बॉर्डर वाली साड़ी

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बॉर्डर वाली साड़ी

बेटियाँ पराया धन होती हैं | मायके पर उनका अधिकार शादी के बाद खत्म हो जाता है …. लेने का ही नहीं देने का भी | ये परिभाषा मुझे बॉर्डर वाली साड़ी  ने सिखाई |

बॉर्डर वाली साड़ी


ये वो दिन थे जब सूरज इतना नही तपता था , पर एक और तपिश थी जिसे बहुधा
औरतें अपने मन में दबाये रहतीं थी … बहुत जलती थीं
 पर आधी आबादी ने इसे अपना भाग्य मान लिया था | उन
दिनों , हां , उन्हीं में से कुछ
 दिनों
में जब बॉर्डर वाली साड़ी बहुत फैशन में थी और अपने कपड़ों पर कभी ध्यान न देने वाली
माँ की इच्छा बॉर्डर वाली साड़ी खरीदने की हुई | वो हर दुकान पर बॉर्डर वाली साड़ी
को गौर से देखतीं , प्यार से सहलातीं और आगे बढ़ जातीं | न कोई फरमाइश न रूठना मनाना
| बड़ी ही सावधानी से अपने चारों
 ओर एक
वृत्त खींचती आई हैं औरतें , जिसमें वो अपने जाने कितने अरमान छुपा लेतीं हैं | इस
वृत्त में किसी का भी प्रवेश वर्जित है …खुद उनका भी | ये वो समय था , जब
 हमारा घर बन रहा  था ,  खर्चे बहुत  थे | उस पर हम पढने वाले भाई –बहन , कभी पढाई का
कभी त्योहारों का तो कभी बीमारी अतिरिक्त खर्चा आ ही जाता | इसलिए माँ भी अन्य
औरतों की तरह
 खुद ही अपनी इच्छा स्थगित कर
देतीं
 | बुआ, चाची वैगेरह जब भी बॉर्डर
वाली
  साड़ी पहन कर आती माँ बहुत ध्यान से
देखतीं , खुले दिल से प्रशंसा करती पर अपने लिए नहीं कहतीं | 



समय बीता और एक दिन
वो भी आया जब माँ के लिए बॉर्डर वाली साड़ी आई ,पर
 जब तक माँ के लिए बॉर्डर वाली साडी आई तब तक उसका
फैशन जा चुका था | ज्यादातर महिलाओं ने अपनी बॉर्डर वाली साड़ी अपनी
 कामवालियों को दे दी थी | हर दूसरी कामवाली वही
पहने दिखती | माँ ने जब वो साड़ी पहली बार पहनी तो हर कोई टोंकता अरे , ये क्या पहन
ली , अब तो ये कोई पहनता नहीं , हमने तो अपनी काम वाली को दे दी | दो चार बार पहन
कर माँ ने भी वो साड़ी
  किसी को दे दी | माँ
ने तब भी कोई शिकायत नहीं की पर मेरे मन में एक टीस गड
 गयीं | बाल बुद्धि में ये  सोचने लगी ,जब मैं बड़ी हो कर नौकरी करुँगी और जब
फिर से बॉर्डर
 वाली साड़ी का फैशन आएगा तो
सबसे पहले माँ को ला कर दूँगी |


समय अपनी रफ़्तार से गुजरता चला गया | संयोग से मेरी
शादी के बाद एक बार फिर बॉर्डर वाली
  साड़ी का
फैशन आया | बचपन का सपना फिर से परवान चढ़ने लगा | मेरे पास स्वअर्जित धन भी था |
बस फिर क्या था अपने सपने को सच्चाई का रंग देने के लिए
  उसी दिन बाज़ार जा पहुंची | सैकड़ों साड़ियाँ उलट –पुलट
डाली | कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी या फिर दुनिया में कोई ऐसी साड़ी
 बनी ही नहीं थी जिसमें मैं अपने सपने स्नेह और
अरमान लपेट सकती | दिन भर की मशक्कत और धूप
 में पसीना –पसीना होने के बाद आखिरकार एक साड़ी
मिली जिसका रंग मेरे सपनों के रंग से मेल खाता था | झटपट पैक करायी | जब तक वो
साड़ी मेरे घर में रही मैं रोज उसे पैकेट से निकाल कर निहारती और ये सोच कर खुश
होती कि माँ कितनी खुश होंगी | अपनी कल्पनाओं में माँ को उस साड़ी को पहने हुए देखती
… मुझे माँ रानी परी से कम न लगतीं | मुझे महसूस हो रहा था कि हर रोज वो साड़ी
 मेरे स्नेह के भर से भारी होती जा रही थी |


कल्पना के पन्नों से निकल कर वो दिन भी आया जब मैं  मायके गयी और माँ को वो  साड़ी दी | माँ की आँखे ख़ुशी से छलछला गयी , अरे
अब तक याद है तुमें कहते हुए वो रुक गयीं , फिर बोलीं , “ ये मैं कैसे ले सकती हूँ
, लड़की का कुछ लेना
  ठीक नहीं है , परंपरा
के खिलाफ है , तुम पहनों , तुम पर अच्छी लगेगी |


हम दोनों की आँखों में आंसूं थे |  मुझे लगा समय रुक गया है , बाहर की सारी  आवाजे सुनाई देना बंद हो गयीं ,केवल एक ही आवाज़
आ रही थी अन्दर से … बहुत अंदर से … हाँ माँ
 … मैं अब इस घर की बेटी कहाँ रही , मैं तो दान
कर दी गयी हूँ , परायी हो गयी हूँ | मेरे और माँ के बीच में परंपरा खड़ी थी | मैं
जानती थी आस्था को तर्क
 से काटने के सारे
उपाय विफल होंगे | मैंने माँ की गोद में मुँह छिपा लिया , ठीक उस बच्चे की तरह जो
माँ की मार से बचने के लिए माँ से ही जा चिपकता है |
 दो औरतें जो एक दूसरे का दर्द समझती थीं पर असहाय
थीं
 क्योंकि एक परंपरा के आगे विवश थी और
दूसरी विफल | 

तभी पिताजी आये | बिना कुछ कहे वो समझ गए | पिता में भी एक माँ का दिल
होता है | माँ से बोले , “ क्यों बिटिया का दिल छोटा करती हो , ले लो , परंपरा है
, ये
  बात सही है तो दो की चीज चार में ले
लो , बिटिया का मन भी रह जाएगा और परंपरा भी | मुझे ये बिलकुल वैसा ही लगा जैसे
कीचड में ऊपर से नीचे तक सने व्यक्ति को दो बूँद गंगा जल छिड़क कर पवित्र मान लिया
जाता है | फिर भी मैंने स्वीकृति में सर हिला दिया क्योंकि उस साड़ी को वापस लाने
की हिम्मत मुझमें नहीं थी |


मुझे उस साड़ी के बदले में एक कीमती उपहार मिल चुका था | मेरे  वापस जाने वाले दिन माँ ने वो साड़ी पहनी | सच
में माँ बिलकुल मेरे सपनों की परी जैसी लग रहीं थी | मेरी आँखे बार –बार भर रहीं
थी |
  सब कुछ धुंधला दिखने के बावजूद एक
चीज मुझे साफ़ –साफ़ दिख रही थी ….माँ की साड़ी से निकला हुआ बॉर्डर जो हम दोनों के
बीच अपने वजूद पर मुस्कुरा रहा था |

वंदना बाजपेयी

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1 COMMENT

  1. वंदना दी, अपने ही मायके में जहां उसका जन्म हुआ, जहां वो पली बढ़ी वही पर जब उसे परायेपन का एहसास होता हैं तो अंदर से नारी कितनी टूट जाती हैं इस बात बहुत ही खूबसूरती वर्णन करती बहुत ही सुमंदर कहानी हैं ये।

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