कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द

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अंतरद्वन्द

जीवन में हम जो चाहते हैं वो हमेशा हमें नहीं मिलता | फिर भी हम अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े आगे बढ़ते जाते हैं .. खोखले होते रिश्तों को ढोते रहते हैं |इस परिधि को तोड़ कर एक नए आकाश की ओर बढ़ते कदम अतीत के अनुभव की कारा में बार -बार बंदी होते रहते हैं | आखिर कोई तो हल होगा .. अतीत और वर्तमान के इस अंतरद्वन्द का | आइए पढ़ें अतीत और वर्तमान के  उलझे धागों को सुलझाती, युवा कथाकार कविता सिंह की कहानी..

अंतरद्वन्द 

कहानी से – देखें यू ट्यूब पर

 

“तुम भूलती जा रही हो कि तुम एक डॉक्टर हो, जिन्हें अपनी फीलिंग्स और इमोशन्स अपने घर रखकर क्लीनिक जाना चाहिए।” आज फिर मुझे गुमसुम बैठा देखकर दक्ष ने कहा।

“तुम भी भूल रहे हो, मैं सिर्फ डॉक्टर नहीं बल्कि साइकोलॉजिस्ट हूँ, इन फीलिंग्स और इमोशन्स से ही अपने मरीजों के मन की तह तक पहुँच पाती हूँ।”

“पागलों का इलाज करते-करते जो तुम अपने खोल में सिमटती जा रही हो ना, मुझे डर है किसी दिन तुम्हें ही किसी डॉक्टर की जरूरत ना पड़ जाए।” मेरा जवाब सुनकर उसने बहुत धीरे से कहा।

“दक्ष! वो पागल नहीं हैं….” मैं भड़क गई।

“लीव दिस… मैं तो मजाक कर रहा था। मैं मानता हूँ तुम इस शहर की जानी-मानी साइकोलोजिस्ट हो पर मेरी दोस्त भी तो हो.. भई! खाना ऑर्डर करो।” वेटर को हमारी तरफ आता देखकर वो मुस्कुराते हुए बोला।

वो सच कह रहा था, मैं बाहर की दुनिया से कटने लगी थी। डिप्रेशन के बढ़ते मरीजों और उनके साथ लंबे-लंबे काउंसलिंग सैशन, उनके आँसू, उनकी हिचकियाँ अक्सर मेरे गले में मछली के कांटें जैसी फँस जाया करतीं।

बाहरी दुनिया में कदम रखते ही अजीब-अजीब से ख्याल आने लगते हैं। चलते-फिरते लोगों में न जाने कितने ऐसे मुर्दे लोग हैं जो सम्बन्धों का शव कांधे पर लिए घूम रहे हैं।

मुर्दे? हाँ मुर्दे ही होते हैं वो..चलते-फिरते और सांस लेते हुए। साँसों का बन्द होना ही मौत नहीं होती। बहुत करीब से देखा है ऐसों को इन दस सालों में..जो सम्बन्धों और उम्मीदों का गला तो नहीं घोंट पाते पर अपनी साँसों को खत्म करने की कोशिशें जरूर कर चुके होते हैं।

“उफ्फ यार! फिर से शुरू हो गईं…ऑर्डर करो भई! वेटर वेट कर रहा..अच्छा छोड़ो मैं ही कर देता हूँ।” उसने मेनू लेते हुए कहा।

कितने वक़्त के बाद मैं आज दक्ष के साथ डिनर पर बाहर निकली थी वो भी उसकी जबरदस्ती के कारण।

“सॉरी स्वाति, मुझे तुमसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर कुछ समय से मैं तुममें जरूरत से ज्यादा बदलाव देख रहा हूँ।” वो बहुत गम्भीरता से बोला। मैंने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की-

“ऐसी कोई बात नहीं दक्ष, थोड़ी थकान हो जाती है। अब खाना खाओ!”

 

जकल बिस्तर पर लेटते ही मकड़ियां दिमाग में जाले बुनना शुरू कर देती हैं, और मैं उस जाले में फँसी मक्खी की तरह छटपटाती रह जाती हूँ।

क्या सच में मैं अपने मरीजों के हालातों से खुद भी जूझने लगी हूँ? नहीं.. नहीं, शायद मैं अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही, केवल भागने की कोशिश कर रही।

अनगिनत मरीज मेरे पास आने के बाद ठीक हुए हैं, फिर मैं क्यों नहीं मुक्त हो पाती? उफ्फ! मैं हर बार सर झटककर सोने की कोशिश करती हूँ पर कामयाब नहीं हो पाती। आज भी तो यही हुआ, कोई सामने बैठा जैसे मेरा ही अतीत मुझे सुना रहा था।

मुझे चुपचाप एक कोने में बैठी दस साल की लड़की याद आने लगी। उसे पता था, तीन सालों में बहुत कुछ बदल गया है उसकी जिंदगी में। उसकी जिंदगी बदल गयी, उसके प्रति फैसले बदल गए, उसके पापा बदल गए…। जन्मदिन पर चुपचाप उदास बैठने की कोई खास वजह नहीं थी। मम्मी तैयारियाँ कर रही थीं जैसा कि उनके हिसाब से होना चाहिए। तीन साल पहले तक जैसा वो चाहती थी तैयारियां वैसी होती थीं। पापा दस दिन पहले से ही गिफ्ट के लिए पूछना शुरू कर देते। उस दिन सुबह ही उसे बाजार लेकर जाते, पूरे दिन मस्ती और शाम को बर्थडे पार्टी।

मां अक्सर कहती थी- “बेटी है अधिक सर पे मत चढ़ाइए, अभी की बिगड़ी आदतें जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई सर पर बैठाने वाला नहीं मिला तो जीवन दूभर हो जाएगा इसका।”

हाँ, बेटियों के ‘रहनुमा’ बदलते जो रहते हैं उम्र के साथ-साथ।

“चिंता क्यों करती हो! मेरी बिटिया मेरे पलकों पर रहेगी।” पापा की बात सुनकर मां अपना सर पीट लेती।

मां एक बीमारी में चली गयी दुनिया छोड़कर। वो बहुत रोई थी, बच्ची ही तो थी.. धीरे-धीरे संतोष कर लिया उसने, उसके पापा तो साथ थे।

फिर आईं मम्मी, मां जैसी तो नहीं पर बुरी भी नहीं। उसका और पापा का खूब ख्याल रखती। समझदार इतनी थीं कि उसे बिगाड़ने वाली मां की बात जो पापा कभी नहीं समझे मम्मी की यही बात वो कुछ महीनों में ही समझ गए। जिस घर में बिना उससे पूछे शाम का खाना नहीं बनता था अब मम्मी के हिसाब से हेल्थी खाना बनने लगा।

पलकों पर बैठने वाले भूल जाते हैं कि पलक झपकते देर नहीं लगती।

वो उम्र से पहले ही समझदार होने लगी थी। जल्द ही समझ गयी, अब फैसले पापा के नहीं मम्मी के हाथ में हैं। उसे किस चीज की जरूरत है ये अब वो नहीं मम्मी सोचती थीं। किस स्कूल में पढ़ना है, ट्यूशन की जरूरत है या नहीं। अब पढ़ाई पर ध्यान देना है उछल-कूद की उम्र खत्म हो रही है, आदि, आदि…।

एक शाम मम्मी को तैयार होता देख वो भी अपनी सबसे पसंदीदा ड्रेस ढूँढने लगी थी।

“वक़्त से खाना खा लेना गुड़िया! हम जल्दी आ जाएँगे।” मम्मी अपने बाल सँवारती बोलीं।

उनकी बात सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरायी थी। वो जानती थी पापा उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। उसे हर जगह साथ लेकर जाने वाली आदत पर मां के साथ पापा की कितनी बार बहस हो जाती थी, फिर भी पापा मानते कहाँ थे।

पर, मम्मी मां की तरह झगड़ती नहीं थीं, वो तो बहुत धीरे से समझाती थीं। पापा समझ गए कि बड़ी होती बेटी को हर जगह ले जाना उचित नहीं और वो रह गयी घर में अकेली टीवी के साथ। उसके आँसू थम नहीं रहे थे, मां के जाने के वक़्त रोई थी उसके बाद आज रोई और खूब रोई बिलख-बिलखकर, आज उसने अपने पापा को भी खो दिया था। उस दिन के बाद वो धीरे-धीरे खुद में सिमटने लगी, ना कोई जिद ना कोई फरमाइश।

वाकई अपेक्षाएँ कभी पीछा नहीं छोड़तीं। ये भीतर तक तोड़ती हैं इंसानों को। वो भी तो टूट रही थी पापा के प्रति अपनी अपेक्षाओं की चोट से। वो मम्मी के सुपुर्द कर दी गयी थी, मम्मी बहुत अच्छी थीं, मां जैसी तो बिल्कुल नहीं थी जो सामने तो उसे और पापा को डाँटती रहती पर करती वही थी जो बिटिया चाहती। मम्मी को उसके भविष्य की बहुत चिंता रहती, रहे भी क्यों ना आखिर वो उनकी ‘जिम्मेदारी’ थी। कल को कोई भी ऊंच-नीच होता तो जमाना उन्हीं को कोसता। मम्मी को किसी न किसी से ये बात कहते हुए उसने कई बार सुना था।

जैसे-जैसे बड़ी होती गयी वो भागने लगी खुद से, घर से, मम्मी से, पापा से, छोटे भाई-बहन से भी। उम्र के उस दहलीज पर जब किसी अपने की जरूरत सबसे ज्यादा होती है उसे नवीन के रूप में एक दोस्त मिला, भीतर के घावों पर नर्म रूई के फाहे से मलहम लगाता हुआ। हाँ, वही तो था जिसके पास बैठकर, जिसकी बातें सुनकर वो कछुवे के खोल से गर्दन बाहर निकालने लगी थी। धीरे-धीरे उसकी दुनिया उस दोस्त के इर्द-गिर्द सीमित होने लगी। वो भी तो दुनिया जहान की खुशियां उसके कदमों में डालने की बातें करता था।

ऐसी बातें छुपती कहाँ हैं, हवा में तैरते दोनों के घर तक पहुँच गयीं। पापा और उसके बीच तो कब की एक खाई बन चुकी थी, हाँ, मम्मी ने बहुत ऊँच-नीच समझाया था। पर वो पापा नहीं बनना चाहती थी, मम्मी की सारी बातें अनसुनी करती गई। वो बालिग हो चुकी थी, अपने फैसले कर सकती थी और किया भी उसने। निकल पड़ी नई जिंदगी के सफर पर क्योंकि उसे जल्द से जल्द अपने भीतर के घुटन से बाहर निकलना था। नवीन का साथ था ही ऐसा, एक वही तो था जो उसे अपने सर माथे पर बिठाए रखता। वो समझ गयी थी कि इस दुनिया में नवीन के सिवा उसका कोई भी अपना नहीं।

खुशी के वक़्त में पंख  लगे होते हैं और दुःख का वक़्त केंचुए की तरह रेंगता है।

नवीन ने छोटा सा बिजनेस शुरू किया था, वो भी एक स्कूल में पढ़ाने लगी थी। खुशियों से तरबतर सी वो गुनगुनाते हुए उठती और मुस्कुराते हुए सो जाती। पर जिंदगी किसी पर इतनी मेहरबान कब हुई है? उसने भी गौर किया जिंदगी बदल सी रही है। नवीन की व्यस्तता बढ़ने लगी। वो जितना प्रेम और परवाह के पीछे दौड़ती नवीन उतना ही पैसे के पीछे दौड़ने लगा था। उसे गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस नहीं चाहिए था, वो तो साथ, प्यार और परवाह चाहती थी। जिंदगी अच्छे से गुजरने लायक तो कमाई थी ही। पर नवीन महत्वाकांक्षी से अतिमहत्वाकांक्षी होता जा रहा था। दोनों की प्राथमिकताएं बदलने लगी थीं। पहला धचका उसे तब लगा जब वो रात में देर से घर लौटने लगा। दूसरा तब लगा जब वो खाकर तुरन्त सो जाने लगा। वो फिर से दरकने लगी भीतर ही भीतर जबकि समझती थी वो थक जाता है। वो खुद को तसल्ली देने लगी कि नवीन जो भी कर रहा हमारे लिए ही तो कर रहा।

वो रात आज भी याद है जब नवीन उसका जन्मदिन भूल गया, वो नवीन जो रात को बारह बजते ही उसे सरप्राइज कर देता था। भीतर-भीतर घुटने वाली लड़की पहली बार शिकवा कर बैठी।

“क्या चाहती हो, दिन-रात तुम्हारे पल्लू से बंधा रहूँ?” उफ्फ! इस उत्तर के बारे में तो उसने कभी सोचा भी न था। उम्मीदें एक बार फिर टूटनी शुरू हुईं। पिछले तीन सालों से भी तो वो काम करता था पर शाम को घर आने के बाद उसे गले लगाते हुए कहता–“तुम्हारे पास आते ही पूरी थकान गायब हो जाती है।” अब तो लगता घर, घर नहीं बल्कि उसके लिए एक होटल होता जा रहा है।

पहले बिन कहे भी उसे याद रहता कि घर क्या लेकर जाना है, अब तीन-तीन बार याद दिलाने पर भी भूल जाता। मोबाइल भी अक्सर बिजी आने लगा था।

वो समझ नहीं पा रही थी, प्रेम खत्म हो रहा या इंसान बदल रहा है। नवीन बात-बातपर झल्लाने लगा था। बिना बाहों में पकड़े जिसे नींद नहीं आती थी वो अब करवट बदलकर खर्राटे लेने लगा। वो समझ गयी जल्द ही कुछ नहीं करेगी तो बिखर जाएगी। उसने अपनी रुकी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी। दिमाग खाली नहीं रहा तो सोच का दायरा भी कम होने लगा। अब दोनों का रिश्ता रेल की पटरियों जैसा हो गया, एक साथ चलती हुईं पटरियां कभी-कभी ट्रैक बदलने के लिए जुड़ जातीं।

पर कब तक! बहुत कुछ बदलने लगा था जिसे वो स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उसे लगता वो दुबारा छली जा रही है खुद के हाथों। पापा के प्रेम में छलना उसकी मजबूरी थी पर यहाँ अगर छलती रही तो मर जाएगी।

“आज साफ-साफ बताओ नवीन, क्या तुम्हें मेरी जरूरत है?” अब और घुटन उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

“ये क्या सवाल हुआ…?” लैपटॉप की स्क्रीन पर आँखें गड़ाए ही नवीन ने कहा था।

“जवाब दो!”

“फालतू बातें मत करो…यार समझा करो काम में आजकल बहुत उलझनें चल रहीं।” वो लगातार की बोर्ड पर उंगलियाँ चलाये जा रहा था।

“नवीन पहले मुझसे बात करो।”

“तुम्हें जो समझना है समझो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.. जब देखो तब फालतू बातें लेकर बैठ जाती हो।”

“मैं फालतू बातें नहीं कर रही।” वो कुछ पलों के लिए रुकी।

“देखो गुड़िया! मुझे लाइफ में कुछ करना है, कुछ अलग करना है, मैं यूँ ही मरने के लिए पैदा नहीं हुआ।”

“जानती हूँ, पर तुम्हारे जीवन में मेरी क्या अहमियत है? अब तुम बदल गए हो बहुत ज्यादा बदल गए हो।” बोलते बोलते उसकी आँखें भर आईं। पहले वाला नवीन होता तो अबतक उसे अपनी बाहों में समेट लिया होता। ये नया नवीन है अपने सपनों के पीछे भागता हुआ नवीन।

“तुम्हें जो समझना है समझो, जो करना है करो बस मुझे काम करने दो।” उसने झल्लाते हुए कहा और लैपटॉप लेकर दूसरे कमरे में चला गया। वो अवाक सी देखती रह गई।

इंसान इतना भी बदल सकता है? क्या वक़्त के साथ सारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं?

इंसान को अपनी बातें, अपने वादे, कुछ भी याद नहीं रह जाता? सोचते-सोचते उसका सर फटने लगा। बिल्कुल! पापा भी तो ऐसे ही बदले थे, उन्हें भी तो कुछ याद नहीं रह गया था। नहीं, नहीं सब कैसे गलत हो सकते हैं… कहीं मैं ही तो…हाँ, शायद मैं ही अतीत में जीने वाली हो गयी हूँ, वर्तमान स्वीकार नहीं कर पाती। उफ़्फ़! वो अपना सर पकड़कर बैठ गई।

 कभी-कभी सुखद अतीत भी वर्तमान में यातनाएँ देता है।

वो पानी लेने उठी, बगल के कमरे में नवीन गुनगुनाते हुए अपने काम में लगा था। वो चुपचाप वापस आ गई। सब तो खुश हैं, पापा भी खुश थे, नवीन भी खुश है तो मैं ही क्यों..

उसे लगा वो पागल हो रही है।

अलार्म की आवाज मुझे अतीत के मकड़जाल से बाहर खींच लायी। सुबह हो चुकी थी। हर सुबह छत पर जाकर उगते सूरज को देखना मेरे दिनचर्या में शामिल था। हर अँधेरी रात के बाद एक नई सुबह किरणों की बाहें फैलाये धीरे-धीरे धरती को अपने आगोश में ले लेती है। मैं अपने पेसेंट्स से  भी कहती हूँ सुबह को देखा करें इससे जीवन की बहुत सी निराशाएँ खुद ही मिट जाती हैं।

 

तभी फोन की घण्टी बजी। दक्ष का फोन था।

“स्वाति! दीदी पहले से बहुत बेटर हैं, अब बात करने लगी हैं।रात को तो अपने हाथों से खाना बनाया उन्होंने।” वो बहुत खुश था।

“हाँ, वो बहुत जल्द बिल्कुल ठीक हो जाएँगी डोंट वरी।”

“ओके, तो क्लीनिक में मिलते हैं।” वो वाकई खुश था।

क्लीनिक पहुंची तो वो पहले से ही अपनी बड़ी बहन मिताली के साथ वहाँ मौजूद था।

मिताली के साथ मेरी फॉर्मल बातें शुरू हो चुकी थीं, दक्ष धीरे से उठकर बाहर निकल गया।

“मैं कुछ भी भूल नहीं पाती डॉक्टर! कभी-कभी लगता है मेरी जिंदगी का कोई मतलब ही नहीं बचा। शिवांश के बाद अपनी ही जिंदगी से उकताहट होने लगती है।” दक्ष के बाहर निकलते ही मिताली बोली।

“जिंदगी के मायने कभी खत्म नहीं होते मिताली! वो केवल बदल जाते हैं।” मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।

“शिवांश को पता था मैं नहीं रह सकती उसके बिना फिर भी वो मुझे छोड़कर चला गया?”

“नहीं वो आपको छोड़कर नहीं गए, जो हुआ उस पर ना आपका वश था ना ही उनका,वो तो नियति की क्रूरता थी।”

“बार-बार खुद को खत्म करने का ख्याल आता है डॉक्टर!” बोलते हुए मिताली सिसक उठी।

“मरना किसी भी समस्या का हल नहीं मिताली! ये तो भागना हुआ और भागते तो कायर हैं। आप कायर नहीं हैं।” मैंने पानी का ग्लास देते हुए कहा। पानी पीने के बाद वो कुछ रिलैक्स हुईं।

” एक बात बताईए..। बोलकर मैं रुक गयी वो मेरी तरफ ही देख रही थीं।

“आपके शिवांश के कुछ सपने होंगे, है ना!…आप उन्हें पूरा क्यों नहीं करती?” मेरी बात सुनकर वो ऐसे चौंकी जैसे गहरी नींद से जगी हों।

“सच कह रही हैं डॉक्टर, कितनी बार हमने वादा किया था उन सपनों को पूरा करने का… उन सपनों में तो मेरे शिवाँश  की जान बसती थी।”  कहते हुए मिताली की आँखों में जो चमक आई मुझे लगा उसने उसके दुःख के धुंध को पोछकर फेंक दिया हो।

“आपने सच कहा डॉक्टर जिंदगी के मायने खत्म नहीं होते, बदल जाते हैं। अब मेरी जिंदगी के मायने शिवाँश  के सपने पूरे करने हैं। थैंक यू डॉक्टर।”

“आई प्राउड ऑफ यू मिताली! वैसे भी आपका भाई तो है ही आपके हर कदम के साथ।” कहते हुए मैं मुस्कुरा उठी मैंने देखा मिताली के चेहरे पर महीनों बाद मुस्कान थिरक रही थी वो भी निश्चय की।

इतना आसान नहीं होता दुखों से बाहर निकलना। एक रोड एक्सीडेंट में शिवाँश के मारे जाने के बाद पिछले आठ महीनों में मिताली ने कई बार खुद को मारने की कोशिश की थी। अभी मैं सोच ही रही थी कि एक महिला एक लड़की के साथ भीतर आ गयी।

“थैंक यू स्वाति, मेरी दीदी को जिंदगी में वापस लाने के लिए।” शाम को दक्ष मेरे घर आकर बोला।

“मेरा तो काम ही यही है दक्ष, कुछ लोग जल्दी ठीक हो जाते हैं कुछ लोगों को वक़्त लगता है।

“तुम कब लौटोगी अपनी जिंदगी में …?” उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा।

“मेरी जिंदगी यही है दक्ष!” मैंने धीरे से कहा।

“दूसरों को जिंदगी में वापस लाने वाली खुद अपनी जिंदगी से भाग रही है। है ना!”

ये शख्स बिन कहे मुझे कितनी अच्छी तरीके से समझ जाता है। नहीं, नहीं मुझे कमजोर नहीं पड़ना, अब और नहीं…

“क्या सोचने लगी?”

“कुछ नहीं, आज एक नया केस आया था…

“बात बदल रही हो? पिछले चार सालों से यही देख रहा पर कब तक?” शायद वो आज पूरी तरह बात करने के मूड में था।

“कुछ रिश्तों को कोई नाम नहीं देना चाहिए दक्ष, नाम देते ही रिश्ता डिमांडिंग हो जाता है और वही आगे चलकर बहुत ज्यादा तकलीफ देता है।” मैं बालकनी के बाहर देखती हुई बोली।

“स्वाति, जब हाथ की पांच उंगलियाँ एक जैसी नहीं तो फिर कुछ लोगों के आधार पर तुम सारी दुनिया को कैसे जज कर सकती हो।”

सारे तो नहीं पर ज्यादातर… रोज ही तो टूटे हुए लोगों को सुनती हूँ।”

” सोचना स्वाति उन ज्यादातर के बाद भी तो कुछ बचते हैं….मैं इंतजार कर रहा और आगे भी करता रहूँगा।” कहते हुए उठकर खड़ा हो गया और मैं उसे जाते हुए देखती रही।

रात में फिर वही मकड़ी का जाला बुनना शुरू हो गया।

“तुम चैन से रहने दोगी कि नहीं?” नवीन जोर से चिल्लाया।

“मैं ऐसे नहीं जी सकती नवीन! तुम्हारी अनदेखी बर्दाश्त नहीं होती मुझसे…सारी दुनिया को भूलकर तुम्हारा हाथ थामा था मैंने।” वो भी चीख पड़ी।

“तो क्या करूँ चौबीस घण्टे तुम्हारे आसपास मंडराता रहूँ?”

“ये कब कहा मैंने….?”

तुम्हारे रोज-रोज के किचकिच से परेशान हो गया हूँ मैं। चैन से रह सकती हो तो रहो वरना भाड़ में जाओ..” कहते हुए वो बाहर निकल गया।

अब वो नवीन से अक्सर ही झगड़ने लगी थी। हर बार सोचती अब कुछ नहीं कहेगी पर जब तिलमिलाहट हद से पार हो जाती तो खुद पे काबू नहीं रख पाती। कई बार सोचा खत्म कर ले खुद को पर ना जाने कौन सी शक्ति उसे हमेशा रोक लेती।

एक दिन स्कूल की प्रिंसिपल ने उसे टोक दिया। अनुभवी थीं कुछ भी नहीं पूछा सिर्फ इतना ही कहा-

“अक्सर हम किसी के जुनून को कुछ और ही समझ लेते हैं पर जुनून जितनी तेजी से चढ़ता है उतनी ही तेजी से उतर भी जाता है बेटे! जब बोझ ज्यादा बढ़ जाए तो उससे दबने के बजाय उसे उतार फेंकना चाहिए।” उनकी बातें सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाई और रो पड़ी।

“मैं बहुत दिनों से नोटिस कर रही, तुम किसी परेशानी में हो जानती हूँ, क्या परेशानी है पूछूँगी भी नहीं पर इतना जान लो सबकी जिंदगी का कोई न कोई मकसद होता है। अतीत जब वर्तमान और भविष्य पर हावी होने लगे तो उसे धोबी पछाड़ की जरूरत होती है, समझी लड़की!” वो मुस्कुराते हुए बोलीं।

“जी मैम!” कहकर वो उठी और सीधे घर आ गयी।

“ढंग का खाना तो बना दिया करो यार!” घर में घुसते ही नवीन ने खाने की थाली की ओर इशारा किया, वो कुछ बोली नहीं चुपचाप कमरे में जाकर लेट गयी। नवीन चला गया बिन खाये ही। आज पहली बार ऐसा हुआ कि वो नवीन को बिन खाये बाहर निकलने दिया था | वो सोच की गहरी खाई में डूब गई। क्या सच में नवीन जुनूनी इंसान है? क्या मैं उसके जनून की भेंट चढ़ गई हूँ? किसी भी काम में वो दुनिया भूलकर लग जाता है पर भूत उतरते ही फिर दूसरा काम, फिर तीसरा..यही तो बिल्कुल यही। अब तक कितने काम बदल चुका है…नहीं अब और नहीं। सोचते हुए वो उठी तो देखा चारों ओर अंधेरा फैल चुका था। उसने नवीन का मनपसंद खाना बनाया और टीवी खोलकर बैठ गयी। रात काफी गुजरने के बाद नवीन ने घर में कदम रखा।

वो चुपचाप खाना निकालने चली गयी।

“मुझे तुमसे कुछ कहना है नवीन!”

“कोई फालतू बात करके मेरा दिमाग मत खराब करना प्लीज्..”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं करनी…

“बोलो!”

मुझे लगता है जिस अहसास के भरोसे मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर जीवन की राह पर चल पड़ी थी वो अहसास अब बचा ही नहीं।”

“तुम्हारी परेशानी क्या है जब देखो तब एक ही बात!” कहते हुए नवीन खाना छोड़कर उठने लगा।

“मेरी पूरी बात सुन लो!” उसने नवीन का हाथ पकड़कर बैठाते हुए कहा ।

“हमारी जिंदगी जहर बन जाए उससे पहले मैं कोई फैसला करना चाहती हूँ। अब शायद हमारे साथ का कोई मतलब नहीं रहा, तुम बहुत आगे निकल गए और तुम्हारा साथ पकड़ने में मेरे पैर ही नहीं मन भी लहूलुहान होता जा रहा….

“अच्छा! तो कोई और मिल गया क्या साथ चलने वाला?”

“नहीं, अब किसी के साथ की जरूरत नहीं। वैसे बस यही सुनना बाकी था।” उसका मन नवीन से कटा ही नहीं बल्कि फट सा गया।

“किस बल पर इतना उछल रही हो, जाओगी कहाँ? मां बाप तो लात मारकर भगा देंगे तुम्हें!” वो हँसते हुए बोल रहा था।

मेरे मां बाप तो नहीं अपनाएंगे पर तुम्हारे मां बाप अब भी तुम्हें सर माथे पर बैठाएंगे आखिर तुम मर्द जो ठहरे। मेरी गलती की सजा तो मुझे ही मिलनी चाहिए। इस सामने बैठे इंसान को पहचान नहीं पाने की गलती। वो खाने की  प्लेट में चम्मच घुमाते हुए सोचे जा रही थी।

“खाना खाओ और दिमाग के उलटे सीधे फितूर को बाहर फेंक दो। वैसे आज खाना बढ़िया बनाई हो।” उसने और रोटियां लेते हुए कहा।

“मैं खुद के रहने के लिए कमरा ढूढ़ रही हूँ मिलते ही मैं यहाँ से और तुम्हारी जिंदगी से हमेशा के लिए चली जाऊँगी उसके बाद तुम पूरी तरह आजाद हो।” कहते हुए वो प्लेट्स उठाकर रखने लगी।

“ये क्या पागलपन है ?” नवीन ने उसका हाथ पकड़ा।

मुझे मेरी जैसी चाहत चाहिए नवीन, न एक छटाँक कम ना एक छटाँक ज्यादा। और हाँ इन चार सालों में इतना तो समझ गयी हूँ कि आज नहीं तो कल तुम मुझे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकोगे, क्योंकि तुम्हारी फितरत ही टिकाऊ नहीं। चिंता न करो जीवन में कभी तुम्हें परेशान नहीं करूँगी।” बोलते-बोलते वो रो पड़ी। वो जानती थी नवीन उसकी बातों को हमेंशा की तरह ही सीरियस नहीं लेगा। वही हुआ भी ‘भाड़ में जाओ’ बोलकर वो सोने चला गया।

उसे नहीं पता था ये फैसला मुझे  कहाँ लेकर जाएगा फिर भी मैं  निकल आयी उस घुटन भरी जिंदगी से। छोड़ आई अपना अतीत, प्यार से पुकारे जाने वाला अपना नाम भी। प्रिंसिपल मैम ने बहुत साथ दिया। धीरे-धीरे मुझे  अपनी जिंदगी का मकसद दिखने लगा। नौकरी और पढ़ाई में बहुत सारा वक़्त निकल जाता पर रात को आँखों में नींद के बजाए खारापन उतरने लग जाता ऐसे में प्रिंसिपल मैम मेरी  सम्बल बन जातीं।

अचानक मैं उठ बैठी घड़ी में दो बज रहे थे अभी रात काफी बाकी थी। उफ़्फ़! कोई ऐसी दवा क्यों बनी जो अतीत के पन्नों को बिल्कुल कोरा और साफ कर दे।

“हेलो स्वाति! मैं आ रही हूँ तुम्हारे यहाँ.. एक घन्टे बाद ट्रेन पहुँच जाएगी।” फोन पर आवाज सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी, तभी ध्यान आया एक घन्टे! एक घन्टे में मैं उन्हें लेने कैसे पहुँच पाऊँगी, पहले से पता होता तो अपॉइंटमेंट्स कैंसल कर दी होती। क्या करूँ..क्या करूँ… और मैंने दक्ष को फोन लगा दिया।

“दक्ष प्लीज! स्टेशन चले जाओ कोई बहुत ही खास आने वाला है मुझे अभी पता चला।  सामने पेसेंट्स बैठे हुए हैं मैं इन्हें ऐसे छोड़कर नहीं निकल सकती।” मैं एक सांस में बोल गई।

“डोंट वरी, मैं चला जाता हूँ।” दक्ष ने कहा।

दक्ष को पूरी डिटेल्स भेजने के बाद मैं रिलैक्स हो गयी। तकरीबन तीन घन्टे बाद मैं फ्री हुई और सीधे घर की ओर निकल पड़ी। मैं खुश थी बहुत खुश। ऐसा सरप्राइज वही दे सकती हैं। घर पहुँची तो वो आराम से किसी किताब में डूबी हुई थीं।

“आ गयी स्वाति! उस बन्दे को तकलीफ देने की क्या जरूरत थी मैं कैब करके आ गयी होती। अच्छा छोड़ो ये बताओ कैसा चल रहा?”

“अच्छा ही चल रहा है।” मैंने धीरे से जवाब दिया। हम दोनों सालों बाद मिले थे देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं।

रात में खाने के बाद हम एक साथ ही बिस्तर पर लेटे।

“पता है स्वाति, कभी-कभी हम अनजाने में कोई गलत फैसला कर जाते हैं जो हमपर इतना हावी होता है कि कभी-कभी हम जानबूझकर गलत फैसले की दिशा में बढ़ जाते हैं।” वो क्या कहना चाहती थीं मुझे समझ नहीं आ रहा था। मैं चुपचाप उन्हें देख रही थी।

“तुम्हें पता है? हम अतीत को कितना भी भूलना चाहें हमारे वजूद का एक हिस्सा वहीं छूट जाता है, जिसके खालीपन को हम आजीवन महसूस करते रह जाते हैं…।” वो कहते कहते रुक गयीं। क्या वो मेरी सोच को पकड़ लेती हैं या फिर उनका खुद का अनुभव बोलता है। मैं अक्सर ही इस प्रश्न में उलझ जाती।

अचानक से उन्होंने बात बदल दिया और सीधे मुझसे मेरे भविष्य के विषय में पूछ बैठीं। मैं चुप थी।

“जिंदगी में किसी के आश्रय या संबल की जरूरत हो ना हो पर किसी के साथ की जरूरत हमेंशा रहती है। एक वक्त के बाद जब हम दुनिया की भीड़ से निकलकर अपने घोंसले में लौटते हैं तो एकेलापन सिर्फ कचोटता ही नहीं, हमें निगलने के लिए दौड़ पड़ता है।” वो लंबी साँस छोड़ते हुए बोलीं। उन्हें भी तो मैंने हमेशा अकेला ही देखा था पर कभी पूछ नहीं पाई। मैं सोच ही रही थी कि क्या उत्तर दूं तब तक उन्हें झपकी आने लगी। उनके सोने के बाद मैंने पाया कि आज मैं अतीत में नहीं वर्तमान में मौजूद हूँ, तो क्या किसी का साथ हमारे खाली वजूद को भर देता है..? ये आज अचानक ऐसी बातें क्यों कर रही हैं? शायद दक्ष से बातें हुई होंगी।

एक व्यक्ति जो चार साल से मेरे जीवन में है उसने कभी नहीं पूछा मेरे पिछली जिंदगी के बारे में, कभी ये नहीं पूछा कि इतनी उम्र के बाद भी मैं अकेली क्यों हूँ। वो साथ होता है तो किसी अपने का सा अहसास होता है पर मेरा डर!

ये अपने बदलते भी तो बहुत जल्द हैं।

“अभी सोई नहीं स्वाति?” अचानक उन्होंने मुझे टोका। वो एक नींद पूरी कर चुकी थीं।

“तुम उलझन में हो, है ना?” वो मुस्कुराईं। मैंने धीरे से हाँ में गर्दन हिलाया।

“एक डर हावी हो गया है मुझ पर, अपनों के बदलने का, किसी भी रिश्ते को नाम देने का सोचकर ही घबराहट होने लगती है।”

“डर हमे हमेंशा कमजोर बनाता है स्वाति और तुम कमजोर नहीं हो। तुमने गलत फैसले किए हैं तो सही वक्त पर सही फैसले भी लिये हैं। याद रखना, सभी अपने नहीं बदलते अगर ऐसा होता तो समाज का तानाबाना कब का बिखर गया होता। तुम दूसरों का इलाज करती हो उन्हें उनकी जिंदगी में वापस ले आती हो फिर खुद की जिंदगी से मुँह क्यों मोड़ रही? अब तुम भोली-भाली गुड़िया नहीं बल्कि परिपक्व युवती हो जो प्रौढ़ता की ओर बढ़ रही।” वो मेरा हाथ पकड़कर सहलाने लगीं।

“आप सच कह रही हैं मैम, कुछ अपने कभी नहीं बदलते जैसे आप!”

फिर भी मैम ही बोलोगी?” वो हँस पड़ीं।

“मां!” कहकर मैं उनसे लिपट गयी। हमेंशा होंठो पर मुस्कान रखने वाली प्रिंसिपल मैम आज मेरे साथ रो रही थीं?

“अब आगे?” कुछ देर बाद वो मुस्कुराते हुए मुझसे बोलीं।

“अब तो बस अपनी जिंदगी को गले लगाना है।” मैंने मोबाइल लेकर दक्ष को मैसेज टाइप करते हुए कहा।

 

—-कविता सिंह—–

कविता सिंह

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