काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे

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काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे
किसी भी कथा को कविता के रूप में प्रतुत करने का चलन बहुत पुराना है |
आज हम “ अटूट बंधन “ पर ऐसी  
ही काव्य कथा –
गहरे काले रंग के परदे ले कर आये हैं | परदे अपने अंदर बहुत सारा दर्द और शोषण
 छिपाए रखते हैं , जिनका बेपर्दा होना बहुत जरूरी
हैं| आइये पढ़ते हैं … 

काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे 

नए घर में सामन जमाते हुए
बरबस ही मेरा ध्यान आकर्षित कर ले गए
गहरे काले रंग के परदे
जो टंगे थे
मेरे घर के ठीक सामने वाले घर की
बड़ी-बड़ी खिडकियों पर
एक अजीब सी इच्छा जगी
जानने की
कि कौन रहता है इन पर्दों के पीछे
जिसकी है इतनी अलग पसंद
क्या कोई और रंग नहीं मिला
घर सजाने को
या कुछ खास ही होगा अंदर
जो लगा दिया है
नज़र का टीका
गहरे काले रंग के पर्दों के रूप में

बचपन में अम्मा ने बताया था
अशुभ होता है काला रंग
शोक का प्रतीक
घर में पूजा करने वाले पंडित जी  ने बताया था
शनि का रंग है काला
दूर ही रहना इससे
नहीं तो कहीं का नहीं छोड़ेगा
विज्ञान की कक्षा में मास्टर जी ने बताया
काला रंग सोख लेता है हर रंग को
कोई भी रंग पार नहीं जा सकता इसे
कितनी ही परिभाषाएं थी काले रंग की
जो सब की सब
बता रहीं थी उसके दोष
क्या उन्हें नहीं पता ?
फिर क्यों टांग रखे हैं
गहरे काले रंग के परदे

धीरे -धीरे
चलने लगा पता
मेरे ही नहीं
पूरे मुहल्ले की जिज्ञासा का केंद्र थे
गहरे काले रंग के परदे
कोई नहीं जानता की
कौन रहता है
क्या होता है
इन पर्दों के पीछे
सुना है  रहते हैं दो औरतें और एक पुरुष
माँ -बेटी
कभी निकलती नहीं
कभी झांकती नहीं
हाँ पुरुष जाता है
रोज सुबह
और लौटता है शाम को
दो बार खटकते हुए दरवाजों के अक्तिरिक्त
कोई हलचल नहीं होती
वैसे ही टंगे रहते हैं
वो गहरे काले रंग के परदे

एक दिन रात के चार बजे
आने लगी रोने की आवाजें
उन्हीं पर्दों के पीछे से
अपनी -अपनी बालकनियों से झांकते लोग
कर रहे थे प्रयास
जानने का
जमा होने लगी भीड़
दरवाजे के बाहर
बढती रुदन की आवाजों से टूट गए दरवाजे
अन्दर थी  दो कृशकाय स्त्रियाँ
एक जीवित एक मृत
एक विक्षिप्त सी माँ
विलाप करती अपनी किशोर बेटी पर
थोड़ी दूर अनमयस्क सा बैठा पिता
घूरता भीड़ को
जिसकी आँखों में थे सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न
जिनके जवाब छप गए थे
दूसरे दिन के अख़बारों पर

एक पिता
जिसने कैद कर रखा था
अपनी ही बेटी और पत्नी को
घर के अन्दर
पत्नी के असमर्थ हो जाने पर
जो भूल गया था
पिता होना और अपनी ही बच्ची को
बनाता रहा
अपनी वासना का शिकार
सालों साल
जिसका दर्द , घुटन , मौन चीखें
बाहर जाने से रोक रहे थे
गहरे काले रंग के परदे

मैं सोंचती रह गयी
काले रंग की
किस की परिभाषा सही है
अम्मा की , पंडित जी की या मास्टर जी की
कितना कुछ छिपाए थे ये गहरे काले रंग के परदे
पर्दों का रंग भले ही कला न हो
 बड़े घरों में टंगे परदे
जिनके पीछे के दर्द की कहानी
शायद अलग हो
पर वो
हमेशा ये याद दिलाते हैं कि
इस पर्दादार देश में
पर्दों के पीछे
बहुत कुछ ऐसा हो रहा है
जिसका
बेपर्दा होना जरूरी है…

सरिता जैन
दिल्ली

कवियत्री

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