एक्शन का रिएक्शन

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रश्मि तारिका
न्यूटन का तीसरा नियम ऐक्शन का रिऐक्शन प्रकृति में ही इंसानी जिंदगी में भी काम करता है | अब आम औरतों की जिंदगी को ही लीजिए,”सारा दिन तुम करती ही क्या रहती हो ?” के ताने झेलने वाली स्त्री दिन भर चक्करघिननी बनी सारे घर को ही नहीं सारे रिश्ते नातों,परंपराओं का बोझ अपने नाजुक कंधों पर उठाए रहती है |लॉकडाउन के समय में उसका काम और घरवालों की अपेक्षाएँ और बढ़ गईं हैं |ऐसे में खुद के शरीर के प्रति लापरवाह हो जाना और शरीर की दिक्कतें बढ़ जाना स्वाभाविक ही है | आखिर इंसान समझे जाने की दिशा में क्या हो उसका ऐक्शन ..  पढिए रश्मि तारिक जी की कहानी ..

एक्शन का रिएक्शन

दरवाज़े की आहट से शिल्पा उठ गई।सामने निखिल खड़े थे ,माथे पर त्योरियाँ चढ़ाए।
“क्यों ,आज खाना नहीं बनेगा क्या ?दो बजने को हैं ,और तुम आराम से बैठी हो।”निखिल का स्वर बाहर के तापमान की तरह ही गर्म था।
“सुनिए ,मेरी कमर में बहुत दर्द है।आप आज मांजी से कह दीजिये न ।बस चपाती ही तो बनानी है।सब्जी कढ़ाई में बना कर रखी है।”
“मैं नहीं कह पाऊँगा उन्हें..और माँ की तबीयत तो तुम जानती ही हो।”कहते हुए निखिल कमरे से निकल गए।
उफ़्फ़ ..! बारह बजे सब को भारी भरकम नाश्ता करवाकर सोचा था दो घण्टे अब आराम कर पायेगी।पर यहाँ तो दो बजते ही फिर लंच की पुकार।कई बार लगता कि घर के सभी सदस्य पेट की भूख नहीं मानसिक भूख के सहारे जीते हैं।पेट भरा  हो तो भी नाश्ते का समय हो ,लंच का समय ,शाम की चाय से रात के खाने तक सब कुछ समय पर आधारित। न आधा घण्टा पहले न आधा घण्टा बाद में।शिल्पा को वह बात बेकार लगती कि इंसान के दिल का रास्ता पेट से होते हुए जाता है।यहाँ तो दिमाग की घण्टी बजती थी तो पेट से आवाज़ आती थी।दिल तो बीच राह कहीं था ही नहीं।खुद वह भी उन सब के पेट तक पहुंचते हुए अपने दिल की राह भूल जाती थी।उसकी अपनी  ज़रूरतें और इच्छाएँ भी कोने में पड़ी डस्टबीन में पड़ी चिढ़ा रही होती थीं ।कभी बच्चों के समय तो कभी पति के हुकुमनामों के बीच वह जूझ रही होती थी और पेन किलर खाकर फिर अगले काम के लिए जुट जाती।आज तो पेनकिलर से भी आराम नहीं आया था।
निखिल का जवाब सुन एक लंबी साँस लेकर शिल्पा उठ गई।दर्द और बेरुखी से उपजे आँसूं समेटते हुए रोटी बेलने लगी ।जैसे तैसे निखिल को खाना दे कर ,बाकी सब की रोटी बनाकर फॉयल में लपेट कर रख दी ।थोड़ी सी सब्जी और अमूमन दो लोइयों की एक मोटी अधपकी सी ,ठंडे तवे और ठंडे मन की रोटी लेकर बैठ गई मानो शरीर रूपी गाड़ी में इस रोटी का डीज़ल ही भरना है ताकि रात तक उसकी गाड़ी सुचारू रूप से चलती रहे। बेदिली से दो कौर खा कर पानी पी लिया मानो उसे ज़बरन गले से उतारना हो। पास पड़ा मोबाइल उठाया ,देखा निशा की मिस कॉल थी।दर्द की वजह से हिम्मत तो नहीं थी लेकिन एक निशा ही तो है जिससे बात करके दिल हल्का हो जाता था।अपनी इस दोस्त को अपना दर्द निवारक मानती थी।पलकों में उपजी नमी होठों पर मुस्कान बन खिल गई।
“हाँ ,बोल निशु…!”
“क्या कर रही है शिल्पा ? काम हो गया क्या ?”निशा ने पूछा।
“हाँ लगभग।बस अभी निखिल को खाना दिया। बाकी सब का बनाकर रख दिया।पर देखो न ..आधे घण्टे बाद निखिल की चाय की आवाज़ और उसके आधे घण्टे बाद मम्मी पापा जी की चाय का समय।फिर बच्चों की फरमाइशें..! सबके अलग अलग समय निश्चित हैं।चाय के बाद रात के खाने की चिंता।दिन भर बर्तन ,सफाई ,कपड़े कितने काम और हैं ।थक जाती हूँ।”
“इस लॉक डाउन में भी कोई समझता क्यों नहीं कि बाई तो है नहीं तो एक ही वक़्त पर सब खा पी लें ?मैंने तो घर के सभी लोगों से कह दिया कि मेरे हिसाब से नहीं चलना तो फिर खुद ही बना लें ।बस खामोशी से सब जब बना दो खा लेते हैं।उस पर भी सब के काम के बंटवारे कर दिये हैं।सारे काम का ठेका हमने नही  लिया भई।हम भी इंसान हैं ,कोई नमशीन नहीं।”
“हुँह ..!! यहाँ तो लॉक डाउन से पूर्व भी यही हाल था और यही हमेशा रहेगा। कोई सहयोग नहीं ।सब अपने अपने कमरों में और मेरा तो कमरा ही यह रसोई है बस।”एक ठंडी आह के साथ शिल्पा ने मन की एक परत को खोलते हुए कहा “जानती हो निशु  ,एक बार किसी झगड़े में निखिल ने मुझे तलाक देने की धमकी दी तो सासू माँ ने कहा “नहीं ,बेटा ! ऐसा हरगिज़ मत करना। तलाक मत देना,मुझसे तो काम न होगा। तुम्हीं बताओ ,कोई इत्ता भी स्वार्थी हो सकता है ? यह नहीं कि बेटे को उसकी गलती समझाएँ या डाँटें कि बात बात पर तलाक की धमकी देना सही नहीं । पर नहीं केवल अपनी मजबूरी का हवाला देते रहेंगे।”
“हद है यार ! चलो उन्होंने बुढ़ापे की वजह से उन्होंने कह भी दिया होगा।पर निखिल जी ? व्यापार में घाटा देख फेक्ट्री बंद कर दी, तब से घर बैठे हैं।समझ सकती हूँ कि ऐसे में व्यवहार में चिड़चडाहट हो जाती है।लेकिन तुम तो कब से सब झेल कर भी उनकी सेवा में दिन रात एक किये बैठी ही हो ,फिर भी तलाक की धमकी ?”निशा के स्वर में रोष उभर आया था ।
” वही तो ! यह सब देख पहले मैं सोचा करती थी कि ये दुख सुख तो अपने कर्मों का लेखा है।जितनी श्वासें ईश्वर ने हमें दी हैं ,उन्हें जीना पड़ेगा।रो कर जिये या हंस कर ,हम पर निर्भर करता है।पर अब लगता है कि कभी तो अंत हो इन दुखों का।अब तो हर पल यही दुआ करती हूँ कि मुझे भी कोरोना हो जाये।जान छूटे मेरी।”कहते हुए आवाज़ भर्रा गई शिखा की।
“दिमाग खराब है क्या ? फालतू बातें सोचती रहोगी ।क्या होगा इससे ? जिन लोगों को तुम्हारी दुख तकलीफ से वास्ता ही नहीं ,उन्हें क्या फर्क पड़ेगा।यदि बच गई तो भी उपेक्षित ही रहोगी।बोलने से पहले सोचा तो करो।”
“क्या और क्यों सोचूँ ? आखिर इन सब को मालूम तो हो कि मेरे न रहने से ये लोग कितने असहाय हो जाएंगे।तब मालूम होगा इन्हें कि इंसान की कद्र कैसे की जाती है ।”
“ओ ,मेरी मीनाकुमारी । यूँ इमोशनल होने से कुछ नहीं होगा।वो लोग तुम्हारी अनुपस्थिति में भूखे तो मरेंगे नहीं।करेंगे ही न कुछ न कुछ।पर तुम तो उनके लिए पहले भी नगण्य थी और आइंदा भी रहोगी।”
“हाँ , तो करें न अपने आप।मैं तो मुफ्त की नौकरानी हूँ इन सब के लिए।” दुख और आक्रोश से भीगी पलकों से थाली में पड़ी रोटी भीग गई तो उसने थाली दूसरी तरफ रख दी।
“तो …?उससे क्या होगा ? गलती तुम्हारी है। तुमने खुद को हर घर के हर सदस्य के लिए “ऑलवेज अवेलेबल ” मोड में रखा था इसलिए उन्होंने तुम्हें अपने अपने हिसाब से मोल्ड कर लिया।तुम खुद ही अपनी कद्र नही कर पाई तो कोई दूसरा क्यों कर करेगा ?”
“मेरे कद्र करने से क्या होगा निशा ?जानती हो ,ससुराल वालों के ताने या दिए गए कष्ट एक औरत पति के दम पर सह लेती है ,पति के दिये गए दुख तकलीफ बच्चों की वजह से सह लेती है।पर बच्चे भी यदि उसी ट्रेक पर चलें तो औरत क्या करे ?यहाँ  तो दोनों बेटे होस्टल से जब आते हैं तब ऐसे रुआब झाड़ते हैं मानो कोई किला फतेह करके आये हैं।उस पर दादा दादी और पिता के वात्सल्य की आड़ में मेरी स्थिति और भी खराब हो जाती है।”
“यही तो हम औरतों की बेवकूफ़ी है।अपने हिस्से की आज़ादी ,सुकून ,इज़्ज़त हम अपने परिवार के बलबूते पर ही ढूँढ़ते रहते हैं।जबकि वह हमारी अपनी मुट्ठी में कैद होते हैं।हम ही वक़्त पर मुट्ठी खोलना भूल जाते हैं ।”
“पर निशा , तुमने तो अपनी मुट्ठी को सही समय पर खोल लिया न। तुम्हारे यहाँ तो अब सही है तो तुम ऐसा क्यों कह रही हो?”
“हर चीज़ इतनी आसान नहीं होती डियर।मुझे भी बेहद ज़द्दोज़हद करनी पड़ी अपनी जगह बनाने में । हाँ जगह ! कहने को अपने ही घर की मालकिन फिर भी अपनी जगह बनानी पड़ती है ,शिल्पा ।त्याग ,समर्पण और समझौतों की अंतहीन कहानियाँ और बदले में थोड़ी सी जगह जो आत्मसम्मान से जीने के लिए हमारे लिए काफी होती है।तुम अकेली नहीं हो इन तकलीफों को झेलती हुई ,हर दूसरे तीसरे या चौथे घर की नारी अपनी जगह तलाशने में लगी हुई है मेरी जान !”
“मालूम नहीं ,मुझे तो कब मिलेगी मेरी जगह ! तन मन से इतनी टूट चुकी हूँ कि जीने की चाहत ही नही रही।इसलिए कहती हूं कि मुझे कोरोना हो जाये और ..!” शिखा के अगले शब्द हिचकियों में खो गए ।
“सुन , ईश्वर न करे ,अगर कल को तुझे मालूम पड़े कि तेरे परिवार के किसी सदस्य को कोरोना हो गया तो तूँ क्या करेगी ?”
“शुभ शुभ बोल यार निशा।कैसी बातें कर रही है तूँ ?भगवान न करें ऐसा कुछ भी।”
“तो तुम क्या सोचती हो ,तुम्हें कोरोना हो गया तो तुम्हारा परिवार बचा रहेगा ?देख रही हो न आये दिन कितने केस बढ़ रहे हैं।परिवार में एक सदस्य को हो जाये तो बाकी सदस्य भी प्रभावित होते हैं। जाकर पूछो उनसे जो इस बीमारी से जूझ रहे हैं।इतनी ही परिवार की खैर ख्वाह बनी रहती हो तो सोच कर बात किया करो।खुद को कोसना बन्द करो।हमारी ज़िंदगी भी हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी बाकी परिवार वालों की।”
“हाँ यार सच कहा तुमने।कल्पना मात्र से ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए।हे ईश्वर माफ करना और मेरे परिवार की रक्षा करना।”शिल्पा प्रार्थना करने लगी।
“सुन ,अपने और परिवार के कुछ कार्य निर्धारित कर ले। तुम्हारी अनुपस्थिति में अगर वो जी सकते हैं तो तुम्हारे रहते भी सीख लेंगे। आवश्यकता है उल्टी नाव खेने की।पति और बच्चों को चार कदम आगे लाने के लिए दो कदम तुम पीछे हट जाओ।ये ससुराल ,पति और बच्चों के कंधों पर अपनी नाकामियों का बोझ डाल कर बचने की कोशिशें बन्द करो और अपना खुद का रास्ता खोजो ।”निशा ने दोस्ताना हक जताते हुए कहा।
“कहना आसान है।पुरानी जड़ हो चुकी आदतों को बदलना आसान नहीं।सब भूखे रह जायेंगे पर अपने आप कुछ न करेंगे।अलबत्ता निखिल का गुस्सा गालियों के रूप में फूट पड़ेगा ।बच्चे जूठे बहाने बनाएँगे और पल पल मुझे सास ससुर की तकलीफों का ब्यौरा दिया जाएगा ।”
“देने दो ब्यौरा।तुम भी दो यही ब्यौरा सब को।अपने बदन दर्द की कहानियाँ तुम भी सुनाओ।कई बार खुद के लिए स्वार्थी बनना पड़ता है।पर भावनात्मक रूप से कमज़ोर मत पड़ो कि तुम खाना बनाना बन्द कर दोगी तो सब बिखर जाएँगे।अरे ,पेट मे जब आग लगती है सब उसे शांत करने का तरीका ढूँढ ही लेते हैं।तुम कोशिश करो तो सही।देखो ,तुम परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी पीछे नहीं हटी।अब अपने प्रति परिवार का रुख बदलने का समय है ।हिम्मत है तो करो वरना आइंदा रोना मत मेरे सामने। “
“बाप रे !! तुम तो गुरु मैया बन गई हो। ये लॉक डाउन का असर है क्या ? थोड़ा और ज्ञान बचा है तो वह भी दे दो।”शिल्पा  ने हँसते हुए कहा।
“हाँ तो सुन ।अब ज़रा सोशल डिस्टेंसिङ्ग का पालन करो बालिके।अपने लिए उठाए गए कदमों और भावनाओं के बीच थोड़ा डिस्टेंस यानी नियंत्रण बना कर रखो।अपनी कमजोरियों को सेनेटाइज़ करो और चेहरे पर आत्मविश्वास का मास्क पहन कर घूमो।फिर देखना उपेक्षाओं का कोरोना तुम्हें  छू भी नहीं पायेगा।”
“क्या बात है निशु ! कोरोनिक भाषा ?मैं तो कहती हूँ तुम लाइव प्रवचन देना शुरू कर दो अब।आजकल लाइव आने का प्रचलन हो चला है।”निशा की बातें सुन शिल्पा का मन हल्का हो चला था।
“जब सहेलियाँ मरने वरने की बातें करने लगें तो उन्हें सही राह दिखाने के लिए कुछ तो करना होगा न !आती हूँ जल्दी लाइव।पर बतौर पहली शिष्या तुम तो पहले प्रयास करो।”
“हम्म..!  कोरोना से जूझने से बेहतर है कि अपनी जगह बनाने के लिए ही थोड़ा सा जूझ लूँ। बाकी तो भगवान ही मालिक है।”
“ऑल दी बेस्ट !सुन .. तेरे एक्शन के रिएक्शन थोड़े खतरनाक तो होंगे पर घबराना नहीं।अलबत्ता मुझे ज़रूर बताना।चल अब फोन रखती हूँ।मेरे भी अगले एक्शन लेने का समय आ गया है।”
एक्शन ..शब्द पर मुस्कुरा उठी शिल्पा।याद आने लगा कि विवाह से पूर्व माँ अक्सर उसे बात बात पर बिदकने या भड़कने के लिए डाँट दिया करती थी कहकर कि “लड़कियों की कोमलता उनके स्वर और व्यवहार में दिखनी चाहिए।”
शिल्पा ने माँ की सीख को अनसुना नहीं किया अपितु उसे अपनी पूँजी बनाकर दहेज में साथ ही ले आई और तमाम उम्र उसकी रखवाली करती रही।बदले में निखिल और ससुराल वालों ने उस पूँजी पर चुप्पी का एक ताला और लगवा दिया जिसकी चाबी रख कर सभी भूल गए। अब इतने सालों बाद उस ताले को किसी भी एक्शन से तोड़ना नामुमकिन था।
“मम्मी ,पापा चाय माँग रहे हैं ।”
जैसे ही बड़े बेटे ने आकर हुकुमनामा सुनाया शिल्पा स्मृतियों से तो बाहर निकली लेकिन हुक्मनामे की तामील करने की उसकी हिम्मत न हुई ।दर्द ,थकावट और बुझे मन ने मानो बदन को जकड़ रखा था।
“बेटा ,आज तुम बना दो चाय या फिर पापा को कहो कि खुद बना लें।मेरी तबीयत ठीक नहीं।मैं नहीं उठ पाऊँगी।”कहकर शिल्पा ने करवट बदल ली । बेटा चला गया होगा क्या उसका सन्देश देने ? सोचते हुए शिल्पा ने पलटकर दरवाज़े की ओर देखा । लगा कि कह तो दिया लेकिन उठना तो उसे ही पड़ेगा ।कोई कष्ट नहीं करने वाला था। बेटा वहीं खड़ा था।
बदन में एक अजीब सी हरारत हुई बेटे के रूप में घर के तीसरे पुरुष की तठस्थता देख कर।
“क्या हुआ ,जाओ न ।”
 कंधे उचकाकर बेटा जाने लगा तो शिल्पा ने आवाज़ दी “मेहुल ..चाय जो कोई भी बनाऐ ,मेरे लिए भी एक कप बना देना।”
थोड़ी देर तक शिल्पा साँस रोक इंतज़ार करती रही।जब रसोई से बर्तनों की उठा पटक की आवाज़ आई तब दर्द में भी मुस्कुरा दी।
जानती थी उसके एक्शन का रिएक्शन आज बर्तनों पर ही निकलेगा।
(रश्मि तारिका)
सूरत ,गुजरात से
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पहचान

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1 COMMENT

  1. बहुत बढ़िया कहानी! ये तो कोरोना काल के साइड-इफेक्ट हैं 😅😅

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