ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

पितृसत्ता की लड़ाई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है ,ये उस सोच की लड़ाई है जो स्त्री को पुरुष से कमतर मान कर स्वामी और दासी भाव पैदा करती है |कई बार आज का शिक्षित पुरुष भी  इस दवंद में खुद को असहाय महसूस करता है | वो समझाना चाहता है कि भले ही तुमने सुहाग के चिन्हों को धारण  किया हो पर मेरा अनुराग तुम्हारे प्रति उतना ही है |सौरभ दीक्षित ‘मानस’की ये कविता प्रेम और समर्पण के कुछ ऐसे ही भाव तिरोहित हुए हैं…….

ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

ऐ, सुनो !
मैं तुम्हारी तरह
माँग में सिन्दूर भरकर नहीं घूमता।
लेकिन मेरी प्रत्येक प्रार्थना में
सम्मिलित पहला ओमकार तुम ही हो।

ऐ, सुनो!
मैं तुम्हारी तरह
आँखों में काजल नहीं लगाता।
लेकिन मेरी आँखों को सुकून देने वाली
प्रत्येक छवि में तुम्हारा ही अंश दिखता है।

ऐ, सुनो!
मैं तुम्हारी तरह
कानो में कंुडल नहीं डालता ।
लेकिन मेरे कानों तक पहुँचने वाली
प्रत्येक ध्वनि में तुम्हारा ही स्वर होता है।

ऐ, सुनो!
मैं तुम्हारी तरह
गले में मंगलसूत्र बाँधकर नहीं रखता।
लेकिन मेरे कंठ से निकले प्रत्येक शब्द का
उच्चारण तुम से ही प्रारम्भ होता है।

ऐ, सुनो!
मैं तुम्हारी तरह
पैरों में महावर लगाकर नहीं चलता।
लेकिन मेरे जीवन लक्ष्य की ओर जाने वाला
प्रत्येक मार्ग, तुमसे ही प्रारम्भ होता है।

ऐ, सुनो!
मैं तुम्हारी तरह
पैर की अंगुलियों में बिछिया नहीं बाँधता।
लेकिन मेरी जीवन की प्रत्येक खुशी की डोर
तुमसे ही बँधी हुयी है………मानस

saurabh

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