करवाचौथ और बायना

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जीवन की आपाधापी में, भागते-दौड़ते हुए जीवन को जीने के संघर्ष में अपने ये त्योहार जब आते हैं तो मन को कितनी शांति और संतोष प्रदान करते हैं ये उन्हें मनाने के बाद ही पूर्णरूपेण पता चलता है। त्योहारों को मनाने की तैयारियों में घरों की साफ़-सफ़ाई से लेकर शुरू हुआ ये सिलसिला भैया दूज मनाने के बाद ही थमता है। 
करवाचौथ और परंपरा 


शरद पूर्णिमा की रात को बरसे अमृत से पूर्ण खीर का आस्वदन करने के बाद जिस त्योहार की गूँज घर की देहरी पर सुनाई देती है वह दाम्पत्य जीवन को सुदृढ़ता-गहनता प्रदान करने वाला करवाचौथ का त्योहार है, जिसके लिए बाज़ार सज गये हैं, मेहँदी लगाने वाले-वाली  जगह-जगह महिलाओं के झुंड से घिरे मेहँदी लगाने में लगे हुए हैं,तो कुछ घर-घर जाकर लगा रहें हैं। हर सुहागिन साड़ी से लेकर मैचिंग चूड़ियों और गहने पहनने की योजना बना चुकी होंगी। बाज़ारों की रौनक़ और घर की चहल-पहल देखते ही बनती है। कहीं अपनी ओर बहू की सरगी की तैयारी, तो कहीं बेटी के पहले करवाचौथ पर उसे भेजे जाने वाले “ सिंधारे “ की तैयारी, कहीं करवाचौथ की पूर्व संध्या पर होने वाले आयोजन…ऐसे में मन आनंदित क्यों नहीं होगा भला! करवाचौथ क्वीन भी तो सभी बनना चाहेंगी। वैसे सभी अपने-अपने पतियों की क्वीन तो हैं ही न!



            भले ही आज हमारे सभी त्योहार टी वी और फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव से ग्लैमरस और तड़क-भड़क से भरपूर हो गये हैं, पर मुझे तो अपनी नानी-दादी और माँ के समय के भारतीय परम्परा के वो भोले-भाले, सादगी से मनाये जाने वाले रूप ही भाते हैं। यह भो हो सकता है कि आधुनिकता की दौड़ में में अपनी पुरानी सोच ही लिए चल रही हूँ।



             सुबह-सुबह नहाना-धोना,शाम को चार बजे अपनी मोहल्ले की सखियों के साथ सज-धज कर करवाचौथ की कथा सुनना, फिर रात के व्यंजनों को बनाने की तैयारी, रात को पूजा करके सास या जिठानी के लिए बायना निकालना, चंद्रमा के उदित होने पर दीप जला कर छलनी से पहले चंद्रमा को और उसके बाद पति को निहारना, अर्ध्य देकर हाथों पानी पीकर व्रत तोड़ना, बायना देकर अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना और फिर घर में बड़ों, पति तथा बच्चों की पसंद के अपने हाथों से बनाये खाने को सबके साथ मिल कर खाना….कितना आनंद आता है, शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है।

करवाचौथ और बायना 

            अब बात आती है बायने की। अपने आसपास देखे-सुने बायने देने वालियों की कई बातें इस समय मेरी स्मृतियों में उमड़-घुमड़ रही हैं…..

  *“ हर साल का झंझट है यह बायने का भी। कुछ भी, कैसा भी दे दो…मेरी सास को पसंद ही नहीं आता। मैं तो पैसे और मिठाई देकर छुट्टी करती हूँ।”


 * “ क्या यार! सारे साल तो सास-ससुर की सेवा में रहते ही हैं,अब इस दिन भी  इस बायने के नियम की कोई तक है?”
*    जॉब के कारण बाहर रहते हैं, इसलिए जब आना होता है तब पैसे दे दिए और काम ख़त्म।”


  *    एक घर की दो बहुओं ने तो बायने को एक प्रतिस्पर्धा का ही रूप दे डाला था। डोनो में होड़ रहती कौन दूसरी से ज़्यादा देगा! आज आलम यह है की दोनों में बातचीत तक नहीं होती।


बायना है प्यार की सौगात 


            बायना देना हमारी भारतीय परंपरा में अपने बड़ों को आदर-सम्मान देने की एक चली आ रही रीत है।माना हम अपने बड़ों के लिए रोज़ करते ही हैं,पर अपनी परंपरा में आस्था-विश्वास रखते हुए हम उन्हें कुछ विशेष अनुभव कराएँ और यह अहसास दिलायें कि वे हमारे लिए कितने विशेष हैं तो इसमें क्या बिगड़ता है और क्या जाता है? अपने जिस पति के लिए हम व्रत करते हैं,उसकी लम्बी आयु  की कामना करते हैं…वह पति सास-ससुर की ही तो देंन  है और वे उसके लिए लिए ही तो हमें ब्याह कर, घर की लक्ष्मी बना कर घर में लाते हैं, तो हमारा भी तो  कर्तव्य बनता है कि हम उनके लिए किसी पर्व पर विशेष रूप से कुछ करें। करवाचौथ अपनी सास,उनकी और अपनी सहेलियों के साथ एक साथ मिल कर मनायें,न कि अलग-अलग मना  कर पीढ़ियों के अंतराल को और हवा दें।


करवाचौथ पर बायना देते समय ध्यान  रखने योग्य बातें 
*आपकी सास युवा है तो आप बायने में जो भी देंगी वह सब कुछ खाएँगी, पर यदि आपकी सास कुछ बीमार रहती हैं, दवाइयाँ लेती है, पथ्य-परहेज़ का पालन करती हैं तो उनके नियम को मानते हुए स्वास्थ्य के अनुसार चीज़ें बायने में रखें ताकि उन्हें खाने में उन्हें कोई परेशानी न हो।



       *   मेरी एक परिचित आंटी बता रही थी किमेरी बहू बायने में अपनी पसंद की तली-भुनी चीज़ें ही इतनी रखती है जो मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होती हैं, इसलिए लेकर मैं थाली में कुछ उपहार रख कर उसे ही दे देती हूँ कि लो ये सब तुम्हीं खाओ। अगर बहू मेरे खा सकने लायक चीज़ें रखे तो मुझे वापस देना ही न पड़े।पर वो न कुछ पूछती है न सुनती है…..इसलिए जैसा चल रहा है वो चलता रहेगा।


        *    इसी तरह उस घर की दोनो बहुएँ यदि मेल मिला कर, विचार-विमर्श करके बायना दें तो तीनों ख़ुश रह सकते हैं। तब कटुता तो पास फटक भी नहीं सकती।


    *      हम जो दें मन से दें, पसंद को देखते हुए दें। कपड़ों में भी, खाने में भी उपयोग में आने वाली चीज़ें दें ….जिसे पाकर हमारे बड़े प्रसन्नता का अनुभव करें। जब हम अपने लिए अपनी पसंद का सब कुछ लाते-खाते हैं तो बड़ों की पसंद का भी पूरा  ध्यान रखें।



मिल कर मनाएं त्यौहार 


              पर्व-त्योहार पर कहीं बाहर जाने की योजना बनती है  और हम अपने सास-ससुर के साथ रहते हैं तो उन्हें शामिल किए बिना या उन्हें छोड़ कर कोई बाहर का कार्यक्रम न बने तो बेहतर होता है। त्योहार की रौनक़ साथ मिल कर मनाने में होती है, अलग होकर मनाने में केवल आत्मतुष्टि प्राप्त हो सकती है।संतोष और प्रसन्नता तो सबके साथ ही मिल सकती है।



             सोच कर देखें हम सभी….आत्मतुष्टि पानी है या संतोष और प्रसन्नता…….निर्णय तो हमें स्वयं ही करना है।


डा० भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून,उत्तराखंड


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