स्त्री देह और बाजारवाद ( भाग – तीन ) -कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया ?

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दिनांक ६ /६ /17 को स्त्री देह और बाजारवाद पर एक पोस्ट डाली थी | जिस पर लोगों ने अपने अपने विचार रखे | कई मेल भी इस विषय पर प्राप्त हुए | कल आपने इस विषय पर पुरुषों  के प्रतिनिधित्व के विचार पढ़े | आज पढ़िए कुसुम पालीवाल जी के विचार ...


पहले की लिंक …


स्त्री देह और बाज़ारवाद (भाग – २ ) लडकियां भी अपनी सोंच को बदलें


स्त्री देह और बाजारवाद ( भाग -1 )




आज की कड़ी – कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया ?








औरत को आदिकाल से लेकर आज तक देह ही समझा जा रहा है ये कोई माने न माने … देह का मतलब सैक्स पूर्ती तो है ही शारिरिक कार्य से भी है … उसका अपना मत क्या है ये कोई नहीं पूछता , न पहले ही न आज ही । 
राजा महाराजाओं के वक्त से आज तक औरत का दोहन हो रहा है , पहले मनोंरंजन का साधन थी , फिर कोठों पर बैठाई गई ,आज मार्केट में प्रसाधनों पर छापी जा रही है , कब औरत को उसका पूरा मान सम्मान दिया गया । 

रहा काव्य सृजन का सवाल तो रिति काल में भी कवियों ने नारी के शिख से लेकर पैरों के एड़ी तक का वर्णन कर डाला …यहाँ तक उसके बक्षस्थल और योनि तक का बखान कर डाला । आज जिस तरह से , आज का पुरूष समाज कहता है कि घर से निकलोगी तो ये सब कुछ तो होगा ही , इक्कीसवी शताब्दी में भी औरत को आजादी नही मिलेगी तो कब मिलेगी । पुरूष ने कहीं भी औरत को सम्पूर्ण आजादी नही दी है …आजादी का मतलब ये नहीं कि वो नग्न हो कर नाचना चाहती है वो मानसिक रूप से आजादी चाहती है । 

                                                                               पुरूष ने उसे उसे उस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया जहाँ सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं जीने के लिए तो उसकी बैचारगी दूर करने के लिए भी इसी समाज के पुरूषवर्ग ने ही कोठो पर बैठा दिया । यहीँ पर दोष स्त्री जाति का कम और पुरूष जाति का ज्यादा है ..याद रखें जब भी नारी को ठुकराया है इस पुरूष जाति ने तब तब तब उसी पुरूष जाति ने उसे कोठे या कॉल गर्ल के धन्धे में लिप्त किया ।

यहाँ पर एक के बदलने से समस्या का समाधान नही वल्कि दोनो की मानसिकता बदलनी चाहिए , अब मानसिकता को ही लें जगह जगह पर ऐसे पुरूष दिखलाई दे जाते हैं जो अश्लीलता की हदें पार कर चुके होते हैं ,उनको क्या कहा जायेगा ? वही एक लड़की डीप नैक या शोर्टस पहने दिँखती है तो समाज बबाल खड़ा कर देता है । तो ये सब क्या है ? क्या मानसिकता का नजरिया नहीं है क्योकि कोई काम धन्धा नही है लड़कियों को घूरो .. जहाँ तक निगाह पहुँचे खरोंच डालो आँखो ही ऑंखों में । 
जब आप खुद को संभालेगें तब देश बदलेगा , नई सोच और हैल्दी सोच का प्रादुर्भाव होगा .. इसमें स्त्री पुरूष दोनो को ही बदलना होगा ।



कुसुम पालीवाल 





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