डरना मना है

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डरना मना है
.‘डरना मना है’ कहानी  में बाल मनोविज्ञान और भूख का मनोविज्ञान दोनों का ही अंजू जी ने बहुत सहजता से वर्णन किया है |ये कहानी एक बच्चे पर आधारित है जो कूड़ा बीन कर अपना व् अपने परिवार का पेट पालता है | इन कूड़ा बीनने वाले बच्चों के इलाके भी बंधे हुए हैं | जहाँ दूसरे इलाके के बच्चे नहीं आ सकते और अगर आये उन्हें इस गलती के लिए पिटाई की सजा भुगतनी होती है | ऐसा ही एक बच्चा बसंत जो पिटाई के बाद दूसरे दिन काम पर नहीं आ पाया पर उसके अगले दिन उसे काम पर निकलना है उसकी आँखों के आगे अपनी और अपने परिवार की भूख का सवाल है | ऐसे में दूर से जब उसे बीच सड़क पर पड़ी कोई वस्तु दिखाई पड़ती है तो वो सहज ही उसकी ओर आकर्षित होते हुए बढ़ता चला जाता है | बच्चे हर बढ़ते कदम के आगे कहानी मार्मिक और गंभीर होती जाती है | हम सब के मन में बहुत सारे विश्वास –अन्धविश्वास रोप दिए जाते हैं | कहानी उस पर भी प्रहार करती है परन्तु कहानी का उद्देश्य पाठक के मन में उस मानवीय संवेदना को जगाना है जिस के तहत वो बच्चा आगे बढ़ते हुए उन सब आवाजों को दर-किनार करता चलता है जो आज तक उसे डराती आई हैं | वो है भूख का डर  जो हर डर पर हावी है | ये कहानी ऐसी है जो खत्म होने के बाद पाठक के मन में एक टीस उठा देती है |

डरना मना है

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पौ फटने के समय ही निकल जाता है बसंत घर से पर आज थोड़ा लेट हो गया!  सड़क पर थोड़ी बहुत आवाजाही शुरू हो चुकी थी!  शुक्र है कि झाड़ू लगना अभी शुरू नहीं हुई थी वरना उसकी किस्मत पर भी फिर जाती झाड़ू!  उसने सड़क पार की और मेनरोड से अंदर वाले छोटे रोड पर आ गया था।  किनारे पर पड़ी दो बोतलें इसका कारण थीं जिन्होंने दूर ही से उसका ध्यान खींच लिया था। उसने दौड़कर दोनों बोतलें और उससे आगे पड़ी पन्नी और कुछ कागज़ उठाकर कंधे पर लटके अपने कद से भी  बड़े से पोलीथिन के झोले के हवाले की और आगे बढ़ गया।
उसके कोहनी और घुटने में अब भी दर्द है!  उसे याद आयी कल रात की वह घटना।  माँ की दवाई तीन दिन से खत्म थी!  पूरे दिन भटकने पर भी थोड़ी पन्नियों और कागज़ के अलावा कुछ खास हाथ नहीं लगा तो वह बाजार चला गया था। वहाँ लगनेवाला साप्ताहिक शुक्र बाजार उस जैसे लड़कों को मालामाल कर देता है, उसने सुना था हरीश से।  हरीश… उसके साथ कूड़ा बीननेवाला उसका हमउम्र हमपेशा लड़का, जो अपने अनुभव के चलते अब वरिष्ठ की श्रेणी में आ गया था।  हरीश उसकी तरह किसी परिवार से नहीं जुड़ा था।  उसके ही शब्दों में वह “सड़क पर पैदा होया मैं…बोले तो लावारिस जिसका कोई वाली-वारिस ई नई!”
पर बसंत लावारिस नहीं था! उसके पीछे दो और पेट लगे थे! बाजार में पीछे बचे ‘माल’ का अंबार लगा होता है।  जो लोगों के लिए कूड़ा-करकट, भंगार या कबाड़ है   उसके लिए वही माल है, रोजी रोटी है!  लालच ने घेर लिया था बसंत को, उससे भी अधिक रोजी की चिंता ने।
“उधर जाने का नई रे बसंत।  अपना इलाका नई है।  हाथ लग गया तो साबुत नई बचेगा रे।”  हरीश बोलता था!
लालच बड़ा था क्योंकि भूख बड़ी थी।  जरूरत उससे भी बड़ी।  पांच मिनट में आधा झोला भर गया था इतनी पन्नी, कागज़, बोतल, प्लास्टिक मिले थे बसंत को बाज़ार उठने के बाद। झूम गया था उसका मन पर वही हुआ जिसका डर था। लालच की सज़ा मिलनी थी, मिली भी।  आ गया था एक को नज़र!  उसकी एक हुंकार पर पूरा गैंग जमा हो गया!  खूब मार पड़ी।  वह बेतहाशा भाग निकला वहाँ से। झोला तो पहले ही छीन लिया गया।
जब दूर आकर रुककर सांस ली तो अहसास हुआ, होंठ साइड से कटकर सूज गया था।  वहां छलछला आए खून को उसने बाजू से पोंछ लिया था। मुंह मे रक्त का नमकीन स्वाद घुला तो उसने जोर से थूक दिया।
दाई कोहनी, बायां घुटना भी छिल गया था।  कंधे में भी तेज दर्द था।  रात भर कराहता रहा।  रंजू ने हल्दी की सिकाई की तो कुछ आराम मिला।  कब नींद आई कुछ पता नहीं।  रंजू उसकी बड़ी बहन है।  सड़क पर हुए एक हादसे में उसका एक पैर कट गया। हंसती खेलती रंजू के साथ अब सहेलियाँ नहीं बैसाखी थी!  जिन कोठियों में काम करती थी सब जाता रहा।  अपाहिज लड़की को कौन काम देगा।  माँ तो पहले ही फेंफड़े की बीमारी से लाचार हो चुकी है।  बाप कभी होगा पर बसंत ने उसका चेहरा तक नहीं देखा।  उसके जन्म से पहले ही लापता हो गया कहीं! ये भी नहीं मालूम कि है या नहीं! होता भी तो कुछ फर्क नहीं!  सड़क बनाने का काम में बेलदारी करता था पर नशेड़ी था एक नंबर का…माँ बताती है!
एक बड़ा भाई भी है जो नशे की लत के कारण घर कम आता है। उसके साल के चार महीने चोरी चकारी या उठाईगिरी में बीतते हैं और बाकी आठ जेल में।  उससे छोटी एक बहन डेंगू का शिकार होकर ऊपर पहुँच गई, डायरेक्ट भगवान के पास।  सबसे छोटा वही! जब तक माँ बहन कोठी का काम करती रही हालात इतने खराब नहीं थे पर अभी तो सब भगवान नहीं बसंत भरोसे!
आठ साल की उम्र में कौन काम देगा! एक बार लगा था एक होटल में!  मालिक दिन निकले से आधी रात तक जमकर काम कराता था और पगार में से आधा काट लेता था ये टूटा वो टूटा बोलकर! उसकी उम्र के चलते काम मिलना मुश्किल है!  कानून का डर है सबको!  उसको अब ये काम ही जमता है! ये माल बटोर कर इदरीस चचा को बेच देता है!  गुजारा चल रहा है पर एक-दो दिन माल न मिले तो फाके के नौबत आ जाती है! पन्नी, गत्ता, कागज़ खूब मिलता है उसे! कभी किस्मत साथ दे तो अच्छा कबाड़ भी हाथ लग जाता है! जैसे कोई ट्यूबलाइट की खराब पट्टी, कोई पुरानी मशीन, कोई ख़राब इलेक्ट्रॉनिक आइटम! और कोई कोई दिन ऐसी चोट देकर जाता है कि कई दिन गुजर जाते हैं उससे उबरने में!
एक बार तेजाब से हाथ चल गया बैटरी फटने से तो एक बार पैर कट गया था ब्लेड से!  “ये लोग इतना खराब कचरा क्यों फेंकते हैं माँ!” उसके मासूम सवाल अब रोजी रोटी के बड़े प्रश्नचिन्ह की छाया में गुम हो चुके हैं! जैसे वह गुम हो जाता है कचरे के ढेर में! जो कचरा सभ्य लोगों के दिल में जुगुप्सा जगाता है उसके चेहरे पर चमक ला देता है!
कल रात की चोटों ने उसकी गति को धीमा कर दिया था पर रुक नहीं सकता बसंत! उसे चलते रहना है!
“कल का दिन साला खराब गया तो आज तो कुछ न कुछ जुगाड़ भिड़ाना ही है!”  वह सोच रहा था!  उसके साथ के लड़के हाथ की सफाई दिखाने से भी बाज़ नहीं आते पर बसंत चोरी-उठाईगिरी नहीं करेगा!  बड़े भाई जैसा नहीं बनना उसको!
“रे छोरा, पाम बचा के….” सामने से आती वृद्धा ने जोर से चेताया तो उसके साथ आता बच्चा ऐसे चिहुंका जैसे कोई साँप-बिच्छू देख लिया हो।  बसंत के चेहरे पर इस अकस्मात घटना से एक अदद मुस्कान अभी फैलने ही को थी कि उसके होंठ  के दाईं ओर का हिस्सा दर्द की घोषणा करते हुए हड़ताल कर बैठा। दर्द की एक तेज लहर उसके चेहरे से उठी और पूरे जिस्म में फैल गई।
आदतन दर्द को दरकिनार कर, उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो उस खाली चौराहे पर उसकी नज़र खींच लेने को पर्याप्त था कुछ जो जमीन पर पड़ा हुआ था! चंद कदम आगे बढ़ाने पर ये ‘पड़ा हुआ’ रखे हुए में तब्दील होने लगा!  क्या है वो सब?
दूर से यही दिखा कि एक फूटी हुई मटकी पर कुछ पड़ा है!  बसंत ने थोड़ा और आगे जाकर देखने की कोशिश करनी चाही!  इसी बीच उसने नोट किया दो और महिलाएं वहां से गुज़री तो उस ‘कुछ’ से बचते बचाते कुछ बडबडाते हुए निकली!
“बेडा गर्क हो इनका…सुबह सुबह ….पता नहीं कौन सत्यानाशी फेंक गई!”  महिलाएं उसके करीब से गुजरी तो बड़बड़ाहट को शब्द मिल चुके थे!
अब बसंत इतना करीब तो आ चुका था कि वह साफ़-साफ देख सके कि वह ‘कुछ’ दरअसल है क्या? दिन अभी निकल ही रहा था और उस समय एकाध साइकिल पर जाते छात्र के अतिरिक्त केवल अलसुबह मंदिर जाने वाली महिलाएं ही वहां से गुज़र रही थीं!  बसंत ने पास आकर देखा चौराहे के ठीक बीचोंबीच एक फूटी हुई मटकी से थोड़ा छिटक कर गिरी एक लाल कपड़े की छोटी सी पोटली और कुछ महिलाओं के सिंगार का सामान! बसंत ने गौर से झुककर देखा तो पाया…
“ह्म्म्म ….एक काजल है डंडी वाला, एक तेल की सीसी है खसबू वाली, एक दो तीन चार पांच…हम्म पांच लाल लाख की चूड़ी हैं…नहीं कड़ा…नही चूड़ी…एक मुंह देखने का सीसा, एक कंघी और एक खसबू वाला साबन…और वो लाल डिब्बी में क्या… सिंदूर?”  सबसे अधिक ध्यान खींच लेने वाली चीज थी वह पचास का नया नकोर नोट और एक रूपये का सिक्का जिसने बसंत को अधीर कर दिया!
“ए छोरा, दीखे ना है….टोना है…” एक और मंदिर जाती महिला ने उसे चेताया तो बसंत सीधा खड़ा हो गया!  उसके जाते ही उसने फिर झुककर देखा, टूटी हुई मटकी के एक हिस्से पर अंदर की ओर सिंदूर या रोली से पांच लाल टीके काढ़े गये थे तो दूसरे पर पांच टीके काजल से काढ़े गये थे!
‘टोना’ शब्द सुनते ही वह सिहर उठा!  इस सिहरन का सिरा जाकर उन डरावनी कहानियों से भी मिलता था जो माँ से सुनी थी उसने!  हर कहानी से जुडी चेतावनी बसंत को याद आने लगी!  माँ ने हमेशा ऐसी चीजों से बचकर रहने की बातें कहीं! ये कैसा टोना है?  लाल कपड़ा, सिंदूर, कटा नीबू तो वह कई बार देखता था और कतराकर निकल भी जाता था! पर टोने में ये सिंगार का सामान किसने रखा!
“छुइयो ना बस दूर से निकल जइयो छोरा जो कहीं टोना दीखे! भूत चिपट जावे!  यूँ पट से मर जावे जो छू ले!” अवचेतन में माँ के शब्द गूंजे तो बसंत के रुके हुए कदम आगे बढ़ गए!  पर आगे तो बढ़ा ही नहीं जाता था!  एक-एक कदम जैसे एक मन का होता जाता था!
“उठा ले बसंत….पचास का नोट है….सारे दिन का खर्चा निकल जाएगा! कल भी खाली गया!”  मन के भीतर छुपे किसी चोर ने ललचाया!
“नाssss टोना है!  छुइयो मत छोरा!!!” माँ की चेतावनी ने पीछा नहीं छोड़ा!
कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा बसंत पर माँ की दवाई, आटे का खाली डिब्बा, बहन का फटा कुरता, एक साथ कितनी सारी चीजें आकर चेतावनी पर सवार होने लगी! चेतावनी का स्वर उनसे जूझते हुए मंद पड़ने लगा!  मंद और मंद…. और मंद और फिर चेतावनी शांत हो गई!  अब वहां कोई स्वर नहीं था कुछ था तो बस पचास का वह नोट और बसंत की चौड़ गईं आँखें!
बसंत ने दौड़कर पचास का नोट और सिक्का उठाकर जेब के हवाले किया!  उसका नन्हा सा हाथ किसी अनहोनी की आशंका से एक पल को कांपा, पीछे हटा भी पर फिर रुक न पाया!
पैसे उठाकर वह चल पड़ा!  उत्तेजना और डर से उसकी रीढ़ में सिहरन हो रही थी!  उसका पूरा जिस्म थरथरा रहा था कि कुछ सोचकर वह फिर लौटा!  इस बार उसने कंघा और छोटा फोल्डिंग शीशा उठा लिया! रंजू के काम आयेगा!  उसके भी तो!  फिर एक एककर काजल, तेल, चूड़ियाँ, साबुन सब उठा लिया!  सिन्दूर छोड़ दिया क्योंकि उसका बसंत के घर में कोई काम नहीं था!  लाल पोटली खोलकर देखी तो उसमें कुछ गुलगुले थे!  बसंत के मुंह में पानी भर गया उसने वो पोटली जेब के हवाले की और बाकी सामान किनारे पर पड़े एक कागज़ में लपेटा और आगे बढ़ चला!
उसके कांपते पैर अब सधने लगे थे!  अब उसे कोई डर छू भी नहीं रहा था!  न डर न फ़िक्र, न भय न भूत! उससे निडर आज कोई नहीं था!  दुनिया के सबसे बड़े डर ने उसका हर डर स्याहीचूस की तरह चूस लिया था – भूख और गरीबी!
— अंजू शर्मा
अंजू शर्मा
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1 COMMENT

  1. बेहद कसी हुई कहानी जो बाल मनोविज्ञान ही से परिचित नहीं करवाती बल्कि समाज के इस निचले तबके का सटीक खाका खींचती है !
    साधुवाद !

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