एक लेखक की दास्तान …..

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एक लेखक की दास्तान .....

           प्रामाणिकता की जंग

भारत देश में लेखकों की कमी है। यह बात मुझे तब पता चली, जब हूबहू मेरी ही
रचना एक

प्रतिष्ठित पत्रिका में किसी और के नाम से छपी। आश्चर्यमिश्रित सदमे से
मैं बेहाल हो गया। सोचने-समझने की शक्ति का बुरा हाल हो गया। दिन बहुत हो चुके थे
, तो मैं लगभग भूल
ही चुका था कि मैंने वह रचना उस प्रतिष्ठित पत्रिका को कब भेजी थी। किन्तु पढ़ते
ही आँखों के रेटीनी परदे पर स्पष्ट चित्र उभर आया। कंप्यूटर खोलकर देखा। आठ महीने
पहले भेजी थी
, इस आस में कि
संभवतः संपादक जी को पसंद आ जाए। उन्हें पसंद भी आई। जिसकी प्रसन्नता थी
, किन्तु रचनाकार
के स्थान किसी और का नाम देखकर गहरा सदमा लगा। जवानी का स्वास्थ्य था
, दिल का दौरा नहीं
पड़ा।






इस बेतरतीबी के युग में सब-कुछ उलट-पुलट हो चुका है। समय ही
नहीं है किसी के पास। विशेषकर दूसरों के लिए और दूसरों की समस्याओं के लिए। फिर
बड़ी और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और विशेषकर उनके संपादकों के पास तो और भी
नहीं। पहले यानी कुछ दशक पहले तक जब कोई रचना अस्वीकार की जाती थी तो वह
सखेदवापस की प्रथा
थी। इस
सखेदी-प्रथासे मेरी मुलाक़ात
एक बार नहीं अनेक बार हो चुकी थी। तब दुःख होता था
, किन्तु सदमा नहीं लगता था। अब इस प्रथा का निधन
हो गया है। आप अपनी रचना भेजकर आराम से भूल जाइए और प्रतीक्षा करते-करते अपनी आयु
बढ़ा लीजिए। छपने के आसार तो कम ही हैं
, सखेद वापस आने का तो है ही नहीं, क्योंकि प्रथा ही
मृत्युलोक पहुँच गई है। मैं भी इसी भूल में बैठा हुआ था कि चाहे वह वापस आए न आए
, किन्तु रचना तो
मेरी ही है और एक ईमानदार लेखक की भाँति आशावान् बना रहा था। कभी न कभी संपादक जी
की उड़ती-उड़ती नज़र तो पड़ेगी ही। और इसी कारण अन्य पत्र-पत्रिकाओं में न भेज सका
था।




मेरे लिए असह्य दुर्घटना थी। क्या ऐसा भी हो सकता है? यह प्रश्न मेरे
दिलो-दिमाग पर ऐसे-ऐसे प्रहार कर रहा था कि जैसे सैंकड़ों छुरियाँ बार-बार उन्हें
खुरच रही हों। मैं सोचने-विचारने पर विवश था कि अब क्या किया जाए
? रचना तो मेरी है, लेकिन किसी और के
नाम से छपी है। तो फिर अपनी रचना को अपनी कैसे कहा जाए
? समस्या गंभीर थी
और अनूठी भी।




वैसे इस दुर्घटना से दो बातें सर्वथा प्रमाणित थीं। एक तो
अच्छी रचना की कद्र अभी भी बाकी थी। गो कि मैं एक अच्छा रचनाकार प्रमाणित हो गया
था। दूसरे किसी रचना का महत्त्व नहीं होता है
, बल्कि रचनाकार का होता है। रचनाकार बड़ा तो रचना बड़ी, वरना सुन्दर रचना
भी अरचना। अर्थात् रचनाकार का सुरीला नाम होना चाहिए
, चाहे रचना बेसुरी
ही क्यों न हो। इन दोनों ही सत्य में मैं कहीं भी फिट नहीं बैठता था। अतः अपनी
रचना को अपनी कहने के उपायों पर विचार करने लगा। यह निकला मेरी गहरी सोच का
निष्कर्ष। किन्तु
, निष्कर्ष निकालना
और उसे प्रमाणित करना दो अलग बातें होती हैं। मेरी समस्या दुर्लभ थी। मेरे लिए और
साहित्य जगत् के लिए भी। मैं अब अक्सर सोचों में गुम रहने लगा। घर-बार सबसे खिन्न
रहने लगा। कर्ता-धर्ता परेशान तो सभी बेहाल हो ही जाते हैं। असंतोष की आग ने मेरे
घर की शान्ति को भी जला डाला। अब घर की चिक-चिक और दिल की हिच-हिच में मैं पिसता
जा रहा था।




गहरे समुद्र-तल की भाँति गहरे मेरे संताप को देखकर एक दिन
मेरे प्रिय मित्र मिलने आये। उन्हें मुझसे सहानुभूति थी। मेरे घावों पर मरहम लगाते
हुए बोले –
मित्र, आपकी तो एक
छोटी-सी रचना का अपहरण हुआ है
, इतना दुःख मत करो। लोग तो ऐसे अपहरणों के बाढ़-पीडि़त हैं।
रचना का अपहरण?’

मैं चैंक गया था। पहली बार सुना था।
चैंको नहीं
मित्र। मेरे पास तो पूरी की पूरी किताबों तक के अपहरण के मामले हंै। एक नहीं बल्कि
अनेक हैं।
क्या?’
अब तुमसे क्या
छुपाना मित्र। तुम भी पीडि़तों में शामिल हो गए हो
, तो तुम्हें इन मामलों को जानने का अधिकार भी
प्राप्त हो गया है। मेरठ के एक प्रकाशक की गाथा का वर्णन करता हूँ।
मैं अवाक् अपने प्रिय मित्र का व्याख्यान सुन रहा था।



इनकी विशेषता है
कि ये महाशय रचनाएँ मँगवाते हैं और कई बार लोग अपनी रचना लेकर इनके पास जाते भी
हैं। समय बीतता जाता है यह सुनते-सुनते कि विशेषज्ञ उनके परीक्षण कर रहे हैं।
महीनों और सालों बीत जाते हैं। बेचारा रचनाकार आखि़रकार अपनी रचना के बारे में भूल
जाता है और फिर ये प्रकाशक महोदय उस रचना को अपने परिवार के किसी एक सदस्य के नाम
पर उसका शीर्षक बदलकर छाप लेते हैं। यह कई दशकों से चल रहा है। अब उनके परिवार के
चार सदस्य स्थापित लेखक बन चुके हैं। वैसे कभी-कभार वे दूसरों की रचनाओं का
प्रकाशन भी कर लेते हैं ताकि प्रकाशक के तौर पर उनकी विश्वसनीयता बरक़रार रहे।
यह तो सरासर
धोखाधड़ी है।




अब इसे जो कहना
चाहो कह लो। ऐसा केवल मेरठ में होता हो
, कोई एक प्रकाशक करता हो, तो भी कोई बात नहीं होती। अब तो यह उद्योग की भाँति पनप
चुका है। सारे देश को निगल चुका है।
मुझे आश्चर्य भी हुआ और डर भी लगा कि मैंने भी कई रचनाएँ, कई
पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित की हुई हैं। अगर मेरे साथ भी ऐसा हुआ
, तो क्या होगा?



मेरा डर सही साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद जो कुछ हुआ वह लगभग वैसा ही था जो मेरे
प्रिय मित्र ने कहा था। धड़ाधड़ मेरी कई रचनायें और छपीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं
में उन्होंने बखूबी स्थान पाया। कभी पूरी की पूरी
, तो कभी बेतरह काट-छाँटकर और कभी उसकी आत्मा का
हनन कर। भाषा भी कुछ मेरी और कुछ किसी अन्य की। किन्तु
, मेरे नाम का
नामोनिशाँ कहीं नहीं था। संताप एवं पीड़ा के बादल फट पड़े। अपने सृजन के लिए दिल
फूट-फूटकर रो पड़ा। मेरी रचना पराई होकर इठलाती तो दिल पर सैकड़ों सर्प लोटने
लगते। वे जो भी थे आनंदित थे और मैं स्वयं को पहचानने के प्रयास में स्वयं को ही
भूलने लगा था। फिर मैंने निश्चय किया कि नहीं
, एक नवोदित और उदीयमान लेखक की पदवी से सँवरने का अवसर हाथ
से न जाने दूँगा।





 स्वयं को लेखक बनने की होड़ से बाहर न होने हूँगा। अतः अपनी इस
अजीबो-गरीब लड़ाई में कोल्हू के बैल की तरह जुट गया।


रचना जगत् में असांसारिकता की परम्परा सर्वथा विकराल और
भयावह है
, जहाँ उदीयमान
लेखकों के मर्म को कोई नहीं समझता। वहाँ नाम और केवल नाम का ही बोलबाला होता है।
और चोरी की रचना का तो समझिए कि एक गिरोह ही पलता है। ऐसे में मेरी खुद की
प्रामाणिकता प्रश्नचिह्नित हो गई। मेरे पास पक्के सुबूत भी नहीं थे
, वे सब मेरी
रचनायें थीं। प्राचीन काल में पाण्डुलिपियाँ अपने हाथों से लिखी जाती थीं। अब इस
कंप्यूटर के युग में वे दुर्लभ हो गई हंै। वैसे पाण्डुलिपियोें की प्रामाणिकता पर
भी कच्ची मुहर ही होती है। लेकिन इसमें से तो मुहर ही गायब हो चुकी थी। फिर भी मैं
एक सच्चे और ईमानदार लेखक की तरह लिखता गया और पत्र-पत्रिकाओं को भेजता गया। यह
सोचकर कि ऊपरवाला सबको देखता है। वह मेरी ओर भी देखेगा। मेरी भी सुनेगा और एक दिन
न्याय का पलड़ा अवश्य भारी होगा।


समय बीतता गया। इस दुःख के साथ जीने की आदत-सी पड़ गई थी।
इस बीच समय के साथ मेरी ईमानदारी में भी दरार आ गई। और मैं अपनी एक रचना को कई
पत्र-पत्रिकाओं में भेजने लगा।
असफलताओं के अंबार लगा दो, सफलता अवश्य कदम चूमेगीकिसी ने कहा था।
यही मेरा मूलमंत्र बन गया। तब मेरी रचनायें भी छपने लगीं। कहीं दस रचनाओं के बाद
तो कहीं पन्द्रह रचनाओं के बाद। ख़ैर
, जो भी हो अब मैं रचनाकार तो बन ही गया था। चाहे छोटा-मोटा
ही। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मेरी एक रचना दो प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एक साथ छपीं।
एक मेरे नाम से और दूसरी किसी नामी-गिरामी रचनाकार के नाम से। यह तो कभी न कभी
होना ही था। सो हो गया।




बस फिर क्या था? प्रामाणिकता की जंग छिड़ गई। मुकदमे दायर हो गए। मुझ पर नकल
करने का आरोप लग गया। किसी रचनाकार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि उसे अपनी ही
रचना की प्रामाणिकता साबित करनी थी। मैं जी-जान से जुट गया। वकीलों  के लिए यह
अनोखी बात थी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। वे चुस्कियाँ लेकर मुझसे प्रमाण
पूछते थे और मज़ा लेकर मेरी रचनाओं का आनंद उठाते थे। आज तक जितनी रचनाएँ छपी थीं
, कहीं भेजी थीं, उन पर बातें
हुईं। विचार
, कथ्य, शैली, विषयवस्तु, प्रवाह
आदि-इत्यादि सभी पर विचार-विमर्श हुए। जिरह ऐसे हो रहा था जैसे दो खूँखार भेडि़ये
शिकार को हड़पने के लिए चीर-फाड़ कर रहे हों। पत्र-पत्रिकाआंे
, अख़बारों, टी.वी. चैनलों
सभी प्रकार के मीडिया और आम जनता के लिए खासा मनोरंजक विषय था।


बरसों न्यायालयों की देहरी पर कानून, इज़्ज़त, लेखक, रचना और साहित्य
की धज्जियाँ उड़ाई गईं। आखि़रकार फैसले का दिन भी आ गया। प्रतिष्ठित पत्रिका और
प्रतिष्ठित रचनाकार की बात सहर्ष स्वीकार कर ली गई। मेरे द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक
साक्ष्य को अपर्याप्त माना गया और मैं नकलची प्रमाणित हो गया। मुझे अपनी ही रचना
को नकलकर छपवाने के जुर्म में तीन हज़ार रुपये का जुर्माना और छह महीने की
क़ैदे-बामशक़्क़त की सज़ा सुना दी गई। पहले से ही एक अदना लेखक और ऊपर से वकीलों
एवं न्यायालयों के चक्कर ने मेरी हालत और भी पस्त कर दी थी। अतः जुर्माने की तीन
हज़ार की राशि जुटा न पाया
,
तो अदालत ने मेरी
माली हालत पर तरस खाकर मेरी सज़ा दस महीने में तब्दील कर दी। तब से अब तक कारागार
में बैठा लेखन-कार्य कर रहा हूँ क्योंकि लेखन ही मेरा जीवन है
, मेरा सब-कुछ है।
साहित्य मेरी कमजोरी है और साहित्य-सेवा मेरा धर्म। यह अलग बात है कि न्यायालय को
ऐसा कुछ भी प्रतीत न हो सका। वह तो प्रमाण पर अपनी नौका पार करती है और प्रमाण
शक्तिशालियों की बपौती होती है।


अपनी व्यथा बताते-बताते मेरी आँखों से धाराप्रवाह आँसू
प्रवाहित होने लगे। इस गंगा-जमुनी धारा से द्रवित होकर मेरा साक्षात्कार लेने आया
वह पत्रकार
, अपने कलमबद्ध
हाथों से आँसू पांेछने पर विवश हो गया। मुझे प्रसन्नता हुई कि उसे मुझसे सहानुभूति
थी। फिर वह मेरी बात जनता को पहुँचाने का प्रयास भी कर रहा था। मुझे प्रतीत हुआ कि
वह भी मेरी ही जैसी किसी परिस्थिति से गुज़र रहा है। वरना आज के इस युग में
सहानुभूति की फसल ही कहाँ उपजती है। तो मुझसे रहा नहीं गया।
एक बात औरमैंने कहा – आप मेरे दुःख में
ऐसे शरीक हुए जैसे आँख और हाथ। जब हाथ कुछ करने को होता है तो आँख उसे बताती है और
जब आँख दुःख में रोती हैं तो हाथ आँसू पोंछते हैं। आप भी इसी प्रकार मेरे आँसू
पोछने आए हैं। अतः आपका बहुत-बहुत धन्यवाद्। आपसे इतना ही अनुरोध है कि इस ख़बर को
अपने आँसू समझकर छापियेगा। ईश्वर आपका भला करेगा। साथ ही मेरी ओर से यह अपील ज़रूर
कर दीजिएगा कि जो भी इसे पढ़े
, सहानुभूति में दो आँसू अवश्य बहाए। मैं समझ लूँगा कि
साहित्य-सेवा की कीमत मुझे मिल गई।


यह कहकर मैंने स्वयं को पुनः उस कालकोठरी के हवाले कर दिया, जहाँ मेरी
प्रामाणिकता के समस्त प्रमाण धुल-धुलकर पूरी तरह अदृश्य हो गए थे

विश्वजीत सपन

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