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अशोक कुमार जी कि कविताओं में एक तड़प है ,एक बैचैनी है जैसे कुछ खोज रहे हो … वस्तुत मानव मन कि अतल गहराइयों कि खोज ही किसी को कवि बनाती है ……… उनकी हर कविता इसी खोज का हिस्सा है जो बहुत गहरे प्रहार करती है…. आइये पढ़ते हैं वो अपनी खोज में कितने सफल हुए हैं
  • बीत जाती पीढियाँ
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    बस कुछ संवत्सर बीत जाते थे
    पहले कहने को लोकते थे
    फिर करने को लोकते थे

    कहने और करने को लोकने के खेल में
    गिरते थे कई सीढियाँ
    बस बीत जाती थीं कुछ पीढियाँ.

    भूल
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    मैंने कल जो कहा था
    आज सच कहता हूँ
    वह एक भूल थी

    मैं आज जो कह रहा हूं
    कल बताऊँगा
    वह भी क्या फिर एक भूल होगी.

    बवंडर
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    नदियों में भँवर थे
    और डूबने का खतरा था
    मुझे तैरना कहाँ आता था

    चलना आता था मुझे
    तलमलाते पाँव से
    पर मैदान में चल रहे थे बवंडर
    जान गया था गोल घूमती हैं हवायें
    चूँकि गोल उड़ रहे थे सूखे पत्ते
    और यह भी कि खेत भूत नहीं जोत रहे थे.

    परेशानी
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    हमारे कस्बे में सीधा मतलब निकालते थे लोग
    बातों का
    परेशानी का सबब था
    कि हवाओं में जुमले तैर रहे थे.



  •  उद्दण्डता ‘


    उसकी भाषा समृद्ध न थी
    इसलिये वह चुप था

    वह मेरी साफ चमकीली पोशाक से सहम कर चुप था
    मेरे भव्य घर की दीवारों से डर कर वह चुप था
    मुझे बड़ा मानता था वह
    इसलिये भी चुप था
    मैं भी तो सहमा था उससे
    जैसा वह मुझसे
    मैं जानता हूँ
    जिस दिन वह अपनी भाषा दुरुस्त कर लेगा
    बोलेगा वह
    और मेरी धज्जियाँ उड़ा देगा .

चौखटे
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चौखटे पहले ही बना दिये गये थे
बरसों पहले
सही कहें तो अरसे पहले
जब सदियाँ करवटें बदल रही थीं
किसी नदी के किनारे
चौखटे हदें टाँक चुकी थीं
कुरते पर टाँकी बटनों की तरह
और कुरते के फैलाव के भीतर ही
हम दम फुलाते थे
चौखटे की सरहदें थीं
और आग उसके भीतर ही सुलगती थी
अलाव में दहकते अंगारे
किसी लाल आँखों की तस्वीर भर थी
जहाँ आँच आँख की कोरों के बाहर नहीं छलकती
चौखटे दिमाग के फ्रेम बन गये थे
जिसमें टांग दी गयी थी
अरसे पहले उकेरी गयी
उदास रंगों वाली एक तस्वीर
चौखटे श्रद्धा और आस्था के पवित्र खाँचे बन गये थे
जिसके बाहर जाना आज भी निषिद्ध था
चौखटे के भीतर पैदा हुए थे वे लोग भी
जो चौखटे के बाहर सिर निकालते थे
यह जानते हुए भी
कि चौखटे के बाहर लोहे की नुकीली कीलें ठुकी हुई हैं
जो उनके सिर फोड़ सकती हैं.
किताबों में
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किताबें पढ़ रहे थे सब
और किताबें थीं जो चेहरों पर टंग गयी थीं
हाथों से छूट कर
फड़फड़ा कर
किताबें तो उन चेहरों पर भी थे
जो बस में मिले थे
सड़क पर
दफ्तर से लौटते हुए
पर झुँझला कर
मैं लौट आता था
माथे पर पड़ी
शिकन की पहली परत से
किताबें वहाँ थीं
जहाँ एक भरी- पूरी दुनिया थी
पर उनमें खुशहाली की तीखी खुशबू थी
जब कोई सूँघता पीले पन्ने
मैं सुनता था जंगल बढ़ रहा था टेलिविजन पर
और धर्म और स्त्रियों पर अपने राज की लतायें पसार रहा था
दोनों सिर्फ जिन्दा रखे जा रहे थे
पीढ़ियों के लिये
जंगल रोज सुबह अखबारों में पढता था मैं
और चाय का स्वाद जुबान पर जाकर चिपक जाता था
जब समझ नहीं आता था
कि सचमुच के जंगल में बाघों की बढती संख्या पर
कैसी प्रतिक्रिया दूँ
हसूँ
रोऊँ
जंगल का जंगल में होना जरूरी था
जंगल में बाघ का होना जरूरी था
मैं अपनी किताबों को लेकर परेशान था
जहाँ जंगल पसरे जा रहे थे बेतहाशा
और जिनमें बाघों की संख्या बढ़ती जा रही थी
किताबों में घटते हुए आदमियों से हताश था मैं
किताबों में जंगल पसर रहे थे
बाघ बढ़ रहे थे.
कारण _______________
ठंड के मौसम में भी कुछ लोग मरे थे
गरमी के मौसम में भी
भूख भी एक सदाबहार ऋतु थी उस देश की
जहाँ लोग मरते थे सालों भर
मौत का कारण
न ठंड थी
न लू
और न भूख
बस कुछ ठंडी पड़ी संवेदनायें थीं
जहाँ तर्क जम जाते थे
बर्फ की अतल गहराईयों में दबी हुई थी करुणा
जो तलाशे जा रहे कारणों से दूर पड़ी थी .
एलम्नी मीट
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कोई मोटा हो गया था
कोई गंजा
किसी के बाल पक गये थे
किसी की मूँछें
वह खूबसूरत तो थी
पर युवा नहीं रह गयी थी
कोई छरहरी
गुलथुल हो गयी थी
किसी की आँखों के नीचे गढ़े काले पड़ गये थे
किसी के चेहरे पर झुर्रियों के आने की सूचना थी
समय फासले मिटा रहा था बरसों की
समय फैसले सुना रहा था बरसों बाद.
अशोक कुमार
काल इंडिया में कार्यरत
समस्त चित्र गूगल से साभार
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