सपेरे की बिटिया

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कभी पढ़ने आती थी हमारे स्कूल में,
सपेरो की बस्ती से—————
एक सपेरे की बिटिया।
वे तमाम किस्से सुनाती थी साँपो के अक्सर,
वे खुद भी साँपो से खेलना जानती थी,
पर वे मासुम नही जानती थी,
इंसानी साँपो का जहर,


एक दिन———–
उसी मासूम की नग्न लाश,
उसकी बस्ती से पहले——–
पड़ने वाले एक झुरमुट में पाई गई,
मै सिहर गया!
उस नग्न मासूम की लाश देख,
मै अब भी इतने सालो बाद भी—–
अपनी उस मासूम छात्रा को भूल नही पाता,
हर नाग पंचमी को वे मेरी जेहन मे
उभर आती है,
और पुछती है मुझसे कि बताईये न सर,
कि कैसे चुक गई,
अपने पुरे बदन पे रेंगे हुये नाखूनी  साँपो से,
एक सपेरे की बिटिया।
—-रंगनाथ द्विवेदी।
एडवोकेट कालोनी,मियाँपुर
जौनपुर।






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