प्रेम कविताओं का गुलदस्ता

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प्रेम  कविताओं का गुलदस्ता


प्रेम जितना सरल उतना कठिन ,जितना सूक्ष्म उतना विशाल ,जितना कोमल उतना जटिल। …. पर प्रेम के भावों से कोई अनछुआ नहीं ,प्रेम के लिए एक दिवस क्या एक जन्म भी काफी नहीं हैं। … तभी तो मान्यता है की प्रेमी  बार -बार जन्म लेते है ,ये कोई एक जन्म का खेल नहीं ………फिर भी हमारी भारतीय संस्कृति में वसंत ऋतु को प्रेम की ऋतु कहा गया है। ……… और क्यों न कहाँ जाए प्रकृति भी तो स्वेत  कफ़न हटा कर बदलती है सारी  करती है श्रृंगार ,तभी तो चारो और हर्ष उल्लास का वातावरण छा  जाता है  …………. ऐसे में अटूट बंधन परिवार अपने पाठकों के लिए लाया है- 




विशेष तोहफा … एक गुलदस्ता प्रेम कविताओं का 

                                


बिहारी           


प्रेम पर लिखे काव्य की बात होती है तो सबसे पहले बिहारी का नाम याद आता है संयोग और वियोग श्रृंगार दोनों पर उनकी कलम चली है कविवर बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना सतसई (सात सौ दोहों का संकलन)
अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह से प्रेरणा प्राप्त कर लिखी थी। प्रसिद्ध है कि
महाराज ने उनके प्रत्येक दोहे के भावसौदर्य पर मुग्ध होकर एक -एक स्वर्ण मुद्रा
भेट की थी।
 

संयोग का  उदाहरण देखिए –

1)बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे,
नटि जाय।।
2)कहत ,नटत,रीझत ,खीझत ,मिळत ,खिलत ,लजियात ।
भरे भौन में करत है,नैनन ही सों बात ।
वियोग का उदाहरण देखिये 

वियोग  की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच
में ही सूख जाता है –




औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात।।

बिहारी का वियोग, वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण
है।


इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ।।

 कबीर दास –
                            
कबीर दस का प्रेम लौकिक न हो कर पारलौकिक था। आत्मा नायिका है परमात्मा नायक ……. पर प्रेम का सच्चा अनोखा वर्णन जो शुद्ध  है सात्विक है और वास्तव में प्रेम के सारे गूढ़  रहस्य खोलने में सक्षम।

१ )प्रेम-गली
अति सांकरी
, तामें दो न समाहिं।
   जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि है
मैं नाहिं।


२ )कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।
   अंतर
भीगी आत्मा
, हरी भई
बनराइ।


३ )पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
   ढाई
आखर प्रेम का
, पढ़ै
सो पंडित होय।


४ )अकथ
कहानी प्रेम की
, कछू कही न जाय।
  गूंगे
केरी सरकरा
, खाइ और मुसकाय।
 



सूरदास –

           कौन कह सकता है की सूरदास जन्मांध थे जहाँ उन्होंने कृष्ण के बाल रूप का सुन्दर वर्णन किया किया है वाही उनके कृष्ण प्रेम में डूबी गोपिकाओं और ऊधो के संवाद को भला कौन पाठक भूल सकता है। गोपिकाओं के प्रेम के आगे उधो का सारा ज्ञान बेकार है। …. उधो मन न भये दस -बीस कहती हुई गोपिकाओं के सरल , कोमल प्रेम भावो पर कौन न वारि – वारि जाये 


उधो मन न भये दस बीस



तुलसी दास –

                  तुलसी के आराध्य मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम भी प्रेम के इस कोमल भाव से अपरिचित नहीं है। ……… अपनी पत्नी अपनी प्रिया माँ  जानकी के प्रति एकनिष्ठ श्री राम उनके वियोग में तड़प उठते है , अपनी भावनाओं को पवनपुत्र हनुमान के माध्यम से माता जानकी तक पहुचाते हैं 
सुन्दरकाण्ड में इसका बड़ा मार्मिक वर्णन है। 

कहेउ राम बियोग तव
सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम
निसि ससि भानू॥

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत
तेल जनु बरिसा॥

जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम
त्रिबिध समीरा॥

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं
यह जान न कोई॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत
प्रिया एकु मनु मोरा॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु
प्रीति रसु एतेनहि माहीं॥

प्भु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन
सुधि नहिं तेही॥



मीरा बाई –
               बात प्रेम की हो और प्रेम दीवानी मीरा का जिक्र न हो तो प्रेम कुछ अधूरा -अधूरा सा लगता है। कंहाँ की दीवानी मीरा ,एक तार उठा कर चल पड़ती है जोगन बन गली -गली ,नगर -नगर। अरे !जिसे प्रेम का धन मिल गया उसे और चाहिए भी क्या ?

 
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।-
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।

हज़रत अमीर खुसरो-
                         
अमीर खुसरो अपने पीर हजरत  निजामुद्दीन औलिया देहलवी के अनन्य भक्त थे | इन्होने
अपने पीर के लिए कई सारी रचनाएँ लिखीं
| जब हज़रात निजामुद्दीन औलिया इस दार-ए-फानी
से बिदा हुए तो इन्होंने उनकी याद में ये मशहूर रचना लिखी
|प्रेम का एक रूप यह भी है। …………जो ईश्वर  के लिए है आत्मा विरहणी है। … छटपटा रही है पिया बावरे से मिलने के लिए ,  जरा गौर करिये भावो में डूबिये कितनी सच्चाई है इस प्रेम में ,कितनी शुद्धता कितनी सात्विकता ..आह !




अमीर खुसरों के दोहे




महादेवी वर्मा-
                  

            प्रियतम का इंतजार कितना कठिन कितना दुष्कर होता है यह विरह का भोगी ही जान सकता है महादेवी के विरह गीतों को पढ़ कर बरबस आँखें छलक जाती है। प्रेम में पूरी तरह
 निमग्न  ,प्रियतम के इंतज़ार से टूटी नायिका ही कह सकती है। ……………… जो तुम आ जाते एक बार.…………… पाठक सोच में पड़ जाता है आखिर कौन है इतना निष्ठुर ,क्यों नहीं आया ?
 –
                      

जो तुम आ जाते एक बार 
जो तुम आ जाते एक बार

कितनी करूणा
कितने संदेश

पथ में बिछ
जाते बन पराग

गाता प्राणों
का तार तार

अनुराग भरा
उन्माद राग

आँसू लेते वे
पथ पखार

जो तुम आ जाते
एक बार

हंस उठते पल
में आर्द्र नयन

धुल जाता
होठों से विषाद

छा जाता जीवन
में बसंत

लुट जाता चिर
संचित विराग

आँखें देतीं
सर्वस्व वार

जो तुम आ जाते
एक बार

मैथिलीशरण गुप्त-
               यशोधरा की पीड़ा को सबसे पहले समझा मैथिली शरण गुप्त ने, सही कहते है जहाँ न जाए रवि वहां जाए कवि ……… एक त्यागी हुई पत्नी के प्रेम और त्याग की अनूठी दास्तान, प्रेम तो यही है की पति के सुख में ही सुख ,प्रेम ही है जिसमे नारी अपने सारे सुख त्याग कर पति के विशाल समाज उत्थान  के लिए  किये जाने वाले कार्यों में सहभागी बनना चाहती है.दुःख ………… है तो बस इतना की पति ने उसके प्रेम को कहीं न कही कमजोर समझ लिया तभी तो बिना बाताये चुप -चाप चले गए। …………. कविता में यशोधरा की पीड़ा के साथ -साथ प्रेम की उस परम अवस्था के भी दर्शन होते हैं जहाँ निज सुख से ज्यादा दूसरे का सुख अहम् हो जाता है    
                   

सखि, वे मुझसे कहकर
जाते
,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते ?

मुझको बहुत
उन्होंने माना

फिर भी क्या
पूरा पहचाना
 ?
मैंने मुख्य
उसी को जाना

जो वे मन में
लाते ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

स्वयं
सुसज्जित करके क्षण में
,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती
हैं रण में –

क्षात्र-धर्म
के नाते ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

हु‌आ न यह भी
भाग्य अभागा
,
किसपर विफल
गर्व अब जागा
 ?
जिसने अपनाया
था
, त्यागा;
रहे स्मरण ही
आते
 !
सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

नयन उन्हें
हैं निष्ठुर कहते
,
पर इनसे जो
आँसू बहते
,
सदय हृदय वे
कैसे सहते
 ?
गये तरस ही
खाते
 !
सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस
जन के दुख से
,
उपालम्भ दूँ
मैं किस मुख से
 ?
आज अधिक वे
भाते
 !
सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ
अपूर्व-अनुपम लावेंगे
,
रोते प्राण
उन्हें पावेंगे
,
पर क्या
गाते-गाते
 ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।



हरिवंश राय बच्चन –
                 सभी इतने भाग्य शाली नहीं होते की प्रेम मिल ही जाए कई बार धोखा भी हो जाता है पर मन मानना कहाँ चाहता है ,जानता है की अब कोई आने वाला नहीं है फिर भी एक इतजार रहता है तभी तो कवि कह उठता है “कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!” पढ़िए एक खूब सूरत कविता 
तुम
मुझे पुकार लो
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न
बोलती न आसमान बोलता
,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,

इसीलिए अड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो
,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर-समुद्र कर
सकी न पार नेत्र की तरी
,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,

इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

उज़ाड़ से लगा
चुका उम्मीद मैं बहार की
,
निदाघ से उमीद की, बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका, उमीद मैं तुषार की
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

अमृता प्रीतम  –
                      प्रेम देह के स्तर  पर ही रहे तो वो प्रेम कहाँ है वो तो आकर्षण है ,सच्चे प्रेम को पाने के लिए गहरे उतरना पड़ेगा तभी तो अमृता प्रीतम कह उठती है 

मेरी सेज हाज़िर है

पर जूते और कमीज़ की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज़ है



कुछ नयी प्रेम  कविताओं का गुलदस्ता 




संगीता पाण्डेय
                                विरह की दशा में कुछ भी अच्छा नहीं लगता ,हर चीज जो मन को सुकून देती है बेकार प्रतीत होटी है …. रह जाता है बस इंतज़ार ,दर्द और आंसुओं में छिपा प्रियतम 




बादल बूँदें धरती
अम्बर
,सब कुछ था पर  तुम
न थे
 
तुम सा ही दिखता था
सबकुछ
,तुम सा था पर तुम न थे 

धवल चांदनी में भी
धुन थी
, तेरी ही रुनझुन गुनगुन थी
बिछी  हर सिंगार की चादर,तुम
सी थी पर
 
तुम न थे 

थी आजान या शहनाई,या बहती थी किसलय पुरवाई 
देवालय से आती
ध्वनियाँ
,तुम सी थी पर  तुम
न थे
 

ईद का मिलन,होली के रंग,या
आतिशबाजी दिवाली की

कितने पावन दिवस गए सब
,तुम से थे पर तुम न थे  

हर एक दिन एक साल
रहा
, पतझर भी मधुमास रहा 
लगता था बसंत का
मौसम
, तुम जैसा पर तुम न थे 

मुक्त छंद थे,कवितायेँ थी,गीतों
की भी मालाएं थी
 
सपनो से रची -पगी
कहानी
,तुम सी थी पर तुम न थे 

पर अधजली चिट्ठियों
के टुकड़े
,और मुट्ठी से फिलसी रेत 
आँखों से जो नमक बह
गया
,तुम सा था और तुम ही थे 





हिमांशू निर्भय –
                     हिमांशू प्रेम को परिभाषित करना चाहते है कहाँ तक सफल है आप खुद बताये 



प्रेम क्या है 
 प्रेम के वृत्त मे,
आसक्ति के छोटे-छोटे बिन्दु,
नज़र आ ही जाते हैं,
जब,
इच्छाओं के त्रिभुज में ,
स्वार्थ के कोण,
अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं ।
द्वैत के आयाम,
जब,
अद्वैत की परिधि को छू जाते हैं,
तो,
प्रेम की पूर्ण आकृति आ जाती है ।
किन्तु,
प्रेम का कोई रेखागणित नही होता।
—-
प्रेम,
एक भाव है ।
स्वभाव है ।
दर्शन है ।
अनुभूति है ।
अभिव्यक्ति है ।
अनवरत बहता हुआ धारा की तरह / हवा की तरह ।
प्रेम,
प्रेम ही है ,
सिर्फ प्रेम ।


सोनी पाण्डेय 
                पति -पत्नी का प्रेम वासना से ऊपर उठ कर मंदिर का दीपक बन जाता है|


सोनी पाण्डेय की कविता



शिखा गुप्ता- 
                प्रेम में अगर शक हावी हो जाए तो कितनी तड़प होती है कितना दर्द होता है सहज ही जाना जा सकता है 



 संदेह के परे
मैं …..
हर बिन्दु पर
सहेजती रही

तुम्हारा नाम
तुम …
ढूंढते रहे एक
शून्य

जिसके केंद्र
में

मुझे करके
स्थापित

धकेल सको
आदिम संदेहों
को परे

वंदना बाजपेयी –
                     


माना  जानता है प्रेम उपहारों में नहीं है ,प्रेम दिखावे और प्रदर्शन में नहीं है। …. अगर मन में प्रेम हो तो घर गृहस्थी की छोटी -छोटी घटनाओं में,चिंता -फ़िक्र में ,सुख -दुःख में  परिलक्षित हो जाता है बस जरुरत है उसे समझने की ,पहचानने की …फिर देखिये जीवन कैसे प्रेम और आनंद से भर जाता है 




लाल गुलाब
आज यूं ही प्रेम का
उत्सव मनाते
लोगों में
लाल गुलाबों के
आदान-प्रदान के बीच
मैं गिन रही हूँ
वो हज़ारों अदृश्य
लाल गुलाब
जो तुमने मुझे दिए

तब जब मेरे बीमार पड़ने पर
मुझे आराम करने की
हिदायत देकर
रसोई में आंटे की
लोइयों से जूझते हुए
रोटी जैसा कुछ बनाने की
असफल कोशिश करते हो
तब जब मेरी किसी व्यथा को
दूर ना कर पाने की
विवशता में
अपनी डबडबाई आँखों को
गड़ा देते हो
अखबार के पन्नो में
तब जब तुम

“मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार”
के स्थान पर
हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार”
और सबसे ज़यादा
जब तुम झेल जाते हो
मेरी नाराज़गी भी
और मुस्कुरा कर कहते हो
“आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “
नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए
डाली से टूटा लाल गुलाब
क्योंकि मेरा
लाल गुलाब सुरक्षित है
तुम्हारे हिर्दय में
तो ताज़ा होता रहता है
हर धड़कन के साथ।


प्रस्तुतकर्ता …… अटूट बंधन परिवार 

7 COMMENTS

  1. प्रेम की सभी भावनाओं को व्यक्त करती विहारी से लेकर आज के युग तक की कविताओं को एक साथ पढ़ कर आनंद आ गया बहुत अच्छा प्रयास

  2. प्रेम को अलग अलग कालखंडों के हिसाब से पढ़ना बहुत ही अच्छा लगा। सुंदर प्रस्तुति।

  3. इतनी सुंदर कविताओं को सुंदर विवेचन के साथ देने के लिए, एक संग्रहणीय लेख साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार ।

  4. बेहद सुंदर संकलन वंदना जी। बहुत पसंद आयी आपकी ये प्रस्तुति। बहुत सराहनीय है।
    आभार आपका।

  5. आपकी रचना का क्या तारिफ करू, दिल की हर तार पर आपकी रचनाए घेरकर बैठी है । तारिफ की शब्द चुराकर बैठी हैं………

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