एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से उकेरती कहानियाँ

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एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को  खूबसूरती से  उकेरती कहानियाँ

सपने ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ वो वरदान है, जो उसमें जीने की
उम्मीद जगाये रखते हैं
 | यहाँ पर मैं रात
में आने वाले सपनों की बात नहीं कर रही हूँ बल्कि उन सपनों की बात कर रही हूँ जो
हम जागती आँखों से देखते हैं और उनको पाने के लिए नींदे कुर्बान कर देते हैं | “एक
नींद हज़ार सपने” अंजू शर्मा जी का ऐसा ही सपना है जिसे उन्होंने जागती आँखों से देखा है, और पन्ने दर पन्ने ना जाने कितने पात्रों के सपनों को समाहित करती गयी हैं | एक
पाठक के तौर पर अगर मैं ये कहूँ कि इस कहानी संग्रह को पढ़ते हुए मेरे लिए यह तय
करना मुश्किल हो रहा था कि मैं सिर्फ कहानियाँ पढ़ रही हूँ या शब्दों और भावों की
अनुपम चित्रकारी में डूब
 रही हूँ तो
अतिश्योक्ति नहीं होगी | अंजू जी, कहानी कला के उन सशक्त हस्ताक्षरों में से हैं
जिन्होंने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो भावों की तूलिका से कागज़ के कैनवास
से शब्दों के रंग भरती हैं …कहीं कोई जल्दबाजी नहीं, भागमभाग नहीं और पाठक उस
भाव समुद्र में
  डूबता जाता है…डूबता
जाता है |

 एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से  उकेरती कहानियाँ 


गली नंबर दो  इस संग्रह की
पहली कहानी है | ये कहानी एक ऐसे युवक भूपी के दर्द का दस्तावेज है जो लम्बाई कम
होने के कारण हीन भावना का शिकार है | भूपी मूर्तियाँ बनाता
 है , उनमें रंग भरता है , उनकी आँखें जीवंत कर
देता है , पर उसकी दुनिया बेरंग है , बेनूर है … वो अपने मन के एक तहखाने में
बंद है , जहाँ एकांत है , अँधेरा है और इस अँधेरे में गड़ती  हुई एक टीस
 है जो उसे हर ऊँची चीज को देखकर होती है | किसी
की भी साइकोलॉजी  यूँ ही नहीं बनती, उसके पीछे पूरा समाज दोषी होता है | बचपन से
लेकर बड़े होने तक कितनी बार ठिगने कद के लिए उसे दोस्तों के समाज के ताने सुनने
पड़े हैं | एक नज़ारा देखिये …

“ओय होय, अबे तू जमीन से बाहर आएगा या नहीं ?”

‘भूपी तू तो बौना लगता है यार !!! ही, ही ही !!’

“अबे, तू सर्कस में भरती क्यों नहीं हो जाता, चार पैसे कम लेगा|”

“साले तेरी कमीज में तो अद्धा कपडा लगता होयेगा, और देख तेरी पेंट तो
चार बिलांद की भी नहीं होयेगी |”
                                        


किसी इंसान का लम्बा होना, नाटा  होना , गोरा या काला होना उसके हाथ में कहाँ
होता है | फिर भी हम सब ऐसे किसी ना किसी व्यक्ति का उपहास उड़ाते रहते हैं या
दूसरों को उड़ाते देखते रहते हैं ….इस बात की बिना परवाह किये कि ये व्यक्ति के
अंदर कितनी हीन भावना भर देगा | भूपी के अंदर भी ऐसी ही हीन ग्रंथि बन गयी जो उसे
मौन में के गहरे कुए में धकेल देती है | ग्लैडिस से लक्ष्मी बन कर पूरी तरह से
भारतीय संस्कृति में रची बसी भूपी की भाभी , उसके काम में उसकी मदद करती |

लक्ष्मी का चरित्र अंजू जी ने बहुत खूबसूरती से गढ़ा है ,ये  आपको अपने आस –पास की उन महिलाओं की याद दिला
देगा जो विवाह के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसी रची कि यहीं की हो के रह गयीं | खैर,
भूपी के लिए सोहणी का विवाह प्रस्ताव आता है जिसके पिता की ८४ के दंगों में
हत्या
  हो चुकी है और रिश्तेदारों के आसरे
जीने वाली उसकी माँ किसी तरह अपनी बेटी के हाथ पीले कर देन चाहती हैं | भूपी के
विपरीत सोहणी खूब –बोलने वाली, बेपरवाह –अल्हड़ किशोरी है जिसके पास रूप –रंग व्
लंबाई भी है …वही लम्बाई जो भूपी को डराती है | भूपी और सोहणी का विवाह हो जाता
है पर उसकी लंबाई भूपी को अपने को और बौना महसूस
 
कराने लगती है| सोहणी को कोई दिक्कत नहीं है पर ये हीन ग्रंथि, ये भय जो
भूपी ने पाला है वो उनके विवाहित जीवन में बाधक है …
कहानी में पंजाबी शब्दों का प्रयोग पात्रों को समझने और उनके साथ
जुड़ने की राह आसान करता है | कहानी बहुत ही कलात्मकता से बुनी गयी है | जिसके
फंदे-फंदे में पाठक उस कसाव को मह्सूस करता
 है जो कहानी की जान है | एक उदाहरण देखिये …

भूपी को दूर –दूर तक कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा , एक कालासाया उसके करीब
नुमदार
 हुआ और धीरे –धीरे उसे जकड़ने लगा |
भूपी घबराकर उस साए से खुद को छुडाना चाहता है | वह लगभग जाम हो चुके हाथ –पैरों
को झटकना चाहता है , पर बेबस है , लाचार है |

“ समय रेखा “  संग्रह की दूसरी
कहानी है | ये कहानी मेरी सबसे पसंदीदा दो कहानियों में से एक है, कारण है इसका
शिल्प …जो बहुत ही परिपक्व लेखन
  का सबूत
है | अंजू जी के लेखन की यह तिलस्मी, रहस्यमयी शैली मुझे बहुत आकर्षित करती है,
साथ ही इस कहानी दार्शनिकता इसकी जान है |
 
कहानी का सब्जेक्ट थोड़ा बोल्ड है और वो आज की पीढ़ी को  परिभाषित करता है | ये कहानी अटूट बंधन पत्रिका
में भी प्रकाशित हुई है और
  आप इसे यहाँ पढ़
सकते हैं |

वैसे तो ये कहानी बेमेल रिश्तों पर आधारित है  | आज हम देखते हैं कि बेमेल रिश्ते ही नहीं प्रेम
विवाह भी टूटते हैं …इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि प्रेम होना और प्रेम में पड़
जाना दो अलग-अलग चीजें हैं | प्रेम में पड़ जाने के पीछे कई मनोवैज्ञानिक कारण होते
हैं , जो उस समय समझ नहीं आते पर साथ रहने , या ज्यादा समय साथ गुज़ारने से मन की पर्ते खुलती हैं , प्रेम में पड़
जाने का कारण समझ में आता है , फिर होता है अंतर्द्वंद …
कहानी की शुरुआत ही खलील जिब्रान के एक कोटेशन से होती है ..
.
“प्रेम के अलावा प्रेम में और कोई इच्छा नहीं होती |पर अगर तुम प्रेम
करो और तुमसे इच्छा किये बिना रहा ना जाए तो यही इच्छा करो कि तुम पिघल जाओ प्रेम
के रस में और प्रेम के इस पवित्र झरने में बहने लगो |”

परन्तु बादलों की आकृतियों से खेलती कहानी की नायिका  अवनि इस वाक्य पर संदेह करती है …

“ इच्छाएं किसी बंधन की कैद को कब मानती हैं |वो तो सिंदूरी आकाश में
बेख़ौफ़ , बेबाक विचारने वाला पंक्षी है |”
कहानी अवनि , मानव और अनिरुद्ध के बीच की है | अवनि और मानव हमउम्र
हैं , बचपन के दोस्त हैं वहीँ अनिरुद्ध अवनि का एक परिपक्व मित्र  है जो उससे उम्र में २० साल
बड़ा है | किताबों की शौक़ीन अवनि को ज्ञान के आकाश के सूर्य अनिरुद्ध के प्रति कब
आसक्ति हुई जो और उसके मन को उसकी ओर खींचने लगी ये 
 खुद वो भी नहीं जान पायी |  अनिरूद्द के प्रति आसक्त उसके मन को  हमउम्र मानव में  बहुत बचपना लगता था | परन्तु  जीवन संतुलन मांगता है | और इसी मांग में वो
अपने मष्तिष्क में एक खेल रचती है … समय रेखा का खेल
 |

समय रेखा के इस खेल में वो 25 पर खड़ी है और अनिरुद्ध 45 पर ….वो
दोनों बीच की तरफ एक –एक कदम बढ़ाते हुए 35 पर आ जाते हैं | ये एक समय रेखा एक
तिलिस्म रचती है जहाँ पर वह ये मान कर खुश होती है कि वो अपनी उम्र से थोड़ी परिक्व
हो गयी है और अनिरुद्ध में थोड़ा सा बचपना आ गया | जीवन के लिए दोनों ही जरूरी हैं
, वरना जीवन नीरस हो जाता है | घर, जहाँ बौद्धिकता और सिर्फ बौद्धिकता
  पसरी हुई हो  वहाँ अवनि को  मुस्कुराना भी
मुश्किल लगता | ऐसे में उसकी सहेली मार्था का साथ उसे बहुत सुकून देता है | मार्था भी किताबों की बहुत शौक़ीन है और उसका व्यक्तित्व बहुत सुलझा हुआ है | जिंदगी के तमाम
सवालों के जवाब के लिए मार्था के पास एक कोटेशन है | जैसे अवनि की मानसिक स्थिति
के लिए भी उसके पास एक कोटेशन है …
“स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से
व्यक्त करता है , जिनकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं हो पाती |”
            
दरअसल ये कहानी एक
स्त्री के उस मनोविज्ञान को परिभाषित करती है , जिसके पिता बचपन में ही नहीं रहे ,
पितृ स्नेह से वंचित वो ,
 जीवनसाथी  से उसी  सुरक्षा व् स्नेह की कामना करती है, जो पिता देता है | इसी कारण वो अपने से बीस वर्ष  बड़े अनिरुद्ध की तरफ आकर्षित होती है, परन्तु थोड़े दिनों में एक स्त्री के रूप में
उसकी माँगे सर उठाने लगती हैं जो स्नेह नहीं प्रेम चाहती है , जो उसे तृप्त कर सके
जो उसका हम उम्र साथी ही दे सकता है , इसीलिए बचकाने व्यवहार वाला मानव उसे लुभाता
है | यही सारी कशमकश
  है |
कहानी के अंत तक आते –आते 
उसकी मानसिक कल्पना में आने वाली समय रेखा बदल जाती है और अब समय रेखा के
दोनों सिरों पर अनिरुद्ध व् मानव खड़े हैं और वो बीच में खड़ी
  है …. उसे बस दस कदम बढ़ने है …पर किस ओर?

एक उलझे हुए व्यक्तित्व की स्वामिनी अवनि के मानसिक स्तर पर उतर कर
लिखी हुई ये कहानी लिखना कितना मुश्किल हुआ होगा इसे सहज ही समझा जा सकता है पर
जिस तरह से अंजू जी ने उसे शिल्प कथ्य और प्रस्तुतीकरण के तीनों कोणों पर साधा है
वो निश्चित तौर पर उनकी लेखकीय प्रतिभा का परिचायक है |
नेमप्लेट इस संग्रह की वो कहानी है , जिससे शायद हम सब महिलाएं गुज़रती
हैं …पूरा नहीं तो थोड़ा-थोड़ा ही सही, और यही कारण है कि हंस में प्रकाशित इस
कहानी का बहुत लोकप्रिय होना | ये कहानी रेवा और स्वरा नाम की दो स्त्रियों की
कहानी है| रेवा तो रेवा है लेकिन स्वरा का परिचय है “मिसेज वशिष्ठ”| जहाँ रेवा
 स्वतंत्र व्यक्तित्व की मालकिन है और उन्मुक्त
जिन्दगी जीती है, वहीँ स्वरा विवाह के बाद “मिसेज वशिष्ठ के आवरण तले अपनी पहचान
ही नहीं अपने व्यक्तित्व को भी खो चुकी है| आमने –सामने रहने वाली इन दो स्त्रियों
की पहली मुलाक़ात बाद , स्वरा के बारे में रेवा के विचार है …
“पूरा दिन  फैमिली, बच्चे,
घर,किचन, चिक-चिक …आई मीन साली क्या लाइफ है |पितृसत्ता के हाथों कठपुतली बनना
कब छोड़ेंगी ये मूर्ख औरतें | इतने धुँआधार लेख लिखती हूँ उन औरतों के लिए और ये
नासमझ उसे पढ़ती तक नहीं |”

और स्वरा , रेवा के बारे में सोचती है …

“लड़की नहीं तूफ़ान है , जब से आई है सबकी गॉसिप का केंद्र है | कितनी
बिंदास है बाबा, कोई डर नहीं , अकेली रहती है | शादी भी नहीं की , पैंतीस से कम
नहीं होगी | मिसेज गुप्ता बता रहीं थीं कि पूरी
 
पियक्कड़ है, चेन स्मोकर, किसी अखबारमें नौकरी करती है शायद | ना खाने का
टाइम ना सोने का | ये भी कोई जिन्दगी है भला|”

पर दोनों का जीवन एक कोने पर असंतुलित था | जीवन का वही असंतुलित कोना
दोनों को एक दूसरे की जीवन की ओर आकर्षित करने लगा | जहाँ रेवा को पति के साथ सैर
पर जाती और शाम को बच्चों के साथ खेलती नज़र आती स्वरा उसके स्वतंत्र जीवन में
स्त्री की घर बनाने और बसाने
 की सहज इच्छा
को हिला कर कर जगा देती वहीँ बिंदास खिलखिलाती, मस्त और आत्मविश्वास से भरपूर रेवा
की आवाज़ उसके मन की शांत झील में कोई पत्थर फेंक देती और बहुत देर तक वो उस भँवर
में घूमती रहती |

आमने –सामने के घरों में रहने वाली दो औरतें जो अपने तरीके से संतृप्त
औरपने तरीके से असंतृप्त हैं जो अपनी जीवन शैली जीते हुए दूसरे की जीवन शैली के
प्रति आकर्षित हैं कि मुलाक़ात कुछ विशेष परिस्थितियों में एक नर्सिंग होम में होती
है | जहाँ रेवा भास्कर और स्वरावशिष्ठ की दीवारे टूट जाती है | वहां केवल दो
स्त्रियाँ हैं जो अपना दर्द बाँट लेना चाहती हैं | दोनों ही कहती है और समझतीं है दूसरे
छोर का दर्द , जिसे वो अपनी जीवन के उदास कोने में भरकर तृप्त होना चाहती थी …पर
वहां के खालीपन से अनभिज्ञ थीं |

ये कहानी स्त्री विमर्श को एक नए तरीके से प्रस्तुत करती है | जो घर –परिवार
के अंदर अपने रिश्तों को जीते हुए अपने हिस्से का आकाश अर्जित कर सकें | क्योंकि दोनों
ही छोर स्त्री के लिए उपयुक्त नहीं हैं …मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठ है | ये स्त्री
विमर्श आयातित स्त्री विमर्श से अलग है और हमारे भारतीय मान के ज्यादा अनकूल है |

“भरोसा अभी कायम है “ और “बंद खिड़की खुल गयी “ में जहाँ उन्होंने
हिन्दू –मुस्लिम समुदाय के बीच आपसी प्रेम और भाईचारे की बात की है | उन्होंने
असली चरित्रों को लेकर ये दिखाने की कोशिश की है कि आज जिस कटुता की बात हो रही है
असलियत उससे बहुत दूर है | तमाम अखबारों और चैनल्स की खबरें जहाँ मन में अविश्वास
उत्पन्न करती हैं वहीँ जमीनी हकीकत कुछ अलग ही होती है, जहाँ दोनों समुदाय बहुत ही
प्यार और विश्वास से एक दूसरे के साथ रहते हैं | ‘एक शाम है बहुत उदास ‘ चौरासी के
दंगों की पीड़ा व्यक्त करती है | “आउटडेटिड” और “पत्ता टूटा डाल से “ बुजुर्गों की
पीड़ा को व्यक्त करती हैं | इन दोनों कहानियों को पढ़कर लगता है कि आस –पास के
चरित्र से रूबरू हो रहे हैं , जो अपनी भाषा और बोली के साथ आपके सामने हैं और आप
उनके साथ वहीँ कहीं बैठे हुए हैं |

“मुस्तकबिल” कहानी तीन तालाक पर आधारित है | जिस तरह से कहानी शुरू
हुई है और जिस तरह से उर्दू की संवाद अदायगी के साथ पूरा माहौल बना कर आगे बढती है
तो पाठक ना केवल उस दर्द में डूबता है बल्कि चमत्कारिक शैली में भी खो सा जाता
है…

“ये सुबह आहिस्ता से चलती कुछ यूँ शर्मिंदा सी उगी थी कि यूँ उगना
उसकी फितरत थी और फर्ज भी |वर्ना क्याजल्दी थी चाँद को डूब जाने की और आज के इस
मनहूस दिन आफताब को क्या गरज थी कि चला आया नासपीटा मुँह उठाये |”

रात के हमसफर” और “छत वाला कमरा और इश्क वाला लव” दोनों ही प्रेम
कहानियाँ हैं पर दोनों का अंदाज एक दूसरे से जुदा है | प्रेम कहानियाँ लिखने में अंजू जी सिद्धहस्त हैं | “
रात के हमसफर” में प्रेम जिस रूप में सामने आता है तो काहानी की नायिका की तरह पाठक का मन भी सजदे में झुक जाता है | अंतिम कहानी ‘एक नींद हज़ार
सपने” कामवालियों की बस्ती में महिलाओं के अपने बच्चों को शिक्षित करने के सपने पर
आधारित है |

कुल मिला कर अंजू जी का ये पहला कहानी संग्रह जहाँ उन्हें पाठकों के
बीच एक समर्थ लेखिका के रूप में स्थापित करता है वहीँ साहित्य जगत को आशा जगती है कि
वो अपनी विशिष्ट शैली , भाषा पर पकड़ , देशी मुहावरों व् अन्य भारतीय भाषाओँ के
खूबसूरत प्रयोग से साहित्य जगत को और समृद्ध करेंगी | सामयिक प्रकाशन द्वारा
प्रकाशित 160 पेज के इस कहानी संग्रह में विभिन्न विषयों को उठाती 14 कहानियाँ है
| कवर पेज आकर्षक है और सम्पादन  त्रुटिहीन |अगर आप अपने आस –पास के चरित्रों  से जुडी
कुछ ऐसी कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं जो आपको रूहानी सुकून दे साथ ही एक गंभीर विमर्श
को हल्के से स्पंदित कर दे तो यह संग्रह आपके लिए मुफीद है |

अंजू शर्मा जी को बधाई व् लेखन में उज्जवल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 

एक नींद हज़ार सपने -कहानी संग्रह 
लेखिका -अंजू शर्मा 
प्रकाशक -सामयिक प्रकाशन 
पृष्ठ -160
मूल्य -200 रुपये (पेपर बैक )




वंदना बाजपेयी 


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