जब मैंने पहली बार पाँच सौ का नोट देखा – हनुमक्का रोज

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संकलन- प्रदीप कुमार सिंह
           मेरे पिता दुर्गा दास कन्नड़ थियेटर के एक सम्मानित
कलाकार जरूर थे
, मगर घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। कर्नाटक के बेल्लारी जिले के एक छोटे
से कस्बे मरियम्मनहल्ली में मेरा जन्म हुआ था और बचपन से हमें रोजमर्रा की जरूरतों
को पूरा करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। पिताजी को देखकर ही मेरे मन में
थियेटर के प्रति झुकाव होता गया और जब एक दिन मैंने घर में कहा कि मैं भी थियेटर
जाना चाहती हूं और काम करना चाहती हूं
, तो परिवार में कोई इसके लिए राजी नहीं था। मैंने घर
में कहा कि इसमें गलत क्या है
?
           आखिर मैं परिवार की विरासत को ही तो आगे बढ़ाना
चाहती हूं
?
मगर वह आज का समय नहीं था। उन दिनों थियेटर की महिला कलाकारों को अच्छी नजरों
से नहीं देखा जाता था। उनके चरित्र पर छींटाकशी की जाती थी और यहां तक कहा जाता था
कि उनकी शादी नहीं हो सकती। मेरे घर वालों की भी यही चिंता थी। पर मैंने तय कर
लिया था कि थियेटर ही करूंगी।


           मैं अपने परिवार और दूसरे लोगों को दिखाना चाहती थी
कि मैं यह कर सकती हूं
और अच्छी तरह से कर सकती हूं। तब मैंने नौवीं की परीक्षा
पास की थी। असर में घर की हालत ऐसी नहीं थी कि मैं आगे की पढ़ाई जारी रख पाती। आखिर
मैं थियेटर से जुड़ गई। हमें तब बहुत कम पैसे मिलते थे। हम घूम-घूमकर थियेटर करते
थे। कई बार हमें स्कूल के कमरों में ठहराया जाता था या फिर खूले आसमान के नीचे।


           समूह के साथ बाहर जाने में नाटक मंडली की महिला
कलाकारों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था
, यहां तक कि हमारे लिए अलग बाथरूम भी नहीं होते थे।
बेहतर अवसर की तलाश में मैं एक दिन बेल्लारी से बंगलूरू आ गई। मेरे पास एक रूपया
तक नहीं था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं एक पेड़ के नीचे बैठी हुई थी
, कि तभी थियेटर के मेरे एक
परिचित कृष्णा की नजर मुझ पर पडी। मुझे इस हाल में देखकर उन्होंने मुझे पांच सौ
रूपये का एक नोट दिया। अपनी जिंदगी में तब मैंने पहली बार पांच सौ रूपये का नोट
अपने हाथ में देखा।


           सौभाग्य से उसके बाद कुछ परिस्थिति बदली और फिर मुझे
नाटय मंडलियों में काम मिलने लगा। मैं उस दिन को नही भूली हूं
, जब निनसम कल्चरल सेंटर में
मैंने बी वी कारंत द्वारा निर्देशित मीडिया नामक नाटक में एक बूढ़ी दादी का अभिनय
किया। मेरे अभिनय को खूब सराहा गया। इस बीच मुझे चार फिल्मों में भी काम करने का
मौका मिला
, जिसमें से 2008 की कविता लंकेश की अव्वा नामक फिल्म शामिल है। थियेटर के बहुत से कलाकारों का
झुकाव फिल्मों और टेलीविजन की ओर होता है। वे थियेटर को फिल्म के लिए रास्ता समझते
है। कुछ लोग दो चार नाटकों में काम करने के बाद खुद को बड़ा कलाकार समझने लगते हैं।
यह न तो उनके लिए ठीक है और न ही थियेटर के लिए। मैं टीवी में काम नहीं करना
चाहती।


           मैं पचास साल की हो गई हूं, मैंने शादी नहीं की है। मैं
अब भी उसी मकान में किराए पर रहती हूं
, जहां मैंने दस वर्ष पहले रहना शुरू किया। मेरे घर
पर टीवी नहीं है। मैं आखिरी दिन एक थियेटर में काम करती रहूूंगी। मुझे कुछ और नहीं
आता। थियेटर ही मेरी जिंदगी है। यही मेरी विरासत है। रंगभूमि (थियेटर) के लिए
प्रतिबद्धता भी चाहिए और धैर्य भी।
विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित


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