बेबस बुढापा

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उमा के कॉलेज की छुट्टी आज साढे चार बजे ही हो गई। वैसे तो कॉलेज का समय एक से छः बजे तक है, परन्तु आज कॉलेज के ट्रस्टी दीनानाथ जी का आकस्मिक निधन हो जाने की वजह से छुट्टी डेढ घण्टा पहले ही कर दी गई। यूं तो यह खबर बहुत दुःखद थी, पर उमा यह सोचकर काफी खुश थी कि चलो कम-से-कम आज का यह डेढ-दो घण्टा वह अपने दद्दू के साथ बिता पायेगी। रोज तो इतनी भागमभाग रहती है कि दस मिनट भी उनके पास बैठ पाने की फुर्सत नहीं मिल पाती। मम्मी, पापा, मैं सब कितना बिजी रहते हैं कि दद्दू के लिये जरा भी वक्त नहीं निकाल पाते। दद्दू अकेले बहुत बोर हो जाते होंग। पर करें भी तो क्या? हम सब की भी तो कितनी मजबूरियां हैं। शहरों में वक्त तो इस तरह कम पडता जा रहा है जिस तरह सहरा में पानी। एक बडा शहर कितना वक्त छीन लेता है ना हमसे….. जो वक्त हमारे अपनों के लिए होता है…. और वो इंसान कितना अकेला पड जाता है जो इस शहरी भागमभाग का हिस्सा नहीं है…?

हम भी तो कहां निकाल पाते हैं वक्त दद्दू के लिये! पर दद्दू ने आज तक एक बार भी गिला शिकवा नहीं किया…। घर में घुसते या फिर घर से निकलते वक्त दो मिनिट मुश्किल से बरामदे में बैठे दद्दू से बतिया पाते हैं, वो तो कभी-कभी…. या फिर शाम को खाना देते वक्त पांच मिनिट उनके पास बैठ पाती हूं…। दद्दू खाना भी तो हमारे साथ बैठकर खाने की बजाय अपने कमरे में ही खाते हैं…। सोचते-सोचते उमा ने जाने कब स्कूटी की रफ्तार बढा दी। कॉलेज से शहर के बीच का लगभग सात किलोमीटर का रास्ता उसने रोज की अपेक्षा आज कुछ जल्दी तय कर लिया। बाजार आते ही उसने एकदम से स्कूटी को ब्रेक लगाये जैसे अचानक कुछ याद आया हो। स्कूटी साइड में खडी कर दुकान पर चढते-चढते ही सामान ऑर्डर करने लगी। आज उसने दुकान पर पहले से खडे लोगों की जरा भी परवाह न की। वह बिना रुके एक ही स्पीड से सामान ऑर्डर करती गई। अंकल बोरबोन, मोनाको, पॉपकोर्न, चिवडा, नमकीन बीकाजी भुजिया व मुनक्का दीजिये….प्लीज जल्दी कीजिये। दुकानदार मुस्कराकर कहने लगा, ‘‘लगता है बेबी जी, आज बहुत जल्दी में हो।’’ ‘‘हां अंकल! आप प्लीज जल्दी कीजिये। सिर्फ 5 ही मिनिट में वह स्कूटी पुनः स्टार्ट कर घर की ओर चल पडी। आज वह एक भी मिनिट व्यर्थ नहीं गंवाना चाहती थी, आज उसको एक चिंता निरन्तर सता रही थी, ‘‘पता नहीं दद्दू कैसे होंगे…! बुखार उतरा होगा या नहीं? कुछ खाया भी होगा कि नहीं…! शाम करीबन पांच बजे एक प्लेट में बीकाजी भुजिया, बोरबोन बिस्किट व बुखार की गोली रखकर पानी का ग्लास साथ में ले वह दद्दू के कमरे में दाखिल होते हुए दरवाजे से ही दद्दू को प्यार भरी मीठी झिडकी देते हुए कहने लगी, ‘‘दद्दू आज शाम आप टहलने नहीं जायेंगे। समझे ना! आपको बुखार है और यह आपने किसी को बताया तक नहीं। अगर आज मुझे पता न चलता तो आप किसी को बताते भी नहीं, है ना…! और तो और अभी भी आप टहलने जाते हैं…जैसे दो दिन टहलने ना गये तो पार्क पर कोई आफत आ जायेगी…।’’ कहते-कहते उमा ने पानी का ग्लास व प्लेट सेंटर टेबल पर रख टेबल को दद्दू के पास खिसका दिया, ‘‘आप नाश्ता लेकर यह बुखार की गोली लें, तब तक मैं आफ लिए गरमागर्म मसालेवाली चाय बनाकर लाती हूं।’’ अपनी बात खत्म करने से पहले ही उमा फुर्ती से किचन की तरफ चल पडी।
देविकाप्रसाद जी ने मन ही मन सोचा, आफत तो आ जायेगी बेटा….पर पार्क पर नहीं, इस घर पर….अगर मैं बहू को इस वक्त घर पर दिखाई दिया तो कोई न कोई आफत तो जरूर आ जायेगी….। बहू के आने से पहले-पहले घर छोड दूं तो अच्छा है…..नहीं तो वो देखते ही दो-चार ताने तो जरूर मारेगी….। देविकाप्रसाद जी को एक-एक करके ज्योति द्वारा सुनाये जानेवाले ताने याद आने लगे जो गत आठ महीनों से वो अपनी इकलौती बहू ज्योति से सुनते आ रहे हैं। बहू के इस कडवे व्यवहार के स्मरण भर से उनका मन अंदर तक कसमसा उठा और बिना कुछ खाये ही वे प्लेट में रखी कडवी गोली उठाकर एक ही झटके से निगल गये। यूं तो दवा निगलना उनको जहर निगलने से कम नहीं लगता, पर उनके प्रति बहू की रग-रग में भरी नफरत और कटुता के ख्याल भर से गोली की कडवाहट को कम कर दिया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर ज्योति उन्हें देखते ही अपना आपा खोकर अनाप-शनाप कुछ भी क्यों बोलने लगती है…! मैं कुछ काम पूछता हूं तो बताती नहीं है, बिना बताये करूं तो उसे सुहाता नहीं है….आखिर क्या करूं? क्या मैं इन सब पर मात्र् बोझ बनकर रह गया हूं? उनकी नजर घडी पर पडी, पांच बजकर आठ मिनट हो चुके थे, ‘अब पांच-दस मिनिट में बहू आती ही होगी, मुझे निकल लेना चाहिए। कौन सी अब टांगों में जान बची है, पर मुझे घर पर देखकर ख्वामख्वाह बहू का खून जलेगा, जब-जब मैं बहू को घर पर मिला उसने कुछ न कुछ जरूर सुनाया। और कुछ नहीं तो यह कहकर पंखा ही बंद करेगी कि ‘बिजली वाले क्या सगे लगते हैं! कितना बिल आता है, जरा खबर भी है…! शहरों के खर्च कितनी मुश्किल से चलते हैं आपको क्या पता! इनसे तो बुड्ढे-बुड्ढे लोग घरों का काम निपटाते हैं, पर यह लाट साहब तो पलंग तोडने से ही बाज नहीं आते।’ और भी जाने क्या-क्या सुनने को मिलता है, पर क्या करूं? कोई उपाय भी तो नहीं।’ शुक्र है कि बहू ने अब तक बातों के घाव ही दिये हैं, कहीं किसी रोज लातों के….नहीं-नहीं, हे भगवान्! ऐसा दिन आने से पहले ही मुझे उठा लेना….।’ विचारों की उथल- पुथल में जाने कब सवा पांच बज गये, पुनः नजर घडी की ओर दौडायी और बोल पडे, ‘‘हे राम अब!’’ तब तक उमा चाय लेकर आ गई बोली, ‘‘क्या हुआ दद्दू अब!’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा!’’ कहकर देविका प्रसाद जी चुप हो गये। चुप न होते तो कहते भी क्या? उमा ने चाय का कप दद्दू को पकडाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ दद्दू, आपने बिस्किट क्यों नहीं खाये…? आफ फेवरिट हैं ना!’’ ‘‘हां बेटा! पर मन नहीं कर रहा।’’ ‘‘ओह दद्दू! आफ लिए ही तो लाई हूं। खा लो न प्लीज!’’ ‘‘नहीं बेटा, बस।’’ ‘‘अच्छा तो चाय के साथ दो ही ले लो, सुबह से कुछ नहीं खाया है आपने। सुबह जो एप्पल, चीकू, बिस्किट मैंने आफ लिए रखे थे, वो भी यूं के यूं ही रखे हैं…।’’ कहते हुए उमा ने बिस्किट चाय में भिगोकर जबरदस्ती दद्दू के मुंह में डाल दिया। पोती के निर्मल स्नेह ने देविकाप्रसाद जी का मन आर्द्र कर दिया। परिणामस्वरूप दो अश्रुकण मोतियों की तरह लुढककर दद्दू की आँखों के किनारे आ गये, जैसे किसी जौहरी ने मोतियों की थैली में से दो सच्चे मोती छांटकर अलग रख लिये हों। पोती के सिर पर स्नेह का हाथ रखकर वो इस कदर भाव विह्वल हो उठे कि होठ कंफपाने लगे व बिस्किट हलक में ही अटक गया। उमा ने अपनी हथेलियों से दद्दू की आँख की कोरी पर आये आँसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘‘दद्दू आप भी ना एकदम बच्चे हो…लो ये दो बिस्किट और खा लो प्लीज! मेरे प्यारे दद्दू!’’ पोती की मनुहार देविका प्रसाद जी टाल न पाये, दो बिस्किट और खा ही लिये।
इतने में स्कूटी का हॉर्न बजा। उमा यह कहते हुए सरपट भागी, ‘‘लगता है मम्मा आ गई, मैं गेट खोलती हूं।’’ देविकाप्रसाद जी ने चाय पी ना पी, चप्पल पहनी और कमरे से निकल लिये। बहू ने बिना कुछ बोले ही उनकी तरफ ऐसी तीक्ष्ण दृष्टि से देखा कि देविकाप्रसाद जी को लगा मानो किसी ने एक साथ सौ कटारी कलेजे में घोंप दी हो। वो नजर झुकाकर लडखडाते हुए घर से बाहर निकलने लगे।
उमा घर में घुसती हुई माँ से कहती रही, ‘‘मम्मा देखो ना, दद्दू की तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं है, बुखार से तप रहे हैं, फिर भी टहलने जा रहे हैं। आप ही कुछ समझाओ ना दद्दू को।’’ ज्योति उमा की बात को अनसुना कर ऊपर अपने कमरे में चली गई।
देविकाप्रसाद जी धीरे-धीरे मेनगेट के बाहर हो लिये। उमा ने मुडकर पुकारा, ‘‘दद्दू, प्लीज रुक जाओ। आप आज टहलने मत जाओ…आप आराम करो ना प्लीज!’’ पर दद्दू उमा की बात को अनसुना कर आगे बढते गये। उमा को भी लगा, अब दद्दू नहीं मानेंगे तो वह अनमनी-सी गेट बंद कर मुडने लगी कि धडाम की आवाज सुनाई दी, वो फुर्ती से वापस पलटी, देखती है दद्दू गिर पडे। वो अवाक रह गई, एक बार तो समझ में नहीं आया कि क्या करे। फिर झट से गेट खोल बाहर दौडी, दद्दू को उठाने लगी, पर उठा नहीं पाई। वो जोर-जोर से मम्मा-मम्मा पुकारने लगी। उसकी आवाज सुनकर पडोसवाली सुमन आंटी बाहर आ गई, माजरा समझ वो तुरन्त उमा की मदद करने आ पहुंची। दोनों देविकाप्रसाद जी को सहारा देकर घर ले आई, पलंग पर लिटाया। देविका प्रसाद जी अर्द्ध बेहोशी की स्थिति में थे। गिरने से उनके सिर में मामूली-सी चोट आ गई थी। उसमें से लहू की हल्की-पतली धार निकल रही थी। उमा दौड कर फर्स्ट एड बॉक्स ले आई, डेटोल से दद्दू की चोट साफ की, गोज पीसकर बिटाडीन लोशन लगाकर दद्दू के सिर पर पट्टी की। सुमन आंटी दद्दू की हथेलियों, पगतलियों को बारी-बारी मसल रही थी। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा, आज अभी तक मम्मी नहीं आई क्या?’’ ‘‘नहीं आंटी, वो आ गई, ऊपर बाथरूम में हैं शायद!’’ ‘‘अच्छा बेटा, अब मैं चलती हूं। घर खुला पडा है व तेरे अंकल के आने का टाईम भी हो गया। कोई काम हो तो बुला लेना, और हां तू बाऊ जी को हल्दी का दूध दे देना गरम करके….आराम मिलेगा।’’ कहते हुए उन्होंने विदा ली। घर में इतनी आवाजों के बावजूद जब ज्योति बहुत देर तक नीचे नहीं आई तो उमा यह कहकर ऊपर चली गई, ‘‘दद्दू मैं एक सैकण्ड में आई। मैं मम्मा को बुलाकर लाती हूं। शायद उनका ए.सी. चल रहा होगा तो उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया होगा।’’
उमा ने एक साँस में सीढयां चढ लीं। चार बार नोक करने पर मम्मा-मम्मा पुकारने पर भी जब ज्योति ने दरवाजा नहीं खोला तो उमा ने कमरे के बाहर लगी डोर बेल बजा दी। दरवाजे खोलते ही ज्योति बरस पडी, ‘‘क्या है?’’ ‘‘मम्मा, नीचे चलो, दद्दू गिर गये हैं।’’ ‘‘गिर गये तो मैं क्या करूं! बुढापे में तनक-तनक करेंगे तो ऐसा ही होगा…. जरा भी बुढापे का लिहाज नहीं इस आदमी को। जीना हराम कर रखा है मेरा तो।’’ माँ के इस तरह से अनाप-शनाप बोलने पर हैरान उमा माँ से चुप हो जाने का निवेदन करने लगी, ‘‘मम्मा, प्लीज चुप हो जाओ। दद्दू सुन लेंगे, आप ये सब क्या बोल रही हो? दद्दू टहलने जा रहे थे, कमजोरी या चक्कर आने से गिर गये होंगे। आपको सुबह भी और अभी-अभी मैंने बताया तो था कि दद्दू को बुखार है।’’
उमा का वाक्य खत्म होते ही ज्योति फिर चीख पडी, ‘‘बुखार है तो लाट साहब जा ही क्यों रहे थे? किसे टाईम दे रखा था? घर में कभी पाव आलू भी न लाकर दिये। चौराहे पर बैठकर ताश खेलने की तबीयत है, घर में कांटे चुभते हैं इनको। तू जा, बहस मत कर मुझसे। मैं कोई मशीन नहीं हूं, दिनभर स्कूल में मगजमारी करूं, घर के काम भी निपटाऊं, ऊपर से इन नखरेजादों के नखरे भी उठाऊं’’ अपने वाक्य को खत्म करने से पहले ज्योति ने दरवाजा वापस बंद कर लिया।
उमा अनमनी-सी सीढयां उतरने लगीं, जितनी फुर्ती से उसने सीढयां चढीं, उतनी ही धीमी गति से वापस वो उतर रही थी। उसे लगा जैसे किसी ने उसके पांवों की शक्ति निचोड ली हो। यह सब कुछ उसकी समझ से बाहर था, उसका कलेजा धक- धक कर रहा था। उसने मन-ही-मन भगवान् से प्रार्थना की, ‘हे भगवान! दद्दू ने यह सब ना सुना हो, वरना वे क्या सोचेंगे। अपने ही बेटे के घर में उनके साथ ऐसा व्यवहार…!’’
देविकाप्रसाद जी ने अर्द्धबेहोशी की अवस्था में भी सब कुछ सुन लिया। ज्योति का कमरा सीढयां चढते ही है देविकाप्रसाद जी के कमरे का वेन्टीलेशन, सीढयों में खुलता है। पर देविकाप्रसाद जी के लिए ज्येाति का यह रूप नया नहीं था। ज्योति का यह रूप नया तो उमा के लिए था। उमा ने मम्मा का यह रूप पहली बार देखा। वो भी किसी गैर के लिए नहीं, इसी घर के सबसे बुजुर्ग व सम्माननीय व्यक्ति के लिए। उमा हैरान थी, परेशान थी। यह सब देखकर, यह सब सुनकर। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वो अब दद्दू से नजर कैसे मिलाये। उफ्फ यह सब क्या! कोचिंग, डांस क्लास, कॉलेज इन सब में वो इतना व्यस्त थी कि उसका घर पर समय कम ही बीतता। वह पापा के साथ घर से निकलती तो पापा के आने से थोडा पहले ही घर पहुंचती। पापा की पोस्टिंग शहर से 70 कि.मी. दूर होने की वजह से आठ घण्टे की ड्यूटी के अलावा चार घण्टे अप-डाउन के लग जाते थे। सुबह के आठ बजे घर से निकले पापा शाम आठ बजे ही घर पहुंच पाते थे। दद्दू भी तो पापा के आने के बाद ही घर आते हैं। दद्दू अभी आठ महीनों से ही तो हमारे साथ रह रहे हैं। वरन् जब तक बाई जी (दादी) जिंदा थी, तब तक उन्होंने दद्दू के लिए किसी को एक कप चाय बनाने तक की भी नौबत नहीं आने दी। दद्दू प्रधानाध्यापक पद से रिटायर्ड हैं। पेंशन भी अच्छी-खासी आती है। पापा-मम्मा को बाई जी, दद्दू पर एक पैसा खर्च करने की नौबत नहीं आई। उल्टा पापा, मम्मा को जब-जब एकमुश्त रुपयों की जरूरत महसूस हुई, तब-तब दद्दू ने एकमुश्त रुपये दिये। अभी हाल ही में तो विकास को कोटा शिफ्ट कराने के लिए कोचिंग की डेढ लाख की फीस दद्दू ने ही भरी। फिर मम्मी का व्यवहार दद्दू के प्रति इतना कटु क्यों है? आज आठ महीनों का वो हर पल उमा के सामने चलचित्र्-सा घूमने लगा, जो-जो उसने दद्दू के साथ देखा। अच्छा तो दद्दू इसलिए पापा के साथ ही घर से निकल लेते हैं, जो पापा के लौटने के बाद ही वापस घर पर आते हैं। दिन में घर में आते भी हैं तो तब तक घर पर रहते हैं जब तक मम्मा घर पर नहीं रहती। मम्मा के आते ही वो फिर से बाहर निकल लेते हैं और मैं पगली सोचती रही कि दद्दू का घर पर मन नहीं लगता, इसलिये वो बोरियत से बचने के लिए बाहर रहते हैं। ‘ओह गॉड! इतना सब कुछ, क्या पापा यह सब जानते हैं? नहीं, पापा नहीं जानते होंगे। वरना वो मम्मा को ऐसा कुछ नहीं करने देते। पापा को कुछ तो बताना पडेगा, अनमनी-सी उमा विचारों में खोई कब वापस दद्दू के कमरे में आकर कुर्सी पर बैठ गई, स्वयं उसे भी याद न रहा। देविकाप्रसाद जी पोती की चिंता को भांप रहे थे। वो जागते हुए भी सोने का बहाना करते रहे ताकि उमा को यह न लगे कि उन्होंने सब कुछ सुन लिया।
सुबह आठ बजे कोचिंग के लिए जाते हुए जब उमा ने दद्दू को बरामदे में बैठे देखा तो यूं ही पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ दद्दू, आप आप टहलने नहीं गये! आफ बिना आफ दोस्तों का मन कैसे लगेगा?’’ और हँसते हुए जैसे ही वो दद्दू से लिपटी, एकाएक चौंक उठी, ‘‘ओह दद्दू! आपको तो तेज बुखार है, शरीर गर्म है। कब से है बुखार! आपने पापा को बताया क्यों नहीं?’’ उमा भागते हुए वापस घर में गई, माँ से बोली, ‘‘मम्मा दद्दू को तेज बुखार है। आज आप छुट्टी ले लो ना।’’ ज्योति ने साफ मना कर दिया, ‘‘मैं छुट्टी नहीं ले सकती। अभी प्रिंसीपल बहुत स्ट्रिक्ट है।’’ उमा ने फिर से कहा, ‘‘मम्मी ले लो ना प्लीज। दद्दू इस हालत में दिनभर अकेले कैसे रहेंगे?’’ ज्योति ने फिर वही जवाब दोहराया, ‘‘कहा ना, नहीं ले सकती। तुम बार-बार क्यों कह रही हो?’’ ज्योति ने इतनी स्पष्टता से मना किया कि उमा फिर आगे कुछ नहीं कह पाई। वो वापस बाहर आ गई, उसने दद्दू से कहा, ‘‘अच्छा दद्दू, आज मैं कोचिंग व कॉलेज नहीं जाती। पापा तो निकल चुके हैं, मम्मा छुट्टी नहीं ले सकती। मैं आज घर पर रह जाती हूं, आपको डॉक्टर को भी दिखा लाऊंगी और दिनभर आपका ख्याल भी रख लूंगी।’’ ‘‘नहीं बेटा..! मेरा क्या ख्याल रखना। मैं कोई बच्चा थोडे ही हूं। फिर यह बुखार तो बुढापे की तासीर है, एक-दो दिन में खुद ही ठीक हो जायेगा, तू कोचिंग जा बेटा और कॉलेज भी। तेरे एग्जाम भी तो सिर पर हैं।’’ ‘‘नहीं दद्दू! आपको इस हाल में अकेला नहीं छोडूंगी, एक दो दिन कोचिंग व कॉलेज न जाऊंगी तो कोई फर्क नहीं पडेगा।’’ कहकर उमा दद्दू के पास ही बेंच पर बैठ गई। देविकाप्रसाद जी ने उमा के सिर पर हाथ फिरा कर प्यार से समझाया, ‘‘तू चिन्ता बहुत करती है पगली। तू जा। मैं आज कहीं न जाऊंगा, दिनभर घर पर ही आराम करूंगा। बुढापे में तबीयत थोडी ऊपर नीचे होती रहती है, इसमें फिक्र की कोई बात नहीं। हां, शाम को चाय तेरे हाथ की ही पीऊंगा, समझी। अभी तू जा।’’ उमा अनमने मन से उठी और वापस घर में गई। एक प्लेट में एप्पल, चीकू रखे, बिस्किट-नमकीन की बरनी खोली, देखा नमकीन खत्म हो गई है। बिस्किट भी सिर्फ मैरी ही बचे हैं, जो दद्दू को बिल्कुल पसन्द नहीं। दद्दू के कमरे में टेबिल पर सामान रखकर बोली, ‘‘दद्दू, आप यह फ्रूट्स खा लेना। मैरी बिस्किट भी हैं…मैं जानती हूं आपको यह बिल्कुल पसन्द नहीं, पर खा लेना प्लीज! मेरे प्यारे दद्दू। आप जल्दी रैडी हो जाओ, फिर आपकी पसंदीदा दाल की कचौरी बनाऊंगी।’’ देविकाप्रसाद जी ने पोती का मन रखने के लिए हां भर दी, पर वे जानते थे कि वो कुछ भी नहीं खा पायेंगे।
बाय कहते हुए उमा ने बुझे मन से स्कूटी स्टार्ट की, दद्दू को देखते हुए धीरे-धीरे गेट से बाहर निकल कोचिंग क्लास की ओर चल पडी। पर आज उसका मन पढाई में नहीं लगा, ना कोचिंग में, ना कॉलेज में। बार-बार सोचती रही, मम्मा एक दिन छुट्टी ले लेती तो क्या हो जाता। दद्दू क्या सोचेंगे। इस हालत में भी हमें इतनी परवाह नहीं। आज छुट्टी जल्दी हो जाने से उमा इतनी खुश हुई, मानो कोई मुंहमांगी मुराद पूरी हुई हो।
विचारों में खोई उमा की तन्द्रा तब टूटी, जब दद्दू के कराहने की आवाज आई, ‘‘क्या हुआ दद्दू!’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा! थोडा-सा शरीर अकड गया है। तू आज डांस क्लास नहीं गई।’’ ‘‘नहीं दद्दू! आपको इस हाल में छोडकर डांस क्लास…!’’ उमा अपना वाक्य तोडते हुए ही बीच में बोली, ‘‘आफ लिए चाय बनाकर लाऊं दद्दू!’’ ‘‘नहीं बेटा! अदरकवाला दूध।’’ कहते-कहते अचानक उमा को याद आया, सुमन आंटी ने हल्दीवाला दूध देने को कहा था। ‘‘बाप रे! मैं तो भूल ही गई। एक मिनिट आई दद्दू।’’ कहकर उमा किचन में चली गई। हल्दीवाला दूध बनाकर लाई व दद्दू को बहला-फुसला कर पिलाया। शाम साढे सात बजे उमा को रसोई में खटपट की आवाज आई। उमा को लगा मम्मा नीचे आ गई, पर वह दद्दू के पास ही बैठी रही। उसका मन न किया कि वह जाकर मम्मा की कुछ और बात करे। वो तो बस पापा के आने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। पापा के आने का अहसास होते ही वह मेनगेट की ओर दौड पडी। लगभग पापा के हाथ से बेग छीनते हुए कहने लगी, ‘‘पापा दद्दू की तबीयत ठीक नहीं है। सुबह से बुखार है। आप फटाफट गाडी निकालिए। दद्दू को डॉक्टर को दिखाना होगा। पापा आप जल्दी से गाडी निकालो, तब तक मैं दद्दू को लेकर आती हूं।’’ उमा अंदर भागी, फटाफट दद्दू को बाहर लाने की तैयारी करने लगी। देविकाप्रसाद जी कहते ही रहे, ‘‘बेटा तू क्यों बेवजह नरेश को परेशान कर रही है। मैं एकदम ठीक हूं।’’ पर उमा ने एक न सुनी। वो दद्दू को बाहर ले आयी, रास्ते में पापा को दद्दू की तबीयत के बारे में, गिरने के बारे में विस्तार से बताती रही।
वे लोग डॉक्टर को दिखाकर लौटे, जब तक ज्योति रसोई का काम निपटा कर वापस ऊपर अपने कमरे में जा चुकी थी। उमा ने रसोई में जाकर देखा, मम्मा ने दद्दू को बुखार में खिलाने के हिसाब से कुछ नहीं बनाया। उसने फटाफट दलिया बनाया, पापड सेका व दद्दू के लिए ले आई। दोनों बाप-बेटी ने मिलकर बडे प्यार व मनुहार से दद्दू को दलिया खिलाया। अलबत्ता पापड उन्होंने बिना आनाकानी के खा लिया। प्लेट रसोई में रखने गई उमा को मुनक्का याद आई। उसने आठ-दस मुनक्का तवे पर सेकी, काला नमक व काली मिर्च लगाकर ले आई। नरेश बेटी की समझदारी पर गर्व कर रहे थे, तो देविका प्रसाद जी पोती के स्नेह से अभिभूत हो उठे। देविका प्रसाद जी को नींद आने पर दोनों बाप-बेटी उठकर किचन में आये। पापा को खाना गरम कर परोसते वक्त उमा ने पापा से दद्दू के प्रति माँ के व्यवहार का जक्र किया। नरेश ने नीचे गर्दन करके कहा, ‘‘मुझे सब पता है बेटा, बाऊ जी के बारे में। बाऊ जी से ज्यादा ताने तो मुझे सुनने को मिलते हैं, पर मैं मजबूर हूं। मैं अब बाऊ जी को गांव भी नहीं छोड सकता। बाई जी थी, जब तक मैं निश्चिंत था, अब गांव में किसके भरोसे छोडूं? यहां रखने पर कम से कम सुबह-शाम इनकी शक्ल तो देख पाता हूं।’’ ‘‘पर पापा, दद्दू इस कदर इतनी बेइज्जती कब तक सहते रहेंगे। वो अंदर ही अंदर टूट बिखर रहे हैं। वो किसी से मन की बात कह भी नहीं पाते। वो इस तरह घंटों- घंटों घर से बाहर कब तक रहेंगे।’’ ‘‘हां बेटा, पर तू ही बता, मैं क्या करूं?’’ कहते-कहते नरेश ने अपनी डबडबाई आँखें बेटी से छुपाने की कोशिश कीं। पर बेटी ने बाप का दर्द भांप लिया तुरन्त बात को बदलते हुए कॉलेज के ट्रस्टी के आकस्मिक निधन की बात पर आ गई, क्योंकि वह जानती थी, मम्मा जिस बात पर अडती है, फिर किसी की नहीं सुनती, और तब पापा की भी एक नहीं चलती। जब से दद्दू साथ रहने आये हैं, मम्मा कुछ ज्यादा ही मनमानी करने लगी है। दोनों खाना खाकर अपने-अपने कमरे में चले गए। पर उमा को रात भर नींद नहीं आई, सोचती रही ‘दद्दू कब तक इस तरह जलील होकर जीते रहेंगे। क्या मैं दद्दू के लिए कुछ नहीं कर सकती।’’ नींद से कोसों दूर घंटों परेशान उमा का चेहरा एकदम से चमक उठा। पच्चीस दिन से आज पहली बार उसे अपने प्री-बी.एड. में पास होने के परिणाम की खुशी हुई, वो बी.एड. करना नहीं चाहती थी, क्योंकि उसका सेन्टर दूसरे शहर में आया था और वह मम्मी-पापा से दूर नहीं जाना चाहती थी। पर आज उसने तय कर लिया, अब वह बी.एड. करेगी और दद्दू उसके साथ रहेंगे, वो भी अकेली नहीं रहेगी और दद्दू भी मजबूर नहीं रहेंगे। सुबह उठते ही उसने पापा को अपना निर्णय सुनाया। देविकाप्रसाद जी पोती के अपनेपन के भंवर में डूब रहे थे, तो नरेश बेटी की समझदारी के सागर में तैर रहे थे। उन्हें लगा कि उनके कर्त्तव्य की किश्ती को उनकी बेटी ने डूबने से बचा लिया।

आशा पाण्डे ओझा

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