गुरु पूर्णिमा पर विशेष:गुरु के बिना अधुरा है जीवन :दिनेश शर्मा

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                  गुरु पूर्णिमा पर विशेष:

गुरु
ब्रह्मा
, गुरु
विष्णु गुरु देवो महेश्वर
,
गुरु
साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:
अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है  , गुरु ही
विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को
मैं प्रणाम करता हूं. उक्त वाक्य उस गुरु की महिमा का बखान करते हैं जो हमारे जीवन
को सही राह पर ले जाते हैं.
  गुरु
के बिना यह जीवन बहुत अधूरा है. यूं तो हम इस समाज का हिस्सा हैं ही लेकिन हमें इस
समाज के लायक बनाता है गुरु. शिक्षक दिवस के रूप में हम अपने शिक्षक को तो एक दिन
देते हैं लेकिन गुरु जो ना सिर्फ शिक्षक होता है बल्कि हमें जीवन के हर मोड़ पर राह
दिखाने वाला शख्स होता है उसको समर्पित  है यह दिन जिसे  गुरु पूर्णिमा कहा जाता है |
गुरु का दर्जा भगवान के
बराबर माना जाता है क्योंकि गुरु
, व्यक्ति
और सर्वशक्तिमान के बीच एक कड़ी का काम करता है. संस्कृत के शब्द गु का अर्थ है
अन्धकार
, रु का
अर्थ है उस अंधकार को मिटाने वाला.
आत्मबल
को जगाने का काम गुरु ही करता है. गुरु  अपने आत्मबल द्वारा शिष्य में ऐसी
प्रेरणाएं भरता है
, जिससे कि
वह अच्छे मार्ग पर चल सके. साधना मार्ग के अवरोधों एवं विघ्नों के निवारण में गुरु
का असाधारण योगदान है. गुरु शिष्य को अंत: शक्ति से ही परिचित नहीं कराता
, बल्कि
उसे जागृत एवं विकसित करने के हर संभव उपाय भी बताता है.
जिन महान  जनों ने गुरु- शिष्य संबंधों की खोज की, उन्हें सामाजिक, साँसारिक संबंधों की सीमाओं के बारे में पूरा ज्ञान था। वे
जानते थे कि सामान्य संसारी व्यक्ति चाहे वह हमारा कितना ही सगा या घनिष्ठ क्यों न
हो
, हमारा मार्गदर्शक नहीं हो सकता। इसके लिए परम प्रज्ञावान्
एवं अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता है
, भले ही वह साँसारिक दृष्टि से धन, पद अथवा प्रतिष्ठा रहित हो।

अनेक लोग तर्क प्रस्तुत करते हैं कि गुरु आवश्यक नहीं है, वास्तविक गुरु तो हमारे अंदर है। यह बात सैद्धांतिक रूप से
सच भी है
, परंतु हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो अंतःकरण में स्थित
सद्गुरु की आवाज को सुनते- समझते हैं। उसके निर्देशों को समझते एवं आचरण में लाते
हैं। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि मनुष्य की मानसिक अवधारणाएँ सीमित एवं
स्थूल है। मानव- मन विक्षुब्ध वासनाओं
, इच्छाओं एवं
महत्त्वाकाँक्षाओं का संगम है। इस हलचल के बीच अंतःस्थिति सद्गुरु की आवाज को
सुनना भला कैसे संभव हो सकता है। उसकी आवाज तो नीरवता की
, शांति की आवाज है। यदि हम अपनी नीरवता की इस आवाज को सुनना-
समझना चाहते हैं
, तो हमें अपने मन के आँतरिक
कोलाहल को बंद करना पड़ेगा। परंतु हम तो सामान्यक्रम में अपने मन की संरचना ही
नहीं समझते। हमें यह भी नहीं मालूम कि हम आसक्ति
, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा और वासना का अनुभव क्यों करते हैं। इसका परिणाम यह
होता है कि हम कोलाहल को दबाने का जितना प्रयास करते हैं
, उसकी  आवाज उतनी
तीव्र होती चली जाती है।

इस आँतरिक अशाँति को रोकने के लिए ही हमें गुरु की आवश्यकता
होती है। वे ही उन विधियों के विशेषज्ञ हैं
, जिनके द्वारा शरीर, मन एवं अंतरात्मा का नियंत्रण व नियमन होता है। वे ही वह
मार्ग दिखा सकते हैं जिस पर चलकर हम अपने मन की उन नकारात्मक प्रवृत्तियों को बदल
सकते हैं
, जो हमारे आत्मविकास में बाधा है।

गुरु ज्ञान की प्रज्वलित मशाल है। भौतिक शरीरधारी होने पर
भी उनकी आत्मा उच्च एवं अज्ञात जगत् में विचरित रहती है। वह अपने लिए नहीं
, बल्कि हमारे लिए इस धरती से जुड़े रहते हैं। उनका प्रयोजन
स्वार्थ रहित है। उनकी न तो कोई इच्छा होती है और न ही आकाँक्षा। ये गुरु ही हमारे
जीवन की पूर्णता होते हैं। वे पवित्रता
, शांति, प्रेम एवं ज्ञान की साक्षात् मूर्ति हैं। वे साकार भी हैं
और निराकार भी। देहधारी होने पर भी देहातीत हैं। देहत्याग देने पर भी उनका
अस्तित्व मिटता नहीं
, बल्कि और अधिक प्रखर हो
जाता है।

उन्हें पाने के लिए, उनसे मिलने के लिए आवश्यक
है हमारी चाहत। इसके लिए अनिवार्य है हमारे अपने अंतर्मन में उभरती तीव्र पुकार। गुरुपूर्णिमा  का महापर्व हममें से हर एक के लिए यही संदेश लेकर आया है कि हमारे
गुरुदेव हम सबसे दूर नहीं है। वे देहधारी होने पर भी देहातीत थे और अब देह का
त्याग कर देने पर तो सर्वव्यापी हो गए है। उनका सदा ही यह आश्वासन है कि उन्हें पुकारने
वाला उनके अनुदानों से कभी भी वंचित नहीं रहेगा |

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके
लगो पाय

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द
दियो बताय 

दिनेश शर्मा 

गोरखपुर (उत्तर प्रदेश )

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