बहादुर शाह जफ़र के अंतिम दिन – इतिहासकार की एक उदास ग़ज़ल

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बहुत पुरानी बात नहीं है। सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले भारत के इतिहास ने एक अप्रत्याशित करवट ली थी। अंग्रजी राज के खिलाफ एक बड़ी बगावत पूरे उत्तर भारत में वेगवती आंधी बन उठी थी । अंग्रजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया था। यह विद्रोह गांवों के किसानों और गढ़ियों के सामंतों तक फैल गया। अस्तंगत मुगल साम्राज्य के आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फर को विद्रोहियों ने अपना नेतृत्व दिया।ज़फर बूढ़े थे, बीमार और कमजोर भी। पर उनकी कुछ खासियतें भी थीं। औरंगजेब ने धार्मिक कट्टरता की जो गांठ इस देश पर लगा दी थी, उसकी कुछ गिरहें ज़फर ने खोली थीं। वे अकबर की परम्परा और सूफी मिजाज के शख्श थे। अपनी सीमित शक्तियों और मजबूरियों के बावजूद उन्होंने अपने कार्यकाल में जो भी करने की कोशिश की, उससे पता चलता है कि वे इस देश से सचमुच प्यार करते थे और नितंांत प्रतिकूल समय में भी वे उस परम्परा के वाहक थे, जो हिन्दुस्तान की माटी से उपजी और विकसित हुइ थी।
बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था-जिसने हिंदूस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था – अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी।

बहादुरशाह ज़फर के प्रति मेरे आकर्षण और मेरे मित्र और ‘अहा ज़िदगी’ के सम्पादक आलोक श्रीवास्तव के आग्रह और प्रतिआग्रह ने मुझे बादशाह पर लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है ‘अहा जिंदगी’ के दिसम्बर, 2010 अंक में प्रकाशित मेरा वह प्रयास)
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आसमान में सितारे लटके हुए थे और हल्की ठण्डी बयार बह रही थी। सुबह के ठीक चार बजे का समय था। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। सन्नाटे को चीरती थी काफिले के साथ चल रहे बल्लम-बरदार सैनिकों के घोड़ों की टापें। पेड़ों पर बेचैन फुकदती चिड़ियों की आवाज में प्रतिदिन की भांति गाए जाने वाले सुबह के सुहाने गीत नहीं थे। वे विलाप कर रही थीं। यहां तक कि सड़क के दोनों ओर खड़ी झाड़ियों में झींगुर भी शोकगीत गा रहे थे। उनके सामने से गुजरने वाला काफिला उनके चहेते बादशाह बहादुरशाह ज़फर और उनके परिवार के सदस्यों का था जिसे अंग्रेज किसी अज्ञात स्थान की ओर ले जा रहे थे।
वह 7 अक्टूबर, 1858 की सुबह थी। 6 अक्टूबर की रात बिस्तर पर जाते समय बादशाह ने कल्पना भी न की थी कि उन्हें भोर से पहले ही जगा दिया जाएगा और तैयार होकर प्रस्थान करने के लिए कहा जाएगा….कहां के लिए, यह पूछने का अधिकार भी अब उस पराजित बादशाह को नहीं था। वही नहीं, उनके साथ चल रहे काफिले के 31 सदस्यों में से किसी को भी यह भान नहीं था। अंग्रेजों ने सब कुछ अत्यंत गोपनीय रखा था। लेफ्टीनेंट ओमनी को बादशाह की सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसने ठीक 3 बजे बादशाह और अन्य लोगों को जगाकर एक घण्टे में तैयार हो जाने का फरमान सुनाया था। बाहर बल्लम-बरदार घुड़सवार सैनिक तैनात थे।
बादशाह बहादुरशाह ज़फर को दिल्ली छोड़नी थी। जाना कहां था यह उन्हें नहीं बताया गया था। वे एक हारे हुए बादशाह थे। गनीमत यह थी कि उन्हें मौत के घाट नहीं उतार दिया गया था। सिर्फ देश-निकाला मिला था। वे वह जंग हार गए थे जिसका उन्होंने न एलान किया था, न आगाज। न रणभूमि में उतरे थे, न कमान संभाली थी। जिस तरह वे मुगलों की सिमटी हुई सल्तनत के प्रतीकात्मक बादशाह थे उसी तरह 1857 के विद्रोही सिपाहियों ने उन्हें अपना प्रतीकात्मक नेतृत्व दे रखा था।
बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था – जिसने हिंदुस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था – अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी और लाल किले में भी कहां, वहां भी कौन सुनता था बादशाह की? किले के अपने षडयंत्र थे, अपनी राजनीति और दुरभिसंधियां! दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक का वारिस अपने ही मुल्क, अपनी राजधानी, अपने ही किले यहां तक कि अपने ही दीवाने-आम और दीवाने-खास में मजबूर और अकेला था।
सूफी तबीयत के ज़फर के आखिरी दिनों को यह मजबूर अकेलापन हरम की रंगरेलियों में, कुछ त्योहारों के रंगों-रोशनियों में और बाकी ग़ज़लों के रदीफ-काफिए में कटता था। उधर अंग्रेजों की नीतियों और कारस्तानियों ने आम सिपाही,किसान और सामंत सभी में असंतोष व्याप्त कर रखा था। हिंदुस्तान के घायल जज्बात जाग रहे थे, एक अपमानित मुल्क,एक उत्पीड़ित देश अपनी रगों में बहते लहू को महसूस कर रहा था। वह साल कहर बनकर टूटा। उस महाविद्रोह की बाढ़ में न जाने कितने तख्तो-ताज बह गए, महल और गढ़ियां ध्वस्त हुए, प्राचीरें गिरीं। उठती शमशीरों ने अपनी चमक से गंगा-यमुना के दोआबे से लेकर गोदावरी-कृष्णा तक के पानियों में रवानी पैदा कर दी। ज़फर में हिचक थी, डर था, बेचारगी थी, पर थोड़ा आदर्शवाद और जज्बा भी थी। इन सबने उन्हें उस आँधी के आगे खड़ा कर दिया – जो 1857 की गर्मियों में पूरे देश को झिंझोड़ती घूमती रही। अब वह आंधी थम चुकी थी और हारा हुआ कैद बादशाह दिल्ली की सड़कों से आखिरी बार गुजर रहा था…….
चंदोवादार पालकी में आगे बादशाह बहादुर शाह ज़फर और उनके जीवित दोनों छोटे पुत्र थे जिसे चारों ओर से घेरे सैनिक चल रहे थे। उसके पीछे पर्देवाली गाड़ी में जीनत महल, मिर्जा जवां बख्त की युवा पत्नी नवाब शाह ज़मानी बेगम और उसकी मां मुबारक उन्निशा और उसकी बहन थीं। तीसरी सवारी में बेगम ताज महल और ख्वाजा बालिश सहित उनकी परिचारिकाएं थीं। उनके पीछे पांच बैलगाड़ियों का काफिला था जिनमें प्रत्येक में चार पुरुष और महिला सहायक और ज़फर के हरम की महिलाएं थीं और इन गाड़ियों को भी सैनिक घेरकर चल रहे थे।
काफिला यमुना नदी की ओर बढ़ रहा था जहां उसे नावों वाले पुल से नदी पार कर कानपुर की ओर प्रस्थान करना था। वहां से स्टीम बोट द्वारा उन्हें आगे कलकत्ता के लिए की यात्रा करना था।
ओमनी ने 13 अक्टूबर को बादशाह के काफिले की यात्रा के बारे मे लिखा, ”पूर्व बाशाह और दूसरे कैदी भलीभांति यात्रा कर रहे हैं। वे प्रसन्न हैं। प्रत्येक सुबह 8 बजे मैं सभी कैदियों को टेण्ट में ठहरा देता हूं और अर्ध्दरात्रि को 1 बजे आगे यात्रा जारी रखने के लिए उन्हें उठा देता हूं।”
ढहे साम्राज्य का वारिस
दिल्ली के जिस साम्राज्य की नींव 352 वर्ष पहले बाबर ने रखी थी उसका अंतिम बादशाह अपना सर्वस्व खोकर उस काली रात रंगून के लिए निर्वासित कर दिया गया था ,जिसके विषय में उसे वहां पहुंचने तक जानकारी नहीं दी गई थी।
21 अप्रैल, 1526 को इब्राहीम लोदी के साथ पानीपत के मैदान में हुए युध्द ने दिल्ली के भाग्य में मुगल सल्तनत की मुहर लगा दी थी। बाबर हिन्दुस्तान लूटने के इरादे से नहीं यहां रहकर शासन करने के विचार से आया था। यद्यपि उसकी धमनियों मे दो लुटेरों – तैमूर और चंगेज खां का रक्त प्रवाहित था (पिता की ओर से वह तैमूर की पांचवी पीढ़ी और मां की ओर से चंगेज खां की चौदहवीं पीढ़ी में वह जन्मा था)। बाबर ने जिस मुगल साम्राज्य की स्थापना की उसके अंतिम बादशाह थे अबू ज़फर मुहम्मद बहादुर शाह, इतिहास में जिन्हे ज़फर के नाम से जाना गया।
बाबर द्वारा स्थापित मुगल साम्राज्य का गौरवशाली इतिहास हमें हुमांयु, अकबर, जहांगीर , शाहजहां और औरंगजेब अर्थात पांच पीढ़ियों तक प्राप्त होता है, लेकिन औरंगजेब के पश्चात् इस साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था। यद्यपि औरंगजेब के काल में ही अनेक राज्य स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे थे, लेकिन 1770 में उसकी मृत्यु के पश्चात् मराठों, राजपूतों और सिखों ने मुगल साम्राज्य से स्वतंत्रता की घोषणा प्रारंभ कर दी थी क्योंकि औरगंजेब के बेटों में सत्ता युध्द प्रारंभ हो गया था। यद्यपि औरंगजेब ने बहादुरशाह (प्रथम) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था तथापि भाइयों के मध्य अवश्यंभावी युध्द हुआ और बहादुरशाह के हाथों न केवल आजमशाह और काम बख्श पराजित हुए बल्कि युध्द में मारे भी गए। तिरसठ वर्ष की आयु में बहादुरशाह प्रथम सम्राट बना, लेकिन वह एक अदूरदर्शी शासक था। परिणामत: सामा्रज्य की नींव हिलने लगी। उसे कमजोर करने में अहम भूमिका निभायी उसके पुत्रों जहांदार शाह, आजिमुशान, रफीकुशान और जमनशाह के मध्य हुए संघर्षों ने। 1740 तक मुगल साम्राज्य केवल नाम मात्र के लिए साम्राज्य बचा था। 1748 में अहमद शाह दिल्ली का सम्राट बना। 1754 में उसकी मृत्यु के पश्चात् आलमगीर द्वितीय गद्दी पर बैठा। वह एक अयोग्य शासक था। उसके काल में अहमदशाह अब्दाली ने चौथी बार भारत में आक्रमण किया था। उसने दिल्ली में प्रवेश कर उसे लूटा और कत्लेआम किया। अहमदशाह के वजीर इमादुलमुल्क ने उसकी हत्या कर दी और शाहजहां तृतीय 1758 में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। लेकिन वह एक वर्ष ही शासन कर सका। 1759 में आलमगीर के पुत्र अलीगौहर ने अपने को सम्राट घाषित कर दिया और उसने शाहआलम की उपाधि धारण की। 1772 तक वह दिल्ली से बाहर रहा। शाहआलम के पश्चात् उसके पुत्र अकबरशाह द्वितीय ने 1806 में सत्ता संभाली। उसने 1837 तक दिल्ली पर शासन किया। बहादुरशाह ज़फर अकबरशाह के दूसरे पुत्र थे। पिता की मृत्यु के पश्चात् 1837 में ज़फर दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे।
औरंगजेब की मृत्यु से लेकर बहादुरशाह ज़फर की ताजपोशी तक के 67 सालों में इतिहास की नदी में बहुत पानी बह चुका था। तिजारत करने आए अंग्रेज अब लगभग समूचे हिंदुस्तान पर काबिज थे। कंपनी का राज था और कंपनी की लूट थी। पूरा भारत असंख्य छोटी-छोटी रियासतों-रजवाड़ों में बंट चुका था। ये क्षत्रप और सामंत अंग्रेजों को अपना विधाता बनाए, अपने छोटे-छोटे स्वार्थों और ऐयाशियों की कठपुतली बने हुए थे। दिल्ली के तख्त पर मुगल सल्तनत का चिराग अब भी रोशन था, मगर उसकी लौ किले की दीवारों तक को पार न कर पाती थी। यह नाममात्र की सत्ता थी। नाममात्र की बादशाहत। बहादुरशाह ज़फर की बूढ़ी आंखों में इतिहास की एक वीरानी बसती थी….. उन आंखों ने निरे बचपन से अपने खानदान और सल्तनत में इतनी साजिशें और खून देखे थे कि वे सब उनके पूरे व्यक्तित्व में एक ठंडापन, एक अवसाद बनकर हमेशा को ठहर गए थे।
बहादुरशाह ज़फर का जन्म 1775 में हुआ था। जब वह मात्र तेरह वर्ष के थे, गुलाम कादिर खां ने शहर पर कब्जा कर लिया था और उसने उनके पितामह शाह आलम द्वितीय को स्वयं अंधा करके ज़फर के पिता अकबर शाह को सम्राट घोषित किया था। बहादुरशाह ज़फर अकबरशाह की राजपूत पत्नी लालबाई से उत्पन्न हुए थे। उनका पालन-पोषण रहस्यवादी वातावरण और रहस्यवादी वैचारिकता वाले पिता के साये में हुआ था। अकबरशाह सूफियाना मिज़ाज व्यक्ति थे और अपनी बढ़ती उम्र के साथ उन्होंने उसे इतना विकसित कर लिया था कि वह सूफी संत (कुतब-इ-आलम) बन गए थे। आज भी सूफियों की दुनिया में उनकी एक अलग पहचान कायम है। बहादुरशाह ज़फर की मां और दादी राजपूत परिवारों से थीं । अकबर महान से वह बहुत प्रभावित थे और हिन्दुओं के प्रति उनके हृदय में विशेष आदर भाव था। अकबर की भांति ही वह हिन्दू -मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्नरत रहते थे।
दरअसल बहादुरशाह ज़फर और दारा शिकोह दोनों ही इतिहास की ऐसी विडंबनाएं हैं, जिनके साथ समय ने यदि थोड़ी भी मुरव्वत की होती तो भारत का इतिहास कुछ और भी हो सकता था। शिकोह और ज़फर अकबर की उस महान परम्परा की कड़ियां बन सकते थे जो इस देश के खेतों-गांवों से लेकर नगरों-बाज़ारों तक संस्कृति और इन्सानियत की सुगंध बनकर बसी होती। दारा शिकोह को औरंगजेब ने कत्ल करवाया और एक ओर पूरी तरह से जर्जर मुगल साम्राज्य और दूसरी ओर से अंग्रेजों के फंदों में कसे ज़फर अपनी मजबूरियों के कारागार से निकल ही नहीं पाए।
जिल्लत की ज़िंदगी
ज़फर के पितामह शाहआलम की मृत्यु के पश्चात् अंग्रजों ने दिल्ली सल्तनत पर अपना शिकंजा कसना प्रारंभ कर दिया था। 1813 में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा सम्राट को दिए जाने वाले नजराना परम्परा को लार्ड मिण्टों ने समाप्त कर दिया था। 1816 में लार्ड हेस्टिंग्स ने शाही टकसाल पर प्रतिबंध लगा दिया। ब्रिटिश सरकार ने 1812 में सम्राट के लिए बारह लाख पेंशन मुकर्रर की, जिसे 1833 में बढ़ाकर 15 लाख कर दिया गया था। लार्ड एलेनबरो ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति ही ताज का अधिकारी होगा। अंग्रेजों द्वारा ढाले जाने वाले सिक्कों पर सम्राट का जो चित्र अंकित होता था, उसे 1835 में हटा दिया गया। यह एक संकेत था कि मुगल शासन पूरी तरह अंग्रेजों के रहमो-करम पर निर्भर था। अंग्रेजों ने बादशाह बहादुर शाह ज़फर की गतिविधियों और उनसे मिलने-जुलने वालों पर नज़र रखना प्रारंभ कर दिया। बादशाह की गतिविधियां सीमित हो गयीं थीं और वह लाल किला की दीवारों में ही कैद होकर रह गए थे। ज़फर के समय दिल्ली का रेजीडेंट सर थामस मेटकॉफ था। मेटकॉफ ऊपर से उनके प्रति मित्रवत रहता, लेकिन उनकी हर गतिविधि पर उसकी दृष्टि होती थी।
कोई भी कुलीन पुरुष सर मेटकॉफ की अनुमति के बिना लालकिला के अंदर दाखिल नहीं हो सकता था। उपहार लेने-देने के अधिकार भी बादशाह से छीन लिए गए थे। बादशाह अपने ताज से कोई मणि या रत्न अपने परिवार के किसी व्यक्ति को भी नहीं दे सकते थे। दिल्ली के बाहर के किसी कुलीन व्यक्ति को बिना रेजीडेंट मेटकॉफ की अनुमति के वह खिलअत नहीं दे सकते थे। बादशाह ज़फर और जीनत महल के पुत्र जवां बख्त के विवाहोत्सव के अवसर पर कोलेसर के राजा गुलाब सिंह ने दरबार में उपस्थित होकर बादशाह को एक घोड़ा और सात सोने की मोहरें नजराने स्वरूप भेंट की थीं। ज़फर ने उन्हें खिलअत भेंट की, लेकिन मेटकॉफ ने राजा को वह खिलअत तुरंत लौटाने का आदेश दिया था। कारण ….. मेटकॉफ की दृष्टि में राजा अंग्रेजी शासन के अधीन था, न कि बादशाह के और उसे किसी विदेशी (ज़फर) शासक के प्रति निष्ठा या स्वामिभक्ति व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं था। यह एक घटना मात्र इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि ज़फर अपने देश और अपने साम्राज्य में कितना अपमानित अनुभव करते रहे थे। एक अंग्रेज के अनुसार उनकी स्थिति पिंजरे में बंद एक पक्षी की भांति थी। कहना उचित होगा कि एक समय ऐसा आ गया कि जब ज़फर के पास अपने महल और अपने गौरवशाली वंश की प्रतिष्ठा के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं बचा था।
शायरी में पनाह लेता दिल
इस सबके बावजूद ज़फर को कुछ जुलूसों या शोभायात्राओं में जाने की अनुमति प्राप्त थी। वह सूफी मकबरों में जाते, महरौली स्थित अपने ग्रीष्म महल में वर्ष में एक बार जाते, पुराने ईदगाह में ईद मनाते, फूलवालों की सैर में सोत्साह हिस्सा लेते, और जोगमाया मंदिर और कुतुब साहब के मकबरे में जाते।
बहादुरशाह ज़फर स्वयं एक अच्छे शायर थे और उनके दरबार में ऐसे लोगों का आवागमन बना रहता था। उनके दो दरबारी शायरों ,मिर्जा गालिब और जौक में शायरी को लेकर तमाम असहमतियां थीं। जौक सहजाभिव्यक्ति के शायर थे जबकि गालिब एक जटिल शायर थे। जौक एक सामान्य पैदल सिपाही के पुत्र थे, जिन्हें ज़फर ने लाल किले के बगीचों का मानद इंचार्ज बना दिया था। जबकि गालिब एक आभिजात्य पृष्ठभूमि से थे। ज़फर ने उन्हें अपना उस्ताद मान लिया था। जौक एक सामान्य जीवन यापन करने वाले अहर्निशि शायरी को समर्पित व्यक्ति थे वहीं गालिब को अपनी कुछ चारित्रिक कमजोरियों पर विशेष गर्व था। जवां बख्त के विवाह (1852) से पांच वर्ष पहले गालिब को जुआं खेलने के अपराध में जेल में डाल दिया गया था, लेकिन इसे उन्होंने अपना अपमान नहीं माना था। एक बार जब किसी ने उनकी उपस्थिति में शेख साहबाई की शायरी की प्रशंसा की, गालिब चीख उठे, ”साहबाई ने शराब चखी नहीं , न ही उसने जुआ खेला , प्रेमिकाओं द्वारा चप्पलों से वह पीटा नहीं गया, और न ही वह एक बार भी जेल गया ….. फिर वह शायर केैसे हो गया ?” अपने कुछ पत्रों में उन्होंने ‘लेडीज मैन’ के रूप में अपना उल्लेख किया है ।
एक उदाहरण और। गालिब के एक मित्र की पत्नी की मृत्यु हो गयी। उसने आहतमन उन्हें एक शोकपत्र लिखा। गालिब ने उसे लिखा -”मिर्जा, मुझे यह पसंद नहीं है जैसा आप कर रहे हैं…जब आप जीवित हैं दूसरे की मृत्यु पर शोक व्यक्त नहीं कर सकते … अपनी स्वतंत्रता के लिए ईश्वर को धन्यवाद दो और दुखी मत हो … भाई होश में आओ और दूसरी ले आओ ….।”
यद्यपि ज़फर स्वयं एक अच्छे शायर थे, लेकिन वह जौक की प्रतिभा की उच्चता के मुरीद थे। एक बार उन्होंने अपनी कुछ पंक्तियां जौक को दीं, जिनकी कमियों को जौक ने अविलंब संशोधित कर दिया। ज़फर इससे इतना प्रसन्न हुए कि उन्होंने उन्हें खिलअत भेंट की और उन्हें ‘महल के बगीचों का मानद सुपरिटेण्डेण्ट पद प्रदान किया।
ज़फर शौकिया शायर नहीं थे। उनका दिल शायरी में बसता था। उन्होंने ढेरों ग़ज़लें रची थीं। इन ग़ज़लों में मानव जीवन की कुछ गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसी थी। वे एक उम्दा शायर थे।
राजनीतिक स्तर पर भले ही दिल्ली का अध:पतन हो रहा था, लेकिन साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक स्तर पर दिल्ली के स्तर का कोई शहर उस समय तक हिन्दुस्तान में नहीं था। दिल्ली वालों को अपने शहर और अपनी गली-कूचों पर गर्व था। जौक को आखिर कहना पड़ा था, ”कौन जाए जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़कर।”
उर्दू का जन्म दिल्ली में हुआ जिसकी सुन्दरता और लालित्य मनमोहक थी। मौलवी अब्दुल हक का कहना था, ”जो व्यक्ति दिल्ली में नहीं रहता वह उर्दू का गुणग्राहक नहीं हो सकता।” जेम्स बेली फ्रेजर का कथन है, ” दिल्ली जैसा कोई शहर नहीं था। दिल्ली के प्रत्येक घर में शायरी की चर्चा होती थी और बादशाह स्वयं एक अच्छे शायर थे।”
दिल्ली में पुरुष और महिलाओं की भाषा समान होते हुए भी महिलाओं की उर्दू उच्चारण की कुछ अलग ही विशेषता थी। शायरी से न केवल आभिजात्य जन अभिभूत थे बल्कि किसी हद तक आम लोग भी उसके प्रति आकर्षित थे। मिर्जा जवां बख्त की शादी से दो वर्ष पूर्व उर्दू शायरी का एक संग्रह (1850) प्रकाशित हुआ था, जिसमें दिल्ली के चुनिन्दा पांच सौ चालीस शायरों की रचनाओं को प्रकाशित किया गया था। उस समय दिल्ली में कवियों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। उस संग्रह में बादशाह बहादुर शाह ज़फर के अतिरिक्त उनके परिवार के पचास सदस्यों की रचनाएं तो थीं ही, चांदनी चौक में पानी बेचने वाले एक गरीब व्यक्ति के साथ पंजाबी कटरा के एक व्यापारी, एक जर्मन यहूदी (दिल्ली में बहुत से योरोपीय परिवार बस गए थे और उन्होंने दिल्ली की संस्कृति अपना ली थी), एक जवान पहलवान, एक गणिका और एक हज्जाम की रचनाएं भी शामिल थीं। उसमें लगभग तिरपन ऐसे नाम थे जो हिन्दू थे।
ज़फर सहित दिल्ली के लगभग सभी शायरों में शायरी के प्रति दीवानगी थी। बादशाह प्राय: महल में मुशायरों का आयोजन करते थे। शायरों, दरबारियों, महिलाओं और आमजन के बैठने के लिए विशेष व्यवस्था की जाती थी। सुबह चार बजे तक मुशायरा होता रहता था। इतिहासकारों के अनुसार जिस समय सिविल लाइन्स क्षेत्र में अंग्रेज फौजी घुड़सवारी और परेड के लिए तैयार हो रहे होते उस समय किले में मुशायरे का दौर समाप्त कर अलसाए लोग अपने घरों को लौट रहे होते थे। ये सभी दिन के ग्यारह-बारह बजे तक घोड़े बेचकर सोते थे। यह स्थिति अंग्रेजों के लिए अनुकूल थी। जब दिल्ली सोती वे जागकर दिल्ली पर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित करने की योजना पर कार्य करते और अनुशासन का कट्टरता से पालन करते हुए वे रात दस बजे बिस्तरों पर चले जाते, जबकि यही समय दिल्ली के शायरों के बादशाह के महल में एकत्र होने का होता था। बहादुरशाह ज़फर ने अपनी नियति स्वीकार ली थी और अपने को पूरी तरह से कल के हवाले कर दिया था। बादशाह की आयु भी इस योग्य न रही थी कि अंग्रेजों की मुखालिफत करते। परिणामत: वह अपने पिंजरे में बंद अपनी उदासीनता को शायरी में भुलाने का प्रयत्न करने लगे थे ।
अंत:पुर के रस-राग
हताश-उदास और अंग्रेजों से अपमानित बादशाह अपने हरम में होने वाले षडयंत्रों के प्रति भी जागरुक नहीं रहे थे।
1837 में जब बादशाहत का ताज उनके सिर पर रखा गया था उस समय उनकी चहेती बेगम थीं ताज महल जो एक दरबारी संगीतज्ञ की पुत्री थीं। ताज महल बेहद खूबसूरत थीं, लेकिन बादशाह के हृदय की साम्राज्ञी वह अधिक समय तक नहीं बनी रह सकी थीं। तीन वर्ष बाद ज़फर के जीवन में एक युवती ने प्रवेश किया जिसका नाम जीनत महल था। जीनत उस समय उन्नीस वर्ष की थी जबकि ज़फर चौसठ के। कुछ महीनों के अंदर ही जीनत महल के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ और ताज महल के स्थान पर अब जीनत काबिज हो चुकी थी। बादशाह के मृत्यु-पर्यन्त जीनत महल उनकी सर्वप्रिय बेगम बनी रहीं। उन्हीं का पुत्र था जवां बख्त। जीनत महल के महल में प्रवेश के पश्चात् बादशाह की सभी बेगमों और रखैलों में असन्तोष व्याप गया था। क्योंकि बादशाह की दृष्टि में उन सबकी औकात कम हो गयी थी। इस सबके बावजूद बादशाह अपने हरम को नयी रखैलों से भरने से परहेज नहीं कर रहे थे।
1852 में ज़फर ने जीनत महल से उत्पन्न अपने सर्वप्रिय पुत्र जवां बख्त का विवाह किया। खजाना खाली था। विवाह व्यवस्था, महल, किला, चांदनी चौक तथा अन्य महत्वपूर्ण स्थलों को सजाने से लेकर विवाह की अन्य तैयारियों के लिए जीनत महल ने दिल्ली के सूदखोरों, सेठों और साहूकारों से खुलकर उधार लिया। उन सबने यह जानते हुए भी कि उन्हें वह धन वापस नहीं मिलेगा, जीनत महल को नाराज करना उचित नहीं समझा। इसका एक प्रमुख कारण् यह था कि वे सब अंग्रेजों को नापसंद करते थे और बादशाह के प्रति आत्मीयता और आदरभाव उन सबके मन में था। वे शायद यह भी भांप चुके थे कि अंग्रेजों द्वारा वे लूटे ही जाएगें फिर क्यों न वह धन बादशाह के काम आए। जवां बख्त के विवाह के समय ज़फर की आयु सतहत्तर वर्ष थी, लेकिन चार्ल्स जॉन ग्रिफिथ के अनुसार 1853 में बादशाह की हरम में पांच रखैलों को शामिल किया गया था और वे सभी कमसिन युवतियां थीं। ऐसी स्थिति में हरम की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। ग्रिफिथ के अनुसार उसके बाद भी बादशाह की इच्छाएं दमित न हुई थीं। उनके कम से कम सोलह पुत्र और इकतीस पुत्रियां थीं। उनके अंतिम पुत्र का नाम मिर्जा शाह अब्बास था, जो तब पैदा हुआ था जब ज़फर सत्तर वर्ष के थे।
यद्यपि हरम में बेगमों और रखैलों की गतिविधियां संदेहास्पद थीं और वहां अनुशासन बनाए रखना बादशाह के लिए सहज नहीं हो पा रहा था, लेकिन जीनत महल हरम की स्थिति को भलीभांति जानती -समझती थी और वहां के प्रति उनका रुख सदा सहानुभूतिपूर्ण रहता था। उन्होंने कभी दुर्भावना प्रकट नहीं किया। बल्कि जब हरम की एक रखैल दरबारी संगीतज्ञ तनरस खान से गर्भवती हुई, जीनत ने हस्तक्षेप कर उसे कठोर दण्ड से बचा लिया था। लेकिन ताज महल बेगम के साथ जीनत महल का शीतयुद्ध जारी था… संभवत: उसका कारण ताज बेगम ही थीं जो अपने अतीत को भुला नहीं पा रही थीं। परिणामत: ताज बेगम को बादशाह के भतीजे मिर्जा कामरान के साथ अवैध संबन्ध के संदेह में जेल में डाल दिया गया था। तनरस खान से गर्भवती रखैल पिया बाई ही नहीं अनेक रखैलों की एक ही दास्तान थी। जवां बख्त के विवाह से दो महीना पहले एक रखैल को एक सिपाही के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया था। सिपाही को लोहे की छड़ से पीटा गया, जबकि रखैल को आनाज पीसने की मामूली सजा दी गई थी। लगातार घटित होने वाली इन घटनाओं से ज़फर बहुत आहत थे। 1 फरवरी, 1852 को एक प्रबन्धक नियुक्त करतें हुए उन्होंने कहा था, ”मैं जनानखाना की व्यवस्था से बहुत दुखी हूं। चोबदार और चौकीदार कभी अपने कामों में उपस्थित नहीं रहते और जनानखाने में बाहरी व्यक्ति प्रवेश पाते रहते हैं।”
उन्हें रखैल चांद बाई ने बताया था कि सुल्ताना बाई के निवास में नबी बख्श नामका व्यक्ति बलात प्रवेश कर गया था, जबकि खोजा ने उसे रोकने का प्रयास भी किया था ……।
महल की बड़ी बेगमों का जीवन अपेक्षाकृत आराम से बीत रहा था। ज़फर के अपने बच्चों को अपना जीवन अपने ढंग से जीने की पूर्ण आजादी थी। वे चाहें अध्ययन करें , अथवा कलात्मक गतिविधियों में अभिरुचि लें, शिकार, कबूतरबाजी करें या बटेर लड़ाएं। लेकिन छोटी राजकुमारियों के छूट की सीमाएं थीं। इन सबके अतिरिक्त पूर्व शासकों के लगभग दो हजार लोगों के परिवार…… जिनमें उनकी बेगमें, राजकुमारियां, पोते-पड़पोते, लकड़पोते आदि थे, का जीवन अत्यंत दुरूह था। वे सभी महल के दड़बानुमा क्वार्टरों में गरीबों जैसा जीवन जी रहे थे। लाल किला का यह एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष था, जो शर्मनाक था और शायद इसी कारण उन्हें लाल किला से बाहर झांकने के अवसर कभी-कभार ही, खासकर दरियागंज में होने वाले जनोत्सव के दौरान ही प्राप्त होता था। ज़फर की परेशानी का सबब उनके कुछ दूर के रिश्तेदार भी थे। उनका विश्वास था कि महल में होने वाली चोरियों में उनकी ही भूमिका हाती थी। वे एक-दूसरे की चीजें चोरी करते और पीकर उत्पात मचाते। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मिर्जा महमूद सुल्तान पागल होकर महल के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं उन्होंने उसे जंजीरों से बांध देने का आदेश दिया था। ज़फर के एक सौ पचास ऐसे रिश्तेदारों ने उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के लेफ्टीनेण्ट गवर्नर को एक ज्ञापन भेजा था कि ज़फर उन दायादों को अपनी समस्याएं मेटकॉफ से डिस्कस करने से रोकते हैं।
अंग्रेजों से ठन गई
ज़फर अपने प्रति ब्रिटिशर्स के व्यवहार और अपने अधिकारों के छीने जाने से दुखी थे ही उस पर अंग्रेजो ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी तय करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया था। इस बात का झटका उन्हें तब लगा जब उनके बड़े बेटे दाराबख्त की ज्वर से 1849 में मृत्यु हुई थी। अंग्रेज आशा कर रहे थे कि ज़फर अपने दूसरे पुत्र मिर्जा फखरू को उत्तराधिकारी घोषित करेगें, जो प्रतिभाशाली कवि, खुशनवीस (सुलेखक) और इतिहासकार था। लेकिन ज़फर अपनी बेगम जीनत महल के प्रभाव में थे, जो जवांबख्त को उत्तराधिकारी घोषित करने का दबाव बना रही थीं, जो उस समय मात्र आठ वर्ष का था। अंग्रेजों का सोचना था कि ज़फर अतीत को दोहराना चाहते थे, क्योंकि उनके पिता अकबरशाह द्वितीय ने अपने बड़े पुत्र मिर्जा जहांगीर के बजाय ज़फर को उत्तराधिकार सौंपा था। इसी दौरान मिर्जा फखरू ने अंग्रजी का अध्ययन प्रारंभ कर दिया और अंग्रेजपरस्त अपने श्वसुर इलाही बख्श की भांति वह मेटकॉफ और अन्य अंग्रेज सैन्य अफसरों के संपर्क में रहने लगा। फखरू जवां बख्त के विवाह से तीन माह पूर्व 1852 में मेटकॉफ और लेफ्टीनेण्ट गवर्नर से मिला और एक गोपनीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें कहा गया था कि अंग्रेज उसके पिता की इच्छा के विपरीत उसे उत्तराधिकारी घोषित करेंगे और फखरू लाल किला अंग्रजों को सौंपकर महरौली के ग्रीष्म महल में दरबार स्थानांतरित कर लेगा और अंग्रेज लाल किला को बैरक के रूप में इस्तेमाल कर सकेगें।
अंग्रेजो के साथ फखरू के समझौते की भनक जैसे ही ज़फर को लगी क्रोधाविष्ट हो उन्होंने फखरू को दरबार से बहिस्कृत करने का आदेश दिया और कहा कि जो भी फखरू से मित्रता रखेगा वह दरबार का शत्रु माना जाएगा। फखरू को दरबार में प्राप्त सभी अधिकार, उसके भत्ते, मकान आदि छीनकर उसके छोटे भाइयों में बांट दिए गए, विशेषरूप से कठोर परिश्रमी मिर्जा मुगल को। लेकिन अंग्रेजों के निर्णय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसने ज़फर को हताशा के गर्त में झोंक दिया। उन्होंने यहां तक घोषणा कर दी कि यदि उनकी इच्छा का अनादर किया गया तो वह हज़ के लिए चले जाएंगे।
इधर लाल किला के भीतर छोटे-छोटे स्वार्थों की राजनीति चल रही थी, उधर देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की तैयारियां। न जाने कितने हरकारे गांव-बस्ती-जंगल पार करते गुपचुप संदेशों को यहां से वहां पहुंचा रहे थे। पूरे उत्तर भारत की नसों में एक विद्रोह सुलग रहा था। इस सुलगन की आंच इतनी तेज थी कि वह समय से पहले ही लपट बन, धधक उठी। विद्रोह की नियत तारीख से पहले ही बंगाल की बैरकपुर छावनी में सिपाही मंगल पांडे ने बगावत कर दी। उसे फांसी हुई। पर जो लपट उठ चुकी थी, वह थमने वाली न थी। मेरठ की बैरकों से सिपाही निकल आए, उन्होंने मेरठ छावनी में अंग्रेजों की हत्याएं कीं, बंगले जलाए। यह सब दिल्ली के ठीक पड़ोस में घटा था। लाल किला से महज 67 किलोमीटर की दूरी पर।
मेरठ के सिपाहियों की मंजिल अब दिल्ली थी। मेरठ छावनी को धधकता छोड़ 85 सिपाहियों का दल रास्ते के गांवों को पार करता देखते-देखते दिल्ली की सरहद पर जा पहुंचा। यमुना पार करते ही दिल्ली थी। सामने लाल किला एक अस्त वैभव की उदास यादगार-सा खड़ा था….
क्रांति की अगुवाई और पराजय
1856 तक दिल्ली दरबार में इतना सब घटित-परिघटित हो चुका था और अंग्रेजों की नीतियों से बूढ़ा बादशाह इतना अधिक अपमानित अनुभव करने लगा था कि 10 मई को मेरठ में अंग्रेजों का सफाया करने के बाद दिल्ली पहुंचे क्रांतिकारियों ने जब बादशाह से क्रांति की कमान संभालने का अनुरोध किया तब किंचित द्विविधा के बाद ज़फर ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने में अधिक समय नष्ट नहीं किया था।
मेरठ में क्रांति की सफलता के बाद उसी रात क्रांतिकारियों ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया था। दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की पहली टुकड़ी कश्मीरी दरवाजा से प्रविष्ट हुई और दूसरी टुकड़ी ने कलकत्ता दरवाजा से प्रवेश किया था। दिल्ली के राजमहल में सैनिकों और नागरिकों की भीड़ एकत्र होने लगी थी। बादशाह का टूटा मनोबल जाग्रत हुआ और वह निराशा के गह्नर से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगे। उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी दी गई। कुछ संकोच के साथ बादशाह ने सैनिकों का आना स्वीकार कर लिया। क्रांतिकारी नेताओं से विचार-विमर्श के बाद बादशाह को जो आशंकाएं थीं दूर हो गयीं। सावरकर लिखते हैं – ”सम्राट-पद प्राप्ति की सैकड़ों लालसाओं के दीप उनके अन्त:करण में प्रज्वलित हो उठे। सैनिकों ने उनसे कहा, ”आप स्वातंत्र्य की पुनीत पताका अपने करकमलों में थामिए ……।” ज़फर ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।
बख्त खां को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया और जनरल के पद से विभूषित किया गया। मिर्जा मुगल को एड्जुटेण्ट जनरल बनाया गया। महीनों युध्द चला, लेकिन क्रांतिकारियों के अदूरदर्शी नेतृत्व, नेताओं के आपसी मतभेद, लालकिला की दुरभिसंन्धियों और सैनिकों की अनुशासनहीनता के कारण दिल्ली का भी वही हस्र हुआ जो शेष भारत का हुआ था। अंतत: 14 सितम्बर 1857 को दिल्ली के पतन के पश्चात् अंग्रेजों ने दिल्ली में जो तबाही मचायी उसे देख नादिरशाह भी शायद सकते में आ जाता, हालाँकि उसने मात्र आठ घण्टों में बत्तीस हजार नागरिकों को मौत के घाट उतरवा दिया था।
छ: दिनों के रक्तिम संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों के अंतिम गढ़ लाहौर गेट,जामा मस्जिद और सलीमगढ़ के किले पर फतह हासिल कर ली। जब अंग्रेज टुकड़ी ज़फर के महल में पहुंची तो पता चला कि बादशाह,उनका परिवार और इष्ट-मित्र दो दिन पहले ही वहां से पलायन कर चुके थे। वे निजामुद्दीन की दरगाह के पास स्थित हुमायूं के मकबरे में जाकर छिपे थे। अधिक दूर जाने का मौका ही न मिल पाया था।
अंग्रेजो ने दिल्ली में भयानक कत्लेआम किया। हजारों बाशिदों को निष्कासित कर देश के बाकी हिस्सों में भेज दिया गया। एक अंग्रेज कप्तान ग्रिफिथ ने लिखा, ”उन लोगों को शहर से बाहर जाते देखना सचमुच बड़ा ही मर्मस्पर्शी दृश्य था। रोजाना लाहौर गेट से सैकड़ों लोग गुजरते रहे और यह सिलसिला पूरे एक सप्ताह तक जारी रहा।”
दिल्ली के घर, मोहल्ले, गलियां, सड़कें वीरान पड़ी थीं। उस खौफजदा वीरानी का वर्णन एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी डायरी में इस तरह लिख छोड़ा है – ”इन सुनसान सड़कों पर गूंजने वाली हर एक आवाज बड़ी अजीम तिलस्मी और अलौकिक लगती थी। हमारे कानों में ये रहस्यमय प्रतिध्वनियां मुर्दों के शहर की तरह अनुनादित होती थी। इधर-उधर एक कुत्ता किसी शव को झिंझोड़ता रहता था। कोई गिध्द गले तक गोश्त भरकर उड़ने में भी अक्षम हो जाता और उसका सर खून से तर-बतर रहता। हमारे पहुंचते ही पंख फड़फड़ाता। कुछ शवों के हाथ इस मुद्रा में ऊपर उठे हुए होते मानों किसी को इशारा कर बुला रहे हों। हम चलकर वहां जाते ओैर यह पड़ताल करते कि सचमुच वे शव हैं भी या नहीं। भयंकर निस्तब्धता थी…।”
एक और युवा अंग्रेज अधिकारी उन्नीस वर्षीय एडवर्ड विबार्ट ने लिखा।, ”यह अक्षरश: हत्या थी … मैंने इससे पहले भी रक्तरंजित दृश्य देखे थे॥, लेकिन मैं प्रार्थना (ईश्वर से ) करता हूं कि जो कल देखा वह दोबारा न देखूं । अधिकांश महिलाओं को बख्श दिया गया था , लेकिन पतियों और पुत्रों को जिबह होते देख उनकी चीखें अत्यधिक कष्टकारी थीं ।… ईश्वर जानता है कि मैं दुखी अनुभव नहीं करता , लेकिन जब किसी धूसर दाढ़ी वाले वृध्द व्यक्ति को अपने प्रियजनों के समक्ष मारा जाता है तब मैं सोचता हूं कि कोई कठोर हृदय व्यक्ति ही यह देखकर उदासीन रह पाता है …।”.
बादशाह की गिरफ्तारी
गालिब सहित कुछ ही भाग्यशाली मुसलमान थे जो दिल्ली में रहते हुए भी सुरक्षित बच गए। अधिकांश या तो मारे जा चुके थे या दिल्ली से पलायन कर गए थे। अंग्रेज जनरल हडसन को भेदिए ने बादशाह के विषय में खबर दी। बादशाह की बेगम जीनत महल से सौजन्यपूर्ण रिश्ता रखने वाला विलियम हडसन 50 सैनिकों की टुकड़ी लेकर मकबरे पर पहुंचा। वह टुकड़ी के साथ दरवाजे पर ही रुका। भीतर दो दूत भेजे गए। दो घंटे बाद दानों दूत यह संदेश लेकर लौटे कि बादशाह समर्पण को तैयार हैं – पर उसी शर्त पर जब खुद हडसन आगे बढ़कर उन्हें हुकूमत की ओर से सुरक्षा का वचन दें।
हडसन मकबरे के प्रवेशद्वार के सामने सड़क के बीचोबीच पहुंचा। उसके हाथ में तलवार थी और मकबरे के दूधिया गुंबदों पर नजरें टिकाए उसने बुलंद आवाज में घोषणा की -”यदि बादशाह बाहर आएं तो हम उन्हें जान की रक्षा का वचन देते हैं।” कुछ ही पलों बाद जीनत महल बाहर निकलीं। उनके पीछे बादशाह भी पालकी में थे। सुरक्षा का वादा दोहराया गया। घुड़सवारों का काफिला शाही परिवार को अपने सुरक्षा घेरे में लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। हजारों लोगों ने रास्ते में काफी दूर तक चलकर उनका साथ दिया।
बहादुरशाह ज़फर पर जनवरी 1859 के अंत में सैन्य अदालत के तहत अभियोग चला। जब बादशाह पर आरोप लगाकर उनकी विवेचना की जा रही थी, उन्हें यूरोपीय सैलानियों के सामने दिल्ली के एक अजूबे की तरह पेश किया जा रहा था। ज़फर अमूमन निष्क्रियता की ही स्थिति में रहे। सैन्य-अदालत की समूची कर्रवाई दो माह से अधिक समय तक चली। 29 मार्च,1859 को उन्हें सभी अपराधों का दोषी करार दिया गया।
ज़फर को ब्रिटिश सत्ता के विरुध्द बगावत करने का दोषी ठहराया गया। ऐसे मामलों में मृत्युदण्ड का प्रावधान था, लेकिन हडसन ने ज़फर को जीवनदान का वचन दिया था, अत: उन्हें मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था। तय हुआ कि उन्हें या तो अण्डमान निकोबार के किसी द्वीप में या किसी अन्य स्थान में भेज दिया जाए। सात महीनों तक इस बात के लिए दिल्ली, कलकत्ता, रंगून और अंडमान-निकोबार के मध्य पत्राचार होता रहा। अंतत: उन्हें रंगून भेजने का निर्णय किया गया।
वतन से दूर
मौसम साफ था । दिन में खिलखिलाती धूप वतन से दूर जा रहे वतनपरस्तों को सहलाती और रात और सुबह शीतलता प्रदान करती।
अंतत: कारवां कानपुर पहुंचा। वहां स्टीम बोट देख बादशाह अचंभित रह गए। उन्होंने ओमनी से कहा कि उन्होंने इससे पहले कभी इतनी बड़ी और इतनी तीव्र गति से चलने वाली नाव नहीं देखी थी। ओमनी ने उनसे समुद्र की रोमांचक यात्रा का प्रभावशाली वर्णन किया और ज़फर के मन में ऐसी यात्रा की इच्छा जागृत करने का प्रयास किया। कानपुर से उनकी यात्रा इलाहाबाद के लिए प्रारंभ हुई। यात्री, अंग्रेजों के शब्दों में कैदी, उस यात्रा से प्रसन्न थे। एक अधिकारी जार्ज वैगेण्ट्रीबर ने दिल्ली गजेट में लिखा, ”महिलाएं पर्दे के पीछे इसप्रकार बातें करतीं और हंसती हुई सुनाई दे रही थीं मानो उन्हें दिल्ली से प्रस्थान करने का कतई अफसोस नहीं था।”
कानपुर से प्रस्थान करने से पहले जीनत महल अपने पुत्र जवां बख्त पर ऊंची आवाज में चीखती उसे फटकारती हुई सुनी गई थीं। ओमनी के अनुसार इसका कारण जवां बख्त का अपने पिता की एक रखैल के इश्क में पड़ जाना था। मां की डांट-फटकार के बावजूद जवां बख्त ने पिता की उस रखेैल से इश्क लड़ाना बंद नहीं किया। इसने मां और पुत्र के संबधों को बेहद तनावपूर्ण बना दिया था। यही नहीं, जवां बख्त पारिवारिक आर्थिक संकट की परवाह न करते हुए अपने गार्डों को रिश्वत देकर उनसे शराब की बोतलें प्राप्त करता था, इस्लाम में जिसे वर्जित माना गया है। इससे बेटे के प्रति मां का क्रोध कम होने के बजाए बढ़ा ही था। प्रस्थान से पहले जीनत महल का ताज महल बेगम से भी झगड़ा हुआ था। कानपुर से इलाबाद जाते हुए भी झगड़ा होता रहा और जब वे इलाहाबाद के मुगलों के किले में पहुंचे, ताज महल बेगम ने किसी भी कीमत में निर्वासन में न जाकर दिल्ली वापस लौटने की घोषण्ाा कर दी। बादशाह की रखैलों, मिर्जा जवां बख्त की सास और साली ने भी ताज महल बेगम के साथ दिल्ली लौट जाने का निर्णय किया। परिणामत: पन्द्रह लोगों ने ज़फर के साथ कलकत्ता के लिए प्रस्थान किया था।
8 दिसम्बर को मागरा नामक जहाज से बादशाह और उनके दल ने अपने प्यारे वतन को अलविदा कह कलकत्ता से रंगून के लिए प्रस्थान किया।
इस तरह बहादुरशाह ज़फर के जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ। कौन जानता है कि दिल्ली से कलकत्ता और कलकत्ता से रंगून की लंबी यात्रा के दौरान वे क्या सोचते रहे थे – अपने गौरवशाली पुरखों के बारे में? लाल किले और दिल्ली में गुजरे अपने बचपन और जवानी के दिनों के बारे में या क्रांति की उन आंधियों के बारे में जो सारे उत्तर भारत से उठकर उनके पास तक चली आई थीं? या वे आने वाले उन दिनों के बारे में सोच रहे थे जब दूर परदेश में गुमनाम रहकर मौत तक जीना होगा?
1857 का विद्रोह कुचला गया। अंग्रेजों ने निर्ममता से प्रतिशोध लिया। गांव के गांव जलाए गए। अवध के पेड़ टंगी लाशों से भर गए। खुद को सभ्यता का शिक्षक बताने वाले लुटेरों ने समूची दुनिया के इतिहास मे बर्बरतम हत्याएं कीं- जिनकी वास्तविक संख्या का कोई हिसाब नहीं हैं। विद्रोह के नेता मारे गए या तराई-वनों के जंगलों में बिला गए। दिल्ली की बराए-नाम मुगल सल्तनत भी इतिहास के सफों में आखिरी तौर पर सिमट गई। बस, हजारों मील के फासले पर, देश से दूर जलावतन बादशाह आखिरी घिड़ियां गिनता जिंदा था….
7 नवम्बर, 1862 (शुक्रवार) की सुबह पांच बजे मुगल वंश के इस अंतिम सम्राट ने अपने देश से हजारों मील दूर रंगून की धरती पर अंतिम सांस ली और इस संसार को अलविदा कहा। उसी दिन शाम चार बजे उन्हें कब्र के हवाले कर दिया गया। डेविस ने इस बात का ख्याल रखा कि अंत्येष्टि के समय बहुत कम लोग उपस्थित रहें। उस समय उनके दोनों पुत्र उपस्थित थे, लेकिन मुस्लिम रिवाज के अनुसार कोई महिला नहीं थी।
डेविस ने कब्र के चारों ओर कुछ दूरी पर बांस का बाड़ा बनवा दिया था और कब्र के ऊपर हरी घास छितरा दी थी, जिससे कोई यह न जान सके कि तीन सौ पचास वर्षों तक हिन्दुस्तान पर शासन करने वाली महान सल्तनत का अंतिम बादशाह वहां दफ्न है। डेविस ने लिखा कि ज़फर को कब्र में दफनाते समय कोई एक सौ दर्शक थे और ये वैसे ही लोग थे जैसे घुड़दौड़ देखने वाले या सदर बाजार घूमने जाने वाले लोग हों। ज़फर की मृत्यु से रंगून के मुसलमानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इस राजा की मृत्यु उनके लिए किसी आम व्यक्ति की मृत्यु जैसी ही थी।
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अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य
ऐसे काबिज हुए भारत में अंग्रेज
अंग्रजों ने किस प्रकार भारत में अपने पैर पसारे यह जानना उतना ही आवश्यक है जितना अंतिम मुगल सम्राट की जीवन शैली। 31 दिसम्बर, 1599 को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की स्वीकृति पर हस्ताक्षर किए थे। कंपनी ने सूरत से व्यवसायिक गतिविधियां प्रारंभ कीं। उसने दिल्ली के मुगल सम्राट की अनुमति प्राप्त कर अन्य स्थानों में भी अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए। व्यापार के प्रयोजन से भारत आने वाली वह अंतिम योरोपीय कंपनी थी। 1448 में पुर्तगाली और 1595 में डच यहां आए थे। 1726 तक कंपनी ने लंदन के लीडल हॉल स्ट्रीट में अपना हेडक्वार्टर स्थापित कर लिया था और वह जॉन कंपनी (JOHN COMPANY) के नाम से जानी जाने लगी थी। 1750 जक बंगाल के पचहत्तर प्रतिशत वस्तुओं का प्रबंधन उसने अपने हाथ में ले निया था। अपने पैर जमाने के लिए कंपनी ने विदेशी प्रतिद्वद्वियों और देशी राजाओं के साथ निरंतर युध्द लड़े। 1757 में प्लासी, 1764 में बक्सर, 1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799 में उसे मैसूर के साथ युध्द लड़ने पड़े थे। प्लासी के युध्द के बाद कंपनी एक राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरी थी।
1765 में कंपनी ने दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय के साथ बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त करने का करार किया। दीवानी का अर्थ था उन स्थानों से राजस्व उगाही करने का अधिकार। राबर्ट क्लाइव ने कंपनी की एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता अनुभव की, हालंांकि उससे पहले स्ट्रिंगर लारेंस 1748 में इस बात की शुरुआत कर चुका था। क्लाइव ने सेना में अवध और बिहार के राजपूतों और ब्राह्मणों को भर्ती किया। 1770 में तराई में कंपनी के विस्तार के बाद उसने पहाड़ी आदिवासियों को भी सेना में भर्ती करना प्रारंभ कर दिया। 1790 में ब्रिटिश सेना में एक लाख लोग भर्ती हो चुके थे। 1824 में यह संख्या एक लाख चौवन हजार और 1856 में 2,14,000 (दो लाख चौदह हजार) थी । अर्थात 1857 में जब क्रांति प्रारंभ हुई, अंग्रेजों के पास एक शक्तिशाली सेना थी। जब 1837 में विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी बनीं, लगभग सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप अ्रंग्रेजी राज्य का हिस्सा बना चुका था। नौ करोड़ भारतीयों पर पचास हजार अंग्रेज कर्मचारी शासन कर रहे थे।
1837 का वर्ष विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण है। उस वर्ष एक ओर विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी बनीं तो दूसरी ओर मिर्जा अबू ज़फर दिल्ली के सम्राट। उन्होंने अबुल मुजफ्फर सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुरशाह बादशाह गाजी की उपाधि धारण की।
मिली-जुली संस्कृति के पोषक ज़फर
गालिब का मानना था कि यदि ईश्वर या खुदा व्यक्ति के अंदर निवास करता है तब उसे धार्मिक विधि-विधानों की अपेक्षा प्रेम से पाया जा सकता है और वह हिन्दू और मुसलमान – दोनों के लिए उपगम्य है। इसीलिए जब गालिब एक बार बनारस गए तब उन्होंने विनोदपूर्वक लिखा कि उनकी इच्छा सदा के लिए वहीं बस जाने की थी। वहां उनके हाथ में पवित्र धागा बांधा गया, माथे पर तिलक लगाया गया और उन्हें गंगा के किनारे बैठाकर यह कहा गया कि गंगा की एक बूंद भी उनके पापों का प्रक्षालन कर देगी।
हिन्दुओं के प्रति बहादुरशाह ज़फर और उनके कुछ पूर्वजों का दृष्टिकोण गालिब से भिन्न नहीं था। हिन्दुओं के संरक्षण में ज़फर अपनी अहम भूमिका अनुभव करते थे। उनकी एक रचना में कहा गया है कि हिन्दू और मुस्लिम धर्मों का सार एक ही है। उनके दरबार में हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता का समन्वित दर्शन प्राप्त होता था और दोनों ही समुदाय हर स्तर पर इस सभ्यता को बरकरार रखने का प्रयत्न करते थे। हिन्दू अभिजन हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह में जाते थे, हाफ़िज को उध्दृत करते थे और फारसी कविताओं के प्रशंसक थे। उनके बच्चे, विशेषरूप से प्रशासकीय पदों पर आसीन खत्री और कायस्थों के बच्चे, मौलवियों से शिक्षा ग्रहण करते थे और उदारवादी मदरसों में जाते थे। यहां यह बताना अनुचित नहीं कि हिन्दुस्तान में कार्यरत आज के मदरसों और ज़फर के दौर में दिल्ली में अवस्थित मदरसों में बहुत बड़ा अंतर था। ज़फर के दौर की दिल्ली के मदरसों में अधिकांश उदारवादी और प्रगतिशील विचारों की शिक्षा दी जाती थी। आज की भांति उनमें कट्टरता नहीं थी। अनेक महान हिन्दू विचारक, और राजा राममोहन राय जैसे सुधारक उन मदरसों की ही देन थे।
ज़फर के दरबारी दस्तावेज यह बताते हैं कि किस प्रकार ज़फर सोत्साह अपने दरबारियों, पत्नियों और रखैलों के साथ होली का त्योहार मनाते थे। इस त्योहार का शुभारंभ वह हिन्दू परम्परानुसार सात कुओं के पानी के स्नान से करते थे। तदनंतर वह सभी के साथ विभिन्न रंगों और गुलाल के साथ होली खेलते थे।
हिन्दुओं के त्योहार दशहरा के अवसर पर महल में हिन्दू अधिकारीयों द्वारा उन्हें नज़राना भेंट किए जाते और शाही घोड़ों को रंगकर सजाया जाता था। रात में बहादुरशाह ज़फर रामलीला और रावण पर राम की विजय और रावण और मेघनाथ के पुतलों का जलाया जाना देखते। इस अवसर पर ज़फर शोभायात्रा के मार्ग का परिवर्तन भी सुझाते जिससे वह महल के हर कोने से होकर गुजरे और लोग उसका आनंद उठा सकें। दीपावली के दिन ज़फर सात प्रकार के आनाजों से अपने को तुलवाते और उसे गरीबों में बंटवाते थे।
दस्तावेजों के अनुसार बहादुरशाह ज़फर हिन्दू भावनाओं के प्रति विशेष संवेदनशील थे। एक शाम जब वह यमुना किनारे घोड़े पर सवार हवाखोरी कर रहे थे- एक हिन्दू ने उनके सामने मुसलमान बनने की इच्छा व्यक्त की। ज़फर के प्रधानमंत्री हाकिम अहसानुल्ला खां ने निवेदन किया कि उस व्यक्ति के अनुरोध पर ध्यान देना उचित नहीं होगा। ज़फर ने उस व्यक्ति को वहां से हटवा दिया था।
प्रतिवर्ष फूलवालों की सैर प्राचीन जोगमाया मंदिर और कुतुब साहिब के मकबरा महरौली में मनाया जाता (आज भी यह परंपरा जारी है) और ज़फर साहब उसमें शिकरत करते। लेकिन उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि वह मकबरे में पंखे के साथ नहीं जाएगें, क्योंकि मंदिर में उसके साथ नहीं जाते थे।
एक बार ईद के अवसर पर लगभग दो सौ मुसलमानों का दल ज़फर के पास गया। वे गाय काटने की अनुमति चाहते थे। दृढ़ और क्रुध्द स्वर में यह कहते हुए कि – ”मुसलमानों का धर्म गोवध पर निर्भर नहीं है।” ज़फर ने गोवध की अनुमित नहीं दी थी।
ऐसी थी तब दिल्ली
बहादुरशाह ज़फर के समय में पूरे हिन्दुस्तान में दिल्ली के मदरसों की प्रतिष्ठा थी। दूर-दूर से युवक वहां पढ़ने के लिए आते थे। पानीपत के एक युवा कवि उनसे इतना प्रभावित थे कि उन्होंने अपना घर त्याग दिया और खाली जेब पैदल ही दिल्ली जा पहुंचे। ये थे अल्ताफ हुसैन हाली। हाली अपनी शादी छोड़ रात के अंधेरे में दिल्ली के लिए भाग खड़े हुए थे। इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़े, लेकिन उनके मन में दिल्ली के मदरसों में पढ़ने की चाहत थी। बाद में उन्होंने लिखा, ”घर में सभी चाहते थे कि मैं कोई काम करूं, लेकिन में पढ़ने के लिए बेचैन था।”
दिल्ली उन दिनों बौध्दिकों का केन्द्र थी और 1850 के आसपास सांस्कृतिक स्तर पर वह सभी को आकर्षित कर रही थी। उन दिनों दिल्ली में छ: बड़े और चार छोटे मदरसे थे और उर्दू और फारसी के नौ अखबार निकलते थे। दिल्ली कॉलेज से पांच बौध्दिक जर्नल प्रकाशित होते थे। अगणित प्रकाशक थे और कम से कम एक सौ तीस यूनानी डाक्टर थे। पाश्चात्य विज्ञान की अनेक महत्वपूर्ण खोजों का अरबी और फारसी में अनुवाद किया गया था और अधिकांश कॉलेजों और मदरसों में बौध्दिक खुलापन सुस्पष्ट था।
गालिब, जोक, साहबई, और अज़ुर्दा जैसे बौध्दिक और कवि तब दिल्ली में मौजूद थे। ”सौभाग्य से, ”हाली ने लिखा, ”उन दिनों राजधानी दिल्ली के प्रतिभासंपन्न लोगों का मिलना और एकत्र होना अकबर और शाहजहां के दौर की याद ताजा कर देता था।” हाली का परिवार उन्हें खोजकर वैवाहिक बंधन में बांधने में सफल होता उससे पहले ही वह हुसैन बख्श के विशाल और खूबसूरत मदरसा में प्रवेश पाने में सफल रहे थे। अपनी वृध्दावस्था में उन्होंने लिखा, ”मैंने उस वैभवशाली मदरसा की अंतिम बुझती लौ अपनी आंखों से देखी थी और यह सोचकर दुख से मेरा हृदय फटा जा रहा है।”
उन दिनों चांदनी चौक के दुकानदार ठीक नौ बजे सुबह अपनी दुकानें खोल देते थे। सबसे पहले वे भिखारियों को कुछ दान देते जो उनकी दुकानों के सामने से अपने कटोरों में सिक्के खनखनाते घूमते हुए निकलते थे। उनमें दिल्ली के कुछ ‘पवित्र पागल’ कहे जाने वाले स्त्री-पुरुष भिखारी भी होते थे। ऐसे पागलों में एक दीन अली शाह और बाई जी अधिक प्रसिध्द थे, जो अपनी सुध-बुध खोए चांदनी चौक में घूमते रहते थे ।
patriots forumसे साभार

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