सपने

सपने


कितने मासूम होते हैं सपने जो आँखों में चले आते हैं  कहीं दूर आसमानों से , पल भर को सब कुछ हरा लगने लगता हैं …. कितने बेदर्द होते हैं सपने , जो पल भर में टूट जाते हैं नाजुक काँच से और ताउम्र चुभती रहती हैं उनकी किरचे | 

कविता -सपने 





सपनें प्राय: टूटते ही हैं 

बस आँख खुलने की देर है 
ज़िंदगी जिस चारपाई पर पड़ी मुस्करा रही थी 
वो कुछ और नहीं 
मदहोशी थी….  खुमार था 
हकीकत की लु 
चुभती  हुई 
तंद्रा भंग कर जाती हैं…  
और सामने वही रेत के टूटे हुये महल 
मुंह चिढाता है । 
जो प्राप्य है वो पुरा नही है 
जो नहीं मिला उसके पीछे कितना भागते है?  
इतना की टखनें खसीटते हुये साथ देते हैं..  
आह.. ये मृगमरीचिका 
कितना छलेगी… ?
ये कैसा तुफान है जो 
मन को भटकाता है..  
झुठे सपनें दिखाता है 
और उस सपने के टुटे किरचे 
सदियों तक आत्मा के पाँव को लहुलूहान करती है 
और रिसता हुआ एक दर्द नासूर बनता है 
इस तरह झुठा सपना छलता है 
____ साधना सिंह 
     गोरखपुर 
लेखिका



यह भी पढ़ें …
यह भी पढ़ें …



आपको ”  सपने  कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको अटूट बंधन  की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम अटूट बंधनकी लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |


filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, dream, dreaming
Share on Social Media

1 thought on “सपने”

Leave a Comment

error: Content is protected !!