक्रम क्यों छोड़ते! रेलवे क्लब और वहाँ के दोस्तों से इसका बहुत लगाव था।

 

बस इस दिन ही इन दोनों भाइयों को अपने ताऊ  जी की तेरहवीं में शामिल होने ग्वालियर जाना पड़ा, जिससे आयोजन थोड़ा ठंडा हो गया, परंतु ये दोनों रात के बारह बजे से पहले ही शताब्दी से लौट आये थे।  इस प्रकार 2000 का समापन हुआ।

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बीनू भटनागर

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