दो चोर (कहानी -विनीता शुक्ला )

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दो चोर (कहानी -विनीता शुक्ला )



गीतांजलि एक्सप्रेस  धीरे धीरे पटरियों पर सरकने लगी थी। 

देखते ही रंजन अपने फटीचर सूटकेस के संग दौड़ पड़ा। दौड़ते भागते किसी तरह वह अपने कम्पार्टमेंट में घुस ही गया। हावड़ा स्टेशन पर भीड़ का जमावड़ा इतना ज्यादा था कि इस काम के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी उसे। पसीने पसीने होकर हांफता हुआ जब वह अपनी सीट तक पहुँचा तो सामने बैठे भद्र पुरुष ने अखबार से मुँह निकाला और एक प्रश्नवाचक  दृष्टि से उसे देखा। “जैसे तैसे ट्रेन पकड़ पाया हूँ।” अपने स्थान पर बैठते हुए उसने खिसियाहट भरे स्वर में उन सज्जन को बताया। “तो ये आपकी ही सीट है?” उन साहब ने उससे सहानुभूति जताने के बजाय फट से सवाल दाग दिया था। “जी?” उसने इस विचित्र प्रश्न  को सुनकर आश्चर्य से पूछा। “नहीं नहीं कुछ नहीं।” कहकर वे महानुभाव फिर से अखबार में गुम हो गये।

“बहुत खूब रंजन मित्राॐ ” उसने अपनेआप से कहा“एक तो सेकेंड क्लास का घटिया सफर और उस पर इस खूसट आदमी का साथ।” सूटकेस को सिरहाने रखकर वह बर्थ पर पसर गया और यूँ ही कुछ गुनगुनाने लगा। इस बार श्रीमानजी ने कनखियों से उसे देखा था। उसे अपनी तरफ देखते पाकर वे झेंपे और फिर से दैनिक पत्र में मुँह छिपा लिया। मित्रा से रहा न गया। उनसे मुखातिब होकर बोला “भाईसाहब ज़रा सुनिए।”
“कहिए”
“ये ट्रेन बिलासपुर कब पहुँचेगी?”
“पहुँचने का टाइम तो पाँच बजे के आसपास का हैै। देखिये कितने बजे तक पहुँचती है।”
“चली तो राइट टाइम पर ही थी।”
“हूँ” महाशय ने एक रूखी सी प््रातिक्रिया की और झोला लेकर ट्वायलेट की तरफ बढ़ चले।

कहानी -काकी का करवाचौथ

रंजन कटकर रह गया। उसके भाई प्रत्युष  के अनुसार रंजन के लिए सबसे बड़ी सज़ा थी– उसे ऐसी जगह पर बैठा देना जहाँ वो किसी से बोल–बतिया न सके। आज तो वाकई यही हाल था। ले–देकर एक सहयात्री मिला और वह भी नपी–तुली सी बात करने वाला। पिछले कुछ दिनों से उसके सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। उसके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। चाहकर भी ए. सी। का टिकट नहीं मिल सका। ट्रैफिक की वजह से ट्रेन भी छूटते छूटते बची। उस पर मुम्बई तक का ये लम्बा सफर वो भी गर्मी में,  उसने अपने ‘भिखारी मार्का’ सूटकेस पर एक नज़र डाली। मन ग्लानि से भर गया। पढ़ाई के चक्कर में उसका ध्यान कभी अपने सामान की साज–संभाल करने की तरफ गया ही नहीं। पर आज पहली बार उसे शिद्दत से इसकी जरूरत महसूस हो रही थी।

मुम्बई पहुँचने पर सबसे पहले वो एक नया सूटकेस खरीदेगा। हो सके तो एक बढ़िया शर्ट और टाई भी।

 आखिर नौकरी के लिए इंटरव्यू देना है। आजकल तो कैंडिडेट की क्वालिफिकेशन बाद में देखी जाती है और ‘गेटअप’ पहले। यह सब सोचते विचारते हुए अचानक उसकी नज़र सामने वाली बर्थ पर पड़े समाचार पत्र की तरफ चली गई। ‘गीतांजलि एक्सप््रोस में चोरी की वारदातें’ इस सुर्खी को देखकर वह दंग रह गया। जिज्ञासावश पास खड़ा होकर पढ़ने लगा ‘हावड़ा से मुम्बई जाने वाली गीतांजलि एक्सप््रोस में आए दिन चोरी और लूटपाट के समाचार मिले हैं। चोर बाकायदा टिकट कराके ट्रेन में चढ़ता है और रातबिरात यात्रियों का सामान लेकर चम्पत हो जाता है।’ उसे ध्यान आया कि जब वो रिजर्वेशन करा रहा था तो पड़ोसन भाभी ने भी उससे कहा था“देख रंजू जिस रूट से तू जा रहा है उस पर कई ‘केस’ं हो चुके हैं। संभलकर रहियो।” मित्रा का दिमाग इस बारे में और कुछ सोच पाता इसके पहले ही अखबार वाले भाईसाहब की ‘एंट्री’ हो गई। रंजन को अपनी सीट के पास देखकर उन्होंने कुछ अजीब सा मुँह बनाया और रुक्ष स्वर में पूछा “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं…” उनके हाव भाव देखकर वह सहम सा गया और वापस अपनी जगह पर जा बैठा। उन्होंने अपने टिफिन से कुछ निकाला और जुगाली करने लगे। यह देखकर रंजन के पेट में भी चूहे दौड़ने लगे। माँ अस्वस्थ थीं सो इस बार खाना बांधकर नहीं दे सकींं। सोचा था कि चलने के पहले किसी अच्छे होटल से कुछ पैक करवा लेगा। पर वो नौबत ही कहाँ आ पाई  ऐन समय पर देवी मन्दिर वाले उसके घर के सामने वाले रास्ते पर जुलूस निकालने लगा  मानों सड़क उनके बाप की मिल्कियत हो ।  इतना चौड़ा मार्ग पर इंच भर भी हिलने डुलने की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी धर्म के उन ठेकेदारों ने फिर तो किसी तरह भागमभागी करके स्टेशन पहुँच पाने भर का समय ही बचा उसके पास। हताशा में थोड़ी देर यूँ ही वह आँखें मूंदे हुए बैठा रहा। कुछ समय बाद उसे जान पड़ा कि रेलगाड़ी की गति धीमी होती जा रही थी। वो निरुद्देश्य खिड़की से बाहर को ताकने लगा। लगता था कि कोई स्टेशन आने वाला था। ‘चलो पेट पूजा का जुगाड़ करते हैं ’ उसने खुद से कहा और उठ खड़ा हुआ।

एक बार फिर


सामने वाले भाईसाहब ने अपना झोलानुमा बैग उठाकर बगल में रख लिया और आने जाने वालों को घूरने लगे। प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसने पूरी भाजी का दोना खरीदा और फिर आरक्षण तालिका पर एक नज़र डाली। अपना नाम रिजर्वेशन लिस्ट में पाकर वह आश्वस्त हुआ और खाने में जुट गया। बाद में कुछ छोटी मोटी खरीदारी भी की। कई यात्रियों और फेरीवालों को भीतर जाते देख उसके मन में खटका सा हुआ और तब उसने डब्बे के भीतर झांककर देखा। वो महाशय इस प््राकार झोले को सटाकर बैठे थे  मानों उसे कोई छीनने वाला था। उनसे निगाह मिलते ही उसे वितृष्णा सी होने लगी और मन में यह विचार उठने लगा कि यह आदमी कैसा अजब नमूना है। ट्वायलेट जाते समय भी बैग को नहीं छोड़ता। जरा देखूँ तो कि ये जनाब आख़िर हैं कौन। एक बार फिर रिजर्वेशन लिस्ट को जांचा तो पाया कि उसके सहयात्री का नाम शैलेश राय था और वह भी मुंबई तक ही जा रहा था।

क्यों न इन साहब के साथ हीे कुछ टाइम पास किया जाए’ ऐसा सोचकर वो कम्पार्टमेंट में घुस गया। 

“बड़ी गर्मी है आज” अपना स्थान ग्रहण करते ही उसने फिर से शैलेश राय नाम के उस बंदे को कुरेद दिया। “हाँ सो तो है?” उदासीनता से भरा संक्षिप्त उत्तर मिला। ज़ाहिर था कि ‘राय साहब’ और अधिक बात करने मूड में नहीं थे। “देखिए ना…” रंजन भी हार मानने वाला नहीं था “इतनी गर्मी में भी पैन्ट्री वाले कूल ड्रिंक सर्व नहीं कर रहे हैं। आम आदमी की तो अच्छी खासी कुगत है इस देश में।”

“सो तो है।” एक बार फिर वही नीरस सा जवाब। रंजन का मन किया कि जोर से चिल्लाकर कहे “अरे कूढ़मगज बात करने की अकल नहीं है क्या? तोते की तरह हर बात का एक ही जवाब दिए जा रहे हो।” पर प्रकट  में बोला “तो शायद आप भी हावड़ा स्टेशन से चढ़े थे।”

“जी हाँ। ट्रेन समय से पहले ही आकर खड़ी हो गई थी। देखते ही देखते ठसाठस भर गई। बस हमारी और आपकी बर्थ में लेटने की जगह है। बाकी सीटें तो एकदम फुल हैं।” इस बार जनाब कुछ खुल गये थे। ‘और कम से कम रायगढ़ से पहले तो यहाँ कोई बैठने वाला भी नहीं।’ मित्रा ने सोचा। दरअसल आरक्षण तालिका में उसने अपने दूसरे सहयात्रियों का विवरण भी देख लिया थाऌ जिसके अनुसार उन चार लोगों को रायगढ़ से ही चढ़ना था। इतने में शैलेश राय ने मूंगफली निकाल ली और अकेले अकेले ही टूंगने लगा। शिष्टाचार के नाते एक बार अपने साथ वाले मुसाफिर से पूछा तक नहीं। मित्रा भी बची हुई पूरी भाजी पर हाथ साफ करने लगा मानों हज़रत को दिखा देना चाहता था कि केवल तुम्हारे पास ही खाने का जुगाड़ हो ऐसा नही  हमारा भी अपना अलग इंतजाम है तुम्हारे मोहताज नही हैं हम। शैलेश ने मूंगफली के छिलकों को बटोरा और वहाँ से निकल लिया शायद उन्हें फेंकने के लिए। तभी खिड़की के पास से एक सड़कछाप पत्रिकाओं के विक्रेता ने आवाज़ लगाई।

“दस की दो दस की दो” रंजन ने उस तरफ देखा तो वो हॉकर चहक कर बोला “ ले लो साब। बड़ी मस्त कहानियाँ हैं…।” 

सरसरी तौर पर देखने से जान पड़ा कि वे घटिया कागज और चलताऊ ‘गॉसिप’ वाली पुरानी मैंगजीने थीं देखते ही उबकाई सी आने लगी  पर क्या करता उबाऊ सफर में समय काटने का कोई और चारा भी तो नहीं था। लिहाज़ा उस बंदे को दस का नोट थमाकर दो पत्रिकायें खरीद लीं। उनमें से एक मैगज़ीन में सर खपा रहा था कि ट्रेन चल पड़ी। इतने में वे महाशय उस ‘वी.आई.पी। बैग’ को सीने से लगाये हुए आए और अपनी बर्थ पर पसर गये। रंजन ने पाया कि वे उसकी पत्रिका को ललचाई हुई दृष्टि से देख रहे थे पर उसने उनको जरा भी भाव नहीं दिया। जैसे को तैसा समय यूँ ही गुजरता चला गया। पढ़ने के बाद वो ऊंघने लगा था। अपने आस पास हलचल होने पर उसने आँखें खोलकर देखा। कुछ लोग सामान समेट रहे थे। शायद रायगढ़ आने वाला था। “आपको भी यहीं उतरना है?” उसने जानकर शैलेश से पूछा। जवाब था “नहीं”। राय वार्तालाप कोे और आगे बढ़ाना ही नहीं चाहता था। पर मित्रा भी आसानी से छोड़ने वाला कहाँ था छूटते ही पूछा “तो फिर कहाँ?”

“नागपुर तक जा रहा हूँ।” सुनकर वह चौंक उठा। रंजन तो इस बंदे को केवल खब्ती ही समझ रहा था पर अब वो उसे मक्कार भी लगने लगा था। कम्पार्टमेंट के बाहर लगी लिस्ट में साफ साफ छपा हुआ था कि ये इंसान मुम्बई तक जाने वाला था। संदिग्ध चरित्र के इस आदमी से बचकर रहना होगा उसने मन में सोचा। “भाईसाहब आपका शुभनाम?” ना जाने क्यों वह खुद ही इस अप््िराय व्यक्ति से बातचीत किए जा रहा था। “जी शैले…न्द्र” सही नाम बताते बताते एकाएक उस इंसान ने झूठ बोलने का विचार बना लिया था। रंजन को दूसरा झटका लगा। दाल में कुछ काला नहीं यहाँ तो पूरी दाल ही काली थी। अब उसने चुप रहने में ही भलाई समझी। जिसका भेजा ही फिरा हुआ हो उससे कुछ बोलने का मतलब ही क्या था  रायगढ़ आते ही मित्रा उतर लिया उस सड़ियल आदमी के पास बैठे बैठे घुटन जो होने लगी थी। स्टेशन पर होने वाली चहल पहल को देखते हुए सहसा उसके दिमाग की घंटी बजी। अपना सूटकेस तो वो उस घनचक्कर ‘राय’ के पास ही छोड़ आया था। कहीं ऐसा न हो कि…

उसने बाहर से अपनी बर्थ पर निगाह डाली। राय की आँखें उसके सूटकेस पर ही गड़ी थीं। रंजन के रोयें खड़े हो गये। मन में उस फिल्मी गीत के बोल गूंज उठे “बचके रहना रे बाबा
              बचके रहना रे
              बचके रहना रे बाबा
              तुझपे नज़र है”

इतने में उस शैलेश ने अजीब निगाहों से उसे घूरकर देखा। वह मन ही मन सुलग उठा। फौरन अंदर आया और अपनी जगह पर जम गया। इतने में साथ वाले चारों मुसाफिर भी अपनी सीट ढूंढते हुए वहाँ आ पहुँचे। रंजन ने राहत की सांस ली। अब वो इस बेढंगे इंसान के साथ अकेला नहीं था। वे चारों भी उसके हमउमर नवयुवक थे कम से कम सामान्य बातचीत तो हो सकेगी उनसे ये सोचकर वह खुश हो गया। सबसे अच्छी बात– अपने सूटकेस की सुरक्षा के लिए भी उसे हर वक्त चौकन्ना नहीं रहना पड़ेगा। अगर राय ने उसके सामान पर हाथ साफ करने का मन बना भी लिया तो ये काम इतना आसान नहीं होगा उसके लिए। चार लोगों की नाक के नीचे से किसी की चीज़ झटक लेना कोई हंसी खेल नहीं था




रेलगाड़ी के चलते ही वे नये यात्री मस्ती में गाने–बजाने लगे। उनमें से एक के पास माउथार्गन था और दूसरे के पास तुरही जैसी कोई चीज़। एक साथ मिलकर समां बांध दिया था उन सबने। माहौल खुशनुमा हो उठा। धीरे धीरे उन मिलनसार युवकों ने रंजन मित्रा को भी अपने गुट में शामिल कर लिया। वह भी उनके साथ चहकता बतियाता और गाता बजाता रहा। उन लोगों के साथ सफर कैसे कटा कुछ पता ही नहीं चला। सारी खीज काफूर हो गई। हर पड़ाव पर वह भी उन लोगों के साथ नीचे उतर जाता। अलबत्ता शैलेश पर निगाह जरूर रखता जो अब अलग थलग सा पड़ गया था। परन्तु जब भुसावल में उसके वे दोस्त उतर गये तो फिर से मनहूसियत छा गई। सूटकेस को सर के नीचे रखकर वो सो रहा। उठा तो पाया कि गाड़ी नासिक रोड पहुँचने वाली थी। तो मंज़िल नज़दीक आ पहुँची थी। मुंबई सेंट्रल आने में अब कोई खास समय नहीं बचा था। चलो आखिर ये लम्बी यात्रा संपन्न होने वाली थी।

उसने शैलेश राय पर नज़र डाली। राय अपनी चप्पलों को अखबार में लपेट कर बैग में रख रहा था। जूते वह पहले ही बाहर निकाल चुका था शायद पहनने के लिए। रंजन के मन में आया कि चलते चलते क्यों न इसकी ‘क्लास’ ले ली जाए। वह उसे संबोधित करते हुए बोला“भाईसाहब आपको तो नागपुर में उतरना था”
“जी…”
“तो उतरे क्यों नहीं?”
“वो एक्चुअली…”
“उतरना भूल गये क्या?” उसने कुछ व्यंग्य से कहा और हंस पड़ा।
“नहीं दरअसल…।”

“शैलेन्द्र जी…आई मीन शैलेश राय जी मेरे साथ ये ढोंग करने की क्या जरूरत थी आपको?”
“देखिए अब जब हम उतरने ही वाले हैं तो आपको सही सही बात बता दूँ …बुरा तो नहींं मानेंगे?”
“जी बिल्कुल नहीं। सच्चाई का तो मैं हमेशा से कायल रहा हूँ। आप कहते जाइए।”
“जब आप तूफान की तरह चलती हुई ट्रेन में घुसे थे मुझे आप पर संदेह सा हो गया था। शरीफ आदमी बाकायदा सब इन्तजाम करके ट्रेन में चढ़ते हैं।”

आपका मतलब – इत्मीनान से सामान जमाते हैं ना कि अचानक चोर डाकू लुटेरों की तरह टपक पड़ते हैं।”
“जी हाँ”उन्होंने शर्म से पानी पानी होते हुए कहा। “और कोई वजह मेरे बारे में ऐसी धारणा बनाने की?”
“हाँ। चोर उचक्कों से सावधान रहने के वास्ते अखबार में भी खबर छपी थी।…फिर आपका सूटकेस भी इतना पुराना था कि…”
“कि आपने मुझे उठाईगीर समझ लिया” करते कहते रंजन ठठाकर हंस पड़ा। उसे हंसते देख राय की हिम्मत खुली और उसने आगे बताया” आप हर स्टेशन पर उतरकर मुझे घूरते भी तो थे ना…इस कारण…”
“ओह” हंसते हंसते रंजन के पेट में दर्द होने लगा था। हंसी रुकने पर वो बोला “ भाईसाहब ऐसी ही राय मैंने आपके बारे में भी बनाई थी।…” फिर तो रंजन मित्रा ने अपनी उस सोच के बारे में सब कुछ कह डाला। अब उन दोनों के ठहाके थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। आस पास के लोग हैरानी से उन्हें देख रहे थे। गाड़ी मुंबई सेंट्रल में प्रवेश  कर चुकी थी।

विनीता शुक्ला

लेखिका

परिचय

                 नाम- विनीता शुक्ला
शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर
विश्वविद्यालय)
परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई.,
लखनऊ)
अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स
डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)
कार्य अनुभव-
१-    
सेंट फ्रांसिस,
अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य
२-    
आकाशवाणी कोच्चि के
लिए अनुवाद कार्य
सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ
प्रकाशित रचनाएँ-
१-    
प्रथम कथा संग्रह’
अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद
शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित
२-    
‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन
२००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित
३-     लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल
२००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित
४-     झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के
‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित
५-    
द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न
६-    
‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित
७-    
‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित
८-    
कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार
९-    
२६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा
ज्योति’ में कविता प्रकाशित
१०-
 ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर
माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
११-
 ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के
अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१२-
 ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण
जंक्शन वाले)
ब्लॉगों का प्रकाशन
१३-
 ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में
कहानी प्रकाशित
१४-
 ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर
(२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३)
अंक में कविता प्रकाशित
१६-
-जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित
१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य
रचना प्रकाशित 
१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित
२०- ‘वनिता’, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के
जनवरी (२०१५) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
२१- ‘जागरण सखी’ के फरवरी (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित
२२- ‘अटूट बंधन’ मासिक पत्रिका ( लखनऊ) के मई (२०१५) अंक
में कहानी प्रकाशित




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5 COMMENTS

  1. मजेदार अंत ,सधी हुई कहानी ……… प्रियंका सेठ ,गुजरात

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