प्रेम भरद्वाज –शोकाकुल कर गया शब्दों के जादूगर का असमय जाना

0

 

 

प्रेम भरद्वाज -25 अगस्त 1965-10 मार्च 2020

प्रेम भरद्वाज, एक ऐसा नाम जिनका जिक्र आते ही ध्यान में जो पहली चीज उभरती है वो है मासिक साहित्यिक पत्रिका “पाखी” में लिखे हुए उनके सम्पादकीय| शब्दों के जादूगर प्रेम भरद्वाज इसे पूरी निष्ठा और हृदय से लिखते थे| जिनके बारे में वो खुद कहते थे कि, “इन्हें मैंने मैंने सम्पादकीय की तरह से ना लिख कर रहना की तरह लिखा है और खूब दिल से लिखा है|

लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले प्रेम भरद्वाज जी से मेरा परिचय ‘पाखी’ के संपादक के तौर पर हुआ था|  और पहली मुलाकात उनके सम्पादकीय संग्रह”हाशिये पर हर्फ़” के विमोचन के अवसर पर हिंदी भवन में| अपने इस संग्रह के बारे में वो  इस किताब में लिखते हैं …

“मेरी चिंताओं में साहित्य का सीमित संसार ना होकर समग्र संस्कृति और समाज में बह रही बदलाव की आंधी के बीच का ‘इत्यादि’ है जो एक साथ कई मोर्चों पर जूझता हुआ हाशिये पर अकेला है| पत्रकारिता ने मुझे घटनाओं को खबरों में ढालना सिखाया, तो साहित्य ने तात्कालिक सवालों से मुठभेड़ करते हुए समय में धंसना | इस दुनिया और जिन्दगी को ‘जलसाघर’ ना मानने के कारण मेरे भीतर एक जद्दोजहद जारी है इसमें सत्य-असत्य की फांक

 

उनके सम्पादकीय में एक ख़ास बात होती थी …वो बहुत निराशा और अँधेरे से उसकी शुरुआत करते थे और ऐसा लगता था कि वो हाथ में एक छोटी सी टॉर्च  थामे पाठक को किसी अँधेरी सुरंग में ले जारहे हैं| पाठक कई बार बीच में घबराता है, तड़पता है और अंत में वो उसे सुरंग से बाहर ला कर सच्चाई के सूरज के सामने खुली हवा में खड़ा कर देते हैं| तमाम इफ एंड बट के झूलते मन के बीच यह एक सुकून भरी साँस होती थी| पाठकों के बीच में उनका यह स्टाइल बहुत लोकप्रिय था| निराशा की प्रतिध्वनि उनके कहानी संग्रह ‘फोटो अंकल’ की कहानियों से भी आती है| उनका जीवन भी इसी निराशा में एक टॉर्च जला कर कुछ सकारात्मक ढूँढने जैसा था |उनकी कहानियों के विषय में नामवर सिंह जी ने कहा था …

प्रेम भरद्वाज की भाषा काबिले तारीफ़ है, इनकी अधिकतर कहानियाँ विषय में वैविध्य के साथ उपन्यास की सी सम्वेद्नालिये रहती हैं| 

हाशिये पर हर्फ़ में उनका जीवन परिचय मिलता है …

25 अगस्त, १९६५ में बिहार के छपरा जिले में गाँव विक्रम कौतुक में जन्म| शिक्षा वहीँ के टूटे फूटे विध्यालाओं में दरख्तों के साए में टाट बोरा बीचा कर| छठी कक्षा सेफौजी पिता केसाथ गाँव से विस्थापित| जीवन के डेढ़ दशक विभिन्न शहरों दार्जिलिंग, दिल्ली, इलाहबाद और पटना में बीते| पिता की असहमति के बाद साहित्य के बिरवे को मन में रोप, माँ ने गढ़ा और पत्नी ने परवान चढ़ाया|

 

उन्होंने  निजी जीवन में भी अभी कुछ वर्ष पहले अपनी माँ व् पत्नी का वियोग झेला था | अपनी पत्नी की मृत्यु पर लिखे गए उनके सम्पादकीय के कुछ अंश …

स्त्री पुरुष के लिए पगडंडी, सीढ़ी और पुल… होती है जिनसे होकर पुरुष गुजरता, पार होता है। जयी होता है। और फिर भूल जाता है पगडंडी, सीढ़ी, पुल जो उसकी कामयाबी के कारण थे। स्त्री मायने पत्नी ही नहीं- मां, बहन, प्रेमिका और दोस्त भी। उत्सर्ग का दूसरा नाम है स्त्री। औरत जल है, पुरुष उसमें तैरती मछली। पुरुष जहां सबसे पहले तैरता है वह स्त्री का गर्भ होता है जहां पानी भरा रहता है। बेशक नौ महीने बाद पुरुष उस जल से बाहर आ जाता है। मगर रहता है ताउम्र औरत के स्नेह-जल में ही। जब कभी भी वह उससे बाहर आता है, जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगता है या मछली से हिंसक मगरमच्छ बन जाता है वह भी मेरे लिए जल थी। अब मैं जल से बाहर हूं, मछली की तरह छटपटाता। प्रत्येक स्त्री दिल की तरह होती है जो हर पुरुष के भीतर हर घड़ी धड़कती रहती है। मगर पुरुष इस बात से अनजान रहता है। उसे उसकी अहमियत का पता भी नहीं होता है। पहली बार उसे फर्क तब पड़ता है जब दिल बीमार हो जाता है। जीवन खतरे के जद में दाखिल होता है। जिंदगी खत्म हो सकती है, इस डर से दिल का ख्याल। अक्सर होने और खत्म हो जाने के बाद भी हम इस बात से अनजान रहते हैं कि हमारे भीतर कोई दिल भी था जो सिर्फ और सिर्फ हमारी सलामती के लिए बिना थके, बिना रुके, बगैर किसी गिले-शिकवे के हर पल धड़कता रहा।

 

पाखी और प्रेम भरद्वाज

              प्रेम भरद्वाज जी ने एक लम्बा समय पत्रकारिता में गुज़ारा …लेकिन पाखी उनकी पहचान बन गयी और वो पाखी की | राजेन्द्र यादव जी के समय में अगर कोई साहित्यिक पत्रिका हंस का मुकाबला कर पा रही थी तो वो पाखी ही थी| इसका कारण था प्रेम भरद्वाज जी का रचनाओं काचयन, लेखकों और पाठकों से उसको जोड़ने का प्रयास और सबसे ऊपर उनका सम्पादकीय| उनके सम्पादकीय के बारे में स्वयं राजेन्द्र यादव जी ने कहा था कि …

“ मैं प्रेम भरद्वाज जी के सम्पादकीय लेखों का फैन हूँ| ये सम्पद्कीय सचमुच पढ़े जाने लायक है| पढने से ज्यादा मनन करने लायक| मुझे लगता है प्रेम जिस उन्मुक्तता व् पैशन के साथ लिखते हैं, उस तरह कम लोग लिख रहे हैं|”

संसाधनों की कमी से जूझती साहित्यिक पत्रिकाओं में असर संपादक रचनाओं से समझौता  कर लेते हैं पर उन्होंने अपने संपादन काल में ऐसा नहीं होने दिया और सोशल मीडिया पर सुनने  में आया कि कई बार उन्होंने अपनी सेलेरी भी नहीं ली, पर पत्रिका की गुणवत्ता में कमी नहीं आने दी|

हंस और राजेन्द्र यादव के नक़्शे कदम पर चलते हुए उन्होंने विवादों का इस्तेमाल पाखी की लोकप्रियता बढ़ाने  में किया| अक्सर किसी बात पर वो पक्ष विपक्ष की मुठभेड़ करा देते थे| जिसे पाखी में प्रकशित भी करते थे| इसने पाखी को ऊँचाइयों  पर भी पहुँचाया और विवाद में भी फँसाया| अभी हालिया विश्वनाथ त्रिपाठी जी का विवाद अमूमन सबको याद होगा |

कुछ ऐसे भी विवाद थे जिनके बारे में तब पता चला जब उनका  और पाखी का साझा सफ़र समाप्त हुआ| इस अँधेरे में फिर से टॉर्च जला कर आगे की यात्रा करते हुए उन्होंने एक नयी पत्रिका ‘भवन्ति’ की शुरू आत की| पहले ही अंक से पत्रिका ने  पाठकों को लुभाया परन्तु विधि को कुछ और ही मंजूर था| कैंसर डिटेक्ट होने बाद भी भवन्ति का अगला अंक लाये| आशंका के तमाम बादलों के बीच उन्होंने पाठकों को भरोसा दिलाया कि वो भवन्ति का अगला अंक भी लाने जा रहे हैं तभी खबर आई  की उनको ब्रेन हेम्ब्रेज हो गया है और उसके कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी |

 

विवाद दुनियावी होते हैं उनकी आयु अल्प होती है | उनकी मृत्यु से पूरा साहित्य जगत सकते में आ गया| मित्र या शत्रु सभी उनकी कलम का लोहा मानते थे और सबको उम्मीद थी कि वो अभी साहित्य को अपनी कलम से और समृद्ध करेंगे| उनका जाना बहुत दुखद है ….पर वो अपने सम्पादकीय, सम्पादकीय संग्रह”हाशिये पर हर्फ़”अपने कहानी संग्रह ‘फोटो अंकल’ व् ‘इंतज़ार पांचवें सपने का’ के द्वारा सदा याद किये जाते रहेंगे |

अटूट बंधन की तरफ से कलम के जादूगर को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

फोटो क्रेडिट –कॉफ़ी हाउस

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here