अटल रहे सुहाग : मैं आ रहा हूँ…..डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

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       मैं सदा उन अंकल-आंटी को साथ-साथ देखा करती थी। सब्जी लानी हो, डॉक्टर के पास जाना हो, पोस्टऑफिस, बैंक, बाज़ार जाना हो या अपनी बेटी के यहाँ जाना हो……हर जगह दोनों साथ जाते थे।उन्हें देख कर लगता था मानो एक प्राण दो शरीर हों। आज के भौतिकवादी समय को देखते हुए विश्वास नहीं होता था कि वृद्धावस्था में भी एक-दूसरे के प्रति इतना समर्पित प्रेम हो सकता है।

           मैं जब-तब उनके यहाँ जाया करती थी। जैसे ही पहुँचती, अंकल कहते–आओ बेटा! देखो तुम्हारी आंटी ने मेरी किताब ही छीन कर रख दी! कहती है बस आराम करो। भला कैसे चलेगा इस तरह मेरा काम?
          तब तक रसोई से आंटी की आवाज़ आती–कुछ भी शिकायत कर लो तुम बीना से, किताब तो तुम्हें नहीं ही मिलेगी। भूत की तरह बस चिपके रहते हो किताब से। न अपनी तबियत की चिंता न दवाई खाने की याद रहती है तुम्हें।
             ऐसा भी नहीं था कि दोनों के विचार हर बात  में मिलते ही थे। मतभेद भी काफी रहता था। अंकल थे पढ़ने-लिखने वाले व्यक्ति, एक विद्वान् लेखक। काफी लोग उनके पास आया करते थे।उनका अधिकतर समय लिखने-पढ़ने में ही बीतता था। शेष समय अपने घर के अहाते में बागबानी करने में लगे रहते। फलों के खूब पेड़ लगा रखे थे उन्होंने। फूलों की भी बहुत जानकारी थी उन्हें। और आंटी गृहस्वामिनी थी, पर उनमें भी बहुत सी विशेषताएँ थीं। वे हाथ से बहुत अच्छे स्वेटर बनाती थी जो दिखने में मशीन के बने लगते थे। अपने सारे त्योहारों को पूरे मनोयोग, पूरी आस्था से मनाती थी। अंकल जितने अंतर्मुखी, आंटी उतनी ही बहिर्मुखी और मिलनसार। पर अंकल आंटी के हर काम में शामिल रहते…फिर चाहे वह बड़ियाँ-कचरियाँ बनाने का ही काम क्यों न हो। तीन बच्चे थे उनके। तीनों अपने-अपने परिवारों में आनंदपूर्वक रह रहे थे। आते-जाते रहते थे। बेटी एक ही शहर में रहती थी तो वो जब-तब उनके पास आती रहती थी और इस तरह अंकल-आंटी का जीवन भी अपनी गति से ठीक-ठाक चल रहा था।

           पर जाने किसकी नज़र लगी उनकी खुशियों पर, कि आंटी की तबियत खराब रहने लगी। बेटी बीच-बीच में आती, फिर वह दोनों को अपने साथ ही ले गई अपने घर। कई जाँचों के बाद पता चला कि आंटी को गॉल ब्लैडर का कैंसर है। जिन आंटी ने अपने लिए कभी एक दिन भी अस्पताल में रह कर नहीं देखा था, अब उन्हें हर सप्ताह-पंद्रह दिन में चिकित्सा के लिए दिल्ली जाना पड़ने लगा। तब अंकल आंटी की इंतजार का समय उनकी बातें करके,उन्हें याद करके बिताते थे। जब उन्हें आंटी की बीमारी के बारे में बताया गया था तो वे फूट-फूट कर रो पड़े थे और उन्हें समझाना ही मुश्किल हो गया था। दोनों के जीवन का रूप ही बदल गया था। एक-दूसरे के लिए सबकुछ कर दें कि करने के लिए कुछ बाकी न रह जाए…इस भावना से दोनों एक-दूसरे के लिए जीने लगे थे। देखने पर मन भर-भर आता था।

         करवाचौथ के बाद उनसे मिलने गई थी तो दोनों मुझे देख कर बहुत खुश हुए थे। मन का दुःख छिपाने की बहुत कोशिश कर रहे थे पर चेहरे पर दुःख साफ़ नज़र आ रहा था।

       और सुनाओ बेटा! कैसा रहा तुम्हारा त्यौहार? हमने भी बस जैसे-तैसे मना ही लिया। मैंने बरामदे में कुर्सी पर बैठ कर तुम्हारे अंकल के साथ चाँद देखा और साथ मिल कर जल चढ़ाया। पता नहीं आगे यह सौभाग्य हमें मिले न मिले…कहते-कहते दोनों की आँखों में आँसू आ गए थे। मेरी भी आँखें आँसुओं से भीग गयी थी। मन ही मन दुआ कर रही थी कि आंटी ठीक हो जाएं और पहले की तरह  दोनों अपना जीवन सामान्य रूप से बिताएँ। पर ईश्वर ने तो जैसे स्वयं उन्हीं के मुख से बिछड़ने का सत्य बुलवा दिया था।

        पर चाहने से भी कुछ हुआ है! एक दिन आंटी के घर सवेरे-सवेरे एम्बुलेंस आकर रुकी। घर से तुरंत भागी गयी। पता चला आंटी नहीं रहीं। मुझे अंकल की चिंता होने लगी कि अब वे कैसे रहेंगे जिन्होंने अपने जीवन का एक भी पल आंटी के बिना नहीं बिताया था। उनकी हालत देख कर अपने आँसू रोकने मुश्किल हो रहे थे। उनसे मिली तो देखते ही रोने लगे–देखा छोड़ गयी तुम्हारी आंटी मुझे! मैं उन्हें कहता था कि जब तुम ठीक हो जाओगी तो हम एक पार्टी रखेंगे और सबको बुलाएँगे। पर मुझे क्या पता था कि उनकी तेरहवीं में मुझे सबको बुलाना पड़ेगा।

       इसके बाद भी मैं अंकल से मिलने जाती रही। मुझे देखते ही हँस कर आ बेटी..कहने वाले अंकल एकदम शांत से हो गए थे। बात करते हुए बातें कम और रोते ज्यादा थे। सोचती थी कि अपनी बेटी, जिनके अंकल-आंटी बहुत नज़दीक थे, के पास रहते हुए वे अपने को संभाल लेंगे….पर मैं गलत थी। उनकी शांति तो तूफ़ान के आने के पहले की शांति थी। कल करवाचौथ है तो कुछ तैयारियाँ आज ही करके रख दूँ ताकि कल शॉपिंग करने जा सकूँ..सोच कर काम करने में लग गई। मुझे क्या पता था कि यह सब नियति का सब पूर्वनियोजित है जिससे मैं कल अंकल को अंतिम विदाई दे सकूँ।

       अगले दिन नहाने के लिए कपड़े निकाल ही रही थी कि उनकी बेटी का फोन आया। धड़कते मन से फोन कान पर लगाया ही था कि वो रोते-रोते बोली–बीना! पापा भी मुझे छोड़ गए। वो करवाचौथ पर मेरी माँ को अकेला कैसे देख सकते थे ? पर बीना! मैं क्या करूँ अब ?

      और मैं उनके अंतिम दर्शन करके, उन्हें अंतिम विदाई देकर रोते-रोते सोच रही थी की सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा भला और क्या होगी कि करवाचौथ पर रात को चंद्र-दर्शन और जल चढ़ा कर पूजा संपन्न करवाने के लिए वे अपनी भौतिक देह को छोड़ कर अपनी संगिनी के पास पहुँच, सदा के लिए एकाकार हो गए थे, अटूट बंधन में बंध गए थे।

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कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

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