चिठ्ठी

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चिठ्ठी

              
किसी अपने की चिट्ठी कुछ ख़ास ही होती है, क्योंकि उसका एक -एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ होता है | पर कुछ अलहदा ही होती है वो चिट्ठी जो किसी ऐसे अपने की होती है जिससे बरसों से मिले ही न हों , यहाँ तक कि ये यकीन भी न हो कि ये चिट्टी जहाँ जायेगी वहां वो रहता भी है या नहीं | ऐसे ही खास जज्बातों को समेटे हुए है युवा लेखिका सिनीवाली शर्मा की कहानी “चिट्ठी ” कम शब्दों में भावों को खूबसूरती से व्यक्त करना सिनीवाली जी की विशेषता है | ऐसे ही एक पंक्ति जो बहुत देर तक मेरे दिल में गड़ती रही … हाँआनंद तलाक के कुछ महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली मैंने। हम बहुत सुखी पतिपत्नी हैंसभी कहते हैं——कहते हैं तो सही ही होगा। 


कहने को ये मात्र एक वाक्य है पर ये दाम्पत्य जीवन का कितना दर्द उकेर देता है जिसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है|  एक स्त्री, एक प्रेमिका का अपने पूर्व पति को लिखा गया भाव भरा पत्र पाठक को देर तक उसके प्रभाव से मुक्त नहीं होने देता | आप भी पढ़िए …


कहानी-चिट्ठी 




आनंद,


कितने दिनों बाद आज तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं ,कई साल पहले हमारे प्रेम की शुरूआत इसी से तो हुई थी, एक नहीं, दो नहीं, जाने कितनी चिठ्ठियां…….इनके एकएक शब्द को जीते, महसूस करते हम एक दूसरे के करीब होते गए। आज फिर कई सालों बाद तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं और ये भी नही जानती कि तुम उस पते पर हो भी या नहीं।

पता नहीं क्यों इतने दिनों बाद भी तुमसे मिलने का मन हो रहा है क्योंकि मन की कुछ ऐसी बातें जो तुम्हीं समझ सकते हो, वो तुम्हारे आगे ही खुलना चाहता है।  इससे पहले कि ये मन बिखर जाये, तुम इसे समेट दो ! बार बार, मैं मन को समेट लाती हूं अपनी दुनिया में—–पर पता नहीं कैसे खुशबू की तरह उड़कर तुमसे मिलने पहुंच जाता है, हाँ जानती हूं अब मुझे तुमसे मिलने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए—–फिर भी जाने क्यों !
सोचती थी किसी के जीवन से निकल जाते ही संबंध टूट जाते हैं, कितनी गलत थी मैं ! संबंध तो मन से बनते हैं और वहाँ से चाह कर भी नहीं निकाल पाई तुम्हें, जबसे तुमसे अलग हुई तभी से तुम्हारे साथ हो गई, जब मैने तुम्हें खो दिया तभी ये जाना प्यार किसे कहते हैं लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी।



वो कमजोर पल भी आते हैं जब मैं तुम्हारी जरूरत महसूस करती हूँ। जब मन बेचैन होता है तो सोचती हूँ कि तुम्हें फोन करके सब बता दूं—– 




जब किसी को अपना प्यार सहेजते देखती हूँ तुम सामने जाते हो, किसी को अपने प्यार के आगे सिर झुकाते देखती हूँ तो तुम नजर जाते हो। ओह ! अब भी तुम मेरे साथसाथ क्यों चलते हो। कहीं तुम अभी भी अपने प्रेम की कसमें तो नहीं निभा रहे ! जानती हूँ तुम ऐसे ही हो पर सबकुछ जानकर भी तो——मैं ही तुम से अलग हो गई।



तुम्हारा नंबर अब तक मैं नहीं भूली। मेरे कितने करीब हो—–पर कितनी दूर। कई बार बात करनी चाही तुमसे—–पर जाने क्या सोचकर फिर हाथ से फोन रख देती हूँ। अपने आपको बहला लेती हूँ कि शायद नंबर बदल लिया होगा—–पर मैं भी जानती हूँ कि वो नंबर तुम कभी नहीं बदलते।

कितना अजीब लग रहा है ना——तुम्हें, तुम्हारे ही बारे में बता रही हूँ ——मैं। वही मैं जो साथ रहते हुए तुम्हें समझ नहीं पाई या यूँ कहो, अपने मैं को छोड़कर हम नहीं बन पाई कभी।
हाँ, तुम सोच रहे होगे, जब मैं तुम्हें प्यार करती थी तो फिर हमारे रिश्ते का वह कौन सा तार टूटा कि हमारा जीवन ही अलग हो गया।

शायद तुम से अलग होना ही मुझे तुम्हारे करीब ले गया।

तुम ने इतना सहेज कर रखा था मुझे कि जान ही नहीं पाई कि जीवन के मीठे पल के बीच कड़वाहट भरा बीज भी होता है, पहले तुम मेरी जरूरत थे फिर आदत बन गए। पता ही नहीं चला कब पूरा अधिकार जमा लिया तुम पर, कि किसी और रिश्ते की जगह ही नहीं छोड़ी। पर ये नहीं समझ पाई, जरूरत से अधिक अधिकार प्रेम की कोमलता खो देती है। मैं अधिकार बढ़ाती गई और हमारा प्रेम घुटता गया। मैं यही समझने लगी थी कि मुझ में ही कुछ ऐसा है कि तुम मुझे इतना चाहते हो। ओह ——ये क्यों नहीं समझ पाई, प्रेम समर्पण होता है !



मेरी चाहत हमेशा खोजती रही अपनी ही खुशियाँ। मैंने प्रेम तो तुम से किया—–पर सच तो यही है कि मैं अपने आप से ही खोई रही, तभी तो समर्पण नहीं जान पाई। मेरा प्रेम तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर होता था, नाप तौल कर ही प्रेम करती थी, तुम्हारे सहारे मैं अपने आप को सुखी करती रही तभी तो हमारा वैवाहिक जीवन संतोष और खुशी दे रहा था मुझे। अपने दायित्वों को भूल अपने आप में खो गई थी।

लगता है जैसे कल की ही बात है, जब तुम्हारी माँ हमारे साथ रहने आई थी। उनका आना हमारे लिए वैसा ही था जैसे शांत जल में किसी ने जोर से पत्थर मार कर हलचल मचा दी हो। मैं इस हलचल को स्वीकार नहीं कर पाई। तुम्हारे लाख समझाने पर भी मैं समझ नहीं पाई कि बादल की सुंदरता आकाश में विचरने से तो है ही पर उसकी सार्थकता पानी बन धरती पर बरसने में है।

तुम्हारा अपनी माँ पर ध्यान देना, उनके सेहत के बारे में, खाने के बारे में पूछते रहना, वो गाँव की यादों में माँ के साथ खो जाना। बीते दिनों को याद करके नौस्टैलजिक होना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। खासकर गाँव की बातें तो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। दुनिया चाँद पर घर बसा रही है और तुम उन्हीं यादों में घर बना रहे थे। मेरे लिए तो जिंदगी रफ्तार थी, तेज—–तेज—–और तेज ——बहुत तेज। 


इतनी तेज कि अपनी गति के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था मुझे।



तुम कोशिश करते रहे मुझे समझाने की  और मैं जिद पर अड़ती चली गई कि तुम मुझे या अपनी माँ में से किसी एक को चुनो। शायद कहीं कहीं मैं ये चाहती थी कि तुम साबित करो कि  दुनिया में सबसे अधिक मुझे ही चाहते हो।

मेरी जिद मेरे जीवन को कहाँ ले जा रही थी, इसका अंदाजा भी नहीं लगा मुझे। यही तो सोचा था आज तक तुम मेरी खुशी के लिए कुछ भी करते आए हो तो——आज भी —— कोई अपने बीते कल के लिए आज और आने वाले कल को नहीं खोना चाहेगा। वो आँखें बंद कर के मेरा ही साथ चाहेगा क्योंकि उसका आज और आने वाला कल तो मैं ही थी।

पर नहीं, इस बार तुम ने फिर एक कोशिश की मेरी जिद को समझाने की। बड़ी शांति से वो बात कही थी तुमने, आज भी एक एक शब्द साफ साफ सुनाई पड़ रहे हैं जैसे कानों में गूंज रहे हों, प्रीति आज के लिए और आने वाले कल के लिए मैं, माँ को नहीं छोड़ सकता ! क्योंकि माँ के लिए तो सिर्फ मैं ही हूँ  !

तुम ने समझाने के लिए कहा था और मैं इसे तुम्हारा निर्णय मान बैठी। ओह, समझाने और निर्णय में अंतर क्यों नहीं कर पाई थी मैं।

लगा जैसे तुम प्रेम नहीं दया दिखाते रहे हो मुझ पर। मुझे लगा तुम सोचते हो कि मुझे तुम से बेहतर कोई नहीं मिल सकता। मैं तुम्हें ये दिखाना चाहती थी कि सिर्फ तुम्हारे ही सहारे मेरा जीवन नहीं है। तुम से अलग मेरा भी अस्तित्व है। मैं जी सकती थी तुम्हारे बिना और तुम से अलग होने का फैसला कर लिया। कुछ ही दिनों बाद मैंने तलाक माँगा——तुम ने बस इतना कहा, अगर तुम इसी में खुश हो तो——यही सही।

आज भी गुस्सा आता है तुम पर, क्यों नहीं रोक पाए तुम मुझे——-ओह ! लगता था, मना लोगे तुम मुझे, अपनी गलती पर पछताओगे, अपना सर मेरे आगे झुका दोगे। कुछ भी करके, किसी भी तरह अपनी जिंदगी में लौटा लोगे मुझे, पर—— आज भी गुस्सा आता है तुम पर, बहुत आता है क्यों नहीं रोक पाए तुम मुझे। क्या गुस्सा भी अपनेपन की निशानी है ! फिर यादों के तूफान में घिर गई हूँ मैं।

अब तो कोई अधिकार और कोई बंधन से बंधे हैं हम। 




मुझे तो अब ये सब सोचना भी नहीं चाहिए। हाँ, शादी के बाद औरत सब भुलाकर पति के घर आती है ——-पर क्या औरत सब कुछ भूल पाती है ?
हाँ, आनंद तलाक के कुछ महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली मैंने। हम बहुत सुखी पतिपत्नी हैं, सभी कहते हैं——कहते हैं तो सही ही होगा।

इनका नाम चिरायु है। हम दोनों में प्रेम जैसा ही कुछ है पर इस प्रेम में बादल की अल्हड़ता, बारिश की शीतलता और तुम्हारे जैसा समर्पण नहीं है।

और तुम्हारा मेरे रुठे हुए चेहरे के आगे ये कहना, जिसमें तुम्हारी खुशी—–मैं उसी में खुश——होंठ मेरे और मुस्कुराहट तुम्हारी होती थी—– नहीं यहाँ ऐसा नहीं होता है, ये नहीं कह रही, बहुत खुश हूँ, हम दोनों एक दूसरे की जरूरत पूरी करते हैं, हाँ, आनंद यही हमारा प्रेम है।

इतनी बातें कह दी, पर लगता है नहीं कहनी चाहिए पर प्यार करने वाले से झूठ भी नहीं बोलना चाहिये।
जब से हम अलग हुए, तुम ने मेरा हाल जाना और ही मैंने तुम्हें खोजा। पर जानती हूँ, हमारी चुप्पी खोजती रही है हमें।

पर अब इन बातों का क्या फायदा !

माँ जी कैसी हैं ! पहले से तो कमजोर हो गई होंगी। उनकी उम्र से क्या शिकायत करुँ, मैंने भी तो कोई कसर नहीं छोड़ी। जब से मैं माँ बनी हूँ तभी तो समझ पाई तुम माँबेटे के रिश्ते को। अब तो यही रिश्ता जी रही हूँ।
अपनी गलती का एहसास तो तुम से अलग होने के कुछ दिनों बाद ही हुआ पर जब से माँ बनी हूं तब से मैं तुम्हारा सम्मान करने लगी हूँ। जब ये मेरे कलेजे से सटता है, लगता है पूरी दुनिया सिमट गई मुझमें। ऐसा ही तो हर माँ सोचती होगी और मैं ——- छी:——

एक स्वार्थ भी है आज चिट्ठी लिखने के पीछे। बेटा जो माँ का होकर रह जाए, अच्छा इंसान तो जरूर होगा। मैं भी अपने बेटे को——

वंश मेरा बेटा दो महीने का हो गया। इसके नामकरण में सभी परिचितों, रिश्तेदारों को बुलाया था आशीष देने। कहते हैं आशीर्वाद में बड़ी ताकत होती है, तभी से मेरा मन कहता है सबसे जरूरी आशीर्वाद तो इसे मिला ही नहीं——तुम्हारा आशीर्वाद !
हाँ आनंद मैं चाहती हूँ तुम्हारा आशीष पाकर ये तुम जैसा बेटा बने।
क्या आओगे,——ये कहने, जिसमें तुम्हारी खुशी——–
तुम्हारी
मैं, प्रीति
लेखिका

लेखिका:- सिनीवाली शर्मा
पता:शालीमार गार्डन एक्सटेंशन 1,
साहिबाबाद, गाजियाबाद
ईमेल –siniwalis@gmail.com
प्रकाशित कहानी संग्रह – हंस अकेला रोया

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