गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

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गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 -कभी ख़ुशी कभी ग़म

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

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गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

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अब आगे ….

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 –कभी ख़ुशी कभी ग़म

(दिल्ली 2006- अब तक)

साहित्यिक गतिविधियों के बाद अब पुनः पारिवारिक कथा-क्रम से जुड़ने का समय आ गया है। अपूर्व  अपनी नौकरी में अभ्यस्त हो गया था और तनु घर में 11 वीं और 12 वीं कक्षा के बच्चों को अर्थशास्त्र पढ़ाने में व्यस्त हो गई थी। सेवानिवृत्त होने के बाद दोबारा काम करने का  इनका मन कभी बना ही नहीं। काफ़ी दबाव के बाद एक काम लिया था, पर बहुत जल्दी छोड़ दिया। दोनों समय घूमने जाना बाज़ार के काम करना, घर के कामों में मेरी मदद कर देना और आराम करना ही इनकी दिनचर्या रही, जिससे इन्हें कभी कोई शिकायत नहीं हुई।

 

2007 जुलाई में एक छोटी सी दुर्घटना हो गई थी।मैं वाशरूम साफ़ करते समय फिसल गई दर्द बहुत ज़्यादा था, पर मैं ख़ुद उठकर खड़ी हो सकी थी, इसलिये मैंने सोचा कि कोई गंभीर बात नहीं है। थोड़ी देर आराम करके, दर्द की गोली खा कर अपने रोज़ के कामों में लग गई थी।सिंकाई  की, दर्द की गोली खाली, क़रीब 10 दिन तक ऐसे ही चला, परन्तु दर्द कम नहीं हो रहा था।

 

इसी समय गुड़गाँव में शशि बीबी के बेटे के नये फ्लैट का गृह प्रवेश था , जहाँ हम सब को भी जाना था। कार में भी ढाई तीन घंटे बैठना फिर वहाँ हवन, खाने पीने में पूरा दिन ही लगना था इसलिये मैं नहीं गई। ये और दोनों बच्चे ही गये, पर घर में अकेले मैंने आराम भी नहीं किया, सफ़ाई में लग गई, सारी चादरें और कुशन कवर वगैरह बदले, मशीन में कपड़े धोये और सुखाये। शायद शारीरिक कष्ट सहने की अधिक क्षमता के कारण मैं अपनी चोट की गंभीरता को समझ ही नहीं पाई थी। शाम के समय पास के बाज़ार भी चली गई। बहुत दर्द महसूस हुआ तो वापिस आने के लिये रिक्शा कर  ली। रिक्शा में इतने दचके लगे कि रही सही कसर भी पूरी हो गई। रात भर असहनीय दर्द होता रहा तब अगले दिन ऐक्स रे करवाया और हड्डियों के डाक्टर को दिखाया। रीढ़ की हड्डी में दो जगह फ़्रैक्चर थे, डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिये बिस्तर पर सीधे लेटे रहने का निर्देश दे दिया था।

 

ये छः सप्ताह और उसके बाद का लम्बा समय मेरे लिये और पूरे परिवार के लिये बहुत कष्ट का समय था। 6 सप्ताह तक करवट लेने पर भी प्रतिबंध था। शारीरिक कष्ट के अलावा सामने की दीवार को देखते देखते ऊब गई थी। मैं ऐसी जगह पर लेटी थी जो बाथरूम से निम्नतम दूरी पर थी। यहाँ से दूसरे कमरे में रखा टी वी दरवाज़े से देखा जा सकता था परंतु मुझे सुनाई भी दे इसके लिये वॉल्यूम बहुत तेज रखना पड़ता था जिससे वहाँ बैठकर देखने वालों को कुछ परेशानी अवश्य होती होगी।

 

सारे काम मिल जुल कर ये तीनों कर रहे थे ।दाल चावल सब्जी मुझ से पूछ पूछ कर किसी तरह बना रहे थे पर रोटी पराँठा बनाना उसके लिये आटा गुँधना मुश्किल था। कभी कभी ब्रैड से काम चला लेते थे। अपूर्व का ऑफिस उन दिनों पास ही में था तो वह लंच के समय आ जाता था क्योंकि घर पर जो भी बना हो वह खा लेता था। सुबह सुबह खाना पैक कर के देना मुमकिन नहीं था। ऐसे में हमारी एक पड़ौसन ने खाना बनाने के लिये एक नौकरानी का प्रबंध किया जो रात का खाना बनाने लगी थी। नयी नौकरानी वह भी खाना बनाने के लिये…………….. जिसे मैं कमरे में बुलाकर ही सब निर्देश देती थी, धीरे धीरे वह हमारी पसंद का भोजन बनाना सीख गई थी।

6 सप्ताह बीतने के बाद, जब मैं खड़ी हुई तो दर्द और भी बढ़ गया था। दर्द निवारक गोलियाँ तो महीनों खाईं। दर्द कम होने में क़रीब दो साल लगे पर ठीक तो आज तक नहीं हुआ है। एम्स और स्पाइन इंजरी संस्थान दोनों जगह  दिखाया परन्तु सर्जरी कर के भी दर्द से मुक्ति मिलने की संभावना डॉक्टरों को नज़र नहीं आई थी और फिज़ियोथैरपी की ही बात हुई थी।  साथ ही सही  तरह से आराम, काम और व्यायाम के बीच समन्वय बनाने की सलाह मिली थी। जब कभी दर्द बढ़ा तो फिज़ियोथैरैपी करवाई, सिंकाई की, बहुत ज़रूरी हुआ तो दर्द की गोली खाली । ये दर्द अब जीवन का अंग है, ये सत्य स्वीकार कर लिया है।

 

अब तक अपूर्व  को नौकरी  करते  हुए  क़रीब दो ढाई साल हो चुके थे। अपूर्व  की दोस्ती हमेशा लड़कियों  से भी रही है इसलिये  हमें लगता था किसी दिन वह आकर कहेगा कि “मुझे फलां लड़की से शादी करनी है” परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था ,पूछने पर भी उसने हमेशा यही कहा कि  ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा था कि अब लड़की ढूँढने की जिम्मेदारी  हमें ही निभाना होगी। अतः मैंने अख़बार  में विज्ञापन  देखना शुरू किया और कुछ चुने हुए परिवारों को मेल भेजीं।  मैंने सजातीय कॉलम ही देखे,  ऐसा नहीं है कि मुझे अंतरजातीय  विवाह से एतराज है,  सजातीय लड़की ढूँढने  के पीछे दो कारण थे पहला तो यह कि रविवार को विवाह विज्ञापन  इतने होते हैं कि सब  को नहीं देखा जा सकता किसी न किसी आधार पर सीमा  रेखा बनानी होती है,  दूसरा कारण यह था कि सजातीय परिवारों के बारे में मालूम करना अपेक्षाकृत  सरल होता है।

 

कुछ तस्वीरें  और सुयोग्य कन्याओं के विवरण  आये पर अपूर्व  ने किसी में कोई दिलचस्पी  नहीं दिखाई। एक बार कहने लगा कि एक दो बार मिलकर कैसे तय कर सकते हैं  कि इस लड़की के साथ ज़िंदगी बिताई जा सकती है। मैंने कहा कि जब माता पिता संबंध ढूँढते हैं, तो एक दो मुलाकात  के बाद निर्णय  लेना ही पड़ता है,  नहीं तो  लड़के लड़कियों को ख़ुद ये ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है। मैंने समझाया कि “हम तो मिले ही नहीं थे,  पूरी तरह माता पिता और परिवार के निर्णय से हमारा रिश्ता हुआ था,  खैर वह ज़माना बीत गया अब तुम क्या चाहते हो ये बताओ।” इस पर अपूर्व  ने कहा कि हम कुछ समय के रुक जायें,  हमने ऐसा ही किया।

 

कुछ महीने बाद हमें अंदाज हो गया था कि अपूर्व अपने ऑफ़िस की नेहा अरोरा से डेट कर रहा है। कुछ भ्रामक स्थिति भी हुई क्योंकि ऑफिस में दो नेहा अरोरा थीं, एक इनके विभाग की थी,जिससे मैं मिल चुकी थी एक दूसरे विभाग की थी। पहली वाली की सगाई हो चुकी थी। ये दूसरी नेहा अरोरा में दिलचस्पी ले रहा था। जब दोनों ने अपना मन बना लिया तब अपूर्व ने हमें बताया था। हमारी तरफ़ से तो ‘हाँ’ ही होनी थी, फिर भी हमने एक बार नेहा से मिलना चाहा।

 

मुझे याद है पहली बार नेहा जीन्स और लाल रंग के कुर्ते में हमारे घर आई थी और बहुत घबराई हुई लग रही थी। उस दिन नेहा का नवरात्र का पहला व्रत था। मैं तो व्रत करती नहीं हूँ ,उस दिन मैने फलाहारी स्नैक साबूदाने के वड़े बनाये थे। अपने रिश्ते के बारे में उसने तब तक अपने घर में नहीं बताया था पर वह आश्वस्त थी कि उसके माता पिता को कोई एतराज नहीं होगा क्योंकि उसकी दोनों बड़ी बहनों ने अपनी मर्जी से अंतरजातीय विवाह किए थे, दोनों अपने परिवार के साथ ख़ुश थीं। न बताने का सिर्फ एक ही कारण था कि ये दोनों शादी आठ दस महीने बाद करना चाहते थे, जबकि नेहा को लगता था कि पता चलते ही उसके माता पिता तुरंत शादी के लिये दबाव बनायेंगे।

 

कुछ महीने बाद नेहा ने शायद 2008 के अंतिम महीनों में  अपने और अपूर्व के रिश्ते के बारे में अपने घरवालों से बात की थी। श्रीमती अरोरा नेहा के साथ अपूर्व से किसी रस्टोरैंट में मिली और उन्होंने भी अपनी रजामंदी दे दी। इसके कुछ दिन बाद नेहा के माता पिता औपचारिक रूप से बात करने हमारे घर आये थे । दोनों पक्ष पहले ही तैयार थे। मज़ेदार बात ये हुई कि माता पिता को लेकर यानी ड्राइव करके नेहा ही लाई थी ,पर घर में नहीं आई, नीचे से ही अपनी किसी दोस्त के घर चली गई थी। जब वापिस जाने लगे तब उन्होंने फोन करके उसे बुला लिया,मुझे ये बड़ा अजीब लगा था । उन्होंने कहा कि उनके यहाँ शादी से पहले लड़कियाँ ससुराल नहीं जातीं।  मुझे अपनी शादी से पहले का वाकया याद आ गया जब चाची जी ने दिल्ली में हमें इनकी एक भुआ जी के घर  जाने के लिये कहा था और कुछ चर्चा के बाद हमारे परिवार ने वहाँ जाने का निर्णय लिया गया था। यह वाकया काफ़ी रोचक था जिसका जिक्र मैं कर चुकी हूँ। कुछ दिन बाद हमने  अरोरा परिवार को अपने घर आमंत्रित किया था। ज़ाहिर है हमारा निमंत्रण नेहा के लिये भी था। हम चाहते थे कि जिस घर में उसे आना है, उस घर और घर के सदस्यों से वह मिले जुले। श्रीमती अरोरा ने बार बार वही बात दोहराई कि उनके यहाँ शादी से पहले लड़कियाँ ससुराल नहीं जातीं। मैंने अपनी तरफ़ से काफ़ी समझाया पर वे तैयार नहीं हो रहीं थी। बाद में उन्हीं के परिवार के लोगों ने उन्हें समझाया कि दुनिया में रीति रिवाज बदल रहे हैं, थोड़ा बदलाव वे भी करें तब वे नेहा को लेकर आने को तैयार हुए।

 

हम सब ने तय किया कि फरवरी  2009 में सगाई कर देते हैं, जिसे उनके यहाँ ‘सगन’ कहा जाता है। रोका जैसी कोई रस्म हमने नहीं की। फरवरी में बीबी अमरीका से आने वाली थीं,वे भी शामिल हो सकीं। भैया भाभी और सुरेन भैया आशा भी सब सगाई में आये थे।  इनके भाई बहन तो यहीं थे, जो बाहर हैं वे नहीं आ पाये थे। हमने कन्या पक्ष को किसी को भी उपहार या लिफ़ाफ़ा देने के लिये मना कर दिया था, जिसे उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया।हमने कहा था कि जो देना है केवल अपूर्व को ही दें।  हम  सगाई कोई बहुत ज़ोर शोर से नहीं करना चाहते थे, पर वहाँ तो शादी का सा माहौल था। सगाई पर हमारे यहाँ से ज्यादातर बुज़ुर्ग लोग ही शामिल हुए थे।

 

सगाई में उन्होंने इतनी मिठाई और फल दिये कि हम लोगों के लिये नीचे से ऊपर लाना मुश्किल हो गया। हम दोनों और तनु को उपहार बाकी लोगों के लिये कुछ नकद और एक टीवी भी सगाई में था। उन के यहाँ ये मामूली चीज़े होंगी पर हम ये सब नहीं चाहते थे। अपने सिद्धांतों के कारण न हम बदतमीजी कर सकते थे न अपने बेटे की पसंद को ठुकरा सकते थे। हम लोगों के यहाँ तो वैसे भी ज़्यादा देन लेन का  चलन है नहीं, हम बहुत परेशान हुए क्योंकि हमारे सिद्धांत धरे के धरे रह गये थे। मैं सोचती थी लड़के वाले सामाजिक बदलाव ला सकते हैं, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। बहुत बहस के बाद भी वे नहीं माने। हम एक अतिरिक्त टैक्सी लेकर आ गये। हमने आधी रात में सब समान ऊपर चढ़ाया। फल मिठाई काफ़ी बाँटने के बाद भी पड़ौसियों के फ्रिज में रखवानी पड़ी थी।

 

2008 वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर था। इस समय जिस कंपनी में नेहा और अपूर्व काम कर रहे थे उसकी हालत अच्छी नहीं थी, इससे मैं काफ़ी चिंतित थी। अपूर्व को कुछ दिन लगे ,दूसरी नौकरी ढूँढने में नेहा कुछ महीने खाली रही और सगाई की तैयारियों में लगी रही। अपूर्व नयी नौकरी में धीरे धीरे जम रहा था।

 

इन दिनों भैया का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था, लगातार उनकी सेहत गिरने की सूचना आ रहीं थीं पर ठीक से पता नहीं चल रहा था,कि रोग क्या है, फिर भी वे सगाई में आये थे। सगाई से हम सब ख़ुश थे पर भैया की बीमारी से चिंतित भी थे। सगाई के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। मैंने कई बार कहा कि दिल्ली आकर अच्छी तरह चैक अप करवा लें, परंतु वहाँ सब निर्णय गुरु जी पूछ कर लिये जाते हैं। गुरु जी के आदेशानुसार उनके ही अनुयायी चिकित्सक उनका इलाज कर रहे थे, कभी होम्योपैथी कभी ऐलोपैथी। हर रिपोर्ट गुरु जी को दिखाई जाती थी। जब आप किसी को ईश्वर का दर्जा दे  दें तो सवाल करने की गुंजाइश ही नहीं रहती।  मुझे दुख और क्रोध दोनों थे पर न भैया न उनके बच्चे कुछ भी सुनने को तैयार थे। पढ़े लिखे लोगों पर भी अंधविश्वास ज़बरदस्त पकड़ बना सकता है। आस्था को अंधविश्वास बनते देर नहीं लगती। मैं नहीं कहती कि  इलाज दिल्ली में करवाते तो भैया ठीक ही हो जाते ,पर ये तसल्ली तो रहती कि हमने अपनी सामर्थ्य से कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों को ये तसल्ली है कि उन्होंने गुरु जी जिन्हें वे वे मालिक कहते और समझते हैं, उनकी सब बातें मानी, आगे मालिक की मर्जी।

 

अपूर्व  की शादी की तैयारियाँ चलती रहीं, कभी भैया की तरफ़ से ख़बर आती कि पहले से बेहतर हैं तो कभी ख़बर आती कि उनके स्वास्थ्य  में गिरावट है। हमें यही बताया गया था कि प्रोस्टेट बढ़ा हुआ है,  सूजन है। पूछने पर भी नहीं बताया गया कि प्रोस्टेट का कैंसर है। ये बात केवल उनके डाक्टर बेटे शैलेंद्र को पता थी उसने किसी को भी नहीं बताया था कि उन्हें प्रौस्टेड कैंसर है।

 

बहुत दिन बाद परिवार  में कोई शादी थी तो काफ़ी मेहमान आने की संभावना थी। मेरे दोनों भाइयों के परिवार, बीबी भाई साहब उनकी बेटी नीरू के लिये रहने का इंतज़ाम करना था। मेरे ससुराल  के परिवार के अधिकतर लोग दिल्ली व एन सी आर में ही हैं, इसलिये उनके ठहरने की व्यवस्था  नहीं करनी थी। बाहर से जो लोग आये वह भी इन हीं लोगों के साथ ठहर गये। हमारी किस्मत कुछ अच्छी  थी कि दिनेश भैया और उमा दी का फ्लैट जो पास में ही है खाली हुए थे, वहाँ हमने मेहमानों के ठहरने की व्यवस्था  कर दी थी ।दूर दूर से मेहमान  आये थे,  मैं विदाई में उन्हें उपहार देना चाहती थी परन्तु कन्या  पक्ष से लेकर देने का विचार नहीं था। पारंपरिक तरीक़े से हमारे यहाँ कन्या  पक्ष  लड़के के रिश्तेदारों को कपड़े देता है,पर ये रिवाज मुझे पसंद नहीं था। मैं इस परम्परा  को तोड़ना चाहती थी। मेरा विचार था कि वर पक्ष चाहे तो ये परम्परायें तोड़ी जा सकती हैं पर मेरा विचार फिर ग़लत साबित  हुआ, जब मैंने ये बात श्रीमती अरोरा से कही तो वे कहने लगीं कि उनके यहाँ सगन ( सगाई)  में या शादी में एक बार तो रिश्तेदारों को कपड़े ज़रूर दिये जाते हैं, बल्कि उन्होंने तो सब ख़रीद लिये हैं। मुझे लगा कि हमारे उसूलों को कहीं ग़लत तरीक़े से न समझा जाये,  अच्छे  की जगह हम अकड़ वाले न समझे जायें या हमारे घर आने वाली लड़की कोई नकारात्मक  भावना लेकर न आये इसलिये हमने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। ज़रूरत के मुताबिक सब मेहमानों के लिये कुछ वहाँ के और कुछ अपनी खरीददारी करके विदाई के उपहार पहले से ही पैक करवाकर रख दिये थे।

 

हमने शादी में ज्यादा तामझाम नहीं किए थे, शादी से पहले संगीत में भैया की नातिन जो कि भरतनाट्यम नृत्य करती है, उसने गणेश वंदना पर नृत्य किया था, फिर मैंने और तनु ने एक साँई भजन गाया था, इस प्रकार ईश वंदना के साथ शादी के कार्यक्रम शुरू हुए। मेहमानों में कुछ अच्छे गाने वाले थे जिन्होंने समा बाँध कर बन्ने गाये। ढोलक, हारमोनियम,की बोर्ड  और ढ़पली पर भी परिवार के लोग ही थे। बाद में डी.जे. की धुनों पर भी सब ख़ूब थिरके थे। इसके बाद हाई टी का प्रबंध था। ये कार्यक्रम सोसायटी के प्रांगण में हुआ था। एक ही समारोह में भजन से लेकर भोजन तक सब सिमट गया था,सब को बहुत पसंद भी आया था। मेहमानों के संगीत नृत्य ने पड़ौसियों को इतना प्रभावित किया कि उन्हें लगा कि हमने संगीत के लिये किसी व्यावसायिक पार्टी को बुलाया था। घर में भी जब मौक़ा लगता गाना बजाना हो जाता था।

 

खाने का प्रबंध पास में एक महिला को सौंप दिया था,  जो  टिफिन तथा अन्य खान पान की सेवायें देती हैं। वहाँ से सब चीज़े समय पर आ जाती थीं और खाना घरेलू और स्वादिष्ट होता था। खाना गरम करके परोसने का काम रघुवीर ने बख़ूबी संभाला हुआ था। वह चार पाँच दिन के लिये आ गया था। शादी रेलवे क्लब से करने का इंतज़ाम हमने करवा दिया था। यहाँ से बरात टैक्सियों में ही जानी थी। किस टैक्सी में कौन कौन बैठेगा इसकी सूची बनी हुई थीं।अपूर्व जिस मैदान में खेल खेल कर बड़ा हुआ था उसी जगह से उसकी शादी हुई थी।

 

अंतरजातीय और अंतरप्राँतीय विवाहो में रीति रिवाजों को लेकर कभी कभी कुछ मसले हो जाते हैं। हम रीति रिवाजों को इतना महत्व नहीं देते ,इसलिये हमने कन्या पक्ष से इस विषय में कोई बात ही नहीं की थी। हमारे यहाँ तो मिलनी की रस्म भी नहीं होती है, न बारातियों को कोई उपहार दिये जाते हैं। वे बार बार पूछते रहे कि मिलनी किस किस की होनी है, तब हमने गिने चुने लोग  नाम बता दिये थे क्योंकि उन्हें हर रस्म करने का शौक था, जो होता आया है वह होना ही है, उसमें कुछ बढ़ाया जा सकता है , कम नहीं किया जा सकता। उनके यहाँ दूल्हे की आरती नहीं होती पर हमारे कहने पर वे इसके लिये तैयार हो गये, लेकिन ठीक वक़्त पर वे भूल गये, मेरे याद दिलाने पर जल्दी जल्दी इंतज़ाम हो गया। हमारे यहाँ सालियाँ दरवाज़े पर रिबन कटाई का नेग नहीं माँगती केवल जूता चुराई होती है, हम उसके लिये भी तैयार हो गये। उन्होंने बताया कि रिबन कटाई की रस्म देखा देखी आजकल होने लगी है। दरअसल टीवी धारावाहिकों में जगह जगह की रस्मों को जोड़ दिया जाता है और हर रस्म रिवाज परम्परा से लगने लगते हैं। उत्तर भारत में कहीं भी मंगलसूत्र न कोई पहनता है, न शादी के बाद दुल्हा पहनाता था। ये रिवाज भी टीवी की देन है। मैंने तो मंगलसूत्र बनवाया भी नहीं था, वो तो उपहार में आ गया था,तो पहना भी दिया गया।

 

बराती काफ़ी उत्साह से नाचते हुए गये, रास्ते में कुछ अंजान विदेशियों ने भी नाचकर अपना व हमारा मनोरंजन किया। मैं तो कमर क दर्द की वजह से पीछे कार में ही रही। दूल्हे से द्वार पर रिबन कटाई की रस्म हमने उनके कहने पर कर तो दी परन्तु इसका कोई औचित्य नहीं है। रिबन उद्धाटन पर काटा जाता है स्वागत के लिये नहीं। ऐन्ट्री टिकट लगायेंगे तो कोई वापिस भी जा सकता है, जूता चुराई की रस्म साली जीजा की हँसी ठिठोली के लिये है ही।……….. जहाँ तक घर वापिस आकर बहनें रास्ता रोकती हैं वह भाई बहन की हँसी ठिठोली होती है प्यार होता है। नववधू का स्वागत तो आरती से ही होता है। हाँ हमारे यहाँ परात में भरे रंगीन पानी में पाँव डालने का या कलश में पैर से चावल लुढ़काने का रिवाज नहीं है।

 

शादी के बाद कन्या पक्ष की इच्छा का सम्मान करते हुए विदाई उनके घर से ही होगी, ये बात हमने स्वीकार कर ली ,जबकि रेलवे क्लब से उनका घर एकदम विपरीत दिशा में था, परन्तु वहाँ कम हीलोग विदाई करवाने गये। बुज़ुर्गों में तो ये केवल ये ही गये थे, कुछ लोग जयमाला और भोजन के बाद वापिस आ गये थे कुछ लोग जिनमें मैं भी शामिल हूँ विवाह की सब रस्में पूरी कर के आ गये थे । आने के बाद मैंने और तनु ने बिखरे से घर को समेटा, बाकी लोग जहाँ ठहरे थे वहाँ जाकर सो गये थे। सुबह सूर्योदय के समय नववधु के स्वागत के समय सब एकत्र हो गये थे जिन्हे दूसरे घरों में ठहराया था। घर पर तो किसी को ठहराया ही नहीं था।

 

थोड़ा विश्राम किया ही था कि किन्नरों ने धावा बोल दिया। बाद में कुछ रस्में पूरी की, परिवार में एक जन्मदिन और एक शादी की साल गिरह का केक कटा और धीरे मेहमान भी विदा हो गये। सुरेन भैया के परिवार का ट्रेन में आरक्षण एक दिन बाद का था, उन्हें अक्षर धाम मंदिर देखने भेज दिया। नये जोड़े को पग फेरे की रस्म करके हनीमून पर जाना था। इसी बीच सोसायटी की महिलाओं ने दुल्हन को देखने की इच्छा ज़ाहिर की क्योंकि शादी में तो बहुत कम पड़ौसी पहुँचे थे। पड़ौसी महिलाओं को चाय पर बुलाकर एक तरह से मुंह दिखाई की रस्म भी पूरी हो गई। ख़ुशी ख़ुशी शादी के सब काम निबटे। लड़के की शादी के बाद एक नया सदस्य घर में शामिल होता है। पुराने ज़माने में सामंजस्य बनाने और ताल मेल बैठाने का काम केवल बहू का होता था पर अब ऐसा नहीं है परिवार के हर सदस्य को ये कोशिश करनी पड़ती है तब ही परिवार में सुख शांति बनी रह सकती है, तभी धीरे धीरे सब दिनचर्या सुचारु होती है। हनीमून से लौटकर दोनों ने काम पर जाना शुरू कर दिया था।

 

अपूर्व की शादी अक्तूबर में हुई थी उसके बाद दिसम्बर में सुरेन भैया की बड़ी बेटी के बेटे अभिनव की शादी ग्वालियर में थी, जिसमें फिर परिवार के काफ़ी सदस्य इकट्ठे हुए। यहाँ से हम दोनों ही ग्वालियर गये थे। ग्वालियर में मेरी तबीयत खराब हो गई, दरअसल ढोल की तेज़ आवाज़ के कारण वर्टिगो का अटैक हो गया था ।ग्वालियर इनका अपना शहर था, पर मेरी तबीयत ख़राब होने की वजह से शादी वाले घर से निकल ही नहीं पाये थे। अगले दिन शाम को वापिस आना ही था। शादी में भैया भी आये थे पर उनके स्वास्थ्य में गिरावट थी। इसके बाद लगातार उनके स्वास्थ्य में गिरावट की ख़बरें मिलती रहीं।

 

2010 के मार्च में भैया के स्वास्थ्य में इतनी तेज़ी से गिरावट आई कि लगने लगा था कि अब ज़्यादा समय नहीं बचा है। इलाज तो गुरु जी के आदेशानुसार चल ही रहा था। अब इस विषय में बात करने का समय भी निकल चुका था। नवम्बर में अपूर्व की शादी के बाद बीबी वापिस अमरीका चली गईं थी और अब मार्च में फिर आ गईं। हम भी भैया को देखने आगरा गये थे। वे उठ बैठ नहीं सकते थे, बेहद तकलीफ़ में थे। अप्रैल के शुरू में ही वह मुक्ति पा गये। हम पुनः आगरा गये पर मेरे मन में दुख के साथ बहुत आक्रोश भी था उनके गुरु और वहाँ की पूरी व्यवस्था के प्रति, अंध भक्ति और अंधविश्वास के प्रति………. यहाँ तक कि मुझे सत्संग में बैठना और राधा स्वामी अभिवादन से भी चिढ़ होगई थी। पहले मैं राधा स्वामी समाज के प्रति तटस्थ थी, अब नकारात्मकता भर गई थी। धीरे धीरे मैंने अपने आक्रोश पर नियंत्रण किया और यह ध्यान में वह रखा कि मेरे व्यवहार से मेरे अपनों को चोट न पहुँचे क्योंकि उनकी भक्ति पर तो कोई असर होने वाला नहीं था। आध्यात्मिक संस्थाओं में मैंने कभी विश्वास नहीं किया और उन्हें धोखे और अंधविश्वास का पर्याय ही माना है। दयालबाग़ राधास्वामी संस्था बहुतों से बेहतर है। बहुत कुछ अच्छे काम भी हो रहे हैं परन्तु अंध भक्ति से परिपूर्ण वातावरण में मेरा दम घुटता है।  इस विषय पर चर्चा बहुत लम्बी हो सकती है पर ये समय उसके लिये अनुकूल नहीं है, इसलिये आगे बढ़ती हूँ।

 

भैया को गये एक डेढ़ साल ही हुआ था कि पता चला सुरेन भैया के मूत्राशय में भी कैंसर है। भक्त तो वे भी कम नहीं थे, वही कहानी फिर दोहरा  जा रही थी। डाक्टर का सत्संगी होना मानो सबसे बड़ा गुण है पर मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि मेरी कोई सुनने वाला नहीं था। खैर एक दो साल तक उनका रोग अधिक नहीं बढ़ा पर किसी कैंसर विशेषज्ञ का इलाज नहीं हुआ । इस बीच ही ख़बर मिली कि आशा भाभी को भी गर्भाशय का कैंसर है। दोनों पति पत्नी भंयकर बीमारी से जूझ रहे थे पर सही इलाज नहीं हो रहा था। आशा भाभी की हालत तेज़ी से गिर रही थी, बड़ी मुश्किल से काफ़ी समय गँवाकर गुरु जी ने उन्हें दिल्ली आकर एम्स में इलाज करवाने की अनुमति दी। उनका ऑपरेशन बहुत पहले हो जाना चाहिये था, वह हुआ और वह बेहतर हो गईं लखनऊ जाकर रेडियो थैरेपी से वे स्वस्थ हो गईं।

 

2014 के सितम्बर अक्तूबर महीने में इन्होंने तनु, अपूर्व और नेहा को एक उपहार दिया, स्विटज़रलैंड  और ऑस्ट्रिया की पर्यटन यात्रा ! क़रीब दस दिन की यात्रा थी जिसमें दोनों देश के सभी पर्यटन स्थल इन लोगों ने देखे। ये पहला मौक़ा था कि तीनों बच्चों में से हमारे पास कोई नहीं था।  ये तोहफा  हमारी तरफ़ से इन तीनों के आने वाले कई जन्म दिन और अपूर्ण  नेहा के लिये, कई शादी की वर्षगाँठ का तोहफ़ा था। ये तोहफा तीनों को बहुत पसंद आया था। ज़ेवर वगैरह तो बैंक में रखे रहते हैं। अपनी ज़रूरत की चीज़े ये लोग अपने आप ले ही लेते हैं,  इसलिये बच्चों के लिये ये तोहफ़ा इनकी सोच का परिणाम था।

 

हमारे परिवार को कैंसर ने जकड़ा हुआ था।2012 में इनकी छोटी जुड़वाँ बहनों में उमा दी बहुत बीमार हुईं आँतों में रुकावट थी जिसका ऑपरेशन होने के कई महीने बाद तक उनकी हालत अच्छी नहीं थी पर टी बी या कैंसर भी नहीं था। उमा दी बीमार ही थी कि अचानक उनकी जुड़वाँ बहन रमा दी बहुत बीमार हुईं उनका इलाज मुंबई में हुआ उन्हें फेफडों का कैंसर था। बीस दिन की बीमारी में ही वह चली गईं। उनकी बीमारी और मृत्यु की सूचना उमा दी से काफ़ी दिन छिपानी पड़ी थी।

 

आशा भाभी तो ठीक हो गईं पर 2014 में सुरेन भैया की तबीयत बहुत बिगड़ गई, मैं लखनऊ उन्हें देखने गई तो बहुत तकलीफ में थे, उन्होंने तो एक प्रकार से कोई इलाज करवाया ही नहीं था। उन दिनों बीबी भी भारत आई हुई थी उन्हें देखने वह भी लखनऊ गईं । कुछ दिन बाद वे भी अपनी तकलीफ़ों से आज़ाद हो गये। इस समय मैं लखनऊ नहीं गई थी अपूर्व को ही अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये वह भेज दिया था, क्योंकि हम दोनों का ही स्वास्थ्य बहुत ठीक नहीं था।

 

कुछ साल पहले चैकअप करवाने पर पता चला था, कि इनके हृदय की धड़कन की गति सामान्य से काफ़ी कम है। डॉक्टर ने पेस मेकर लगाने की सलाह दी थी। दूसरे डॉक्टर की राय ली तो उन्होंने कुछ दिन निगरानी में रखने की सलाह दी और कहा कि कोई जल्दी नहीं है कुछ महीने इंतज़ार करने के बाद निर्णय कर सकते हैं। इनकी दोनों आँखों का कैटरैक्ट का ऑपरेशन भी होना था। डॉक्टर ने सलाह दी कि पहले आँख की सर्जरी करवा लें पेस मेकर के लिये निर्णय उसके बाद लेंगे। कैटरैक्ट की सर्जरी आजकल सामान्य सी बात हो गई है, आँख की सबसे सरल सर्जरी मानी जाती है। 20 मिनट में हो जाती है। मैं और अपूर्व इनके साथ रेलवे अस्पताल गये। सर्जरी हुई और ये मुसकुराते हुए बाहर आ गये जैसे कुछ हुआ ही न हो। ये इनकी सहनशक्ति थी, अन्यथा आँख में एक तिनका भी गिर जाये तो बहुत तकलीफ़ होती है। डॉक्टर ने दवाइयों के बारे में सब हिदायतें दे दी थीं पर खाने पीने के लिये कोई परहेज़ नहीं बताया था। डॉक्टर ने कहा कि पट्टी उसी दिन दोपहर को भी उतारी जा सकती है और दवाई डालना शुरू हो सकती है, नहीं तो अगले दिन आना पड़ेगा। हमने सोचा अगले दिन दोबारा आने से रुक जाना बेहतर है। हम तीनों को खाना भी खाना था पहले सोचा कहीं रैस्टोरैंट में जाते हैं, फिर इरादा बदला और अस्पताल की कैंटीन में ही जाकर तीनों ने छोले भटूरे खाये। ये एकदम ठीक लग रहे थे। पट्टी खुलवाने के बाद घर आ  गये और डॉक्टर के निर्देशानुसार दवाइयाँ देते/ डालते रहे।

अगले दिन सुबह उठकर इन्होंने हमें कुछ नहीं बताया दिनेश भैया से बात की। रात को वाशरूम में ये कुछ देर के लिये बेहोश से हो गये थे। इन्हें होश आया तो इन्होंने अपने को वाशरूम के फ़र्श पर लेटा हुआ पाया। पेट में भी कुछ गड़बड़ी भी लगी थी। ऑपरेशन के बाद हम इन्हें छोले भटूरे खिलाने की बेवकूफी कर चुके थे।

 

अब कार्डियोलौजिस्ट और आँख के डाक्टर को लगा कि पहले पेसमेकर लगवा लेना चाहिये। उसके बाद दूसरी आँख की सर्जरी करेंगे। आँख सामान्य रूप से ठीक हो रही थी तो डेढ़ महीने बाद पेसमेकर की सर्जरी हुई, जो ठीक रही।  पहली आँख की सर्जरी तो बहुत ठीक हुई पर दूसरी आँख में कुछ दिन बाद लाली आ गई थी, कुछ दर्द भी था। इसी समय सुरेन भैया के निधन की ख़बर आई थी और हम नहीं जा सके थे। अपूर्व को भेजा था मैं बीमारी की हालत में मिल ज़रूर आई थी, ये तसल्ली थी।

 

दरअसल इनकी आँख में फंगल इन्फैक्शन हो गया था। आँख के लिये ये बहुत बड़ा ख़तरा होता है। धीरे धीरे उस आँख से दृष्टि भी कम होने लगी थी।  एक आँख की नज़र खोने के कगार पर हम खड़े थे। एक अति नामी डॉक्टर के पास गये वो हर तीसरे चौथे दिन बुलाते रहे, जाँच और दवाइयाँ चली पर कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। डॉक्टर ने एक और सर्जरी की सलाह दी तब दिनेश भैया ने दूसरे आँख के डॉक्टरों से सलाह ली फिर एम्स में दिखाया। एम्स में डेढ़ दो साल इलाज चला परन्तु बिना सर्जरी के आँख ठीक हो गई। ईश्वर का लाख लाख शुकर है कि अब दोनों आँखों से ठीक दिखता है, पर आँख का चैक अप हर छटे महीने करवाना होता है। इससे एक लाभ ही हुआ कि समय से पता चल गया कि दोनों आँखों में ग्लूकोमा है, जिसके लगातार हमेशा आँखों में दवाई डालनी ज़रूरी है।

 

मेरी कमर का दर्द तो चोट के बाद ठीक हुआ ही नहीं बस सावधानियाँ, सिंकाई और जब ज़रूरत से ज्यादा दर्द हो या ज्यादा काम हो य़ा घूमना फिरना हो तो दर्द की गोली लेनी पड़ती है।  दर्द में मैंने कभी कभी अच्छी पंक्तियाँ लिखी हैं । डायरी के पन्नों के तहद लिखी पंक्तियों में दर्द का बिछौना भी बनाया है। लाल पीली गोलियों और कैप्सूल से पैडैंट झुमके बनाने की भी कल्पना की है। इसके अलावा दूसरा कष्ट यू टी आई का रहा है। ये बीमारी पहली बार  चालीस साल पहले हुई थी। पहले कुछ सालों में होती थी ऐंटीबायटिक लेने पड़ते थे। बहुत सारे टैस्ट कई बार हुए, बहुत  से विशेषज्ञों का इलाज किया इनफैक्शन बार बार होने का शारीरिक कारण कभी नहीं मिला। पिछले पंद्रह साल में ये बीमारी जान लेवा तो नहीं पर बेहद कष्ट देवा ज़रूर हो गई। ईश्वर की कृपा से पिछले दो साल से ये इन्फैक्न नहीं हुआ है।होम्योपैथिक, आयुर्वैदिक ऐलोपैथिक सब इलाज नाकाम होने के बाद अपोलो अस्पताल के एक यूरौलोजिस्ट की बताई हुई सावधानियाँ और कुछ ऐसी दवाइयाँ जो  कि दवाई नहीं है बल्कि रोग के लिये अवरोधक हैं लेने से ठीक हूँ और मनाती रहती हूँ कि वह कष्ट फिर न सहना पड़े। अवसाद और उससे संबंधित मानसिक विकारों से बचे रहने के लिये लेखन एक औषधि का काम करता है परंतु मैं चिकित्सक के संपर्क में रहती हूँ। इस बात को  छिपाने की ज़रूरत नहीं है। जैसे ब्लड प्रैशर या डायबटीज़ की दवाई खानी पड़ती है मैं उसी तरह मनोचिकित्सक  दवाई दे तो वह भी खाई जा सकती है। आखिर मक़सद तो स्वस्थ रहना  ही है। यहाँ जिसको जैसी ज़िंदगी मिले वैसी गुज़ारनी पड़ती है, उस ज़िंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश कर सकते हैं, करनी भी चाहिये पर उसको बदला तो नहीं जा सकता। किसी दूसरे को बदलना भी संभव नहीं होता, बच्चों को सिखा सकते हैं समझा सकते हैं उनके जीवन की दिशा निर्धारित नहीं कर सकते।

 

आशा निराशा , सुख दुख जीवन के अंग है। पिछले वर्ष अपूर्व को अपने फ्लैट की चाबियाँ मिल गईं थीं। कुछ समय अधिक लगा परंतु फ्लैट मिल गया, जो कुछ साल पहले बुक किया था। इन दिनों बिल्डरों की धाँधले बाज़ी की ख़बरें बहुत आ रही थी, लोगों का इतना पैसा डूबने की ख़बरें थी, उसके मद्देनज़र ये भी एक राहत की बात है। वहाँ से  नेहा अपूर्व दोनों का ऑफिस काफ़ी दूर है इसलिये फिलहाल पूरी तरह से शिफ्ट तो नहीं होंगे परन्तु रहने लायक सजा सँवार लिया है और सप्ताहांत में अपने घर का मज़ा लेने चले जाते हैं।

 

मैं अब सत्तर पार कर चुकी हूँ , जीवन में स्वास्थ्य संबंधी समस्यायें तो आती ही रहेंगी, बाकी की ज़िंदगी भी ऐसे ही चलते फिरते गुज़र जाये यही कामना है। पूरी आशा है कि हमारे न होने पर भी अपूर्व और नेहा तनु का पूरा ध्यान रखेंगे और उसे अकेले  पन का अहसास नहीं होने देंगे । अपूर्व की शादी को दस वर्ष हो चुके हैं परन्तु सब कोशिशों के बाद भी संतान का सुख नहीं मिला है। वैसे संतान हमेशा सुख ही दे ये भी ज़रूरी नहीं है। हमारी तरफ से तो पहले से ही बच्चा गोद लेने की पूरी आज़ादी है। यह महत्वपूर्ण निर्णय पालने वाले माता पिता ही को लेना है। कम से कम एक संतान सभी चाहते हैं, पर संतान के बिना व्यक्ति भरपूर ख़ुशहाल ज़िंदगी नहीं जी सकता, मैं ये नहीं मानती।

 

जीवन ख़ुशियों और दुखों का संगम है इसे हर हाल में स्वीकार करके ज़िंदगी में आगे बढना ही ज़िंदगी जीना है। मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वैचारिक मतभेद चाहें जितने हों ,हर रिश्ते को उसकी पूरी गरिमा के साथ निभाया है , जितना प्रेम दिया है ,उतना ही पाया भी है। मेरी जीवन यात्रा के दौरान  पिछली शताब्दी में नाना जी, नानी जी, मम्मी व पिता जी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई थी। नीता के पति चरणाधार का निधन हुआ था।  दीपका ( भतीजी) की पहली संतान  मुनमुन शैशव में ही चली गई थी। इक्कीसवीं शताब्दी में सबसे पहले चाची जी फिर चाचा जी चले गये। रमा दी गईं। कुछ साल पहले उमा दी के पति ब्रजेश भाई साहब चले गये। उमा दी के दामाद मनु युवावस्था में चले गये थे। हाल ही में शैल मौसी जी और शशि बीबी के पति रवि भाई साहब  भी नहीं रहे। मेरे मायके के परिवार में मेरे दोनों भाई गये फिर क़रीब दो साल पहले भतीज दामाद पंकज(दीपिका के पति) असमय ही चल बसे। इन जाने वालों में से 6 के जाने का कारण कैंसर रहा। परिवार के इन सभी प्रिय

जनों को मैं श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ।

बीनू भटनागर

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