परिवार

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सुनीता त्यागी 
मेरठयू. पी.
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एकमात्र
पुत्री के विवाह के उपरांत मिसिज़ गुप्ता एकदम अकेली हो गयी थीं। गुप्ता जी तो
उनका साथ कब का छोड़ चुके थे। नाते रिश्तेदारों ने औपचारिकता निभाने के लिए एक-दो
बार कहा भी था कि अब बुढ़ापे में अकेली कैसे रहोगी
, हमारे साथ ही रहो। बेटी ने भी बहुत
अनुरोध किया
; परन्तु
मिसिज़ गुप्ता किसी के साथ जाने को सहमत नहीं हुईं।
 



शाम के
वक्त
, छत पर
ठंडी हवा में घूमते हुए घर के पिछवाड़े हॉस्टल के छात्रों को क्रिकेट खेलते देखना उन्हें
बहुत भाता था। कई बार बच्चों की बॉल छत पर आ जाती। वे दौड़कर उसे फेंकतीं तो लगता
मानो उनका बचपन लौट आया है। कई बार वह छत पर नहीं होतीं और बच्चे स्वयं उसे लेने आ
जाते। तब मिसिज़ गुप्ता उनसे पल भर में ढेरों सवाल पूछ बैठतीं
, बच्चों से बातचीत का सिलसिला धीरे-धीरे
बढने लगा। जब वो गेंद लेने आते तो वह उन्हें जबरदस्ती अपने हाथ की खीर खिलातीं।
  कभी तीज-त्यौहार पर सारे बच्चों
को
  ढेर सारे पकवान बनाकर बडे़ प्यार से खिलाकर भेजतीं। कई बार  झगड़ते देख उन्हें डांट लगाने
में भी पीछे नहीं रहतीं। बच्चों को भी उनमें एक मां दिखने लगी थी।
 


छात्रों
की परीक्षा समीप आ गयीं थीं । खेल के मैदान में उनका आना कम हो गया था। मिसिज़
गुप्ता कुछ उदास-सी रहने लगीं थी। कुछ दिन से स्वास्थ भी खराब रहने लगा था। पढाई
करते हुए एक छात्र को एक दिन एकाएक आंटी की याद आ गयी तो कुशलक्षेम पूछने उनके घर
पहुँच गया। देखा कि मिसिज़ गुप्ता तेज बुखार से तप रहीं थीं। बात पूरे छात्रावास
में आग की तरह फैल गयी। कई लड़के आनन-फानन में उन्हें लेकर हस्पताल पहुंच गये।
अनेक जाँच के बाद डाक्टर ने बताया
, ‘कमजोरी बहुत ज्यादा आ गयी है, खून चढाना पडेगा।फिर पूछा, ‘इनके परिवार से कौन हैं?’ 
यह सुनते
ही वहाँ उपस्थित सारे छात्र एक स्वर में बोल पडे़
, “मैं हूं डाक्टर साहब।” 


अपने
इतने विशाल परिवार को देखकर मिसिज़ गुप्ता की आँखों से खुशी के मोती लुढ़क पडे।
डॉक्टर भी अपनी भावुकता को छिपा न पाया।

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