कहानी समीक्षा- काठ के पुतले

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काठ के पुतले

ऐसा ही होता आया है एक ऐसा वाक्य है जिसके आवरण तले ना जाने कितनी गलत बाते मानी और मनवाई जाती हैं l कमजोर का शोषण दोहन होता रहता है, पर क्योंकि ऐसा होता आया है ये मानकर इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठती l और समाज किसी काठ के पुतले की तरह बस अनुसरण करता चलता है l

जमाना बदला और शोषण के हथियार और तरीके भी बदले l गाँव शहर बनते जा रहे हैं और शहर स्मार्ट सिटी l फिर भी नई जीवन शैली में नए बने  नियम कुछ ही दिनों में परंपरा बन गए और उन पर यही ऑर्डर है का मुलम्मा चढ़ गया l अपनी बात कहना अवज्ञा मान लिया गया l लेकिन क्या ऐसा ही होता रहेगा या होते रहने देना चाहिए ? क्या आवाज़ नहीं उठनी चाहिए? ऐसी ही एक आवाज़ उठाती है ललिता अपनी चमक धमक से आँखों को चुँधियाती दुनिया में काठ के पुतले बने खड़े उन लोगों के लिए जिन्हें हम सेल्स मैन /वुमन/पर्सन के नाम से जानते हैं l

मैं बात कर रही हूँ परी कथा में प्रकाशित प्रज्ञा जी की कहानी काठ के पुतले की l समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी की कहानियों की विशेषता है कि वो साहित्य को स्त्री- पुरुष, शहरी व ग्रामीण, अमीर-गरीब के खांचों में नहीं बाँटती l उनकी कलम इन सब से परे जाकर शोषण को दर्ज करती है l जहँ भी जिस भी जगह वो नजर आ रहा हो वो उस पर विरोध दर्ज करने की बात का सशक्त समर्थन करती नजर आती है l और समस्या है तो समाधान भी है के तहत वो आवाज़ उठाने पर जोर देती हैं l एक आवाज़ में दूसरी आवाज़ जुड़ती है और दूसरी में तीसरी… हमें काठ के पुतले नहीं जिंदा इंसान चाहिए। जो अपना हक लेना जानते हों l

काठ के पुतले कहानी भी शुरू में एक आम युगल की आम कहानी लगती है l थोड़े  आगे बढ़ने पर लगता यही कहानी प्रेम में जाति के मसले को लेकर चलेगी पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वो अपना आयाम बढ़ाती जाती है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती एक बड़े फलक की कहानी बन जाती है l चमचमाते मॉल जिनमें रोज हजारों लोग आते-जाते हैं l जिनकी मदद के लिए अच्छे कपड़े पहने, चेहरे पर मुस्कान चिपकाए सामान खरीदने में हमारी मदद करते सेल्स पर्सन की भी कुछ समस्याएँ है? शहर में है, रोजगार भी है, अच्छे भले कपड़े पहनते है, मुस्कुरा- मुस्कुरा कर बात करते हैं, उनको क्या दुख?  जरा कहानी में लिफ्टमैंन का दर्द देखिए….

‘‘चैन? कहां बेटा! घर पहुंचते-पहुंचते बेहाल शरीर बिस्तर ढूंढने लगता है। न बीबी-बच्चों की बात सुहाती है न खाना। बीबी रोटी-सब्जी परोस देती है मैं खाकर लेट जाता हूं। कितना समय हो गया खाने में कोई स्वाद नहीं आता…थकान से बोझिल शरीर को मरी नींद भी नहीं आती। सुबह से खड़े -खड़े पैर सूज जाते हैं और सबसे ज्यादा दर्द करते हैं कंधे। कंधों से रीढ़ की हड्डी में उतरता हुआ दर्द जमकर पत्थर हो जाता है।“

 

क्या हम कभी सोच पाते हैं कि 12 घंटे की ड्यूटी बजाने वाले ये सेल्स पर्सन सारा दिन खड़े रहने को विवश है l टांगें खड़े- खड़े जवाब दे जाएँ , महिलायें गर्भवती हों या उन्हें यूरिनरी प्रॉब्लम हो… उन्हें बैठने की इजाजत नहीं l उस समय भी नहीं जब गरहक ना खड़े हों l लगातार खड़े रहने की थकान पैरों में वेरुकोज वेंस के रूप में नजर आती है तो यूरिन तो टालने के लिए पानी ना पीना कई स्वस्थयगत बीमारियों के रूप में l नौकरी में खड़े रहना एक सजा की तरह मिलता है l जिस पर किसी का ध्यान नहीं है l ललिता आवाज़ उठाती है l शुरू में वो अकेली पड़ती है पर धीरे-धीरे लोग जुडते है l कहानी समाधान तक तो नहीं पहुँचती पर एक सकारात्मक अंत की ओर बढ़ती दिखती है l कहानी इस बात को स्थापित करती है कि शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना जरूरी है l अधिकार कभी थाली में सजा कर नहीं मिलते l  उनके लिए जरूरी है संघर्ष, कोई पहल करने वाला, संगठित होना ….   तभी बदलती है काठ के पुतलों की जिंदगी l

एक अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी

वंदना बाजपेयी

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