गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14

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यात्रा वृत्त

 

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

अब आगे ….

 

 

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 14 –यात्रा वृत्त

(2011 के बाद)

मैं छोटी थी तो मेरी यात्रायें जब बुलंदशहर सिकंद्राबाद और ज्यादा से ज्यादा दिल्ली तक होती थीं, जिनका उद्देश्य भी कभी पर्यटन नहीं होता था। पर्यटन के लिये विवाह से पूर्व एक नैनीताल यात्रा की थी और दूसरी काश्मीर की थी। ये इतनी पुरानी बातें है कि उनकी हल्की झलक ही दिमाग़ में है, इनका जिक्र मैं अध्याय 2 और 3 में कर चुकी हूँ।

 

शादी के बाद ही एक तरह से मैं उत्तर प्रदेश के बाहर निकली थी। मुंबई, केरल और गोवा भी तनु के इलाज के सिलसिले में गये तो वहाँ के प्रमुख आकर्षण देख लिये थे। सिकंद्राबाद हैदराबाद भी घूमा। शोलापुर से आते आते  पंढरपुर, शिरडी,बीजापुर और महाबलेश्वर भी गये थे। इन सब यात्राओं का जिक्र समय समय पर यादों पर ज़ोर डालकर मैंने किया है।

 

दिल्ली आने के बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, शिमला, देहरादून  और मसूरी गये थे।।शिमला तो तीन बार जाना हुआ था, वहाँ रेलवे के रैस्टहाउस में रुके थे। ये तो हर बार ड्यूटी पर ही थे, रेलकार से जब चाहें जहाँ रुके निरीक्षण किया  और आगे बढ़ गये। कुफरी और शिमला का भव्य राषट्रपति निवास देखा जो कि अब उच्च शिक्षा का केंद्र है। अद्भुत इमारत है जिसका एक हिस्सा पर्यटकों के लिये खुला रहता है। यहाँ का लॉन और उद्यान भी बहुत सुंदर है।

 

जब से लिखना शुरू किया है हर यात्रा की स्मृतियों से कभी कविता सजाई है तो कभी लेख लिखा है और कभी गद्य और पद्य दोनों रूपों में यात्रा वृत्त लिखे हैं। ये स्मृतियाँ मेरे जीवन का अंग हैं, इसलिये इनको इस अध्याय में प्रस्तुत करूँगी। ये सभी यात्रा संस्मरण किसी न किसी पत्रिका या वैब साइट पर आ चुके हैं परन्तु  इनका कॉपी राइट मेरा ही है, यह मैं पहले स्वानुभूति में भी बता चुकी हूँ।  इस अध्याय में मैं दार्जिलिंग, गैंगटॉक यात्रा(2011), केरल यात्रा(2013) और उत्तराखंड यात्रा(2016) और ग्वालियर यात्रा(2019) के संस्मरण ही प्रस्तुत करूँगी। शिमला और हरिद्वार ऋषिकेश यात्राओं पर जो कवितायें लिखी थीं वे पेश करूँगी,तो पहले कवितायें-

 

 

शिमला से..

खिड़की खोली,

दर्शन किये प्रभात के,

सूर्य की किरणें पड़ी जब,

हिम शिखर पर,

विस्तार ज्योति पुंज का,

मेरे द्वार पे।

 

ये नोकील पेड़

देवदार के,

प्रहरी बने खड़े हैं,

पर्यावरण के बहार के।

 

 

एक सौ तीन सुरंगें,

पार करती

घूमती चढ़ती हुई,

रेल की ये पटरियां,

दौड़ती हैं जिन पर

सुन्दर, सजीली गाड़ियां।

अति सुखद है यात्रा,

शिवालिक पहाड़ की।

 

ऊंचे नीचे, टेढे-मेढे,

रास्ते पहाड़ के,

रेंगते हैं इन पर वाहन प्रवाह से

ऊंचे शिखर, नीची वादी,

सौन्दर्य रचनाकार के।

 

जीवित हूँ या स्वर्ग में,

भ्रम मुझे होने लगा है,

मुग्ध मुदित मन मेरा,

होने लगा है।

चारों ओर फैला है,

बादलों का एक घेरा,

छू लिया है बादलों को,

मुट्ठी में बन्द किया है,

पागल आशिकों को।

 

शाम ढली पुलकित हुई मैं,

ठंडी बयार से,

तन मन शीतल हो रहा है

रात्रि के प्रहार से।

 

तारों भरा आसमां

नीचे कैसे हो गया,

आकाश ऊपर भी नीचे भी,

फिर मुझे कुछ भ्रम हो गया।

स्वप्न है या यथार्थ,

यथार्थ कबसे इतना सुखद हो गया !

 

ऊपर निगाह डाली तो बादलों के घेर थे,

बूँदें गिरी मौसम ज़रा नम हो गया

यह सुख फिर कहीं खो गया।

 

सूखी चट्टानें, कटे पेड़,

देखकर मन विचलित हो गया।

सीढियों पर उगती फ़सल देखकर,

फिर मन ख़ुश हो गया।

 

धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे,

ये पेड़ देवदार के।

 

हरिद्वार और ऋषिकेश

 

उत्तराखण्ड का द्वार हरिद्वार,

यहाँ आई गंगा पहाड़ों के पार।

पहाड़ों के पार शहर ये सुन्दर।

सुन्दर शहर उत्तराखण्ड का मान।

मंसादेवी, चंडीदेवी के मन्दिर सुन्दर,

मंदिर का रास्ता बन गया है सुगम,

केबल कार की यात्रा अति मनोरम।

हर की पौड़ी शहर का मान,

गंगा की आरती, गंगा की भक्ति,

ऊपरी गंगा नहर और गंगा,

हरिद्वार का बनी है अभिमान।

तैरते हैं यहां प्रज्वलित दीप हर शाम।

आयुर्वेद्यशाला पंतजलि संस्थान,

गुरुकुल कांगड़ी यहां विद्यमान।

हरिद्वार के निकट ही शहर ऋषिकेश,

आश्रमों में साधुओं का होता है प्रवेश।

विशाल झूला सा पुल झूला लक्ष्मण,

राम के नाम का भी झूला विलक्षण।

युवा पर्यटकों का भी मन मोहे  ऋषिकेश,

डेरों में रहते थे युवा नदी के तट पर,

डेरे तो उठ गये प्रदूषण से बचाव को,

फिर भी नदी में है राफ़्टिग जारी ।

 

यहां से ही शुरू होती है शुभ यात्रा,

उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा।

गंगोत्री, जमनोत्री, केदारनाथ,

और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा।

(अब राफ्टिंग पूरी तरह बंद हो चुकी है)

 

 

दार्जिलिंग और गैंगटॉक यात्रा

(2011)

 

अपूर्व की शादी के बाद ये हमारी पहली पर्यटन यात्रा थी, जिसमें परिवार की नयी सदस्य नेहा भी हमारे साथ थी।  हम दिल्ली से विमान द्वारा बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुँचकर सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम साफ़ था। अचानक नेहा कभी नीचे ज़मीन पर देख रही थी कभी ऊपर और कहने लगी ये पानी कहाँ से आ रहा है। नीचे कुछ गीला था। कुछ देर में पता चाला कि पानी की बोतल जो कि ठीक से बंद नहीं की गई थी, नेहा के बैग में थी उसी से पानी टपक रहा था।इस ज़रा सी लापरवाही की भेंट उसका मोबाइल हो गया जो बहुत कोशिशों के बाद भी नहीं चला।

 

बागडोगरा से हम टैक्सी से दार्जिलिंग गये। मैं, ये और अपूर्व जब कई साल पहले गुवाहाटी से भी दार्जिलिंग गये थे तब हम सिलीगुडी से दार्जिलिंग ट्रेन से गये थे। ट्रेन में समय अधिक लगता है। रेल और सड़क यात्रा दोनों मनोहारी हैं। काफ़ी दूर तक सड़क और रेल साथ साथ चलती हैं। रेल मार्ग पर ही एक स्थान है, बतासिया घूम, इसकी विशेशता है कि ट्रेन एक लूप का आकार लेकर ऊपर चढ़ती है। पहली बार जब हम ट्रेन से गये थे, तो ट्रेन से गुज़रते समय ही यह जगह देखी थी, इस बार हम विशेष रूप से बतासिया घूम देखने गये थे। इस मार्ग पर ट्रेन बहुत कम चलती हैं और गति भी धीमी होती है। यहाँ रेल पटरी पर पटरी बाज़ार लग जाता है।उद्यान भी ख़ूबसूरत है और यहाँ से पूरा दार्जलिंग शहर नज़र आता है। दूर कंचनजंधा की हिमाच्छादित चोटी भी दिखती है। यहाँ कुछ लोग दूर बीन लिये खड़े रहते हैं जो चारों तरफ़ के नज़ारे विशेषकर कंचनजंघा की चोटी को दूरबीन से कुछ पैसे लेकर दिखाते हैं। दूरबीन से ये अद्भुत  दृष्य ऐसे दिखते हैं, कि उस स्थान पर ख़ुद होने का अहसास होता है, जबकि ये पर्वत चोटियाँ वहाँ से मीलों दूर हैं। बतासिया घूम( लूप) के उद्यान के बीच में एक सैनिक स्मारक भी है। बतासिया घूम से दार्जिलिंग की तरफ़ ढलान है। बता सिया घूम इस रेल मार्ग पर सबसे ऊँचा स्थान है। सिविल इंजीनियरिंग की ये एक अनूठी उपलब्धि माना जाता है।

 

दार्जिलिंग जाते समय हम कुर्सियाँग से गुज़रे और उसी रैस्टोरैंट में दोपहर का भोजन किया  जो रेलवे रैस्ट हाउस के सामने था, जहाँ हम पहली बार रुके थे। दार्जिलिंग  में होटल के आस पास ही बाज़ार था जो चीनी तिब्बती सामान से भरा हुआ था। थोड़ी बहुत ख़रीददारी की, ज़्यादा कुछ ख़रीदने के लिये था ही नहीं। अगले दिन हमें टाइगर हिल पर जाना था। कई वर्ष पहले जब हम दार्जिलिंग आये थे, तब भी वहाँ गये थे पर तब और अब में बहुत अंतर आ गया था। नयी सड़क बन गई थी और कोई भी कार वहाँ जा सकती थी ,जबकि पहले सिर्फ जीप जाती थीं। टाइगर हिल लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई पर है । ये स्थान दार्जिलिंग से लगभग 10-12 कि मीटर की दूरी पर है। यहाँ से विश्व की तृतीय ऊँची चोटी कंचनजंधा और बहुत दूर माउंट ऐवरैस्ट भी दिखती है। यहाँ सब लोग सूर्योदय देखने आते हैं। सूर्योदय के बहुत पहले ही लोग यहाँ ठंड के बावजूद पहुँचने लगते हैं। पिछली बार जब हम यहाँ आये थे तो सब खुला था,लेकिन अब तक पर्यटकों की सुविधा के लिये एक इमारत बना दी गई थी, जिससे ठंड से बचाव हो सके। इस इमारत में सुविधाओं के अनुसार अलग अलग मंजिल पर अलग अलग मूल्य के टिकिट थे। चाय के भी स्टाल थे। हर मंजिल से सूर्योदय का अद्भुत दृश्य इस इमारत के शीशों से साफ़ देखा जा सकता था, फिर भी क्षितिज पर जैसे ही सुनहरापन छाया, ये नज़ारा देखने लगभग सभी लोग इमारत के बाहर खुले में आ गये थे। अधिकतर लोगों को इस दृश्य और अपनी आँखों के बीच शीशे की दीवार भी मंजूर नहीं थी, कुछ देर के लिये ठंड का प्रकोप सहने को सब तैयार थे। कुछ मिनटों के लिये सूर्य की किरणें हिमाच्छादित चोटियों को सुनहरा कर देती हैं। चाँदी सी हिम सोने सी सुनहरी चमकती है। सब लोग इस खूबसूरत दृश्य को अपनी आँखों और कैमरों में कैद करने में तल्लीन हो जाते हैं। सूर्योदय के बाद वहाँ से निकास शुरू हो जाता है।

 

दार्जिलिंग शहर के पास ही पहाड़ी ढलान पर बौद्ध मंदिर स्थित है जो जापानी शैली में बना हुआ है, यहाँ चढ़ने का रास्ता भी सुंदर है। यहाँ गौतम बुद्ध की सुंदर स्वर्णिम प्रतिमा स्थापित है। इसके अलावा एक पर्वतारोहण संस्थान और बोटैनिकल गार्डन भी है जहाँ हम लोग गये थे।

 

अगले दिन हम दार्जिलिंग से गैंगटॉक के लिये रवाना हुए थे। हमारे साथ जो ड्राइवर और टैक्सी बागडोगरा एयरपोर्ट से की थी वही साथ रहे और अंत में वापिस बागडोगरा तक छोड़ा था।दार्जिंलिंग से गैंगटॉक क़रीब 100 कि.मी. दूर का रास्ता तय करने में तीन साढ़े तीन घटे तो लग ही जाते हैं। गैंगटॉक  पहुँचकर हम काफ़ी थका हुआ महसूस कर रहे थे इसलिये एक दिन सफ़र और आराम में निकल गया।  शाम के समय होटल के आस पास के बाज़ार घूम लिये थे। गैंगटॉक शहर घूमने के लिये समय ही नहीं था। अगले दिन सोमोंगो लेक देखने जाना था। गैंगटॉक से सोमोंगो लेक क़रीब 40 कि. मी.दूर है। मार्च के महीने में भी वहाँ एक दिन पहले ही काफ़ी बर्फ़ गिरी थी। सोमोंगो लेक के आसपास के सारे वातावरण पर बर्फ़ की चादर बिछी थी। वहाँ बर्फ़ पर चलने के लिये विशेष जूते और जैकेट वगैरह किराये पर उपलब्ध थे। हमने केवल जूते ही लिये। गर्म कपड़े तो इस बार काफ़ी साथ लेकर आये थे।

 

सोमोंगो लेक का पानी बहुत साफ़ और निर्मल है, क्योंकि वहाँ न नौका विहार की इजाजत है ,न किसी और जलक्रीड़ा की।  तट पर बैठकर प्राकृतिक सौंदर्य निहारना, किसी आध्यात्मिक अनुभूति से कम नहीं है। यहाँ पर याक पर बैठकर सोमोंगो लेक की परिक्रमा की जा सकती है। यहीं से नाथूला पास जाया जा सकता है परंतु उसके लिये परमिट लेना पड़ता है। नाथूला पास चीन की सीमा पर है जहाँ दोनों देशों के सैनिक तैनात रहते हैं।

 

सिक्किम काफ़ी साफ़ सुथरा प्रदेश है पर सड़क यात्रा भारत के हर प्रदेश में जन सुविधाओं के अभाव में कष्टदायक हो ही जाती हैं, विशेषकर महिलाओं के लिये, इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिस देश में लोगों के घरों में ये बुनियादी सुविधा न हों वहाँ सड़को पर मुसाफ़िरों के लिये जन सुविधाओं की उम्मीद भी कैसे करें! शाम तक सोमोंगो लेक देखकर हम गैंगटॉक के लिये रवाना हो गये। अगले दिन गैंगटॉक से इस यात्रा की सुंदर स्मृतियाँ संजोकर रखने वाली यात्रा समाप्त कर हम बागडोगरा एयरपोर्ट पहुँच गये, जहाँ से दिल्ली के  लियें रवाना हुए।

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2013 में बीबी भाई साहब अमेरिका से सर्दियों में आये हुए थे तब हम उनके साथ केरल यात्रा पर गये थे। केरल हम 70 के दशक में भी गये थे पर उस बार जिन स्थानों पर हम गये थे इस बार वहाँ नहीं गये। पहले तो हमने अपनी यात्रा का कार्यक्रम ख़ुद बनाया था, इस बार ट्रैवल एजैंट के पैकेज में से कार्यक्रम चुना था। पहले हम पालघाट,गुरुवयूर मंदिर और मलमपुज़ा डैम पर गये थे जहाँ के उद्यान मन लुभावने थे। इस बार कन्याकुमारी को छोड़कर बाकी सभी जगह पहली बार ही गये थे।

 

 

केरल

(2013)

 

ईश्वर ने तो पूरा ब्रह्मांड रचा है, फिर भी कहते हैं ईश्वर की अपनी धरती केरल है। भारत के दक्षिण पश्चिम छोर पर यह प्रदेश बहुत ही सुन्दर और हरा भरा है। हाल ही में मुझे सपरिवार इस प्रदेश की यात्रा करने का अवसर मिला था। ये यात्रा मेरी अति सुखद और यादगार यात्रा रही।

 

कोची ऐरनाकुलम सटे हुए दो शहर, ये केरल के बड़े शहर है,  तटीय शहर हैं, कोची एक व्यावसायिक बन्दरगाह होने के साथ भारतीय नौ सेना का मुख्य केन्द्र भी है। केरल का पूरा समुद्र तट कटा फटा है और बैक वाटर धरती के बीच आकर गलियाँ सी बना लेते हैं, जो वहाँ रहने वालों के लिये स्थानीय यातायात का साधन भी बन जाती हैं। इन पानी के रास्तों पर मोटरबोट के स्टैंड बने होते हैं, जिनसे यात्री शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आते जाते रहते हैं ,सड़क के रास्ते अधिकतर बहुत लम्बे होते हैं। मोटर बोट के अलावा भी छोटी छोटी नावों से लोग इधर उधर आते जाते रहते हैं। इन बैकवाटर की गलियों के तटों पर केले के पेड़ो के झुंड और नारियल के पेड़ों के समूह बहुत ज़्यादा नज़र आते हैं। लगभग सभी तटीय शहरों में ऐसा ही नज़ारा दिखता है।

 

कोची हवाई अड्डे पर उतर कर हम मुन्नार की ओर चल दिये थे। 4-5 घंटे ये पहाड़ की यात्रा बड़ी सुखद रही थी। नील गिरि पर्वत की चढ़ाई पर सड़क के दोनों ओर के दृश्य अति मनोहर हैं। निचले पहाड़ो पर अधिकतर चीढ़ के बडे बड़े वृक्ष और केले के पेड़ों के झुंड नज़र आते हैं। कुछ ऊँचाई पर पहुँचकर लगभग 2500 फुट के बाद ढलानों पर चाय के बाग़ान शुरू हो जाते हैं। चाय बाग़ान ऐसे लगते हैं, मानो दूर दूर तक प्रकृति ने हरी हरी मेजें लगा रक्खी हों और पाइन के पेड़ छतरी बने खड़े हों। चाय के ये बाग़ान बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करते हैं ,बीच में ही कहीं चाय की फैक्ट्री भी दिखाई देती हैं। यहाँ की मशहूर चाय कानन देवन है, पर अन्य कई प्रकार की चाय भी यहाँ पैदा होती हैं। मुन्नार के पास एक चाय का म्यूज़ियम है, जहाँ मुन्नार के चाय के इतिहास, चाय के प्रकार, चाय के लाभ और चाय की पत्तियों के प्रसंस्करण (PROCESSING) की पूरी जानकारी दी जाती है। यहाँ से हमने विभिन्न प्रकार की चाय ख़रीदी थीं।

 

यहाँ से कुछ दूरी पर मैटूपट्टम डैम और रैसरवायर भी देखे जहाँ नौका विहार का आनन्द लिया जा सकता है। मुन्नार शहर लगभग 6000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है,यह चाय बाग़ानों का मुख्य केन्द्र है। यहाँ मौसम हमेशा सुहावना बना रहता है। पर्यटकों के आने से इस छोटे से शहर मे छोटे बड़े बहुत से होटल व रैस्टोरैंट बन गये हैं। पर्यटकों के आने से स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिले हैं। यहाँ से कुछ दूर रोज़ गार्डन हैं।  इस मौसम मे गुलाब तो कम थे पर अन्य पुष्पों लताओं की बेशुमार किस्में बड़े करीने से पहाड़ी ढलानो पर उगाई गईं थी। हज़ारों गमलों मे विभिन्न प्रकार के क्रौटन और फूल लगे थे। इन सुन्दर दृष्यों का शब्दों मे वर्णन करना कठिन है।

 

हमारा अगला पड़ाव ठेकड़ी था। नीलगिरि पर्वत पर 5 घन्टे की यात्रा हमने लगभग 7 घन्टे मे पूरी की,कई जगह प्राकृतिक झरनों और मनमोहक चाय के बाग़ानो पर रुके चित्र खींचे, वातावरण का आनन्द लेते हुए आगे बढ़े थे। पूरी पहाड़ी यात्रा बडी सुहानी रही थी। यहाँ से ही पैरियार झील जाकर नौका विहार का आनन्द भी लिया। यहीं से सफारी के लिये भी जाया जाता है। ठेकड़ी के आस पास बहुत से मसालों और आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के उद्यान हैं। सबसे ज्यादा सड़क के दोनों ओर इलायची के पौधे दिखाई दिये।  मुन्नार चाय का केन्द्र है,तो ठेकड़ी मसालों का।

 

यहाँ कई मसाले के उद्यान हैं, जहाँ वहीं के लोग पर्यटकों को मसालों की खेती और विभिन्न प्रकार की आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के बारे मे विस्तारपूर्वक जानकारी देते हैं। हमने जो मसाला उद्यान देखा उसमें डेढ़ एकड़ ज़मीन पर उन्होंने पर्यटकों को दिखाने के लिये सभी मसाले और जड़ी बूटियाँ लगाई हुई थीं, इसके अलावा पचास एकड़ ज़मीन पर यही मसाले, केले और जड़ी बूटियों का उत्पादन व्यावसायिक तौर पर होता है। वहीं पर मसाले तैयार किए जाते हैं जड़ी बूटियों से तेल और औषधियाँ भी बनाई जाती हैं। पर्यटकों की सुविधा के लिये वहाँ उन्होंने अपने उत्पादन बेचने के लिये दुकान खोली हुई हैं। हमने भी यहाँ से मसालों की ख़रीदारी की थी।

 

काली मिर्च की तलायें किसी भी मजबूत पेड़ के साथ चढ़ा दी जाती हैं। काली मिर्च गुच्छों के रूप में लटकती रहती हैं। इस मौसम में काली मिर्च का रंग हरा था, उन्होंने बताया कि मार्च तक पक कर वह लाल हो जाती है,तब उन्हें तोड़ा जाता है फिर धूप में सुखाने से वह काली पड़ जाती हैं। कच्ची हरी काली मिर्च हमने तोड़ कर खाई बहुत तेज़ नहीं लगी, बड़ी स्वादिष्ट लगी।  इलायची का पौधा क़रीब 4 फुट ऊँचा होता है,बड़े बड़े पत्तों वाला। इस पौधे के निचले हिस्से से छोटी छोटी पत्ती वाली शाखायें फूटती हैं इन पर इलायची लगती है।इलायची की फसल हर 45 दिन में मिलती रहती है। ये पौधे कई साल फसल देते हैं।

 

दालचीनी और तेजपत्ता एक ही पेड़ के उत्पाद होते हैं। दालचीनी पेड़ के तने की छाल होती है, और पत्ते तेज पत्ता होते हैं। लौंग एक उँचे से पेड़ पर फूल या कली के रूप में लगती है।  हींग के पेड़ के तनों में चीरा लगाकर एक द्रव्य निकलता है जो सूखकर हींग बन जाता है।

 

केले यहाँ 2-3 प्रकार के होते हैं छोटे केले, पतले छिलके वाले केले ,बड़े बड़े केले चिप्स बनाने के काम आते हैं। लाल छिलके के केले मे लौह तत्व बहुत होता है। साबूदाना भी यहाँ उगाया जाता है ।इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक औषधियों और सौंदर्य प्रसाधनों में काम आने वाली जड़ी बूटियाँ भी बहुत लगाई जाती हैं। हल्दी और अदरक भी यहाँ उगाये जाते हैं।हमे बताया गया कि हल्दी का एक प्रकार खाने के काम आता है और दूसरा सौंन्दर्य प्रसाधन बनाने मे। अदरक से अदरक पाउडर( सौंठ)भी बनाई जाती है।  इन्हीं उद्यानों में पान, सुपारी और कॉफ़ी भी उगाई जाती है। कॉफ़ी के पेड़ों में बेर के आकार के फल लटके रहते हैं जिनमें कॉफ़ी का बीज होता है ,इस बीज को भूनकर पीसने से कॉफ़ी पाउडर मिलता है।

मुन्नार और ठेकड़ी दोनों नील गिरि पर्वत पर बसे छोटे छोटे शहर हैं। ठेकड़ी से हमें ऐलेप्पी जाना था जो समुद्र तट पर स्थित है। पहाडी ढलानों पर यहाँ भी काफी दूर तक चाय बाग़ानों के अनुपम दृश्‍य दिखते रहे। नीचे आते आते गर्मी बढने लगी थी। अब सड़क के दोनों ओर रबड़ और इलायची अधिक दिख रहे थे। रबड़ के पेड़ो के तनों में चीरा लगाकर वहाँ से एक द्रव्य एकत्रित किया जाता है जिससे रबड़ बनती है। केले और नारियल के पेड़ो के साथ अब तटीय मैदानों में हरी घास जैसे चावल के खेत भी आरंभ हो गये थे। उत्तर भारतीयों के लिये इतने हरे भरे क्षेत्रों में यात्रा करना ही एक अनोखा अनुभव है। रास्ते में बड़े सुन्दर आलीशान मकान भी हरियाली के बीच थे,जैसे शहर कहीं समाप्त ही न हुआ हो। मकान छोटे हों या बड़े सब के प्रांगण में नारियल और केले के पेड़ अवश्य दिखे, नारियल केरल वासियों के भोजन का अभिन्न हिस्सा है। केले के भी लगभग हर भाग को यहाँ खाया जाता है। आमतौर पर घरों में और कुछ केरल के भोजनालयों मे भी केले के पत्ते पर भोजन परोसा जाता है।एक ऐसे ही भोजनालय मे केले के पत्ते पर साँभर चावल और नारियल के साथ पकी सब्जियों का आनन्द लिया। यहाँ खट्टे दही में भिगोकर हरी मिर्च को सुखाकर फिर तला जाता है ,इन खट्टी खट्टी कुरकुरी हरी मिर्चों के साथ ने भोजन का स्वाद और बढ़ा दिया था। यह केरल के रोज का खाना है। केरल वासी मछली और सामिष भोजन भी खाते है।

 

रास्ते भर प्राकृतिक सौंदर्य का आनन्द लेते हुए हम ऐलैप्पी पहुँच गये। ऐलैप्पी से पहले ही गर्मी की शुरुआत हो गई थी।  दिसम्बर के महीने में तापमान 30 डिग्री सै. के आसपास था। हम सब अपने हल्के पुल्के कपड़ों में आ चुके थे। यहाँ हाउसबोट मे हमे लगभग 24 घंटे रहना था। हाउसबोट का डैक बहुत सुन्दर था। रसोई भी आधुनिक उपकरणों से सज्जित साफ सुथरी थी। अगले एक दिन केवल इसी रसोई में पका भोजन हमें उपलब्ध था। हम 5 लोग थे इसलिये हमने 2 कमरों वाली हाउसबोट ली थी।  वैसे यहाँ 1-2-3 कमरों वाली हाउसबोट भी उपलब्ध हैं। हाउसबोट के डैक पर बैठकर हम केरल की विशेषता बैकवाटर में भ्रमण करने का आनन्द लेते रहे और बाहर के दृश्य देखकर मंत्रमुग्ध होते रहे। बोट मे खाते पीते बातें करते तस्वीरें खींचते समय तेज़ी से बीत गया। हाउसबोट चलती रही, ऐलैप्पी शहर के दर्शन करते रहे। यहाँ भी मोटरबोट से स्थानीय यातायात होता है, क्योंकि बैकवाटर की बहुत सी धरायें हैं जो सड़क का काम देती हैं। छोटी छोटी नावों से भी लोग इधर से उधर आते जाते रहते हैं। हाउसबोट को रात मे कहीं दूर ले जाकर लंगर डाल दिया जाता है। हाउसबोट मे रहकर पर्यटक बहुत आनंदित होते हैं। कई हाउसबट दोमज़िली भी होती हैं। बैकवाटर के तटों से छोटे छोटे घर झोंपडे नारियल और केले के पेड़ों के झुंड दिखते रहते हैं। आगे जाकर बैकवाटर का फैलाव बहुत बढ़ जाता है और चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई देता है। हाउसबोट का ये मनोरम अनुभव बहुत ही अनूठा था।

 

ऐलैप्पी से हमें कोवलम जाना था। तापमान यहाँ भी 30 डिग्री सै. के आसपास था। कोवलम तक के रास्ते में, तटीय मैदान में नारियल रबड़ और केले के सघन जंगल सड़क के दोनों ओर दिखते रहे। उत्तर भारत के लोगों के लिये इतनी हरियाली देखना, बिना धूल का सफर भी एक अनोखा अनुभव होता है। त्रिवेंन्द्रम या तिरुवनन्तपुरम एक बड़ा शहर है, केरल की राजधानी है। यहाँ आधुनिक और पुरानी बहुत सुन्दर इमारतें दिखी, पहली बार केरल में बहुमंज़िला रिहायशी और कार्यालयों के ऊँचे ऊँचे कुछ टॉवर दिखे। बड़े बड़े शोरूम वाले बाज़ार भी दिखे। कोची हवाई अड्डे से हम सीधे मुन्नार चले गये थे, इसलिये पहली बार केरल के किसी बड़े शहर से गुज़र रहे थे। केरल से कुछ ही दूर कोवलम बीच पर हमारे रहने का प्रबंध एक रेसोर्ट मे था। यह रेसोर्ट समुद्र के बहुत पास था। कमरे की बाल्कनी से स्विमिग पूल दिखता था, वहाँ विदेशी सैलानी मस्ती कर रहे थे। कभी कुछ नौजवान साथी वाटर बालीबौल जैसा कुछ खेल रहे थे। स्विमिग पूल भी नारियल के पेड़ों से घिरा हुआ था। शाम के समय बीच पर लहरों के साथ समय गुज़ारा। यहाँ की रेत बहुत साफ है और उसमें काली रेत भी आती है। काली रेत इस बीच को एक अलग पहचान देती है। यहाँ बीच पर खाने पीने के कोई स्टॉल न होने के कारण सफाई बनी रहती है। आस पास कुछ रैस्टोरैंट और हस्तशिल्प के सामान की दुकाने हैं। समुद्र में मोटरबोट से नौका विहार की व्यवस्था भी है। बीच पर कुछ घंटे बिताकर हम रेसौर्ट घंटे वापिस पहुँच गये।

 

केरल की भाषा मलियालम है। थोड़ी बहुत हिन्दी अंग्रेज़ी से काम चल जाता है।  ये लोग मृदुभाषी व

ईमानदार हैं। पर्यटकों की मदद करने के लिये तत्पर रहते हैं। पर्यटकों को ठगने,लूटने जैसे अपराध भी नगण्य ही सुनने में आते हैं। एक तरह से हमारी केरल यात्रा यहीं समाप्त हो गई परन्तु हम आगे कन्याकुमारी भी गये जो कि तमिलनाडु राज्य में है।

 

कन्याकुमारी

 

भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर कन्याकुमारी है। यहाँ अरब सागर ,बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर मिलते हैं। यहाँ सूर्यास्त और सूर्योदय दोनों ही सागर में होते हैं। मुख्य धरती से कुछ दूर पर एक चट्टान पर बना विवेकानन्द स्मारक भी कन्याकुमारी के आकर्षण का केन्द्र है।

 

त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी का दो सवा दो घंटे का रास्ता तय करने मे आजकल तीन साढ़े तीन घंटे लग जाते हैं क्योंकि सड़के संकरी हैं और रास्ते में छोटे छोटे कस्बों और उनके बाज़ारों से गुज़र कर जाती हैं। रास्ते में कई दर्शनीय मंदिर भी हैं। हमने पद्मनाभ महल देखा जो लकड़ी का बना 400 साल पुराना है।  यहाँ बहुत बड़ा डाइनिंग हाल है। पुराना फर्नीचर और राजाओं का अन्य सामान संरक्षित है।

 

कन्याकुमारी हम क़रीब 35 साल पहले भी गये थे, उस समय सड़क थल के अंतिम छोर तक जाती थी और दूर दूर तक 3 दिशाओं मे समुद्र देखने का आभास मिलता था। इतने सालों में पर्यटन बहुत बड़ा है, इसलिये समुद्र तट पर बहुमंज़िला होटल दुकानें और चर्च आदि बना दिये गये हैं। एक स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त देख पाना अब संभव नहीं है। दोनों को अलग अलग स्थान से देखना पड़ता है, जहाँ बहुत भीड़ लग जाती है। समुद्र का फैलाव भी नहीं दिखता। सौभाग्यवश हम अपने कमरे से सूर्योदय देख पाये। सूर्यास्त के लिये 3-4 कि. मी. दूर जाना पड़ता है, बादल भी थे अतः यह दृश्य देखने से वंचित रहे। पर्यटकों की सुविधा के लिये विकास करते समय राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि विकास से प्राकृतिक सौन्दर्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े। होटल और बाज़ार समुद्र तट से 3-4 कि. मी. अंदर बनाना सही रहता, समुद्र-तट पर अधिक से अधिक उद्यान बनाकर पर्यटकों के लियें बैंच बना देना सही होता।

 

विवेकानन्द स्मारक के सामने वाली छोटी सी चट्टान पर तमिल संत कवि थिरुवल्लूर की विशालकाय प्रतिमा बनाने से भी विवेकानन्द स्मारक का सौंदर्य घटा है। कवि थिरुवल्लूर की प्रतिमा वाली चट्टान के पास समुद्र उथला है इसलिये हाई टाइड मे ही मोटरबोट वहाँ जा पाती हैं। कवि थिरुवल्लूर की प्रतिमा उसके पीछे बने स्मारक से काफी ऊँची है। कवि की प्रतिमा लगाने के लिये कोई अन्य स्थान चुनना सही होता। विवेकानन्द स्मारक मोटरबोट से 10 मिनट में पहुंच जाते हैं पर लाइन बहुत लम्बी होती है। यहाँ से समुद्र के विशाल फैलाव का अनुभव होता है। स्वामी विवेकानन्द की विशाल मूर्ति एक कक्ष में स्थापित है। इस स्मारक पर स्वामी विवेकानन्द की लिखी हुई पुस्तकें और उनके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के साथ साथ अन्य लेखकों ने जो पुस्तकें स्वामी विवेकानन्द के बारे मे लिखीं हैं वह भी ख़रीदने के लिये उपलब्ध हैं।कन्याकुमारी से हम त्रिवेंद्रम पंहुचे वहाँ रेलवे के रैस्ट हाउस में विश्राम करने के बाद हवाई अड्डे के लिये प्रस्थान किया।

 

इसी यात्रा के दौरान एक रोचक वाकया हुआ जिसे मैंने  रोचक संस्मरण के रूप में लिखा था वह भी वैसे का वैसा ही पेश है।

 

 

 

 

शुगर फ्री

(संस्मरण 15 )

केरल यात्रा के दौरान वहाँ अक्सर रैस्टोरैंट मे क्या चाहिये समझाने मे दिक्कत होती थी। टूटी फूटी हिन्दी और टूटी फूटी इंगलिश मे एक एक शब्द अलग अलग करके समझाना पड़ता था।चाय और कॉफ़ी मे हम चीनी कम पीते हैं, दूध भी कम डालते हैं । एक जगह हमने कहा टी  सैपरेट, मिल्क, सैपरेट, शुगर सैपरेट थोड़ी देर बाद वही अधिक चीनी और अधिक दूध वाली चाय आ गई और साथ मे एक कप दूध और कटोरी मे अलग से चीनी भी आ गई।अगली बार और दिमाग़ लगाया कि उन्हे कैसे अपनी बात समझायें, मेरी बहन ने कहा ब्लैक कॉफ़ी, जब ब्लैक कॉफ़ी  आ गई तब मिल्क माँगा, उसके बाद कहा शुगर चाहिये। कुछ क्षण हमारे चेहरों को अजीब तरह देख कर वेटर दूध और चीनी भी ले आया।हम अपने मक़सद मे क़मयाब हुए।मेरी बहन डायबैटिक हैं और वो अपनी शुगर फ्री की डिबिया ले जाना भूल गईं थी, उन्होने वेटर से पूछा ‘’डू यू हैव शुगर फ्री ? तो वेटर ने जवाब दिया ‘’नो मैम शुगर इज़, फ्री नो सैपरेट चार्ज!’’

 

 

उत्तराखंड  यात्रा कौसानी तक

(2016)

 

हम दोनों तनु अपूर्व और नेहा 2016 में उत्तराखंड के कुमाऊँ इलाके के भ्रमण के लिये दिल्ली से टैक्सी से गये थे। पूरी यात्रा में यही गाड़ी और चालक हमारे साथ था, यानी घर से घर तक किसी और वाहन की ज़रूरत नहीं थी। न हवाई अड्डे पर इंतज़ार, न ट्रेन में आरक्षण की ज़रूरत।  हम यहाँ से सुबह ही निकल गये थे मुरादाबाद में कुछ देर रेलवे रैस्टहाउस में रुके क्योंकि रास्ते में जन सुविधाओं का नितांत अभाव होता है। घर से ही नाश्ता बना कर ले गये थे जो रैस्टहाउस में कर लिया था।

 

उस समय रामपुर के आस पास क़रीब 20,25 कि. मी. सड़क बहुत ख़राब थी जिसे पार करना बहुत मुश्किल हो गया था। उ. प्र. और उत्तराखंड में जगह कई बार टोल लिया जाता है, जिसमें समय बहुत लगता है। सड़कों की दशा ख़राब है और जन सुविधाओं का दोनों प्रदेशों में अभाव है। हल्द्वानी पहुँचते पंहुँचते शाम हो गई थी।

 

हलद्वानी कुमाऊँ का द्वार माना जाता है और यहाँ से पहाड़ी यात्रा शुरू होती है। हल्द्वानी से  भीमताल लगभग 30 कि.मी. का पहाडी रास्ता है। भीमताल पहुँचते पहुँचते शाम तो हो ही चुकी थी भीम ताल में हम रुक नहीं सके,गाड़ी में से ही पर भीमताल का सौंदर्य अच्छी तरह देख लिया। भीम झील बहुत बड़ी है एक ओर घने जंगल है, दूसरी तरफ़ भीमताल शहर बसा हुआ है ।  भीमताल में पर्यटक नौका  विहार कर रहे थे। झील के बीच में एक द्वीप भी है, यहाँ से हम ने नैनीताल की ओर प्रस्थान किया, जहाँ हमें रात में रुकना था।

 

नैनीताल मैं साठ के दशक में एक बार आई थी, परन्तु यहाँ मुझे बहुत बदलाव नहीं लगा। भीड़ भी नहीं थी क्योंकि पहुँचते पहुँचते अंधेरा हो गया था और पर्यटन का मौसम भी नहीं था। नैनीताल पहुँचकर होटल में सामान रखते ही हम लोग झील पर पहुँच गये थे । लोग नौका विहार का आनंद ले रहे थे। हमारे पहुँचते पहुँचते नौका विहार समय समाप्त हो गया था। तट पर खड़े खड़े हम बिजली की रौशनी और झील की तरंगों की अठखेलियाँ देखते रहे। पास के बाज़ार से कुछ खरीददारी की। वहीं भोजन किया और होटल में वापिस आ गये।  सुबह हमें अपने गंतव्य कौसानी के लिये निकलना था।

 

कौसानी जाने के लिये नैनीताल से दो रास्ते हैं एक रानीखेत होकर और दूसरा अल्मोड़ा होकर। पहाड़ी यात्रा में रास्ते गंतव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं होते। जाते समय हमने रानी खेत होकर जाने का निर्णय लिया। रानी खेत का सैनिक महत्व है। यहाँ कुमाऊँ रैजीमैंट का मुख्यालय है। यहाँ छावनी का इलाका बहुत बड़ा और अच्छा है। रास्ते में पहाड़ी चरागाह भी बहुत हैं ,जहाँ बहुत से पशु चरते हुए दिखाई दिये। पूरे इलाके में पाइन ओक और देवदार के जंगल हैं। यहाँ हमें रुकना तो नहीं था। रानीखेत में एक

झील व कुछ दर्शनीय मंदिर है। रानी खेत से ही दूर दराज़ पहाड़ी चोटियों पर बर्फ दिखनी शुरू हो गई थी। रानीखेत से कौसानी क़रीब 60 कि मी है। रानीखेत से कुछ आगे चलकर ढलान शुरू हो जाता है क्योंकि कौसानी घाटी में है, रानीखेत से नीचाई पर है। दरअसल नैनीताल से रानीखेत भी कुछ नीचाई पर है। धीरे धीरे मौसम की ठंडक भी कम हो गई थी।

 

जी. पी. ऐस के अनुसार कौसानी पहुँच कर हमें बुरांश रेसौर्ट ढूँढना था। जी.पी. ऐस. के निर्देशानुसार जब हम बुराँश  पहुँच गये तब भी हमें बुराँश रैसौर्ट नहीं दिखा। हम सभी इधर उधर निगाह दौड़ा रहे थे कि ये एक दम बोले  ’’वो देखो बुरांश पेड़ पर लटका है ’’ हम सब चौंक गये और हँसी भी आई कि पेड़ पर बुरांश रैसौर्ट ! दरअसल पेड़ पर एक बोर्ड लटका था ,जिस पर बुरांश रैसौर्ट लिखा था जो तीर द्वारा नीचे जाने का निर्देश दे रहा था। वहाँ से एक पतली सी सड़क नीचे उतर रही थी और तीव्र ढलान था। हमारा ड्राइवर भी देख कर डर गया। हम दो लोग उस ढलान पर पैदल ही उतरे और बुरांश रैसौर्ट में जाकर चैक इन किया और उन्हे बताया कि हमारा ड्राइवर गाड़ी यहाँ लाने से डर रहा है ,तब उन्होंने अपनी गाड़ी भेजी और सामान सहित सब नीचे आ गये।  वहाँ वैसे तो सभी गाड़ियाँ पहुँच सकती थी, परन्तु फोरव्हील ड्राइव गाड़ियाँ ज्यादा सुरक्षित थीं। जब भी कहीं बाहर जाना हो रेसौर्ट की गाड़ी ऊपर सड़क तक छोड़ने और लाने के लिये उपलब्ध होती थी। धीरे धीरे हमारे ड्राइवर का डर भी निकल गया था और वह रैसौर्ट तक आने लगा था।

 

 

बुरांश रैसौर्ट में प्रवास का भी एक अलग ही अनुभव था, घर से दूर किसी अपने के आतिथ्य जैसा इस रैसौर्ट का माहौल है।इस रैसोर्ट के मालिक श्री थ्रीश कपूर प्रख्यात फोटोग्राफर हैं, जिन्होंने पूरे हिमालय पर्वत श्रंखला में घूम घूमकर वहाँ के चित्र लिये हैं। पूरा रैसौर्ट इन चित्रों से सज्जित है। हर कमरे, हर सूट को एक नाम दिया गया है, जो हिमालय में कहीं स्थित जगह का नाम है और उस कमरे में उसी स्थान के एक या दो चित्र लगाये हैं, जैसे हमारे कमरे का नाम मानसरोवर था तो वहाँ मानसरोवर झील के चित्र लगे थे। रेसौर्ट का हर गलियारा, भोजन कक्ष ,ऑफिस, स्वागत-कक्ष सब जगह थ्रीश कपूर के कैमरे का कमाल दिख रहा था। वहाँ हर दिन प्रवेश करने वालों को शाम को वे तस्वीरों और वीडियो के एक शो के लिये आमंत्रित करते हैं। हिमालय के दृश्यों के अलावा कुमाऊँ की संस्कृति के बारे में भी बताते हैं।  ये शो वहाँ रोज़ होता है, यदि पहले दिन नहीं देख पाये तो अपने प्रवास के दौरान किसी भी दिन देख सकते हैं।

 

श्री थ्रीश कपूर और उनकी पत्नी का बुरांश स्थायी निवास है। वे सेवानिवृत्ति के बाद यहीं एक सूट में रहते हैं, इसलिये बुरांश में ठहरने वाला हर व्यक्ति उनका व्यक्तिगत मेहमान होता है और उसी तरह वे उनका ख़याल रखते हैं। वो भोजन भी बुरांश के भोजनालय से वहाँ ठहरे हुए अतिथियों के साथ ही करते हैं। नाश्ते पर किसी एक मेज़ पर होते हैं, तो खाने पर किन्हीं दूसरों के साथ। पर्यटकों के साथ तस्वीरें खींचते , कभी मेहमानों का स्वागत करते, कभी उन्हें विदा करते थ्रीश कपूर को दिन भर देखा जा सकता है।बुरांश का खाना स्वादिष्ठ और पौष्टिक होता है, जो उनकी पत्नी की देखरेख में बनता है। इस रैसोर्ट का नाम बुराँश वहाँ के एक स्थानीय फूल के नाम पर रखा गया है। इस फूल से शरबत भी बनाया जाता है, जिसके साथ बुराँश में आने वाले हर अतिथि का स्वागत होता है।  कौसानी से त्रिशूल पर्वत व पूरी पर्वत माला का पैनोरैमिक दृश्य दिखता है।यहाँ का सूर्योदय अद्भुत होता है। इसे देखने के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती बल्कि बुराँश के हर कमरे की खिड़की से यह देखा जा सकता है। केवल बादलों और कोहरे से मुक्त वातावरण होना चाहिये, जो सिर्फ प्रकृति के हाथ में है । हम  ख़ुश किस्मत थे कि सूर्योदय के समय आकाश बादलों से मुक्त था।

 

सूर्योदय का सुन्दर दृश्य हमने दार्जिलिंग में देखा था, कन्याकुमारी में भी देखा था पर ये कंचनजंधा के सूर्योदय से बहुत अलग था। टाइगर हिल पर खड़े होकर सूर्य की किरणें जब कंचनजंधा पर पड़ती हैं तो लगता है कि चाँदी के पर्वत सोने के हो गये लेकिन त्रिशूल पर्वत पर सूर्य किरण कुछ इस तरह पड़ती हैं कि त्रिशूल पर्वत के एक हिस्से में मानों आग लग गई हो। ये लपटें कुछ देर में शांत हो जाती है। ये प्रकृति का नज़ारा अद्भुत है। हमारी दो सुबह बुराँश में हुई और हम ये अनुपम दृश्य दो बार देख सके।

 

कौसानी में चाय बाग़ान तो बुरांश से निकलते ही क्या बुरांश की खिड़की से भी देखे जा सकते हैं पर दार्जिलिंग या केरल जितना फैलाव नहीं है। कौसानी कवि सुमित्रानंदन पंत जी की जन्म-भूमि है। यहाँ पर उनके निवास को संग्रहालय बना दिया गया हैं जहाँ उनके चित्र, पांडुलिपियाँ और अन्य वस्तुएँ सुरक्षित हैं। अनासक्ति आश्रम में गाँधी जी संबंधित चित्र व उनके शब्दों को जगह जगह प्रदर्शित किया गया है। गाँधी जी को कौसानी का प्राकृतिक सौंदर्य और शांतिपूर्ण वातावरण बहुत पसंद था, वे यहाँ आकर काफ़ी समय प्रकृति के सानिंध्य में बिताते थे। यहाँ पर्यटक चाहें तो उनके रहने की व्यवस्था हो सकती है।

कौसानी से कुछ दूर पर हम बैजनाथ मंदिर देखने गये। ये एक मंदिर नहीं है, बल्कि छोटे बड़े मंदिरों का समूह है। ये मंदिर बहुत पुराने हैं।  यहाँ एक नकली झील भी बनाई गई है। बैजनाथ मंदिर समूह के बराबर से होती हुई गोमती नदी का पहाड़ी रूप भी हमने देखा। इससे पहले तो गोमती नदी को लखनऊ में उसके मैदानी रूप में ही देखा था। पहाड़ी नदियाँ अपने शैशव में कल कल निनाद करती हुई बढ़ती हैं। तेज़ बहाव के कारण जल भी स्वच्छ और निर्मल ही होता है।

 

बुरांश से अगले दिन हमें सुबह के नाश्ते के बाद दिल्ली के लिये रवाना होना था। श्री थ्रीश कपूर ने तनु को जाते जाते अपने कैमरे से खींचे हुए ओम पर्वत के चित्र की एक प्रति भेंट की, उनका यह उपहार हमें सदैव उनके आतिथ्य की याद करायेगा। ओम पर्वत के चित्र में बर्फ़ से बनी ओम की आकृति स्पष्ट दिखती है। यह कैलाश मानसरोवर के निकट है।

 

आते समय हम रानीखेत होकर आये थे, वापसी में हमने अल्मोड़ा होकर जाने वाला रास्ता चुना। अल्मोड़ा पहाड़ी ढलान पर बना सुंदर शहर है। कुमाऊँ इलाके का बड़ा शहर है। यह कोशी नदी के तट पर स्थित है। कुछ दूर तक सड़क कोशी नदी के साथ साथ चलती है। घाटी के अनुपम दृष्य स्मृति पटल पर अंकित करते हुए  हमने अपना सफर जारी रखा और हलद्वानी पहुँच गये। हल्द्वानी एक रैस्टोरैंट में भोजन करके हम दिल्ली के लिये रवाना हुए।यात्रा का अंतिम हिस्सा हमेशा ही थकान से भरा होता है। दिल्ली के पास आते आते तो ट्रैफिक भी बहुत मिलता है। इतनी यादगार यात्रा के बाद विलंब से सही. हम सब सकुशल घर पहुँच गये।

 

 

 

अपने ही शहर में पर्यटन

(ग्वालियर 2019)

 

जिस शहर में क़रीब 50 साल पहले मैं नव वधु के रूप में आई थी , उसी शहर में हम कुछ दिन पहले,परिवार ही नहीं कुटुम्ब के साथ पर्यटक की तरह गये थे। मैं ग्वालियर का जिक्र कर रही हूँ।मेरे पति उनके भाई बहन इसी शहर में पले बढ़े हैं। मेरी बेटी का जन्म स्थान भी ग्वालियर ही है। 1992 तक यहाँ हमारा मकान था, जो बेच दिया था, अब उस जगह कपड़ों का होलसेल स्टोर बन चुका है,पर वे गलियाँ सड़कें बदलने के बाद भी बहुत सी यादें ताज़ा कर गई। पुराने पड़ौसी और यहाँ तक कि घर मे काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी मिली। छोटे शहरों की ये संस्कृति हम दिल्ली वालों के लिये अमोल है।

 

जब यहाँ घर था, तब कभी पर्यटन के लिये नहीं निकले या ये कहें कि उस समय पर्यटन का रिवाज ही नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शहर की जगहों के नाम इतने सुने होते हैं कि लगता है, यहाँ पर्यटन के लायक कुछ है ही नहीं! तीसरी बात कि पिछले तीन दशकों में यातायात और पर्यटन की सुविधाओं का बहुत विकास हुआ है, जो पहले नहीं था।

 

हमारे वृहत परिवार से तीन परिवारों ने पर्यटन पर, तथा पुरानी यादें ताज़ा करने के लिये ग्वालियर जाने का कार्यक्रम बनाया, चौथा परिवार रायपुर से वहाँ पहुँचा हुआ था। एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ  और बाकी परिवारों की दो पीढ़ियों का कुटुंब(15 व्यक्ति) अपने शहर पहुँचकर काफ़ी नॉस्टैलजिक महसूस कर रहे थे।

 

हम दिल्ली से ट्रेन से गये थे, शताब्दी से साढ़े तीन घंटे का सफ़र मालूम ही नहीं पड़ा। आजकल होटल, टैक्सी सब इंटरनैट पर ही बुक हो जाते हैं तो यात्रा करना सुविधाजनक हो गया है, परन्तु हर जगह भीड़ बढ़ने से कुछ असुविधाये भी होती हैं। होटल में कुछ देर विश्राम करने के बाद हम जय  विलास  महल देखने गये।

 

जय  विलास महल शहर के बीच ही स्थित है । ये उन्नीसवीं सदी में सिंधिया परिवार द्वारा बनवाया गया था और आज तक इस महल का एक हिस्सा उनके वंशजों का निजी निवास स्थान है। महल के बाकी हिस्से को संग्रहालय बना कर जनता के लिये खोल दिया गया है। मुख्य सड़क से महल के द्वार तक पहुँचने के मार्ग के दोनों ओर सुन्दर रूप से तराशा हुआ बग़ीचा है, जिसमें खिली बोगनवेलिया की पुष्पित लतायें मन मोह लेती हैं।  महल के बीच के उद्यान भी सुंदर हैं। संग्रहालय की भूतल और पहली मंजिल पर सिंधिया राज घराने के वैभव के दर्शन होते हैं। भाँति भाँति की पालकियाँ और रथ राज घराने के यातायात के साधन मौजूद थे। साथ ही कई बग्घियों के बीच एक छोटी सी तिपहिया कार भी थी।

 

महल में राज घराने के पूर्वजों के चित्रों को, उनके पूरे परिचय के साथ दिखाया गया है। राज घराने में अनेक सोफ़ा सैट और डाइनिंग टेबुल देखकर  मुझे उत्सुकता हो रही थी कि एक समय में वहाँ कितने लोग रहते होंगे ! नीचे बैठकर खाने का प्रबंध भी था। किसी विशेष अवसर पर दावत के लिये बड़े बड़े डाइनिंग हॉल भी देखे, जहाँ एक ही मेज़ पर मेरे अनुमान से सौ डेढ सौ लोग बैठकर भोजन कर सकते हैं। यहाँ की सबसे बंडी विशेषता मेज़ पर बिछी रेल की पटरियाँ है ।इन रेल की पटरियों पर एक छोटी सी रेलगाड़ी खाद्य सामग्री लेकर चक्कर काटती थी। ये रेलगाड़ी एक काँच के बक्से में वहाँ रखी है। एक वीडियो वहाँ चलता रहता है, जिसमें ये ट्रेन चलती हुई दिखाई गई है।

 

एक दरबार हाल में विश्व प्रसिद्ध शैंडेलियर का जोड़ा है, जिनका वज़न साढ़े तीन तीन टन है और एक एक में ढाई सौ चिराग जलाये जा सकते हैं।  संभवतः यह विश्व का सबसे बड़ा शैंडेलियर है। इस दरबार हाल की दीवारों पर लाल और सुनहरी सुंदर कारीगरी की गई है। दरवाजों पर भारी भारी लाल सुनहरी पर्दे शोभायमान हैं।  जय विलास महल सुंदर व साफ़ सुथरा संग्रहालय है, यह यूरोप की विभिन्न वास्तुकला शैलियों में निर्मित महल है।

 

यदि हर चीज़ को बहुत ध्यान से देखा जाये तो यहाँ पूरा दिन बिताया जा सकता है। हमारे साथ बुज़ुर्ग और बच्चे भी थे ,तो क़रीब तीन घंटे का समय लगा और कुछ हिस्सा देखने से रह भी गया । यहाँ पर्यटकों के लिये लॉकर के अलावा कोई  विशेष सुविधा नहीं है। तीन मंजिल के संग्रहालय में व्हीलचेयर किराये पर उपलब्ध ,हैं परंतु न कहीं रैम्प बनाये गये हैं न लिफ्ट है, जिससे बुज़ुर्गों और दिव्यांगों को असुविधा होती है। जन-सुविधाओं का अभाव है। पर्यटकों के लिये प्रांगण में एक कैफ़िटेरिया की कमी भी महसूस हुई। यहाँ घूमकर सब थक चुके थे, सफ़र की भी थकान थी और भूख भी लगी थी।  दोपहर का भोजन करने के बाद हम महाराजवाड़ा या सिर्फ़ बाडा गये।  यह स्थान शहर के बीच में है, जहाँ पहले भी जब यहाँ घर था, हम कई बार जाते रहे थे। यह ख़रीदारी का मुख्य केंद्र लगता था। घर के पीछे की गलियों से होते हुए यहाँ पैदल पहुँच जाते थे। अब यह बहुत बदला हुआ लगा। पहले दुकानों के अलावा कहीं ध्यान नहीं जाता था। अब बाड़े पर पक्की दुकानें नहीं है, पर पटरी बाज़ार जम के लगा हुआ  है।  अब चारों तरफ़ की इमारतें और बीच का उद्यान ध्यान खींचते है। उद्यान के बीच में सिंधिया वंश के किसी राजा की मूर्ति भी है।

 

बाड़े पर रीगल टॉकीज में कभी बहुत फिल्में देखी थी पर फिल्मी पोस्टरों के पीछे छिपी इमारत की सुंदर वास्तुकला कभी दिखी ही नहीं थी। विक्टोरिया मार्केट कुछ समय पहले जल गया था जिस पर काम चल रहा हैं। पोस्ट ऑफिस की इमारत और टाउन हॉल ब्रिटिश समय की यूरोपीय शैली की सुंदर   इमारतें हैं। बाजार अब इन इमारतों के पीछे की गलियों और सड़कों में सिमट गये हैं।  बाड़े से पटरी बाज़ार को भी हटा दिया जाना चाहिये, क्योंकि ट्रैफिक बहुत है।  पास में ही सिंधिया परिवार की कुलदेवी का मंदिर है। हमें बताया गया कि महल से दशहरे पर तथा परिवार में किसी विवाह के बाद यहाँ सिंधिया परिवार अपने पूरे राजसी ठाठ बाट में जलूस लेकर कुलदेवी के मंदिर तक आता था और पूरे रास्ते में प्रजा इस जलूस को देखती थी। इस मंदिर का रखरखाव तो अब बहुत ख़राब हो गया है। पार्किंग भी यहीं पर है। इस जगह को गोरखी कहते हैं यहाँ के स्कूल में मेरे पति और देवर की प्राथमिक पाठशाला थी। बहनों का स्कूल भी पास में था। यहाँ जिस स्थान पर पार्किंग है वहाँ ये लोग क्रिकेट खेला करते थे।

 

यहाँ से हम लाला के बाज़ार गये। हाँ आपने सही  पढ़ा है लाला का बाज़ार यहाँ वह मकान था जहाँ मेरा स्वागत नव वधु के रूप में हुआ था। यह मकान जब घर था तो हम लगभग हर साल यहाँ आते थे, पर शहर कभी नहीं घूमा था।  उन दिनों घूमने फिरने का रिवाज ही नहीं था , मकान तो टूट चुका है, वहाँ हम अंदाज लगाते रहे कि यहाँ आँगन था वहाँ रसोई थी इत्यादि। घर के पीछे एक मकान वैसा का वैसा ही दिखा। उस परिवार की अगली पीढ़ी जो कि हमारे आयु  वर्ग की है, उनसे मिले। इसके बाद एक और पड़ौसी के यहाँ गये जिनसे संपर्क बना हुआ था। इन्हें अपने आने की सूचना दे दी थी। उन सबसे मिलकर बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं। हमारे घर में काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी हमें यहीं मिली। यहाँ से हम लोग होटल वापिस आ गये और ग्वालियर में हमारा पहला दिन पूरा हो गया।

 

अगले दिन हम सब ग्वालियर क़िला देखने गये जो शहर के बीच ही एक पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ कार से भी जाया जा सकता है और पैदल जाने का दूसरा रास्ता है। रास्ते में पत्थरों को काटकर कुछ जैन मुनियों के भित्ति चित्र हैं, जो आक्रमणकारियों ने खराब कर दिये हैं, फिर भी अद्भुत हैं। किले पर पहुँचकर एक संग्राहालय है, जहाँ जगह जगह से मिली प्राचीन पत्थर की मूर्तियाँ हैं। राजा मान  सिंह का महल है। ये महल लाल रंग के सैड स्टोन से बना है तरह तरह के जाली झरोखे हैं। बाहरी दीवारों पर कुछ काल्पनिक जानवरों और मछलियों की पेंटिंग है। सीढ़ियाँ बहुत सकरी और ऊँची है। राजा मान  सिंह की नवीं रानी अलग महल में रहती थीं, वह गुर्जर थीं इसलिये उसे गुजरीं महल भी कहा जाता है।

ग्वालियर के किले पर कई वंशों के राजाओं का अधिकार रहा, यहाँ की इमारतों में हिन्दू और यूरोपीय वास्तुकला का मिश्रण नज़र आता है। यहाँ एक गुरु द्वारा भी है क्योंकि ग्वालियर में कभी सिख सैनिकों को लाकर बसाया गया था। यहाँ का एक आकर्षण सास बहू का मंदिर है। दरअसल अब यहाँ मंदिर जैसा कुछ नहीं बचा है। ये दो मंदिर  वास्तुकला के अद्भुत नमूने हैं। इस मंदिर का असली नाम सहस्रबाहु मंदिर है ,जो बोलते बोलते सास बहू हो गया है।  एक स्थानीय किंवदंती है एक मंदिर शिव का है और एक विष्णु का, सास बहू के अलग अलग इष्ट थे एक शिव को पूजती थी, एक विष्णु को, इसलिये किसी राजा ने ये दो मंदिर बनवाये थे  । एक धारणा के अनुसार बड़ा मंदिर सास का और छोटा मंदिर बहू का माना जाता है। यह मंदिर भी लाल सैंड स्टोन से बने हुए हैं।  यहाँ से नीचे पूरा शहर दिखता है, बड़ा सुंदर लगता है, रात को और भी अच्छा दिखता होगा जैसे आसमान ऊपर है, वैसे ही आसमान नीचे नज़र आता होगा। किले में अन्य स्थानों से भी शहर दिखता है। किले पर काफी बड़ा मैदान भी है, एक तेली का मंदिर और सूरज कुंड है, पर समयाभाव और थकान के कारण सब कुछ देखना मुमकिन नहीं हुआ। इसी पहाड़ी पर सिंधिया स्कूल( लड़कों का)है जो पूरी तरह रिहायशी है। भारत के महंगे और अग्रणी स्कूलों में इसका नाम है। सिंधिया स्कूल से पढ़े हुए लड़के फ़ौज में, राजनीति में,लेखन और कला में नाम बना चुके है। अमीन सयानी ,सलमान ख़ान और अरबाज़ ख़ान यहाँ के पढ़े हुए हैं।

 

पर्यटकों के लिये यहाँ कोई विशेष सुविधायें नहीं हैं। गेट के पास ही एक दुकान पर पानी  कोल्ड ड्रिंक और कुछ स्नैक्स मिलते हैं। व्हीलचेयर चलाना मुश्किल है। जन सुविधायें भी नहीं दिखी । इतने बड़े क़िले के किसी अन्य कोने में हों तो पता नहीं। हमारे देश के पर्यटन स्थलों को वैश्विक स्तर का बनाने के लिये समुचित साफ़ सुथरी जन सुविधायें, एक कैफैटेरिया के साथ होनी चाहिये। हर स्थान को व्हीलचेयर की पहुँच में लाना ज़रूरी है, जिससे वृद्ध और दिव्यांग पर्यटन का पूरा आनंद ले सकें। कानूनी तौर पर ये अनिवार्य होना चाहिये। ऐतिहासिक इमारतों का प्रारूप बदले बिना हर स्थान पर रैम्प और लिफ्ट लगने चाहिये। बस सरकार की तरफ़ से संवेदनशीलता की कमी है। यूरोप और अमरीका के सभी देशों  में ये सुविधायें पर्यटन स्थलों पर ही नहीं, यातायात के साधनों में भी  हैं।

 

किले से उतर कर भोजन करते करते शाम हो चुकी थी। भोजन के बाद होटल में आकर कुछ देर आराम किया।  कुटुम्ब के सदस्य अलग अलग अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने चले गये थे। हमें मिलने हमारे रिश्तेदार होटल में ही आ गये थे। तीसरे दिन परिवार की युवा पीढ़ी पैदल किले पर चढ़ी,सूर्योदय देखा । हम बुजुर्गों और बच्चों ने होटल में नींद पूरी की।

 

सुबह निश्चय किया गया कि हम दोनों और तनु कार से वापिस चलें।  हमारे ग्रुप में एक कार उपलब्ध थी। गतिमान ऐक्सप्रैस जो कि झाँसी से आती है, वह ग्वालियर केवल दो मिनट रुकती है। ग्वालियर के ट्रैफ़िक को देखते हुए ये समय बहुत कम है। ट्रेन में चढ़ने में सब को बहुत दिक्कत हुई, क्योंकि सामान चढ़ाने, बुज़ुर्गों और बच्चों को चढ़ाने में सावधानी रखनी पड़ती है, समय बहुत कम था।  ख़ैर सभी लोग सकुशल ट्रेन में चढ़ गये। हमारे निकलने के बाद बाकी लोगों ने अपने जानने वालों से मुलाक़ात की, शाॉपिंग की, खाना खाया और रेलवे स्टेशन पहुँच गये। ग्वालियर से आगरा कार यात्रा में ग्रामीण मध्य प्रदेश बहुत दिखा। जी पी ऐस की कृपा से राष्ट्रीय राजमार्ग तक पहुँच गये। जी पी ऐस रास्ता बंद होने की सूचना तो नहीं देता है। एक जगह फंस ही गये थे ,बहुत संकरी सड़क से निकलना पड़ा था । आगरा पार करके, यमुना ऐक्सप्रैस वे की ड्राइव तो जानी पहचानी है। शाम को 6 बजे घर पहुंचे और  दो ढाई घंटे बाद ट्रेन से आने वाले मुसाफ़िरों के भोजन की व्यवस्था की।

 

ग्वालियर की कोई हस्तकला तो मशहूर नहीं है। केवल किले पर एक बुंदेली हस्तकला की दुकान दिखी थी। कोई सोवेनियर शॉप कहीं नहीं दिखी। ग्वालियर से लोग चँदेरी की साड़ी ख़रीदते हैं। शायद ये पहला मौक़ा होगा जब अपने शहर से बाहर जाकर पाँच रु. की भी शॉपिंग नहीं की। कर दिया न कमाल महिलाओं को बेवजह बदनाम किया जाता है !

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उपसंहार

 

 

14 सितम्बर 1947 से ये यात्रा शुरू हुई जो अब अपने बहत्तरवें वर्ष में है। मैंने यादों के आधार पर इस यात्रा  के हर पड़ाव, हर मोड़ और हर घटना का विवरण देने का प्रयास  किया है। ये केवल घटना-क्रम नहीं है,  यहाँ विचार द्वंद, अनुभव,  कामयाबी,  नाकामयाबी  और उनसे पड़ने वाले प्रभावों को भी मैंने शब्द दिये हैं।

 

किसी आम इंसान का जीवन भी,  पढ़ने लायक हो सकता है,  मैं ऐसा मानती हूँ। तथ्यों से छेड़ छाड़  किए  बिना मैंने अपनी हर उलझन,  अपना अवसाद और उससे बाहर आने का संघर्ष  भी लिखा है।   संभव है किसी भटकती हुई मानसिक स्थिति में ये किसी को अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने में मदद करें।

 

धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं को लेकर मेरी जो सोच है, उससे सभी सहमत नहीं होंगे। मेरा इरादा किसी की आस्था को चोट पहुँचाना कभी न था न होगा ,परन्तु जब  भी मुझे लगा कि ये आस्था नुकसानदेह  भी हो सकती है, तभी मैंने उसका बिना किसी लाग-लपेट के विरोध  किया।  इससे कुछ अपनों को नाराजगी भी हुई होगी।  ये बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि मेरे विचारों के साथ मेरे अपनों के विचार भी मिलें,  पर इससे अपनापन या अपनत्व पर न कोई प्रभाव पड़ा है, न पड़ेगा।

 

यदि आप ‘गुज़रे हुए लम्हे’ के अंतिम पृष्ठ पर हैं तो मेरा लिखना सफल हो गया।

ये यात्रा कितना बाकी है, कोई नहीं जानता पर जितनी भी है उसमें अंत तक पन्ने जोड़ती रहूँगी।

बीनू भटनागर

बीनू भटनागर

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