गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12

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गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 13-साहित्यिक गतिविधियाँ

 

 

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11

अब आगे ….

गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 12 –साहित्यिक गतिविधियाँ

(दिल्ली 2006 – अब तक)

 

तनु ने मुझे धीरे धीरे मुझे टाइपिंग सिखा दी थी। मूलतः तो मैं कविता ही लिखती थी, जो छोटी होती हैं, उन्हे मैं टाइप कर लेती थी। तनु वैब  साइट्स पर भेज देती थी और उनका डिजिटल मीडिया में प्रकाशन होने लगा था। धीरे धीरे मैं ख़ुद ई मेल भेजने लगी थी।पत्रिकाओं( प्रिंट) में भी काफ़ी रचनाये आने लगी थीं। टाइपिंग का अभ्यास हो गया तो लेख भी टाइप करने लगी थी। कुछ संस्मरण लिखे, कुछ संस्मरणों को कहानी का रूप दिया। वैब मीडिया ने मानों दूर दराज़ के लोगों से रिश्ते जोड़ दिये थे।

 

मेरे लेखन के पहले दौर की कुछ रचनायें अप्रकाशित थीं, जिनको संशोधित करके मैंने टाइप किया। सबसे पहले मेरी रचनायें  सृजन गाथा में आनी शुरू हुईं थीं।मेरे एक लेख ‘ हिन्दी किसकी है?’ को पढ़कर श्री प्राण शर्मा जी ने अति सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी, इसके बाद उनकी मेल भी मिली जिसमें उन्होंने हैरानी जताई थी कि इतना अच्छा लेख लिखने वाली लेखिका अब तक कहाँ थी ! ज़ाहिर है उन्होंने लेखक का परिचय पढ़ा होगा। मैंने भी सृजन गाथा में प्राण शर्मा जी की ग़जले पढ़ी थी और प्रतिक्रियायें देखकर लगा था कि ये प्रतिष्ठित साहित्यकार ही होंगे। मैंने गूगल में ढूँढा तो पता चला कि वे एक वरिष्ठ ग़ज़लकार होने के साथ कथाकार भी हैं और छंद शास्त्र के पंडित हैं। इतने वरिष्ठ साहित्यकार की प्रशंसा से मैं अभिभूत हो गई। मुझे लगा कुछ तो होगा मेरे लेखन में…….. अब नहीं छोडूँगी……. लिखती रहूँगी। मेरी हर प्रकाशित रचना पर प्राण सर की टिप्पणी आती थी। धीरे धीरे मेरी रचनायें प्रवक्ता.कॉम पर आने लगीं। यहाँ भी मेरी रचनाओं पर प्राण सर टिप्पणी देते थे।वे मेल पर हर तरह से हौसला बढ़ाते, और अलग अलग पत्रिकाओं में भेजने की सलाह देते थे। उन से संपर्क बना अंत तक बना रहा। वे इंग्लैड में रहते थे, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा क्योंकि अपने स्वास्थ्य के कारण वे भारत आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, जबकि उनकी आत्मा भारत में ही बसती थी। यहाँ होने वाली छोटी मोटी घटनाये, साहित्य से जुड़ी ख़बरों या राजनैतिक ख़बरों से वे अवगत रहते थे। जब मैंने लिखना शुरू ही किया था तब से श्री प्राण शर्मा की प्रशंसा, आलोचना और मार्ग दर्शन मुझे मिला है , उनसे बहुत कुछ सीखा है उनकी लेखनी के विषय में कोई टिप्पणी करने की मेरी औकात नहीं है। वे मेरे लिये गुरु समान थे।

 

साहित्य में कुछ करने के लिये आजकल क़लम के साथ कम्प्यूटर और अन्य कई गैजेट काम करने में सहायता करते है, इनके बिना काम नहीं चलता, एक उम्र के बाद इन्हें समझना  सीखना आसान भी नहीं होता उसी पर ये दो व्यंग्यात्मक संस्मरण प्रस्तुत हैं।व्यंग्य का निशाना खुद की तरफ ही है।

 

हम सीख  रहे हैं…..

(संस्मरण 14)

कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती।  अब  70 हमारे पास मंडरा रहा है और हम सीखे जा रहे है, शायद कब्र तक पहुँचते पहुँचते भी सीखते रहे, सीखने से छुट्टी नहीं मिलने वाली,  सीखे जाओ सीखे जाओ यही हमारी नियति है।

पचास साल हो गये पढ़ाई पूरी  किये पर सीखना बन्द नहीं हुआ। हिन्दी इंगलिश ठीक ठाक लिखना पढ़ना आता था पर जब से ये मुआ कम्पयूटर आया तब से ऐसा लगने लगा कि हम तो अनपढ़ हो  गये, दूसरी तीसरी क्लास के बच्चे भी हमसे ज़्यादा जानते हैं। हमारे बच्चों ने हमें बताया कि लिखकर…..अरे नहीं टाइप करके बातचीत करने को चैट कहते हैं। टाइप करके चिट्ठी एक बटन दबा  के चली जाती है जिसे ई मेल कहते हैं । ई मेल का पता घर का पता नहीं होता ख़ुद ही कोई झूठ मूठ का पता बनाने से सारी चिट्ठिययाँ आ जाती है, बस पासवर्ड याद रखना पड़ता है ,नहीं तो आई हुई चिट्ठी भी पढ़ नहीं सकते। हमारी उत्सुकता इतनी बढ़ी कि हमने ठान ली अब हम अनपढ़ नहीं रहेंगे टाइपिंग भी सीखेंगे और कम्प्यूटर इस्तेमाल करना भी।

हिन्दी को रोमन में लिखने पढ़ने में अर्थ का अनर्थ होने लगा था। हमने लिखा  chhat  tapak rahi  hai  (छत टपक रही है)पढ़ने वाले ने पढ़ा ‘चाट टपक रही है।‘ जैसे तैसे देवनागरी में टाइप करने की तकनीक उपलब्ध करवाईं और इस युक्ति से मुक्ति ली पर इस उम्र में ये कोई आसान काम नहीं था पर सीखना तो था ही, सो सीखा।

चैट की भाषा सीखना भी  आसान नहीं था यहाँ Tomorrow को tmmro या ऐसा ही कुछ और लिख देते हैं too , 2 हो जाता है great को gr8 कर सकते हैं भाषा का ये अनोखा  रूप पढ़ पाना ही हमारे लिये चुनौती था, पर हमने सीखा वैसे ही जैसे कभी क्लास में  नोट्स लिया करते थे!  वह भी अपनी ही बनाई भाषा होती थी, जिसे हम ख़ुद ही पढ़ पाते थे। हाँ अब हमें साइलैंट अक्षरों का हटाना और are को R और you कोU लिखना अच्छा लगने लगा है ।

हमारी उम्र  बढ़ रही थी और गैजेट छोटे हो रहे थे। हमने डैस्कटौप पर बड़े से मानीटर पर चूहे की पूंछ पकड़कर कम्प्यूटर का प्रयोग करना सीखा था सब अच्छा चल रहा था कि कम्प्यूटर जी बूढ़े होकर बीमार रहने लगे,तो लैपटौप आ गया जिसका स्क्रीन और की बोर्ड हमें छोटा लगता था लैपटौप आने के बाद भी हमने चूहे को नहीं छोड़ा……….आखिर क्यों छोड़ें!। हमारे पास हमारा प्यारा डैस्कटौप अभी भी पड़ा है कोई ठीक कर दे तो फिर हम उसे अपना लेंगे। अभी लैपटौप पर हाथ चलने लगा तो स्मार्ट फोन टपक गये इतने स्मार्ट कि ज़रा सी उंगली लगी तो एक की जगह  चार टाइप हो गये ।  की बोर्ड पर उंगली इधर उधर हुई तो कुछ का कुछ टाइप हो गया, हम तो लैपटौप पर ही भले थे । हमने ठान ली थी कि हम अपना पुराना फोन नहीं छोड़ेंगे पर जब कहीं वह फोन निकालते तो निगाहें  ऐसे घूरती कि हमें लगता कि हम बाबर के ज़माने में जी रहे है ,दूसरे व्हाट्सअप पर आने के लिये स्मार्टफोन लेना ज़रूरी लग रहा था तो  अब हम भी स्मार्ट फोन लेकर स्मार्ट हो गये हैं।

फेसबुक पर शुरुआती दिनों में लोग स्माइली डाल देते थे या दिल उछालते थे ।अब हर मूड हर संवेग के लिये अलग अलग  इमोजी ढूंढो। व्हाट्सअप तो खेल ही ईमोजी का है। यहाँ रीसाकल्ड  मटीरियल पर ईमोजी डालने का रिवाज ज़्यादा है। हम जिसे ठैंगा कहते वह यहाँ वाह वाही होती है। हम हाथ जोड़कर क्षमा मांगते वो आभार समझते हैं ।बड़ी परेशानी है पर सीख रहे हैं हिम्मत नहीं छोड़ी है।जन्मदिन पर केक , गुलदस्ता, मोमबत्ती उपहार सब भेज सकते हैं । बस मरने की ख़बर आने पर कफन का प्रावधान और हो जाये  तो अच्छा हो,हाँ फूल तो फूल हैं, वो भेज सकते हैं। बीमार के लिये  फल भेज सकते हैं।’हम हवाई जहाज़ से जा रहे हैं मैंने लिप्सटिक लगाई फिर कार में बैठे’ सिर्फ ईमोजी बता देती हैं, शब्दों की ज़रूरत ही नहीं  ईमोजी की एक अनोखी भाषा है जिसमें नये शब्द- आकृति जुड़ रहें इस नई भाषा को समझने के लिये हम कठिन परिश्रम कर रहे हैं। कुछ सीखना हो वो भी हमारी उम्र में तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। सीखना छोड़ देंगे तो समय के साथ नहीं चल पायेंगे, समय से पिछड़ गये तो घर के एक कोने में बैठकर बेटे बहू को कोसेंगे जो हम कभी नहीं करना चाहेंगे। ईश्वर करें हम अंत तक सीखते रहे सीखते सीखते ही चले जायें।

सौफ़्टवेयर

(संस्मरण 15)

गणित समझने में हमें कभी भी दिक़्कत नहीं होती थी, अवधारणाये (concepts) सब समझ में आ जाते थीं, बस गणना(calculation) ग़लत हो जाते थीं , जोड़, घटा गुणा भाग में ग़लतियाँ होने से परीक्षा में अंक कम रह जाते थे। उस ज़माने में कम्प्यूटर क्या कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सांख्यिकी(statistics) में पाई डायग्राम या बार डायग्राम  जैसी मामूली चीज़ों के लिये भी बहुत गणना करनी पड़ती थीं, जबकि आजकल कम्पयूटर में आँकड़े डालते ही पाई डायग्राम या बार डायग्राम  बन जाते हैं, तुरन्त परिणाम मिल जाते हैं।

ख़ैर, ये तो बहुत पुरानी बाते हैं, अब तो हमारी क्या हमारे बच्चों की पढ़ाई समाप्त हुए भी कई वर्ष हो चुके हैं।  आजकल तो हम लेखन से ही जुड़े हैं, पर मुश्किलें जो छात्र जीवन में थी , अब साहित्य में भी बरकरार हैं।

कविता तो हम जैसी लिखते हैं आपको मालूम है। एक बार हमारे गुरु समान मित्र ने हमसे कहा कि हम छंद मुक्त तो बहुत लिख चुके हैं, हमें छंद बद्ध काव्य रचना करने की भी कोशिश करनी चाहिये। हमने भी सोचा कि ठीक है, कोशिश कर लेते हैं। कवि महोदय ने हमें दीर्घ और ह्रस्व स्वर पहचानना, मात्रायें गिनना, मात्रिक छंद और वार्णिक छंद का अंतर मेल पर समझा दिया। कुछ सरल छंद  के नियम सोदाहरण लिख भेजे। हमने भी गूगल खँगाल कर छंद शास्त्र को पढ़ा और समझा। दोहा, चौपाई, रोला, सोरठा, मुक्तक कुण्डलियाँ और अन्य छँदो का गणित समझा।  अब जब लिखने बैठे तो हर पंक्ति में मात्राओं की गणना करते करते, यही भूल जाते कि अगली पंक्ति में क्या लिखने का सोचा था। भाव मस्तिष्क से फिसलने लगते और हम विषय से भटकने लगते थे। कविता में छंद बिठाना बहुत कठिन लग रहा था, हमारे कवि मित्र को हमारे छंद में दोष मिल ही जाता था। सारा दिन हम उंगलियों पर मात्रा गिनने पर भी सही छंद नहीं लिख पा रहे थे।

हमें एक और तरीका सूझा , कि पहले अपनी ही शैली में कविता लिख लेते हैं, फिर शब्दों को तोड़ मरोड़ कर, घटा बढ़ाकर किसी छंद में बिठा देंगे, पर बहुत कोशिश करने पर भी हम इस में सफल नहीं हुए। हम सोचने लगे कि इस युग में जब पाई डायग्राम और बार डायग्राम के लिये सौफ्टवेयर है, जब जन्म स्थान, तारीख़ और समय  डालने से जन्मपत्री बन जाती है, गायक का सुर ताल भी कम्पयूटर संभाल कर ठीक कर देता है, आप रोमन में टाइप  करते चलिये कम्प्यूटर स्वतः उसे देवनागरी में बदल देता है, तो अब तक छंद मुक्त कविता को छंद बद्ध कविता में बदलने के लिये किसी ने कोई सौफ्टवेयर क्यों नहीं विकसित किया !

मैं लगभग सात आठ साल से फेसबक से जुड़ी हूँ। फेसबुक के माध्यम से ही हिन्दी साहित्य की समकालीन गतिविधियों की जानकारी मिली और इसी के माध्यम से आज के साहित्यकारों से व उनकी लेखनी से परिचय हुआ।  हिन्दी में आज भी बहुत अच्छा लिखा जा रहा है परन्तु जनमानस का रुझान हिन्दी से इतना हटा है कि लोग चेतन भगत को जानते हैं, पर किसी को आज के हिन्दी साहित्यकारों के नाम भी नहीं पता,50 , 60 साल पहले के साहित्यकारों के नाम के भले ही पता होंगे पर 1960 से लेकर आज तक हिन्दी में कौन सी प्रतिभायें उतरीं ये या तो साहित्यकार जानते हैं या हिन्दी के विद्यार्थी।

अब तक फेसबुक के सभी मित्र जान चुके थे कि मैं लेखन से अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे होने के बाद जुड़ी थी।  जिस तरह आजकल चिकित्सा में सामान्य चिकित्सक नहीं दिखाई देते, विशेषज्ञ और विशेष विशेषज्ञ का ज़माना है उसी तरह साहित्यकार भी अपने क्षेत्र में विशिष्ट योग्यता रखते हैं। यही नहीं कि कोई विशेष रूप से कविता लिख रहा है या गद्य ,अधिकतर साहित्यकार अपनी विशिष्ट शैली और निश्चित विधा में लिख रहे हैं और बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे अपने सुविधा क्षेत्र (COMFORT ZONE) में रहकर एक से एक सुन्दर रचना रच रहे हैं, बल्कि वे इस क्षेत्र और भी संकरा कर रहे हैं ,इससे उनकी एक छवि बन जाती है ।यह छवि ही पाठक को आकर्षित करती है। लेखन की गली संकरी करने से लेखन चाहें जितना अच्छा हो, पुनरावृत्ति का दोष आ ही जाता है। कोई बात शत प्रति शत सही या ग़लत नहीं हो सकती। कुछ साहित्यकार बहुमुखी प्रतिभा के कारण भी लोकप्रिय हुए हैं।

 

फेसबुक पर आने से बहुत से साहित्यकारों से संपर्क बना, कुछ से मिलना भी हुआ उनकी रचनायें मैने फेसबुक के अलावा अन्य स्रोतों पर भी पढ़ी। श्री गिरीश पंकज जी और संतोष त्रिवेदी जी से एक बार प्रवक्ता.कॉम के सम्मान समारोह में मिलना भी हुआ था। जब भी मुझे किसी सलाह की ज़रूरत हुई उनसे संपर्क किया। दोनों बहुत सरल स्वभाव के है। दोनों व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हैं, धारदार व्यंग्य सामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं।  गिरीश जी की फेसबुक पर सामयिक ग़ज़ल आकर्षित करती हैं । भाषा हमेशा सरल और बोधगम्य होते हुए भी इंगलिश के शब्दों को लेखन में स्थान देने से बचते आयें है। उन्होंने मेरे कविता संग्रह ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की प्रस्तावना लिखी थी। व्यंग्यकारों का जिक्र करूँ तो अलंकार रस्तोगी  का नाम न लूँ यह कैसे संभव है। तीखे व्यंग्य लिख लिख कर इतना कुछ कह देते हैं कि हमारे पास लिखने के लिये कोई विकल्प नहीं बचता और ये कहते हैं सब विकल्प खुले हैं। इन्होंने मेरी इंगलिश की कविताओं के संग्रह ” I DO NOT LIVE IN DREAMS” के लिये बहुमूल्य शब्द लिखे थे ।डा. रमेश तिवारी से मेरी मुलाक़ात मेरे कविता संग्रह के अनावरण पर हुई थी। इनकी ई मेल आई डी ही व्यंग्यात्मक तो इनके व्यंग्य कैसे होंगे केवल अनुमान लगा सकते हैं! एक और व्यंग्यकार से प्रवक्ता.कॉम के मंच पर मिली थी और फ़ेसबुक पर भी संपर्क हुआ था वे अब नहीं है, श्री अविनाश वाचस्पति जो मुन्ना भाई के नाम से जाने जाते थे। अभी मैंने जो लिखा है वह इन साहित्यकारों का बहुत अधूरा परिचय है जो केवल फेसबुक पर उनकी उपस्थिति के आधार पर लिखा है।  इनके व्यक्तित्व और साहित्य के बहुत से पक्ष और हैं जो धीरे धीरे जानने की कोशिश जारी रखूँगी।

 

अधिकांश रूप से फेसबुक पर कविता और कवि छाये रहते हैं।  कविताओं के संग्रह प्रकाशक छापने में  हिचकिचाते हैं पर फेसबुक पर सबसे ज़्यादा कविता ही पढ़ी जाती है।  काव्य की जितनी भी शैलियाँ है उन सब के कवि फेसबुक पर मौजूद हैं। दीक्षित दनकौरी जी ग़ज़लकार मेरी पहली पुस्तक ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ के अनावरण पर विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे ।ग़ज़ल का जिक्र  करूँ तो प्राण सर के अलावा अशोक रावत जी, नीरज गोस्वामी,दीक्षित दनकौरी, हिम कर श्याम और नवीन त्रिपाठी की ग़ज़लें बहुत अच्छी होती है।  यद्यपि श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी मेरी मित्र सूची में नहीं हैं पर मैंने एक कार्यक्रम में उनकी ग़ज़लें सुनी तो मैं बहुत प्रभावित हुई थी। ग़ज़ल क्या है यह मैंने फेसबुक पर आकर ही जाना, समझने भर की कोशिश की है अभी लिख  पाने की योग्यता नहीं है। दरअसल उत्तर प्रदेश में हमारे समय तक शिक्षा में उर्दू का प्रभुत्व समाप्त हो चुका था इसलिये उर्दू के बारे में मेरा ज्ञान बस उन शब्दों तक है, जो रोजाना की हिन्दी में समा चुके है।

 

मैंने हिन्दी छंदों के बारे में पढ़ा था पर कभी ख़ुद लिखने कोशिश भी करूँगी ऐसा विचार मन में कभी नहीं आया। किसी ज़माने में शास्त्रीय संगीत विधिवत सीखा था  उसमें पुरानी बंदिशें ही सिखाई जाती हैं । ग़जले सुनने और गाने का बहुत शौक था क्योंकि ये भी रागों में ही बद्ध होती है, बस गायकी का अंदाज कुछ अलग रहता है। तब तक मैं ठुमरी, दादरा या ख़याल की तरह ग़ज़ल को भी संगीत की ही एक विधा समझती थी, साहित्य की नहीं।  ग़ज़ल किसकी गाई हुई है ये पता होता था पर किसने लिखी है कभी  जानने की  कोशिश नहीं की, कुछ शब्दों का अर्थ नहीं भी समझ पाती थी तो भी अर्थ का अंदाज लग जाता था।  ग़ज़ल सुनना अच्छा लगता था क्योंकि पूरा ध्यान गायकी पर ही होता था । फेसबुक पर आने के बाद ग़ज़ल के साहित्यिक पक्ष को समझने की कोशिश की, जिसे हम मुखड़ा और अंतरा कहते थे वो ग़ज़ल का मतला और शेर होते हैं। ग़ज़ल की बहर के अनुरूप संगीतकार तालबद्ध करते हैं। ग़ज़ल का अपना ही छंद शास्त्र है।

 

हिन्दी में छंद मुक्त कविता को मान्यता इंगलिश के मुक़ाबले बहुत देर में मिली। छंद बद्ध और छंद मुक्त काव्य  दोनों का अपना अलग आकर्षण हैं। छंदों में एक निश्चित लय का पैमाना होने के कारण भावों को कभी कभी शब्द नहीं मिलते दूसरी ओर छंद मुक्त लिखने में लय कवि को स्वयं निश्चित करनी होती है, पढ़ने वाला सही जगह यति न दे प्रवाह अटकेगा इसलिये विराम चिन्हों महत्व बढ़ जाता है।

फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में दो छंदशास्र के विशेषज्ञ हैं। आदरणीय प्राण शर्मा जी और आचार्य संजीव ‘सलिल ‘वर्मा जी। दोनों को ही हिन्दी उर्दू के छंद विधान का पूरा ज्ञान है। प्राण सर का रुझान ग़ज़ल की ओर अधिक है और संजीव जी फेसबुक पर पाठशाला लगाये हैं इनकी पाठ शाला में प्रवेश लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई हूँ ,इतनी मेहनत करने की हिम्मत नहीं होती।

 

कवियों में सबसे पहले अशोक आँद्रे जी का नाम लूँगी इनकी कविता में शब्द जो कहते हैं अर्थ कभी  बहुत गहराई में होते हैं। आजकल फेसबुक पर इनकी उपस्थिति कम है पर मेरी कविता को उन्होंने हमेशा सराहा है। वह ‘मैं सागर में…………… ‘के अनावरण पर उपस्थित थे। इस पुस्तक में उनकी और से भी कुछ शब्द भी हैं।

 

विजय निकोर जी की कविताये पीड़ा दर्द को अपने में समाहित किये रहती हैं। ये भी अपनी कविता के साथ चित्र अवश्य लगाते हैं। इनकी कविताओं में महा देवी जी जैसा छाया वाद और कभी मीरा की वेदना दृष्टव्य होती है। हिन्दी और इंगलिश दोनो में बराबर की पकड़ के साथ कवितायें लिखते है।  विजय मेरे भाई जैसे हैं, मेरी दो पुस्तकों के लिये इन्होंने अपने प्रोत्साहन के शब्द दिये हैं। अटलाँटा से पिछली बार जब दिल्ली आये तो मेरे परिवार के साथ कुछ समय गुज़ारा था। दोबारा हाल ही में नीरा भाभी के साथ आये थे,तब भी मिलना हुआ था।

 

छंद मुक्त कविता वंदना वाजपेयी और कल्पना मनोरमा जी की भी अच्छी लगी हैं। मुझे संध्या सिंह की कवितायें बहुत भाती हैं, छँद मुक्त लिखने के साथ  दोहे गीत और शेर भी बहुत सुन्दर लिखती हैं और साथ में चित्र लगाना इनकी विशेषता है। इनकी कविताओं के प्रतीक, बिम्ब और उपमायें निराली होती हैं। कई बार ईर्ष्या भी होती है कि ये भाव मुझे क्यों नहीं सूझे, इनको लाइक्स और कमैंट कम देती हूँ, क्योंकि पहले से ही उनकी इतनी भीड़ होती है कि उसमें मेरे लाइक्स और कमैंट खो जायेंगे।

कविता के साथ चित्र लगाने का शौक पंकज त्रिवेदी जी को भी है। ये हिन्दी की पताका विश्व गाथा के रूप में गुजरात से लहरा रहे हैं। मेरे व्यंग्य संग्रह ’’ झूठ बोले कौवा काटे’’ में इनके प्रोत्साहन के दो शब्द शामिल है। फेसबुक पर कविताओं की भरमार है, किसी कवि की कोई रचना अच्छी लगती है तो कभी निराश भी करती है।

 

फेसबुक पर उपस्थित कवियों का जिक्र हो उसमें लालित्य ललित जी का नाम न लिया जाये यह तो संभव ही नहीं है। फेसबुक द्वारा ये हमें अपनी यात्राओं की सचित्र जानकारी देने के साथ साथ अपने परिवार से भी मिलवाते रहते हैं। ललित जी मेरे कविता-संग्रह  ‘’मैं सागर में………….’’के अनावरण के समारोह में मुख्य अतिथि थे, तब इन्होने अपनी कविता ‘लड़की’ सुनाई थी जिसने सब  को सम्मोहित कर लिया था। कवि जब अपनी कविता अपने स्वर में सुनाये तो भाव और निखर कर आते हैं। बहुत सारे सम्मान और पुरस्कार मिलने के बावजूद वे बहुत सरल स्वभाव के हैं। ललित जी की मैंने कोई छंद युक्त रचना नहीं देखी है इसलिये मानकर चलती हूँ कि वे छंद मुक्त ही लिखते हैं………… छंद मुक्त ही नहीं वे  स्वछंद लिखते अनकी कविता बातें करती है… कभी ख़ुद  से कभी प्रेयसी से जहाँ वाक्य पूरा भी नहीं होता और कुछ नई बात शुरू हो जाती है तुम बैठो/ पानी पियोगी /नहीं तुम्हें भूख लगी होगी/कुछ खा कर पानी पीना/( ये मेरे शब्द हैं ललित जी के नहीं) ऐसे साधारण से वार्तालाप से शुरू हुई उनकी कविता कहीं उत्कर्ष पर चमत्कार कर देती है। जैसे तुम तो स्वयं पानी जैसी सरल हो/ऐसी ही रहना/ कहो कि बदलोगी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि ललित जी न छंद में उलझते हैं न अलंकार में फिर भी अपनी सरलता की वजह  से लोकप्रियता में अग्रणी हैं।

 

फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में कहानीकार और उपन्यासकार भी है। लघु कथायें तो हर दिन फेसबुक पर पढ़ने को मिल जाती हैं प्राण सर के अलावा गिरीश पंकज जी, संजीव सलिल वर्मा जी की लघुकथायें फेसबुक पर बहुत पढ़ी हैं । लघु कथायें सोचने के लिये सामग्री दे देती हैं। सुश्री रजनी गुप्त विख्यात उपन्यासकार हैं, उनके लिखे उपन्यासों पर शोध हो रहे हैं ।  विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है। कभी कभी ये ऐसी भ्रामक पोस्ट फेसबुक पर डाल देती हैं कि समझ में नहीं आता कि ये इनके उपन्यास का अंश है या इनकी उस पल की स्वयं की अनुभूति ! वैसे बहुत सरल स्वभाव की हैं, लखनऊ में एक बार इन ही के निवास पर इनसे मुलाक़ात हुई थी। श्री रूप सिंह चंदेल भी आज के बड़े उपन्यासकार हैं, मिलना तो नहीं हुआ पर फोन पर बात हुई है। फेसबुक पर इनकी उपस्थिति कम है , इनके एक उपन्यास पर फिल्म भी बन रही है। इन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखे हैं। सबसे अधिक चर्चित ख़ुदी राम बोस रहा है। वीणा वत्सल सिंह से भी लखनऊ में इनके निवास स्थान पर मुलाक़ात हुई थी। HINDI PRATILIPI.COM का कार्य भार पूरी तरह से संभाले हुए हैं और प्रति लिपि पर बढ़िया साहित्य उपलब्ध कराने के काम में संलग्न हैं।

 

प्रतिष्ठित साहित्यकारों के अलावा फेसबुक पर कुछ नवाँकुरोंसे परिचय हुआ बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति सुन्दर भावों से रची कविता लिखते  हैं, हिन्दी और इंगलिश दोनों में लिखते हैं हिन्दी कविता में अनावश्यक रूप से इंगलिश के शब्द डालना इनकी आदत है।  ये कविता लिखने के लक्ष्य तक निर्धारित कर लेते हैं  कि इस साल में इन्हें 500 कवितायें लिखनी ही है। एक और युवा कवि है पीयूष कुमार परितोष, इनकी कवितायें अच्छी लगी है। एक अन्य युवा कवि अच्छी कवितायें लिख रहे थे आजकल फेसबुक पर नज़र नहीं आ रहे हाँ याद आया नाम कुमार राज बलियावी। इन सब को शुभकामनायें।

 

फेसबुक के इतने साल के सफ़र में बहुत से साहित्यकार से जुड़े, लोगों से परिचय हुआ जो अपनी अपनी शैली अपनी अपनी विधा में आज के हिंदी साहित्य के शिखर पर हैं।  इनमें से अधिकतर आयु में मुझसे छोटे हैं, मैं लिख रही हूँ और लिखती रहूँगी हिन्दी में भी और इंगलिश में भी। कुछ अनुवाद भी कर रही हूँ।

 

लालित्य ललित जी की कविता भावों और शब्दों दोनों लिहाज़ से सरल हैं, इसी वजह से सबसे पहले मैंने अपना अनुवाद का शौक पूरा करने के लिये उनकी कविताओं को इंगलिश में अनुवादित करने की अनुमति ली है। ये अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। प्राण सर मैं आपके निर्देश की अवमानना नहीं कर रही हूँ,  मेरे नाम के साथ अनुवादक का ठप्पा कभी नहीं जुड़ेगा। मैं एक जगह टिक कहाँ पाती हूँ। हमेशा कुछ नया करने की इच्छा होती है।  अब देखिये हिंदी में लिखते लिखते अचानक इंगलिश में लिखना शुरू कर दिया, इंगलिश मेरी कमज़ोरी तो नहीं थी पर इंगलिश  मैंने केवल इंटरमीडिएट तक ही पढी थी,इसलिये सोचा भी नहीं था कि उसमें लिख सकूँगी और अब मेरी  इंगलिश की कविताओं का संकलन आ चुका है। मुझ पर किसी विधा या शैली का ही ठप्पा लगने की कोई संभावना नहीं है।

 

अुनुवाद के शौक में ही मैने महादेवी वर्मा जी की मशहूर कविता ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ का अनुवाद इंगलिश में किया जो काफ़ी मुश्किल काम था। वह  अनुवाद आचार्य संजीव सलिल वर्मा जी को पसंद आगया और उन्होने मूल कविता के साथ उसे अपने ब्लॉग दिव्य नर्मदा में स्थान दे दिया। महादेवी जी,जो कि मेरी सबसे अधिक पसंदीदा कवयत्री हैं, उनके साथ एक ही पृष्ट पर अपना चित्र देखकर मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था।

 

मैंने विपरीत दिशा में भी कुछ अनुवाद किये, यानी इंगलिश से हिन्दी में। सबसे पहले विजय भाई

(निकोर)की एक कविता का हिन्दी में अनुवाद किया, यह प्रतिलिपि पर उपलब्ध है। इंगलिश की कुछ कालजयी कविताओं के हिन्दी में अनुवाद किये जिसमें सबसे अधिक लोकप्रिय कविता संभवतः विलियम वर्डसवर्थ की  Iwandered  like a lonely cloud  थी। हिंदी अनुवाद  का शीर्षक है ‘फिरता हूँ मैं अकेले बादल की तरह’।

 

आदरणीय प्राण शर्मा जी ने मुझसे कहा था कि यदि मैं अनुवाद करने लगूँगी तो मेरे नाम पर अनुवादक का ठप्पा लग जायेगा, इसलिये जो लिखूँ जिस भाषा में लिखूँ  अपना ही लिंखूँ  । उनके निर्देश का पालन करके मैंने फेसबुक पर अनुवादित रचनायें डालनी बन्द कर दी थी।  वैसे भी मेरी मित्र सूची में हिंदी के ही रचनाकार हैं जो हिंदी में इंगलिश चाहें जितनी घोले पर इंगलिश की पोस्ट पढ़ते ही नहीं है।

 

मैं किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं हूँ ,न इतना लिखा है कि कोई नाम बनाया हो ! पर जो मिला है वह उम्मीद से कहीं ज्यादा है।  वैसे भी न मेरी विधा निश्चित है ,न शैली। छंद मुक्त लिखते लिखते कुछ हाइकु लिख डाले फिर कुछ नया करने की चाह में  दोहे लिख दिये, व्यंग्य ,प्रहसन, कहानी ,  संस्मरण, यात्रा संस्मरण, रिपोतार्ज,चुटकुले, व्यंजन बनाने की विधियाँ, अचार बनाने की विधियाँ, साहित्यिक निबंध, मनोविज्ञान की आधारभूत जानकारी से भरे लेख और अब अनुवाद भी। इंगलिश और हिन्दी दोनों में लिखना…….. इसलिये मैं तो JACK OF ALL TRADES, MASTER OF NONE ही हूँ परन्तु जो कुछ लिख पाई उससे संतुष्ट हूँ। प्रवक्ता. कॉम में मेरी 250 से अधिक रचनायें हैं। प्रवक्ता ने मुझे 2014 में श्रेष्ठ वैब लेखन के लिये सम्मानित भी किया था।

 

2016 की बात है अब तक साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं  के अलावा डिजिटल मीडिया में थोड़ी पहचान बन चुकी थी। प्रवक्ता.कॉम शाल और सम्मान पत्र देकर मेरा मान बढ़ा चुका था, ये सब बातें इस तरह हुईं, जिनकी मैंने इच्छा क्या कल्पना भी नहीं की थी।  सराहना और आलोचना भी मिलने लगी थी। फेसबुक के माध्यम से प्रतिष्ठित साहित्यकारों से संपर्क स्थापित हो चुका था, तो मन में इच्छा हुई कि अब एक पुस्तक छपवाने की कोशिश की जाये। सभी सहयोगी मित्र साहित्यकारों ने सहयोग दिया तो मेरा पहला कविता संग्रह ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हो गया। 68 वर्ष की आयु में पहली किताब का आना मेरे लिये जीवन की आख़िरी इच्छा पूरी होने जैसा था।  किताब छपने के बाद  उसका लोकार्पण भी करना था।  इंजीनियर्स, डॉक्टर्स और ब्यूरोक्रैट्स के परिवार में कोई कवि या लेखक नहीं था इसलिये इस लोकार्पण के लिये मेरी भतीजियाँ बंगलूरु और बड़ौदा से भी आईं। आगरा, लखनऊ दिल्ली एन.सी.आर के रिश्तेदार और मित्र थे ही।

 

इस कार्यक्रम में मित्र साहित्यकारों को तो आमंत्रित करना ही था  प्रश्न था कि मुख्य अतिथि कौन हो! कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने पुस्तक की प्रस्तावना और प्रोत्साहन के दो शब्द लिखे थे , उनको मुख्य अतिथि बनाना उचित नहीं लगा। अंत में एक वरिष्ठ उपन्यासकार इसके लिये सहर्ष तैयार हो गये। लोकार्पण की तारीख़ उनकी सुविधा से तय कर ली गई। कार्यक्रम से लगभग एक सप्ताह पहले उपन्यासकार महोदय ने मुझसे पूछा कि आपने और किस किस साहित्यकार को बुलाया है। मैंने कुछ

नाम बता दिये। एक कवि के नाम पर उनको आपत्ति थी, वह भी इतनी कि अगर मैंने  उन्हें बुलाया है तो  उपन्यासकार महोदय नहीं आयेंगे क्योंकि उस विशेष कवि की उपस्थिति उन्हें असहज कर देगी। वे दोनों कभी गहरे मित्र थे, पर उस समय तक उनके संबंध बिगड़ चुके थे।

 

मैंने उपन्यासकार महोदय को बहुत समझाया कि वहाँ बहुत लोग होंगे, वे उनकी उपस्थिति को नज़र अंदाज कर सकते है,दुआ सलाम करके अलग अलग हो सकते हैं या ये भी हो सकता है सालों बाद मिलकर आपकी ग़लत फहमियाँ दूर हो जायें। उपन्यासकार महोदय कहने लगे आपको मालूम नहीं है कि कवि महोदय ने उनके साथ विश्वासघात किया है। मैंने कहा आप लोगों के बीच की बात में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है आप लोग बड़े साहित्यकार हैं, मेरा लहजा कुछ मनोवैज्ञानिक काउंसलर जैसा देखकर वे बोले अब आप मुझे समझायेंगी कि मैं क्या करूँ !मेरी पचास से ज्यादा किताबें आ चुकी हैं …………….. मैंने कहा कवि महोदय तो आयेंगे, अगर आपको निमंत्रण स्वीकार नहीं करना तो आपकी मर्जी।

 

अब नये मुख्य अतिथि की खोज शुरू हुई तो सोचा कि दो लोग हों तो बेहतर है एक ने अंत समय पर मना कर दिया तो विकल्प होना चाहिये। दो वरिष्ठ कवियों को मुख्य अतिथि और विशिष्ठ अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। डॉ. लालित्य ललित और ग़ज़लकार दीक्षित दनकौरी जी ने पधार कर हमें मान दिया। इसके लिये हम आभारी रहेंगे।

इस ही पुस्तक से संबंधित एक संस्मरण प्रस्तुत है-

 

किताब तो छप गई मगर ………….

(संस्मरण 16)

न हम कहानीकार हैं न व्यंगकार, न कवयत्री, न निबंधकार, न लधुकथाकार और न उपन्यासकार। साहित्य की सभी विधाओं में हाथ डाल चुके हैं।कहानी, लघुकथा, निबंध, आलेख, प्रहसन, रिपोतार्ज, संस्मरण, यात्रा संस्मरण यहाँ तक कि पुस्तक समीक्षा भी लिख चुके हैं। सबसे पहले तो हमें यह निर्णय लेना था कि पुस्तक किस विधा की प्रकाशित करवायें। अब भानुमति के पिटारे की तरह एक ही किताब में सभी विधाओं को छपवाना तो उचित नहीं लगा।

बाज़ार को देखें तो सबसे ज़्यादा उपन्यास बिकते हैं फिर कहानियाँ, उपन्यास तो नही पर कुछ कहानियाँ तो लिखीं थीं ,कुछ छोटी कुछ बड़ी पर इतनी नहीं थी कि एक पुस्तक छप सके। व्यंग और लेख अधिकतर सम सामयिक विषयों पर लिखे थे, उन को हटा कर न इतने व्यंग्य बचते न लेख जिनसे पुस्तक बन सके।हमारी उम्र हो चुकी है, पर तजुर्बा नहीं है, यहाँ तो 80-90 पृष्ट के पेपर पैक भी खूब छपते हैं, जो किसी ट्रैवल एजैंसी के ब्रौशर जैसे दिखते हैं ,बुक शैल्फ़ मे खड़े रहने की भी ताक़त नहीं होती।हमें तो सुन्दर सी आकर्षक सी कम से कम 200 पृष्टों की पुस्तक छपवाने की चाह थी इसलियें कविता संग्रह छपवाने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं था।कविता के बाज़ार में हमेशा मंदी का आलम रहता है, फिर भी हमने कविता संग्रह ही छपवाने का निर्णय लिया।

किताब छपवानी ही है, तो सबसे पहला क़दम तो पाण्डुलिपि तैयार करने का ही होगा।अब हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का ज़माना तो है नहीं, यह हम अच्छी तरह जानते हैं।हमारी सारी कवितायें पहले से ही देवनागरी लिपि टंकित हमारे कम्प्यूटर पर सुरक्षित हैं। हमने अपनी कविताओं को विषयानुसार अलग अलग अध्यायों मे बाँट कर सिलसिलेवार एक नया फोल्डर बना लिया।भूमिका भी लिख ली और अनुक्रमणिका भी बनाली। कुछ कवि मित्रों से अपनी प्रशंसा मे कुछ पंक्तियाँ भी लिखवाली ,वो प्रस्तावना हो गई।। हमारी पाण्डुलिपि तैयार हो गई।

अब अगला क़दम प्रकाशक को ढूँढना था। कुछ साहित्यकार मित्रों ने प्रकाशकों के नाम दिये, कुछ गूगल से ढूँढे फिर उन सबसे फोन पर बात करके ऐसा लगा कि उनमे से तीन प्रकाशकों में से हमें किसी एक से पुस्तक छपवानी है, आगे उन ही से संवाद करना है।तीनो ने लगभग एक ही बात अलग अलग शब्दों मे कही। उनका कहना था कि किसी भी लेखक या कवि की पहली किताब वो अपने ख़र्च पर नहीं छापते।यदि पहली किताब की बिक्री अच्छी हो जाये तो वे दूसरी किताब ख़ुद छाप भी देगें और पुस्तक बेचने की ज़िम्मेदारी भी लेगे।उन्होने बताया कि हमारी कवितायें अच्छी हैं, पर हर अच्छी चीज़ बिक भी जाये ये ज़रूरी नहीं है।

हमने उनसे पूछा  ‘’किताब छपवाने मे कितना ख़र्चा आयेगा?’ तो उन्होने कोई सीधा सा उत्तर न देते हुए कहा ‘’ये ख़र्च बहुत सी बातों पर निर्भर  करता है जैसे काग़ज और छपाई की गुणवत्ता, किताब के पन्नो की संख्या और आपको कितनी प्रतियाँ छपवानी है,  कम से कम 300 प्रतियाँ तो छपेंगी ही, जितनी  ज़्यादा प्रतियाँ छपेंगी मूल्य उतना ही कम हो जायेगा।‘’ किताब छपवाने का जब मन बन ही लिया था तो काग़ज और छपाई की गुणवत्ता से हम कैसे कोई समझौता करते!आख़िर हमारी अंतिम इच्छा थी।

हमारे कुछ वरिष्ठ मित्रों ने हमें समझाया कि कविता आजकल कम बिकती है…….. हमने कहा कि आजकल क्या कविता तो हमेशा से कम बिकती है।हम तो निर्णय ले चुके थे, जब हमारी इस इच्छा का अंदाज़ वरिष्ठ मित्रो को हुआ तो उन्होने हमें बहुत प्रोत्साहित भी किया।प्रकाशक आसानी से मिल गये पर आधी पुस्तकों को हमें उनसे ख़रीदकर बेचना था, आधी पुस्तकें उन्हे बाज़ार में उतारनी थीं।हम जानते थे कि कविता संग्रह आजकल बड़े बड़े कवि नहीं छपवा पा रहे हैं जब तक कि वो किसी सरकारी पद पर आसीन न हों तो, हमें अपनी इच्छा या यों कहें अंतिम इच्छा पूरी करने के लिये कुछ राशि का पर जोखिम उठाना ग़लत नहीं लगा।

कुछ महीनों में हमारी और प्रकाशक की कड़ी मेहनत के बाद किताब छपकर तैयार हो गई, किताब बहुत आकर्षक छपी थी,कभी हम किताब देखते तो कभी उस पर छपा अपना नाम!हमने साहित्य जगत के कुछ मित्रों और पारिवारिक मित्रों के साथ पुस्तक का लोकार्पण भी कर दिया, सभी को हमने पुस्तक भेंट की इसके बावजूद बहुत सारे लोगों ने अतिरिक्त प्रतियाँ हमसे ख़रीद भी ली, औरों को उपहार में देने के लियें। हम बेहद ख़ुश थे।

अगले दिन लोकार्पण के चित्रों के साथ हमने अपनी पुस्तक का संक्षिप्त विवरण फ़ेसबुक पर भी डाल दिया हमें लगा कि 5000 मित्रों में से 50 लोग पुस्तक ख़रीदने में रुचि दिखाँयेगे , इसके अलावा हमारे पास फॉलोअर्स भी हैं, जोकि विशेषकर हमारे लेखन या यों कहें कि कविताओं की वजह से ही हमसे जुड़े थे पर ये क्या………. वहाँ तो लाइक्स और बधाई के अलावा कुछ था ही नहीं!केवल दो तीन लोगों ने पुस्तक ख़रीदने की इच्छा व्यक्त की। फोन भी आये ई मेल भी आये बधाइयाँ झोली भर भर के मिलीं।पुस्तक ख़रीदकर पढने की इच्छा कम ही जताई गई थी । कुछ स्वयंभू समीक्षक पुस्तक मुफ्त में लेकर मुफ़्त में समीक्षा लिखने को संपर्क साध रहे थे।अब हमने फेसबुक मित्रों की संख्या 3000 के नीचे पहुँचा दी है और 500 तक पहुँचाने का लक्ष्य है।हमने अपनी सोसायटी से भी दो तीन पड़ौसियों को लोकार्पण में बुलाया था उन्हे किताब बहुत पसन्द आई पर प्रचार करने की बजाय उन्होने वही किताबें पूरी सोसायटी में घुमा दीं, शायद अभी भी घूम रही हैं!

अब हमें कुछ किताबें अपने नज़दीकी रिश्तेदारों को भेजनी थीं, साहित्य जगत के उन वरिष्ठ लोगों को उपहार में भेजनी थीं जो हमें प्रोत्साहन देते रहे थे या फिर वो जिनके लेखन से हम प्रभावित थे, जिन्हे हमने किताबें भेजी उनमें से कुछ ने अतिरिक्त किताबों की माँग की तो हमने साफ़ कह दिया कि अतिरिक्त किताब तो उन्हे हम से ख़रीदनी होगी।अब हमे ढेरों किताबें कोरियर से भेजनी थीं, उपहार वाली भी और ख़रीद वाली भी। कई लोगों ने किताब मिलने की सूचना दी, कई चुपचाप बैठ गये। अब किसे किताब मिली किसे नहीं हम कभी नैट पर चैक करते, कभी लोगों को फोन करके पता करते रहे। जिन्होने किताबें ख़रीदीं उनको पैसे देने की याद दिलाते तो वो हमसे ऐसे पेश आते हैं मानो हम ही ने कुछ उधार लिया हो!अभी तक भी कुछ लोगों किताबों के पैसे भेजने की याद दिला रहे हैं।

इधर एक और काँड हुआ कि हमारे सात कोरियर ग़ायब हो गये जिनका कोई सुराग नहीं मिल रहा।कोरियर कंपनी वाले भी मुफ्तख़ोर पाठक होंगें ये हमने कभी नहीं सोचा था। क्या कभी इतने सारे कोरियर एक साथ ग़ायब होते हैं! वो फोन नहीं उठाते हैं, मेल के बेतुके जवाब देते हैं और हम धमकी देते हैं।अब हम इस चक्कर से थक चुके हैं और बेचने की ज़िम्मेदारी अमेज़न पर डाल दी है।अमेज़न तो बहुत बड़ी नदी है हमारी एक एक किताब को बहा कर शायद सागर(पाठक )तक पहुँचादे! अब ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ बची हुई 15  प्रतियाँ हमारी बुक शैल्फ के एक ख़ाने में समा गई है!

इसके बाद हमने पक्का निर्णय लिया कि न हम साझा संग्रह में अपनी रचनायें छपवायेंगे न एकल संग्रह छपवायेंगे जब तक प्रकाशक हमारी पुस्तकों को शत प्रति शत बिना हमारे आर्थिक सहयोग के  छापने को तैयार  हों। अब सहयोग राशि कहो या कुछ पुस्तकें ख़रीदने की बात हो, या डिपौज़िट की बात हो हम इस झमेले में नहीं पड़ने वाले थे। लिखना हमने न कम किया न छोड़ा बल्कि और अधिक उत्साह से लिखा और पिछले वर्षों में हमारी दो पुस्तकें निशुल्क छपी भी, कई ई बुक भी बनी हैं।

 

साहित्य में अभी मैं उसकी पहली पायदान पर ही खड़ी हूँ परंतु बड़े से बड़े साहित्यकार को कभी सीढ़ी नहीं बनाया और जब किसी का व्यवहार अनुचित लगा तो पीठ पीछे ही नहीं बल्कि सामने से उनसे सवाल पूछे। कभी ख़ुद की गलती नज़र आई तो माफ़ी भी माँग ली।

 

वैसे तो व्यंग्य कबीर के दोहों में जितना मिलते है, शायद कहीं नहीं मिलेंगे।  पहले व्यंग्य उपन्यास,  कहानी और काव्य की विधा का ही अंग माना जाता था। मैंने हिन्दी साहित्य बी. ए. तक ही पढ़ा था  (1965)  विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंको के साथ । उस समय तक पाठ्यक्रम में कहीं व्यंग्य विधा के रूप में नहीं था,  व्यंग्यात्मक शैली कहा जाता था ।मैंने एम. ए. हिन्दी में नहीं किया इसलिये मेरा नाता कई वर्ष तक साहित्य से छूटा रहा पर जब लिखना शुरू किया तब बहुत कुछ पढ़ा भी,  व्यंग्य भी पढ़े। मुझे आत्म व्यंग्य लिखना भी रास आया। मैं साहित्य की हर विधा को छूने का प्रयास करती रही हूँ, बहुतों का सहयोग मिला और बहुतों ने साहित्य में मेरे अस्तित्व को ही नकारा।  मेरे लिये लिखना महत्वपूर्ण है। मैंने लेखन को लेखक बनने के लिये नहीं बल्कि अपनी चिकित्सा के लिये अपनाया था, जो शौक, फिर जुनून बन गया।

 

ये देखकर हैरान हूँ कि आज के साहित्यकार सवालों का जवाब तर्क संगत न देकर रटे रटाये वाक्य दोहरा देते है।  हर एक अपनी बोल रहा है सवाल करने पर नाराज़ हो रहा है। कवि व्यंगकार को बेकार साबित कर रहे है,  व्यंगकार काव्य को कचरा कह रहे हैं। इतने सालों में व्यंग्य पाठ्यक्रम का हिस्सा बना या नहीं ये मुझे पता नहीं है पर अखबारों में जो दैनिक और साप्ताहिक व्यंग्यों के कॉलम छपते हैं, वो मुझे बेहद उथले लगते हैं । मैंने ये बात कई बार किसी न किसी रूप में कही तो व्यंग्यकारों ने कहा कि मैंने बढ़िया व्यंग्य पढ़े ही नहीं हैं।मैंने कहा मैं तो वही पढ़ रही हूँ और उसी के बारे में टिप्पणी दे रही हूँ जिन अख़बारों के लिंक आप फेसबुक पर छोड़ते हैं। बाद में मैंने कुछ पुराने व्यग्यकारों परसाई, श्रीलाल शुक्ल वगैरह को पढ़ा भी,सराहा भी।

 

आजकल  प्रकाशक दर्ज़ी की तरह आर्डर पर किताबें छाप रहे  हैं। पाण्डुलिपि  की गुणवत्ता कौन देख रहा है… पुस्तकें छप रही है,  पाठक नदारद हैं। साहित्य अख़बारी हो चुका है।  लेखन के शुरुआत में अख़बारों में लिखना ठीक है परन्तु आज के प्रतिष्ठित साहित्यकार अख़बारों में लिख रहे हैं।  अख़बार भी हर छोटे बड़े शहरों से 4,6 पन्नों के छप रहे हैं, जहाँ नैट से उठाकर किसी का भी लेख छाप दिया जाता है। नैट पर ब्लाग हैं, ई पत्रिकायें हैं जो आपकी मेल पर पूरी पत्रिका उलट रहीं हैं । त्रैमासिक पत्रिकायें है। सब कुछ है बस पाठक नहीं हैं!

 

मैंने श्री लालित्य ललित जी की चुनी हुई कविताओं का इंगलिश में अनुवाद किया था, जिसका 2018 जनवरी पुस्तक मेले में विमोचन होना था। हम निश्चित समय पर वहाँ पहुँच गये, परंतु विमोचन पुस्तक न पहुँचने के कारण स्थगित हो गया था, जिसकी हमें सूचना नहीं मिली इसके लिये मैंने लालित्य ललित जी से फेसबुक के खुले मंच पर सवाल किये। वहाँ शटल सेवा भी अनियमित थी।  इस उम्र में हम इतना चले, वह भी बे मतलब…. मन इतना खिन्न हुआ कि किसी से मिलने या पुस्तक ख़रीदने की हिम्मत ही नहीं हुई।

 

लेखन मेरे लिये समय काटने का साधन ही नहीं बना,  नकारात्मक  विचारों की घेराबंदी भी नियंत्रण में आ गई। अपनी ही रचना को पढ़ना फिर आलोचक की सी नज़र डालकर सुधार करना मुक्ति का अहसास कराने लगा है।  यहाँ प्रशंसक भी मिले और आलोचक भी मिले, कुछ दोस्त भी बने। भले ही मैं लेखन में प्रतिस्पर्धा से अपने को दूर रखूँ पर लिखने वाले को प्रकाशित होने की चाह न हो ये तो हो ही नहीं सकता। प्रवक्ता. कॉम ने मुझे लेखन का सबसे बड़ा मंच दिया था,  आरंभिक रचनांये सृजन गाथा पर थी इसके अलावा भी बहुत सारी वैब साइट्स पर मेरी रचनायें आईं। कई बार प्रवक्ता. कॉम से उठाकर रचनायें इधर उधर दूसरे मंचों पर डाली गईं, वैब मीडिया में भी और छोटे शहरों से निकलने वाले छोटे और मंझोले अख़बारों में भी । शिकायत यहाँ सुनता कौन है,  जब तक रचना के साथ मेरा नाम है,  ठीक है परन्तु एक ही रचना कभी कभी कई मंचों तक भी पहुँच गई।

 

प्रिंट मीडिया में कुछ अच्छी त्रैमासिक पत्रिकायें है करुणावती साहित्यधारा,  समागम,  अटूट बंधन और विश्वगाथा इत्यादि,  जिन्होंने मेरे कुछ बहुत अच्छे लेख प्रकाशित किये धर्म के मदारी,  साहित्य और मनोविज्ञान,  मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें, छंद छंद मुक्ति ओर संगीत  जिन्हें पढ़कर बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिली थी। ‘ये भी एक नज़रिया’ ने कुछ लोगों को नाराज़ भी किया था क्योंकि उसमें धर्म से जुड़े चरित्रों का साहित्य के नज़रिये से आकलन किया था, जिसका प्रत्युत्तर भी पत्रिका ने अगले अंक में छापा था।

 

आजकल भले ही मुझे राजनीति से अरुचि हो गई है, पर एक समय था जब मैं ‘आप’ का हिस्सा थी और मैंने उनके बारे में काफ़ी लिखा था। मेरा इकलौता लेख जो मैंने किसी अख़बार को भेजा और छपा भी वह था  ‘आप ‘आने से जाने तक ये जनसंदेश टाइम्स में छपा था। इस लेख के साथ मेरा फोन नम्बर भी छपा था,  मैं बता नहीं सकती कि कितने कॉल दो दिन तक आते रहे। ये समसामयिक रचना थी किसी साहित्यिक पत्रिका में कुछ महीने बाद छपती तो बासी हो जाती। ऐसी रचनाओं के लिये अख़बार ही सही माध्यम है परंतु आमतौर पर मैं अखबारों के परिशिष्ट के लिये अपनी कोई रचना भेजना पसंद नहीं करती। जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि मैंने कुछ व्यंग्य भी लिखे जो नैट पर ही विभिन्न स्थलों पर हैं,  उन्हें पढ़कर एक अख़बार ने साप्ताहिक कॉलम लिखने की पेशकश की थी पर मैं व्यंग्यकार नहीं हूँ और हर सप्ताह व्यंग्य गढ़ना मेरे बस की बात नहीं है।  लेखन मुझे मुक्ति दे यही चाहती हूँ, मुझे बंधन स्वीकार नहीं था या मैं कहूँ मैं उसके योग्य ही नहीं थी,  तो भी ग़लत नहीं होगा।

 

‘मृत्यु पर इतना पाखंड क्यों?’,’ भारत एक हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता’ जैसे लेख भी हैं जिन पर काफ़ी बवाल मचाया गया था। मेरा गुरु महान कविता से भी कुछ लोग क्रोधित हुए जो कि स्वाभाविक है पर मुझे जो सही लगा वह लिखा। मैंने जातिवाद, दलितों के प्रति अत्याचार का विरोध किया, पर जाति आधारित आरक्षण का सदैव विरोध किया है।

 

मैं समाज सुधारक नहीं हूँ फिर भी बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं को पढ़कर उसके मनोवैज्ञानिक पक्ष को ‘कौन है ज़िम्मेदार’’ लेख के ज़रिये समझा और उजागर किया। मनोविकारों से संबंधित प्रवक्ता.काम पर पूरी एक श्रृंखला है जिसमें कुछ लेखों को पढ़कर पाठक और अधिक जानकारी  भी माँगते रहते हैं। मैं केवल समाज में मनोविकारों को समझने, सहज होने, स्वीकार करने और इलाज करवाने के लिये समाज के हर तबक़े को सजग करने की कोशिश करती रही हूँ।

 

प्राण शर्मा सर ने मेरी छंद मुक्त कविताओं को पसंद किया पर साथ ही छंद सीखने और लिखने के लिये प्रेरित करते रहे। हाइकु तो मैं जल्दी ख़ुद ही लिखना सीख गई थी, वे चाहते थे कि सबसे पहले मैं दोहे लिखूँ। मैंने दोहे के नियम पढ़े बारीकियाँ समझीं, दोहे लिखने की कोशिश की, आरंभ में प्राण सर संशोधन करके समझा देते थे। शुरू में काफ़ी कठिन लगा, ऐसा लगा नियमों में बंधकर भाव तो गायब हो रहे हैं। मैंने दोहे गुनगुनाने शुरू किये, पहले रहीम और कबीर के इतने दोहे पढ़े भी थे और गाये भी थे कि दोहे लय पर स्वतः शब्द उतरने लगे।लिखने के बाद मात्रा गिनकर कर लघु दीर्घ सही जगह हैं  देख लेती थी। प्राण सर के जीवन काल में 400 ,500 के बीच दोहे लिख चुकी थी। प्राण सर चाहते थे कि मैं 700 दोहे पूरे करूँ, सतसई लिखूँ। सतसई लिखी, ई बुक के रूप में अकील पब्लिशर ने अमेजन सहित अन्य वैब स्थलों पर ये उपलब्ध भी करवाई, इसके डाउनलोड के आँकड़े काफ़ी संतोषजनक रहे। यह देखने के लिये अब प्राण जी नहीं रहे। अब तो मेरे दोहों की संख्या भी 1000 पार कर चुकी होगी।

 

पहली किताब प्रकाशित करवाने के बाद मैने  यह निश्चय कर लिया था कि अपनी ओर से धनराशि लगा कर पुस्तक अब नहीं छपवाऊँगी। सतसई के लिये अपने ख़र्च पर छापने के लिये कोई प्रकाशक नहीं मिला तो मैंने अकील पबलिशर्स से ई बुक  बनवाई जो काफ़ी डाउनलोड हुई। एक डाउनलोड फ्राँस से हुआ यह जानकर अपार हर्ष हुआ। इससे पहले स्टोरी मिरर ने भी मेरी दो ई बुक बनाई थीं जिसका अनुभव अच्छा नहीं रहा था । पहली बात तो ये कि उन्होंने अपनी ही साइट पर रखा, अमेज़न किंडल जैसी लोकप्रिय साइट्स पर ई बुक नहीं डाली, दूसरी बात थोड़े से पैसों के लिये, उनकी डाउनलोड की प्रक्रिया  बहुत जटिल है । जब मुझे लोगों ने बताया कि वहाँ से पुस्तक डाअनलोड नहीं हो रही तो मैंने स्टोरी मिरर को ये बात बताई थी । जब कुछ नहीं हुआ तो मैंने उनसे वहाँ से वे ई पुस्तकें हटाने का आग्रह किया , जिसे उन्होंने मान लिया। दो सप्ताह में ही वे पुस्तकें वहाँ से हटा ली गईं थीं। ये दोनों पुस्तकें कुछ परिवर्तन संशोधन के साथ दोबारा लाने की कोशिश कभी न कभी करूँगी। एक पुस्तक हिंदी में है और दूसरी इंगलिश कविताओं का संग्रह है। दोनों का कॉपी राइट भी मेरा ही है।

 

पुस्तक प्रकाशन वह भी हिंदी कविताओं का बिना पैसे ख़र्च किये बहुत मुश्किल लग रहा था परंतु लिखने में कोई कमी नहीं की , और उम्मीद कभी नहीं छोड़ी। एक बार कुछ कविताओं की एक पी डी ऐफ़ पूनम और तनु की मदद से ई पुस्तक के रूप में बनाई पर नैट पर कहीं नहीं डाली केवल उन मित्रों और रिश्तेदारों को भेजी जिनको हिंदी काव्य में रुचि है। ऐसा नहीं किया कि सब को मेल कर दूँ तो जंक मेल की तरह पाने वाले बिना देखे डिलीट कर दें।

 

इसी बीच मेरी एक कविता ‘मैं मैं हूँ मैं ही रहूँगी’ फ़ेसबुक से व्हाट्सअप चली गई और डेढ़ दो साल तक वहाँ बेनाम विचरती रही। कई जाने माने कवि उसे शेयर कर रहे थे। फ़ेसबुक पर वह 6,7 बार मेरी नजरों के सामने से गुज़री. बार बार सबूत के साथ मैंने उस पर अपना लेखकीय अधिकार बताया। नैट पर वह कई अन्य लोगों के नाम से व अज्ञात भी रही।  अंत में कुछ ने मान लिया और मेरा नाम डाल दिया पर आज भी नैट पर वह अन्य नामों से मिल जायेगी। जिन जिन लोगों को पता चलता गया कि वह मेरी कविता है उन्होंने उसकी भरपूर प्रशंसा की। इस पर फ़ेसबुक पर भी चर्चा हुई। इसके विडियो भी नैट पर हैं, कुछ ने मुझे श्रेय भी दे दिया हैं।

 

दिल्ली  में दूरियाँ इतनी हैं कि मैं आमतौर पर साहित्यिक समारोहों में नहीं जा पाती हूँ । स्वास्थ्य भी इजाजत नहीं देता कई घंटे यात्रा और समारोह में बैठने से कमर का दर्द बढ़ने का डर लगा रहता है। माना कि लिखने वाले की पहचान उसकी क़लम से होती है, परंतु उसके लिये कलम से निकली बात पाठक तक पहुँचने के लिये छपना ज़रूरी है। ऐसे समारोहों में जाने से व्यक्ति  की  एक छवि बनती है, आप पहचाने जाने लगते हैं  तो प्रकाशक  भी  आपकी पांडुलिपि  पढ़ते हैं। अंजान सा लगने वाला नाम देखकर बहुत से प्रकाशक तो मेल का उत्तर ही नहीं देते,  कुछ विनम्रता पूर्वक कह देते हैं अभी एक वर्ष तक के लिये उनके पास बहुत सी पांडुलिपियाँ है,  अभी  कोई पांडुलिपि  वे नहीं देख सकते ।

 

कुछ दूसरे प्रकाशक हैं, जो सीधे मुद्दे पर आ जाते है और पूछते हैं कि कितना कॉपियाँ  चाहिये?  पैकिज की बात करते है। पांडुलिपि  में क्या है ये उनके लिये महत्वपूर्ण  नहीं है। आजकल कल साझा संकलन  का भी दौर  खूब चला है। कहानी कविता और लघु कथाओं के धड़ाधड़ संकलन निकल रहे हैं। ये आपको लेखकीय प्रति भी नहीं देंगे,  सम्मान भले ही दे  दें। आपको दस पन्ने देंगे और आपको उनसे पुस्तक की दस प्रतियाँ ख़रीदने की बाध्यता को स्वीकार करना पड़ेगा। आप अपनी किताब कुछ साथियों की रचनाओं के साथ ख़रीदेंगे तो उनकी सौ किताबें तो लेखक ही ख़रीद लेंगे, हो गया पैसा वसूल प्रकाशक का। पूरी प्रकाशन व्यवस्था  प्रकाशक के पक्ष में हैं। प्रकाशक अपना पैसा दाव पर नहीं लगाते केवल मुनाफ़ा कमाते हैं।  साझा संकलन से बेहतर है कि अच्छी पत्रिकाओं में रचनायें छपे। साझा संकलन की नौ कॉपियाँ आपको ख़ुद के पैसे ख़र्च करके बाँटनी ही पड़ेगी और मुफ्त की चीज़ की कोई कदर नहीं करेगा।  लेखक अपनी किताब नहीं बेच सकता , वह किताबों का खुदरा व्यापारी नहीं होता है।

 

पिछले वर्ष जब मैं आगरा गई तो श्री अशोक रावत जो कि जाने माने ग़ज़लकार हैं उनसे संपर्क किया। उन्होंने मेरे लिये आगरा के कई कवियों के साथ एक गोष्ठी का आयोजन किया। यह गोष्ठी डॉ शशि गोयल के आवास पर हुई। सब  ने काव्य पाठ का आनंद तो लिया ही वहाँ पर ‘’मैं मैं हूँ………… कविता जो कि सोशल मीडिया पर बेनाम विचर रही थी उसकी कवयित्री के रूप में मेरा परिचय कराया गया था। मुझे ताज्जुब हुआ कि इन सब साहित्यकारों ने उस कविता को पढ़ा ही नहीं उसपर चर्चा भी की है। यह एक प्रगतिशील विचारों की कविता है, जिसमें नारी के स्वाभिमान की अभिव्यक्ति है। वहाँ उस कविता के प्रत्युत्तर के रूप में श्री एस. एस. यादव ने मेरी कविता के आधार पर उसका पारंपरिक रूप प्रस्तुत किया जो कि बहुत सुंदर था। डॉ शशि गोयल और डॉ शशि तिवारी ने अपनी अपनी पुस्तकें मुझे भेंट की।  डॉ शशि तिवारी से संपर्क बना रहा और उन्होंने दोहों के संबंध में मेरी कुछ शंकाओं का समाधान भी किया जिससे ‘बीनू की सतसई’ की पांडुलिपि बनाने में बहुत मदद मिली थी।मेरे पास एक संग्रह प्रकाशित होने लायक पर्याप्त कवितायें हुईं तो मैंने संग्रह का शीर्षक ‘’मैं मैं हूँ मैं ही रहूँगी’’ रखना उचित समझा। यह कविता उस संग्रह का हिस्सा है। अब यह संग्रह वाराणसी के ए.बी.ऐस पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित हो चुका है, जिसका विक्रय प्रकाशक कर रहे हैं मुझे पाँच 5 लेखकीय प्रतियाँ मिल चुकी हैं।  मैं इसके लिये प्रकाशक श्री अनुराग रमन पाँडे जी की आभारी हूँ। पुस्तक का आवरण प्रिंट सभी आकर्षक है। प्रकाशक ने इस संग्रह को लाने के लिये मुझसे आर्थिक सहयोग की कोई अपेक्षा नहीं की ये मेरे लिये एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है।

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………बीनू भटनागर

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