अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

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अंतर्ध्वनि
लय, धुन, मात्रा भाव जो, लिए चले है साथ
दोहा रोला मिल करें, छंद कुंडली नाद
छंद कुंडली नाद, लगे है मीठा प्यारा
सब छंदों के बीच, अतुल, अनुपम वो न्यारा
ज्यों शहद संग नीम, स्वाद को करती गुन-गुन
जटिल विषय रसवंत, करे छंदों की लय धुन
वंदना बाजपेयी
दोहा और रोला से मिलकर बने, जहाँ अंतिम और प्रथम शब्द एक समान हो .. काव्य की ये विधा यानी कुंडलियाँ छंद मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | इसलिए आज जिस पुस्तक की बात करने जा रही हूँ, उसके प्रति मेरा सहज खिंचाव स्वाभाविक था| पर पढ़ना शुरू करते ही डूब जाने का भी अनुभव हुआ | तो आज बात करते हैं किरण सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक “अंतर्ध्वनि” की |

अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

किरण सिंह
लेखिका -किरण सिंह
जानकी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक बेहद खूबसूरत कवर के अंदर समाहित करीब दो सौ कुंडलियाँ कवयित्री के हृदय की वो अंतर्ध्वनि है जो हमारे समकाल से टकराकर उसके हृदय को ही गुंजायमान नहीं करती अपितु पाठक को भी आज के समय का सत्य सारस सुंदर तरीके से समझा कर कई नई परिभाषाएँ गढ़ती है |
अपनी गेयता के कारण कुंडलियाँ छंद विधा जितनी सरस लगती है उसको लिखना उतना ही कठिन है | वैसे छंद की कोई भी विधा हो, हर विधा एक कठिन नियम बद्ध रचना होती है | जिसमें कवि को जटिल से जटिल भावों को नियमों की सीमाओं में रहते हुए ही कलम बद्ध करना होता है | ये जीवन की जटिलता थी या काव्य की, जिस कारण कविता की धारा छंदबद्ध से मुक्त छंद की ओर मुड़ गई | कहीं ना कहीं ये भी सच है की मुक्तछंद लिखना थोड़ा आसान लगने के कारण कवियों की संख्या बढ़ी .. लेकिन प्रारम्भिक रचनाएँ लिखने के बाद समझ आता है की मुक्त छंद का भी एक शिल्प होता है जिसे साधना पड़ता है | और लिखते -लिखते ही उसमें निखार आता है | अब प्रेम जैसे भाव को ही लें ..
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजि यात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥
बिहारी
——
प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या
हरिवंश राय बच्चन
——–
चम्पई आकाश तुम हो
हम जिसे पाते नहीं
बस देखते हैं ;
रेत में आधे गड़े
आलोक में आधे खड़े ।
केदारनाथ अग्रवाल
तीनों का अपना सौन्दर्य है | पर मुक्त छंद में भी शिल्प का आकाश पाने में समय लगता है और छंद बद्ध में कई बार कठिन भावों को नियम में बांधना मुश्किल | जैसा की पुस्तक के प्राक्कथन में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी रवींद्र उपाध्याय जी की पंक्तियाँ के साथ कहते हैं की
तपन भरा परिवेश,
किस तरह इसको शीत लिखूँ
जीवन गद्ध हुआ
कहिए कैसे गीत लिखूँ ?
“मगर इस गद्य में जीवन में छंदास रचनाओं की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो कभी पाठक को आंदोलित करे तो कभी अनुभूतिपरक मंदिर फुहार बन शीतलता प्रदान करे |”
शायद ऐसा ही अंतरदवंद किरण सिंह जी के मन में भी चल रहा होगा तभी बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ जी के छंद बद्ध रचना लिखने को प्रेरित करने पर उन्होंने छंद बद्ध रचना को विवहित और छंद मुक्त रचना को लिव इन रेलेशन शिप की संज्ञा देते हुए एक बहुत खूबसूरत कविता की रचना की है | जिसे “अपनी बात” में उन्होंने पाठकों से साझा किया है |
लिव इन रिलेशनशिप भी
एक कविता ही तो है
छंद मुक्त
ना रीतिरिवाजों की चिंता
न मंगलसूत्र का बंधन
न चूड़ियों की हथकड़ी
न पहनी पायल बेड़ी
खैर ! किरण सिंह जी की मुक्त छंद से छंद बद्ध दोहा , कुंडली, गीत आदि की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ और हर बार उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा पाठकों को मनवाया है | भाव प्रवणता और भाषा दोनों पर पकड़ इसमें उनकी सहायक बनी है | इस पुस्तक की शुरूआत “समर्पण” भी लेखक पाठक रिश्ते को समर्पित एक सुंदर कुंडलिया से की है | लेखक पाठकों की भावनाओं को शब्द देता है और पाठक की प्रतिक्रियाएँ उसे हर्षित हो कर बार -बार शब्द संसार रचने का साहस , देखिए तेरा तुझको अर्पण वाला भाव ….
अर्पित करने मैं चली, लेकर अक्षर चंद |
सज्ज हो गई भावना, बना पुन: नव छंद |
बना पुन :नव छंद, लेखनी चली निरंतर |
मुझको दिया समाज हमेशा नव -नव मंतर |
देती है सो आज , किरण भी होकर हर्षित |
रचनाओं का पुष्प गुच्छ है तुमको अर्पित ||
शुरुआती पृष्ठों पर प्रथम माता सरस्वती की आराधना करते हुए अन्य देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए उन्होंने सूर्यदेव से अपनी लेखनी के लिए भी वरदान मांगा है .. लेकिन यहाँ व्यष्टि में भी समष्टि का भाव है | हर साहित्यकार जब भी कलम उठाता है तो उसका अभिप्राय यही होता है की जिस तरह सूर्य की जीवनदायनी किरणें धरती पर जीवन का कारक हैं उसे प्रकार उसकी लेखनी समाज को दिशा दे कर जीवन की विद्रूपताओं को कुछ कम कर सके , चाहे इसके लिए उसे कितना भी तपना क्यों ना पड़े |
मुझको भी वरदान दो, हे दिनकर आदित्य |
तुम जैसा ही जल सकूँ, चमकूँ रच साहित्य |
चमकूँ रच साहित्य, कामना है यह मेरी |
ना माँगूँ साम्राज्य, न चाहूँ चाकर चेरी |
लिख -लिख देगी अर्घ्य किरण, रचना की तुमको |
कर दो हे आदित्य, तपा कर सक्षम मुझको ||
अभी हाल में हमने पुरुष दिवस मनाया था | वैसे तो माता पिता में कोई भेद नहीं होता पर आज के पुरुष को कहीं ना कहीं ये लगता है की परिवार में उसके किए कामों को कम करके आँका जाता है | यहाँ पिता की भूमिका बताते हुए किरण जी बताती है कि बड़े संकटों में तो पिता ही काम आते हैं | मेरा विचार है की इसे पढ़कर परिवार के अंदर अपने सहयोग को मिलने वाले मान की पुरुषों की शिकायत कम हो जाएगी …
संकट हो छोटा अगर, माँ चिल्लाते आप
आया जो संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप |
कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा |
सूझे नहीं उपाय, कष्ट होता जब ज्यादा |
पिता प्रकट हो आप, हटाता पथ  का कंटक
रखकर सिर पर हाथ, पिता हर लेता संकट ||
अभी काफी समय पर किसान आंदोलन चल रहा था, प्रकाश पर्व पर सरकार ने किसानों की शर्ते मान ली | इसका एक कारण ये था की किसानों के साथ आम जनता भी खड़ी थी और कलम भी | किरण जी प्रगति या विकास को सीधे किसान की प्रगति से जोड़ कर देखती हैं | वो लिखती हैं कि …..
हुई हमारी है प्रगति, तब हम लेंगे मान |
हो जाएंगे देश के, अगर प्रसन्न किसान |
अगर प्रसन्न किसान, उगाएँ चांदी -सोना |
देकर सभी उतार, नजरिया जादू टोना |
होगा हर्षित गाँव, किरण हर नागरी न्यारी |
हम भी लेंगे माँ, प्रगति है हुई हमारी ||
कोई महिला कुछ भी लिखे उसकी कलम में स्त्री जीवन, स्त्री संघर्ष और समाज में समान रूप से जीवन जीने के अधिकार की मांग वैसे ही गुथी होती है जैसे किसी पुष्प हार में पुष्प | किरण सिंह जी के स्त्री विमर्श की कुंडलियों में जहाँ कन्या दान और दहेज के खिलाफ आक्रोश है वहीं शिक्षा और अपनी प्रतिभा को निखारने देने के अवसर की मांग | वो बेटियों को अपनी प्रतिभा को पहचान कर विकसित करने की प्रेरणा भी देती हैं | एक बात जो हम महिलाओं को अक्सर खटकती है की स्त्री स्त्री की शत्रु है .. इस नारे का उदय कहाँ और कैसे हुआ ? और क्योंकर बार -बार स्त्री इसे स्वयं भी प्रयोग करती है | किरण सिंह इसे पितृसत्ता की चाल बताती हैं और इसे काटने का उपाय बताते हुए स्वयं पहल करने की बात करती हैं ..
रहना है तुमको अगर, किरण सबल समृद्ध
नारी -नारी मित्र हैं, प्रथम करो यह सिद्ध
प्रथम करो यह सिद्ध शक्ति बन कर नारी की |
बदलो अपना चित्र, बना जो बेचारी की |
स्वर को करो बुलंद, कहो  जो भी कहना है |
नहीं बहाना अश्रु, नहीं अब चुप रहना है ||
पर्यावरण हम सबकी साझी चिंता है .. समस्त जीव जंतुओं में केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जो इसे नष्ट करने में डाल पर बैठे मूर्ख मानव की तरह उसे डाल को काटने में ये सोच कर लगा है की डाल कटने पर वो नहीं गिरेगा | जंगल काटे जा रहे हैं नदियों और हवा में में विष मिलाया जा रहा है| इस क्रूरता से आहत किरण जी ताकीद करती है ….
जाग जरा अब तो मनुज, कर ले सोच विचार |
डर प्रकार्तिक प्रकोप से, मत कर अत्याचार |
मत कर अत्याचार प्रकृति पर इतना ज्यादा |
कर ले हे नर नार , स्वयं से टू भी वादा |
सुंदर यह संसार , रहेगा स्वस्थ सदा जब
लेगी टू भी ठान , चेतना जाग जरा अब ||
रिश्ते हमारे जीवन का आधार स्तम्भ हैं | सच्चाई ये वो ज्यादा सुखी होते हैं जिनके रिश्ते अच्छे चलते हैं | रिश्ते -नाते खंड में किरण सिंह जी जहाँ अच्छे रिश्तों की पहचान बताती है वहीं बुरे रिश्तों से सावधान भी करती हैं | एक कुंडलियाँ छंद में मित्र चाहे बदल जाए, याद ना भी करें पर शत्रु सदा याद रखते हैं का व्यंगात्मक पुट भी है | पर रिश्तों की चोट उन्हें भी चुभती है .. पर इसके लिए सही वक्त की प्रतीक्षा का माद्दा उनमें है |
देना किरण जवाब, वक्त पर उन सब जन को |
खींच रहे थे टांग, चोट वाणी से कर जो ||
हालांकि अंततः वो हर रिश्ते के महत्व को स्वीकार करती हैं ..
चाहे तू तकरार कर, चाहे तू कर प्यार
रिश्ते -नाते हैं मगर, जीवन का आधार ||
अंत में यही कहूँगी की जानकी प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में जीवन के विविध रंग हैं | ईश वंदना , प्रकृति पर्यावरण, प्रेम , योग, कोविड, स्त्री विमर्श, उद्बोधन, पुलवामा के शहीद, लेखनी शिक्षक आदि में हमारा समकाल समाया हुआ है | जिसको किरण जी एक आम मनुष्य की तरह देखकर पाठकों के साथ साझा कर रही है | इसलिए ये कुंडलियाँ कहीं भी उपदेशक नहीं लगती है | लेखक और पाठक की दूरी खत्म हो जाती है और वो स्वयं के सुधार के माध्यम से ही समाज में सुधार की कल्पना करते हुए “बूंद -बूंद से घट भरता है का निर्दोष पर महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती हैं | चाहें वो स्त्री विमर्श हो या पर्यावरण की रक्षा | यहाँ तक की आध्यात्म की बात करते हुए भी वो “ पर उपदेश की राह पर ना चलकर आत्मसुधार की बात करती हैं | इसलिए मैंने पहले भी कहा था की उनकी रचनाएँ व्यष्टि से समष्टि की ओर जाति हैं और पाठक को अपनी सी लगती हैं |
किरण सिंह जी भाव, भाषा और जुनून की धनी है | उनकी हर किताब में एक लेखक के रूप में उनके विकास की ये यात्रा दिखती है | यही सच्चे अर्थों में किसी भी कलमकार के शब्दों का हासिल है | अगर आप भी कुंडलियाँ छंद के माध्यम से भाव रस रचना के साथ हमारे समकाल से मिलना चाहते हैं तो ये किताब आप के लिए मुफीद है |
चलते -चलते आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी के आशीर्वचन के रूप में लिखा गया मुक्तक जिसमें मेरी भावनाएँ भी शामिल हैं ..
सदा अधर पर फूलों सी मुस्कान रहे ,
भौरों  का संगीत सरीखा मान रहे,
जैसा भी हो छह, राह सब खुले खिले
नहीं अधूरा कोई भी अरमान रहे ||
अंतर्ध्वनि- कुंडलियाँ संग्रह
लेखिका -किरण सिंह
प्रकाशक -जानकी प्रकाशन
पृष्ठ – 104
मूल्य -300 रुपये
समीक्षा वंदना बाजपेयी
वंदना बाजपेयी
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