यात्रा

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वंदना बाजपेयी
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ये जीवन एक सफ़र ही तो है और हम सब यात्री 
जीवन की गाडी तेजी से आगे भागती जा रही है | खिड़की से देखती हूँ तो खेत खलिहान नहीं दिखते | दिखता है जिन्दगी का एक हिस्सा बड़ी तेजी से पीछे छूटता जा रहा | वो बचपन की गुडिया , बचपन के खिलौने कब के पीछे छूट गए , पीछे छूट गए वो चावल जो ससुराल में पहला कदम रखते ही बिखेर दिए थे द्वार पर , बच्चों की तोतली भाषा , स्कूल का पहला बैग , पहली सायकिल … अरे – अरे सब कुछ पीछे छूट गया | घबरा कर खिड़की बंद करती हूँ | 

अंदर का दृश्य और भी डरावना है | 
कितने सहयात्री जो साथ में चढ़े थे | जिनसे मोह के बंधन बंधे थे | कितने किस्से , कितने सुख दुःख बांटे थे | कितने कसमें – वादे किये थे | अब दिखाई नहीं दे रहे | शायद उनका स्टेशन आ गया | पता नहीं वो उनका गंतव्य था या किसी नयी ट्रेन में चढ़ गए | उतरने से पहले बताया भी नहीं | उनकी सीटो पर नए यात्री बैठ गए हैं | पर उनकी जगह अब भी खाली है | ये खाली पन भरता ही नहीं |एक शून्य बना देता है ठीक मन के बीचों बीच | मैं मन को बस कसना चाहती हूँ , बस अब बहुत हुआ , अब कोई मोह का बंधन नहीं |

 पर सफ़र काटना भी तो मुश्किल है | 

इतना सतर्क होने के बाद भी न जाने फिर से कैसे मोह के बंधन बंधने लगते हैं | फिर से एक नया शून्य उत्पन्न करने के लिए | फिर भी यात्रा जारी है | अभी सब इत्मीनान में दिख रहे हैं | पर कब तक ? पता नहीं कब , कौन से स्टेशन पर मैं भी उतर जाउंगी , … किसी नयी ट्रेन में चढ़ने के लिए | फिर होंगे नए सहयात्री ,नए खिलौने , नए चावल … और एक नयी यात्रा | 

आखिरकार हम सब यात्री ही तो है |


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