अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा में शामिल कवितायों की लड़ी

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                                                 अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा आयोजन किया था | परिचर्चा का विषय था ” चलो चले जड़ों की ओर ” | इसमें   भाग लेने वाले सभी रचनाकारों की कविताओ को हमने एक लड़ी में पिरोकर एक भावविभोर कर देने वाली माला का निर्माण किया है | इसमें आप पढेंगे ………रश्मि प्रभा , विनीता शुक्ला ,शैल अग्रवाल , भावना सिन्हा , चन्द्रकान्ता सिवाल ,विभा रानी श्रीवास्तव , डॉली अग्रवाल ,डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,प्रकाश प्रलय , अनीता मिश्र , विवेक सिसौदिया , एकता शारदा , अल्पना हर्ष , रमा द्विवेदी ,तुकाराम वर्मा, डिंपल गौड़ ‘ अनन्या ‘ दीपिका कुमारी दीप्ति ,  रोचिका शर्मा व् वंदना बाजपेयी की कवितायें ………..








माँ और पिता हमारी जड़ें हैं

और उनसे निर्मित रिश्ते गहरी जड़ें
जड़ों की मजबूती से हम हैं
हमारा ख्याल उनका सिंचन …
पर, उन्नति के नाम पर
आधुनिकता के नाम पर
या फिर तथाकथित वर्चस्व की कल्पना में
हम अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं
दूर हो गए हैं अपने दायित्वों से

भूल गए हैं आदर देना

नहीं याद रहा
कि टहनियाँ सूखने न पाये
इसके लिए उनका जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है
अपने पौधों को सुरक्षित रखने के लिए
अपने साथ
अपनी जड़ों की मर्यादा निर्धारित करनी होती है
लेकिन हम तो एक घर की तलाश में
बेघर हो गए
खो दिया आँगन
पंछियों का निडर कलरव
रिश्तों की पुकार !

‘अहम’ दीमक बनकर जड़ों को कुतरने में लगा है
खो गई हैं दादा-दादी
नाना-नानी की कहानियाँ
जड़ों के लिए एक घेरा बना दिया है हमने
तर्पण के लिए भी वक़्त नहीं
झूठे नकली परिवेशों में हम भाग रहे
गिरने पर कोई हाथ बढ़ानेवाला नहीं
आखिर कब तक ?
स्थिति है,
सन्नाटा अन्दर हावी है ,
घड़ी की टिक – टिक…….
दिमाग के अन्दर चल रही है ।
आँखें देख रही हैं ,
…साँसें चल रही हैं
…खाना बनाया ,खाया
…महज एक रोबोट की तरह !
मोबाइल बजता है …,-
“हेलो ,…हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ……”
हँसता भी है आदमी ,प्रश्न भी करता है …
सबकुछ इक्षा के विपरीत !
……………….
अपने – पराये की पहचान गडमड हो गई है ,
रिश्तों की गरिमा !
” स्व ” के अहम् में विलीन हो गई है
……… सच पूछो,
तो हर कोई सन्नाटे में है !
……..आह !
एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,
या उसकी चिट्ठी का आना
…….एक उल्लसित आवाज़ ,
और बाहर की ओर दौड़ना ……,
सब खामोश हो गए हैं !
अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,
देखता है ,
आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !
चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?
-मोबाइल युग है !
एक वक़्त था
जब चिट्ठी आती थी
या भेजी जाती थी ,
तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,
और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे
……नशा था – शब्दों को पिरोने का !
…….अब सबके हाथ में मोबाइल है
…………पर लोग औपचारिक हो चले हैं !
……मेसेज करते नहीं ,
मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,
या टाइम नहीं होता !
फ़ोन करने में पैसे !
उठाने में कुफ्ती !
जितनी सुविधाएं उतनी दूरियाँ
समय था ……..
धूल से सने हाथ,पाँव,
माँ की आवाज़ …..
“हाथ धो लो , पाँव धो लो ”
और , उसे अनसुना करके भागना ,
गुदगुदाता था मन को …..
अब तो !माँ के सिरहाने से ,
पत्नी की हिदायत पर ,
माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !
क्षणांश को भी नहीं सोचता
” माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ……”
…….सोचने का वक़्त भी कहाँ ?
रिश्ते तो
हम दो ,हमारे दो या एक ,
या निल पर सिमट चले हैं ……
लाखों के घर के इर्द – गिर्द
-जानलेवा बम लगे हैं !
बम को फटना है हर हाल में ,
परखचे किसके होंगे
-कौन जाने !
ओह !गला सूख रहा है ………….
भय से या – पानी का स्रोत सूख चला है ?
सन्नाटा है रात का ?
या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?
कौन देगा जवाब ?
कोई है ?
अरे कोई है ?
जो कहे – चलो चलें अपनी जड़ो की ओर …

रश्मि प्रभा











विनीता शुक्ला


जीवन की संध्या में
एकाकीपन ढोते
हँसते हँसते यूँ ही
दो आंसू रो देते
सघन झुर्रियों में
अवसादों की छाया है
बोझिल सी सांसों में
जीने की माया है
तिनके तिनके बिखरे
नीड़ कहीं छूट गया
सपने बुनते- बुनते
हर सपना रूठ गया
सुधियों के स्पंदन ही
दिल की धड़कन हैं.
इनकी बेजारी से
खुशियों की अनबन है
दीन हीन वृद्ध यहाँ हैं
सुख दुःख के साथी
अस्त व्यस्त भेस,
इन्हें बेतरतीबी भाती
चरमरा रहा हड्डी का
जर्जर ढांचा है
चांदी से केशों ने
सब विषाद बांचा है
छलिया रिश्तों से टूटा
जुड़ाव इनका है
वृद्धाश्रम ही अब
अंतिम पड़ाव इनका है



विनीता शुक्ला 


Shail Agrawal


जड़ों के बिना जीवन नहीं, फलना फूलना नहीं
जानें जबतक अक्सर जड़ें सूख जाती हैं
एक बार फिर से जीना सीखा है मां-बाप के जाने के बाद
एक एक बात में याद बनकर वे रहते सदा मेरे साथ।।
निरंतर
बूढ़ी कांपती आवाज
बुलाती थी रोज
दूर बहुत दूर से
और रोज ही चुपचाप…
मन सात समंदर उड़ता
चरणों तक हो आता था
बहुत मन दुखाया
पर तुमने सदा गले लगाया
धूप छांव सा यह रिश्ता
आज भी तो
छतरी–सा ही तना
आशीष, एक याद बना
निरंतर छांव देता…
तुम थे, हो मेरे साथ !
-शैल अग्रवाल
मां,,,,,,,
सूनो ना
सूनो ना मां
कहां हो तुम
आज स्कूल में ,,,,,,,,,
स्कुल से वापस आते ही खोजती है बेटी मुझको
और —
फिर शुरू होती है
घंटो तक ना खत्म होने वा्ली
उसके दोस्तों की मीठी मीठी बात
दरअसल , बच्चे चाहते हैं करना
हमसे अपनी भावनाओं का सम्प्रेषण
रोज रोज
व्यस्त दिनचर्या में
हमारे पास भी
कहां होता इतना वक्त
उसकी नादान बातों के लिये
भेज देती हूं
दादाजी के पास
जी हां ! दादाजी
जिनके पास है
ज्ञान और अनुभव का है विशाल भंडार
या यूं कहें
दादाजी हैं विकिपीडीया!
गणित का कोई कठिन प्रश्न हो
या दोस्तों के संग
लड़ाई झगड़े के मसले
दादाजी धैर्य पूर्वक सुनते हैं
और
ढुंढ ही लेते हैं सभी समस्याओं का हल
यूं भी
आधुनिक जीवन शैली ने
बचपन की उम्र छोटी कर रखी है
बच्चे अब
गिल्ली – डंडा या
गुड्डे- गुड़ियों का खेल नही खेलते
बगिचों मे तितलियां नहीं पकड़ते
पतंगें नही उड़ाते
बंद कमरों मे
नेट सर्फिंग करते
बच्चे कहां रह जाते हैं
बहुत जल्दी व्यस्क हो जाते हैं सब के सब
लेकिन दादाजी के होने से
उन्हें अकेलापन मह्सूस नही हो्ता
बातों बातों में
किस्से कहानीयों में दादाजी
सरलता से बो देते हैं
ज्ञान – विज़ान के गुढ रहस्य
होमियोपैथ की दवा जैसी
धीरे धीरे गहरे तक
असर करती हैं उनकी बातें
विचारों के प्रवाह से
दो पीढ़ियों के बीच
बनता हंसता मुस्कुराता
खूबसूरत जीवंत रिश्ता
रिटारमेंट के बाद
सत्तर को छूते
सुबह सुबह
फूल पत्तियों से बातें करने के बाद
हमेशा मायूस रहने वाले दादाजी
को तो जैसे मिला हो नया जीवन
अब वो भी
दादी के बगैर खुद को कभी
तन्हा मह्सूस नही करते
मेरी बेटी है ना उनकी परम सखा
कभी कभी
मुझे महसूस होता है कि
मै जहां चाइल्ड केयरिंग हूं
दादाजी चाइल्ड लविंग हैं
उनके होने से
सुरक्षित बचपन सुनहरा जीवन का
मुझमे भी
बना रहता है भरोसा
घर भी लगता है भरा पूरा
दादा जी का ना होना
घातक है समाज के लिये !!
भावना सिन्हा !!



इससे पहले की नींव हिलने लगे *
मकां गिरने लगे * आओ चले जड़ों की ओर *
हमारे बुजर्गवार अपने ही घर में अपनों की उपेक्षाओं का शिकार होते ,जीवन के आखरी पढ़ाव में जहां उन्हें अधिक प्रेम व् स्नेह की जरूरत होती है -वही इन्हें अपमान व तिरस्कार सहना पड़ता है । आओ अपनी मानव संवदेनाओं के उर में जाकर इन्हें सुने इनको समझे सराहे सम्मान दे ।
सहते है सब चुप चाप मगर
कुछ कहते नही ,
रोते है दिल ही दिल में इन्हें
चाहिये स्नेह अपार
” ये हैं हमारे बुजर्गवार “
क्यूं रहते हो अपनी धुन में
इनकी धुन भी पकड़ों तुम ,
गाओ संग में गीत नए तुम
इनमे छुपा है गीता सार
” ये हैं हमारे बुजर्गवार “
गूढ़ ज्ञान की बात कहे ये
समझ सको तो समझो तुम,
इनके अनुभव हैं जीवन का सार
” ये है बुजर्गवार ” 
चंद्र कांता सिवाल
* चंद्रेश *
विभा रानी श्रीवास्तव's photo.
श्राद्ध
श्रद्धा से दान
जीवित अवस्था में ही
मरने के बाद 
क्या कौवा क्या गरीब
बुजुर्ग तक पहुंचाएंगे
विभारानी श्रीवास्तव
 भारतीय संस्कृति में माँ बाप को भगवान माना जाता है | लेकिन आज इस देश में व्रद्ध आश्रम बन रहे जहाँ बूढ़े माँ बाप को छोड़ा जा रहा है | क्या आज के पढ़े लिखे युवक इतने नीचे गिर चुके है की वो माँ बाप को बोझ समझने लगे है | वो ये क्यों भूल जाते है आज अगर उनका। है तो कल किसी। और का होगा ,उनके साथ भी ऐसा हो सकता है | क्या माँ बाप ने इसलिए उनका पालन पोषण किया उन्हें पढ़ाया उन्हें हर सुविधा प्रदान की ! की जब माँ बाप को उनकी जरुरत पड़े तो उन्हें व्रद्ध आश्रम में भेज दिया जाए |
बूढ़े माँ बाप को कभी ना। सताना ,
वो तो इस उम्र में भूखे है प्यार के
उनके प्यार को ना दौलत से तोलना
थोडा सा अपनापन देकर देखो
खुद को तुम पे वार देंगे
मौत भी आई बीच
तो
खुद को मार देंगे ||
डॉली अग्रवाल 
वक़्त भी कैसा बदल गया है देखो तो,
बुज़ुर्ग भी देखो घर में नज़र नहीं आते।
अपना घर, अपने बच्चे ही दिखते हैं,
होते न गर माँ-बाप, कहाँ से हम आते।
उन्हीं घरों में लगते हैं ताले – कुंडे
जिन घरों में बुज़ुर्ग रह नहीं पाते।
उन बच्चों का दुःख जाकर पूछे तो कोई
दादी-नानी से कहानी जो सुन नहीं पाते।
उन्हीं घरों में सूनापन है बिखरा अब
जहाँ नहीं है आशीर्वाद अपने बुज़ुर्गों का।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
–डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई–
Prakash Pralay
शब्दिका,,,
*************
नए 
युग का 
कलियुगी 
किस्सा ,,,,,,
अदालत में
बेटा
मांग रहा,
पितासे
अपना हिस्सा,,,,
प्रकाश प्रलय
******************
जीते जी तो मार डाला,अपने चीजो के लिये भी तरसे,

अपने घर मे बेगाने हुए,सांस-सांस बोझ हुयी खाने-खाने को तरसे!!
जिस हाथों से बडा किया,उसी ने हाथ पकड घर से निकाला!!
जीते जी ना तृप्त किया,मार के अब दान करोगे,
छोडो ये नाटक तुम कुपुत्र हो जाओ,हम मात-पिता ही रहेन्गे!!
मरकर भी आशीष हमारी सदा फूलो-फलो!!
जडो को काट कर क्या,जी सकोगे,
मेरे वजुद का हिस्सा हो,हमे मिटा ना सकोगे,मेरी लहु ही तुम्हारे रगो में दौडती है सांस बनकर!!
एक दिन येसा आयेगा जब तुम भी बुडे हो जाओगे,तरसोगे अपनो के लिये,
कोइ ना अपना होगा,तेरी करनी का फल तुझे भी मिलेगा!!
हम तो मर जायेगे ,क्या तु अमर रह पायेगा!!

!अनिता मिश्रा!!

कभी सुख चैन न दीन्हा,
कभी रोटी नहीं दीन्ही
नहीं दीं,
एक पल की खुशियाॅ भी ,
रहीं पलकें सदा भीनीं,
गला रहता भरा उनका ,
सदा ही ऑखें बोझिल थीं ,
नहीं ममता की छाया का ,
नहीं बाबा के किस्सों का
नहीं अब मोल था बाकी ,
सभी अपनों के रिश्तों का
चले गए हो दुःखित वे भी ,
जिन्होंने जग में लाया था ,
रहे भूखे दिया उनको ,
कमाकर खुद खिलाया था
करें सब आरती उनकी ,
करें उनका नदी तर्पण
खिलाते काक को भोजन,
करें विप्रों को धन अर्पण
भला हो अपनो को सुख हो ,
मेरी काया फले फूले ।
करें तर्पण जिन्हें तन से ,
मन से उन्हें भूले ।।
विनय सिसोदिया 
घर में बुजुर्ग होना बड़ी किस्मत की बात है
उनके आशीर्वाद में ही खुशियों की सौगात है
उनकी छत्र छाया में जीवन बिताना
उस अद्भुत शक्ति की अपनी करामात है
जहां आदर हो मात पिता का
वहां समृद्धि का बसेरा है
उनकी करनी का ही मानव
इस जहां में फेरा है
जब कभी दिल दुखे उनका हमसे
मानना ईश्वर भी रुठ गया
तजुर्बे और समझदारी का
हमसे नाता टूट गया
करनी गर सफल करनी है तो
न दुखाना कभी उनका मन
पैसा तो कमा लेंगे
पा न सकेंगे अन्तर्धन
माता पिता की सेवा में
जो अपना जीवन बितायेगा
वो प्राणी इस दुनिया में
दौलतमंद कहलायेगा
एकता सारदा

पथराई आखे
रास्ता देखती मां
बुढे पिता की
लाठी भी अब
कमजोर हो चली है
क्यों हम अपने
पथ से भटक
सस्कृंति को भुल
संस्कारों को ताक पर रख
देते दुसरों की दुहाई….
पर क्या थोड़ी
बहुत शुरूआत हमने
अपने घरों से नहीं कि है

अल्पना हर्ष 
अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर कुछ हाइकु
1 -बूढ़ी आँखों से
घन घन बरसे
पूत न आवै ।
2-वृद्धाश्रम न
मजबूर माँ -बाप
निज घर में ।
3 -कौन सुनेगा
वृद्धों की फ़रियाद
कानून है क्या ?
4 – जवानी ख़त्म
बूढी देह का मोल
हो जाता कम ।
5 – आश्रय नहीं
घर में आतंकित
वृद्ध -जीवन ।
6 – घिसा टायर
आदमी का बुढ़ापा
ख़ौफ़ छा जाता ।
7- बैठी उदास
रोटी की प्रतीक्षा में
बूढी काकी माँ ।
डॉ रमा द्विवेदी 2
Tukaram Verma
चार दोहे:-
तथ्य जानने के लिए, यही सोच है ठीक|
शिष्यों जैसा बैठिये, वृद्धों के नजदीक||
फूल-फलों से बाग की, ज्यों होती पहचान|
त्यों मानव विज्ञान की, संताने प्रतिमान||
वृद्ध विश्व के ग्रन्थ हैं, अनुभव रूपी कोष|
इनसे मृदु बातें करें, यदि चाहें सन्तोष ||
हँसी-ख़ुशी के स्रोत ज्यों, बालक प्रेम प्रतीक|
त्यों आयोजन वे सफल, जिनमें वृद्ध शरीक||
तुकाराम वर्मा 
बूढ़े हो रहे….
जवान
हो रहे हैं बच्चे
बूढ़े हो रहे हैं
माँ-बाप
देख रहे हैं
अपनी जवानी को
अपने बच्चों में,
बच्चे
क्यों नहीं
देख पाते उनमें
अपना आने वाला बुढ़ापा!
माँ-बाप
तलाश रहे हैं उनमें
अपने बुढ़ापे को
शांति से जी पाने का सुख
पर,कितनों को
मिल पाता है ये सुख
और कितनों का छीन
ले जाता है सुख!
डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई~~
हम वृद्धों को दें सम्मान
हमारे घर के वे होते शान
कमजोर भले है हड्डीयाँ
पर देते हैं हमें सच्चा ज्ञान
-दीपिका
माँ की आँखों में बहता 
दरिया प्रेम का 
मुझे सुदूर 
कहीं ले जाता है
जहाँ मैं “मैं “
नहीं रहती
रहती है तो
केवल
माँ की वही
लाडली बेटी
बाबा की कोरी आँखें
याद दिलाती हैं
वही पल
जब उनके काँधे बैठ
मैंने दुनिया को जानना सीखा
माँ का वो लहराता सा आँचल
जो आज भी मुझे
हर मुश्किल से
बचा लिया करता है !
__डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘








आप ठीक तो हैं ना बाबा !
बचपन से ही कुछ करने की चाह,
हर क्षेत्र में प्रथम आया
अब यह बन गयी थी आदत मेरी
हर सफलता पर बाबा मेरी पीठ ठोकते
बचपन बीता,जवानी बीती
मैं बढ़ता गया आगे
भाग रहा था मैं वक़्त से आगे
नहीं देखना चाहता था मुङ कर पीछे
अब रहता हूँ विदेश में ,
मिलता हूँ छुट्टी के दिन अपने परिवार से
पैसा, एशो-आराम सब है मेरे पास
नहीं है अब रातों की नींद
खरीदना चाहता हूँ वह भी
अपनी दौलत से
मिलती है कुछ क्षणों के लिए
किंतु दवाओं से
कभी-कभी बाबा का फोन आता है मेरे पास
आदतन, स्वतः ही निकल जाता है मेरे मुँह से
” सॉरी,आई एम बिजी, कॉल यू लेटर “
एक दिन देखता हूँ, सड़क पर
पड़ा है बूढ़ा ,घायल,
नज़रअंदाज करते हैं सब ,और निकल जाते हैं आगे
मैं रुकता हूँ, उसे अस्पताल ले जाता हूँ
इलाज करवाता हूँ और घर पहुँचाता हूँ
उसके बेटे देते हैं मुझे धन्यवाद
उस रात मैं सोता हूँ चैन की नींद
और देखता हूँ स्वप्न
घबरा कर उठ जाता हूँ
करता हूँ एक फोन बाबा को
और पूछता हूँ
“आप ठीक तो हैं न बाबा ? “
दूसरी तरफ से सुनाई देती है
भर्राई हुई आवाज़
“हाँ बेटा , तुम कैसे हो? “
करता हूँ पूरे एक घंटा बात
और मिलता है अपार सुख
अगली सुबह होती है
बड़ी खुशनुमा, शांत, सुकून भरी
चाहता हूँ भूल जाऊं कहना
“सॉरी , आई एम बिजी “
लग जाऊँ गले बाबा के और
ले लूँ आशीर्वाद !
रोचिका शर्मा ,चेन्नई




रोटी की तलाश में घर से दूर गए लोग
हर रोज देते हैं दिलासा खुद को
बस कुछ समय और
कि एक दिन लौट जायेंगे घर की ओर
गाते हुए राग मल्हार 
जैसे लौट आते है पखेरू
अपने घोंसलों में मीलों उड़ने के बाद

.
.
.
पर घर वापस आना
सदा घर वापस आना नहीं होता………..
कभी-कभी समय की चाक पर पक कर
रिश्ते ले चुके होते है
कोई दूसरा आकार
या उम्र के साथ हो जाता है दृष्टि भ्रम
दूर से जो नज़र आते थे पास
अब पास से नज़र आते हैं दूर
कभी- कभी टूट चुका होता है
खुद काही कोई कोना
चटके दरके कई टुकड़ों में
कहाँ आ पाते हैं साबुत
..
.
या कभी -कभी जिनकी तलाश में
आते हैं लौटकर
ढूढ़ते हैं जिन्हें बदहवास
वो लोरियां छुप गयी होती हैं
फ्रेम में जड़ी तस्वीर पर चढ़ी माला में
या दिन -रात खटकती हुई लाठी
मात्र रह जाती है टंग कर अलगनी पर
अनछुई सी
जब भी घर से बाहर निकलों
येसोच लेना
कि घर वापस आना
सदा घर वापास आना नही होता………..
वंदना बाजपेयी

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