जीवन

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तेरहवीं का पूजन शुरू होने वाला था | पंडित जी आ चुके थे | इतनी भीड़ के बावजूद घर में मृत्यु का सन्नाटा पसरा हुआ था | पंडित जी ने पूजन शुरू करने से पहले लोगों की ओर देखा फिर कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय “ तभी मृतक की पत्नी प्रीती की करुण चीख सुनाई पड़ी ,” बस करिए पंडित जी , मत करिए ये आत्मा परमात्मा और जीवन की बातें | इसका क्या फायदा ? १२ साल के वैवाहिक जीवन अपना एक अंश भी तो नहीं छोड़ गए सुधीर जिसके सहारे मैं जिंदगी काट लेती | अब इस घर में दीवारों पर सर मारने के लिए अकेली मैं ही बची हूँ जिन्दा ,

और मेरे साथ बचा है सुधीर की मौत का सच | अब कभी आएगी तो मेरी मौत ही आएगी | इस घर में कभी जिंदगी नहीं आ सकती कभी नहीं | प्रीती के दर्द से पंडित जी के साथ – साथ सभी की आँखें नम हो गयी | फिर पंडित जी पाटे से उठ कर बोले ,” ये सच नहीं है बेटी , देखों सुधीर के जाने के बाद भी इस घर में जीवन आया है ,विभिन्न रूपों में , वो उस रोशनदान में गौरैया के घोंसले में अण्डों से चूजे निकल आये हैं | जिनकी ची – ची का शोर पूरे घर में सुनाई दे रहा है | तुम्हारे आँगन के आम के पेड़ पर न जाने कितनी कच्ची अमिया लटक रही है , कभी गिना है तुमने | ये बेल भी कुछ और छएल गयी है |और उस गुलाब को तो देखो कितने काँटों के बीच सर उठा कर हम सब की जीवनदायनी वायु को सुवासित कर रहा है | प्रीती आँखें फाड़ – फाड़ कर देखने लगी | सच में शोक के इन दिनों में भी उसके अपने घर में जीवन कितने रूपों में प्रगट हुआ है | पंडित जी फिर पातटे पर जा कर बैठ गए | उन्होंने फिर से कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” पर इस बार प्रीती ने कोई प्रतिरोध नहीं किया | सुधीर की यादें तो सदा साथ रहेंगीं पर वो जीवन के समग्र व् सतत रूप को स्वीकार कर चुकी थी |

वंदना बाजपेयी

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