बिना पढ़ें कबीर दास जी को ज्ञान कहाँ से मिला

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कबीर दास

 

 

“मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ

चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात”

 

इसका शाब्दिक अर्थ है कि : मैंने कागज और स्याही छुआ नहीं और न ही कलम पकड़ी है | मैं चारो युगों के महात्म की बात मुँहजुबानी  बताता हूँ |

 

कबीर दास जी का यह दोहा  बहुत प्रसिद्ध है जो कबीर दास जी के ज्ञान पर पकड़ दिखाता है | इस दोहे का  प्रयोग आम लोग दो तरह से करते हैं | एक तो वो जो कबीर के ज्ञान की सराहना करना चाहते हैं | दूसरे उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं जो किताबें ज्यादा पढ़ते हैं या ज्यादा किताबें पढ़ने पर जोर देते हैं .. उनका तर्क होता है कि ज्यादा किताबें पढ़ने से क्या होता है .. कबीर दास जी  को तो वैसे ही ज्ञान हो गया था |

 

पढ़ने वाले लोग इसका उत्तर बहुधा इस बात से देते हैं की कबीर जैसे सब नहीं हो सकते | वस्तुतः ये जानने वाली बात है कि कबीर दास जी को इतना ज्ञान कैसे मिला ..

 

बिना पढ़ें कबीर दास जी को ज्ञान कहाँ से मिला

कबीर दास जी के जीवन का ही एक प्रसिद्ध किस्सा है, इस पर भी ध्यान दें | कृपया इसे थोड़ा -बहुत हर फेर की गुंजाइश के साथ पढ़ें  ..

उस समय काशी में रामानंद नाम के संत उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर दासजी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती की कि “मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ” लेकिन उस समय जात-पात समाज में गहरी जड़े जमाए हुए था। उस पर भी काशी का माहौल, वहां पंडितो और पंडों का अधिक प्रभाव था। ऐसे में किसी ने कबीर दास की विनती पर ध्यान नहीं दिया। फिर कबीर दासजी ने देखा कि हर रोज सुबह तीन-चार बजे स्वामी रामानन्द खड़ाऊं पहनकर गंगा में स्नान करने जाते हैं। उनकी खड़ाऊं से टप-टप की आवाज जो आवाज आती थी, उसी को माध्यम बनाकर कबीरदास ने गुरु दीक्षा लेने की तरकीब सोची।

 

कबीर दासजी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में और सब जगह बाड़ (सूखी लकड़ी और झाड़ियों से रास्ता रोकना) कर दी। और जाने के लिए एक ही संकरा रास्ता रखा। सुबह तड़के जब तारों की झुरमुट होती है, अंधेरा और रोशनी मिला-जुला असर दिखा रहे होते हैं तब जैसे ही रामानंद जी गंगा स्नान के लिए निकले, कबीर दासजी उनके मार्ग में गंगा की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। जैसे ही रामानंद जी ने गंगा की सीढ़ियां उतरना शुरू किया, उनका पैर कबीर दासजी से टकरा गया और उनके मुंह से राम-राम के बोल निकले। कबीर जी का तो काम बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गए, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया। अब गुरु से दीक्षा लेने में बाकी ही क्या रहा!

 

कबीर दासजी नाचते, गाते, गुनगुनाते घर वापस आए। राम के नाम की और गुरुदेव के नाम की माला जपने लगे। प्रेमपूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते, साधना करते और उनका दिन यूं ही बीत जाता। जो भी उनसे मिलने पहुंचता वह उनके गुरु के प्रति समर्पण और राम नाम के जप से भाव-विभोर हो उठता। बात चलते-चलते काशी के पंडितों में पहुंच गई।

 

गुस्साए लोग रामानंदजी के पास पहुंचे और कहा कि आपने कबीर  को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया। गुरु महाराज! यह आपने क्या किया? रामानंदजी ने कहा कि ”मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।” लेकिन वह  जुलाहा तो रामानंग… रामानंद… मेरे गुरुदेव रामानंद की रट लगाकर नाचता है, इसका मतलब वह आपका नाम बदनाम करता है। तब कबीर दासजी को बुलाकर उनसे दीक्षा की सच्चाई के बारे में पूछा गया। वहां काशी के पंडित इकट्ठे हो गए। कबीर दासजी को बुलाया गया। रामानंदजी ने कबीर दास से पूछा ‘मैंने तुम्हे दीक्षा कब दी? मैं कब तुम्हारा गुरु बना?’

 

कबीर दास जी ने सारा किस्सा बताया|

 

स्वामी रामानंदजी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर भीतर गोता लगाया, शांत हो गए। फिर सभा में उपस्थित सभी लोगों से कहा ‘कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है।’ इसने गुरु से दीक्षा पाने के लिए जो प्रयत्न किया है वह इसकी साफ नियत दिखाता है। इसके मन में कोई पाप नहीं। बस, इस तरह रामानंदजी ने कबीर दासजी को अपना शिष्य बना लिया।

 

कबीर अपने दोहों में, साखियों में वेद की बात करते हैं, द्वैत और अद्वैत  की बात करते हैं , परम ज्ञान की बात करते हैं .. वो ज्ञान उन्हें गुरु से सुन कर प्राप्त हुआ | हम देखते हैं की कबीर दास जी के बहुत से दोहे गुरु के माहत्म के ऊपर हैं |निसन्देह  उन्होंने ज्ञान देने वाले के महत्व को समझा है, माना है | हालांकि इससे कबीर का  महत्व कम नहीं हो जाता क्योंकि उन्होंने एक अच्छे विद्यार्थी की तरह वो सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया | वो उनका जीवन बन गया | गुरु के महत्व के साथ-साथ शिष्य का भी महत्व है |

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ी गढ़ी काटैं खोंट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहैं चोट।

 

कुमति कुचला चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।

 

गुरु गोविंद दोऊ खड़े , काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।

 

गुरु बिन ज्ञान न होत है , गुरु बिन दिशा अज्ञान।
गुरु बिन इंद्रिय न सधे, गुरु बिन बढे न शान।

 

गुरु को सिर राखीये, चलिए आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहीं।

तो अंत में आते हैं मुख्य मुद्दे पर की ना पढ़ने के पक्ष में इस दोहे को कहने वाले ये ध्यान रखे कबीर दास जी ने भले ही कागज कलम ना छुआ हो पर उन्हें ज्ञान सुन कर मिला  है | इसलिए या तो हम  स्वयं पढ़ें या हम को ऐसा गुरु मिले जिसने इतना पढ़ रखा हो की वो सीधे सार बता दे | आजकल लाइव में या यू ट्यूब वीडियो में हम उनसे सुनकर सीखते हैं जिन्होंने पढ़ा है | जीवन सिखाता है पर हम  अपने और अपने द्वारा देखे गए आस -पास के जीवन से कितना कुछ सीख पाएंगे | तर्क के आधार पर अपने सीखे को भी तभी काट पाएंगे जब जब ऐसे लोगों का  जीवन देखेंगे या सुनेंगे, पढ़ेंगे जो हमारे दायरे से बाहर हैं |

वंदना बाजपेयी

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1 COMMENT

  1. बहुत अच्छा लेख वंदना जी। सटीक बात कही , पढ़ा सबने होगा लेकिन अपने को गुरु मानकर ही स्वयंभू बन जाते हैं।

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