कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2)

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कविता सिंह

जिस शहर को उन्होंने अपने हाथों से सींच कर सुंदर बनाया था वो एक झटके में पराए हो गए |कोरोना के साइड इफेक्ट के रूप में मजदूरों और छोटे स्तर के कामगारों का भारी संख्या में गाँव की तरफ पलायन हुआ | पर गांवों ने उन्हें बाहें पसार कर अपनाया नहीं | रिश्तों की कितनी परते खुलीं |कितने रिश्ते टूटे | पर क्या कोई बीच का रास्ता भी हो सकता है जहाँ हाथों को काम भी मिले और रिश्तों को मुस्कुराहट भी | आइए पढ़े कविता सिंह जी की कोरोनकाल के विस्थापित कामगारों के रिश्तों के ताने -बाने को सँजोती ऐसी ही खूबसूरत कहानी ..

 

कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2)

“सुना तुमने! प्रकाश क्या कहते चल रहा है?” मधु अपने पति चंद्रेश से बहुत धीरे से बोली, मानों दीवारें भी उसकी बात सुन लेंगी।

“क्या हुआ? मुझसे तो कुछ नहीं कहा उसने।” चंद्रेश ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा।
“सोनाली कह रहा थी कि दीदी, अब हम यहीं गाँव में रहेंगे, भले की कम कमाएं पर चैन से तो जिएंगे।” मधु ने इधर-उधर देखते हुए कहा। उसकी बात सुनकर चंद्रेश एक पल चौंका फिर मुस्कुराते हुए बोला—” तुम भी पागल हो बिल्कुल, अरे! अभी इस कोरोना से डरे हुए हैं वो….तुम नहीं जानती ये शहर की हवा बहुत बुरी होती है, इतना आसान नहीं गाँव में टिकना।”
“अरे आप नहीं समझ रहे, अगर वो सच में यहाँ रहने लगा तो अपने हिस्से के जमीन पर खुद खेती करने लगेगा।” मधु ने जब से ये बात सुनी थी तभी से परेशान थी और ये परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
“चिंता मत करो, माहौल सही होते ही सब के सब फिर भागेंगे। अगर गाँव में ही रहना होता तो वहाँ शहर में कीड़े-मकोड़े की तरह झुग्गी झोपड़ियों में सड़ते नहीं। गया तो था पिछली बार प्रकाश के पास…एक हफ्ते का सोचकर गया था और चार ही दिन मेरा दम घुटने लगा वहाँ।”
“फिर भी उसके मन की टोह ले लो, एक तो जमीन कम है, उसका हिस्सा जोतते थे तो अच्छी गुज़र रही अगर वो भी हाथ से निकल गयी तो बेटा की पढ़ाई और सुमन की शादी ….”
“चुप करो तुम..कहाँ की बात कहाँ तक ले जाती हो। खाना दो, कब से माथा खा रही मेरा।” चंद्रेश तिलमिलाकर बोला क्योंकि वो समझ गया था मधु सही कह रही है।
   अगले दिन मशीन पर प्रकाश बैठा हुआ कुछ सोच रहा था तभी चंद्रेश वहाँ पहुँचा।
उसे मधु की बात याद आ गयी तो सोचने लगा क्यों ना प्रकाश के मन की थाह ली जाए। वो भी जाकर प्रकाश के बगल में बैठ गया।
“क्या सोच रहे हो प्रकाश?”
“अरे भैया! आप कब आये?” प्रकाश उसकी बात सुनकर चिहुँक गया।
“सब्जियों में पानी देना था, पंपिंग सेट चलाने आया तो तुम्हें यहाँ देखकर बैठ गया।” चंद्रेश खेतों की ओर देखते हुए बोला।
“मैं सोच रहा था कितने दिन ऐसे चलेगा, यहीं कुछ काम धंधा शुरू करूँ पर समझ नहीं आ रहा, क्या काम करूँ?” प्रकाश चिंतित स्वर में बोला।
“हाँ, ये बात तो है पर सुनने में आ रहा कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।” चंद्रेश ने प्रकाश के मन को टटोलना चाहा।
“भैया! हम जो भुगतकर वापस आएं हैं वो तो हम और हमारे जैसे लोग ही समझ सकते हैं। अब हिम्मत नहीं वापस जाने की।”
“ये क्या बोल रहे हो! वहाँ तुम्हारा जमाजमाया धंधा चल रहा था, ऐसे कैसे वापस नहीं जाने का सोच लिया तुमने?” चंद्रेश थोड़ा घबड़ा गया।
“हमारे जैसे कितने लोगों का जो छोटा मोटा धंधा चल रहा था सब का सब चौपट हो गया। अब जब शुरुआत ही करनी है तो यहीं अपने गाँव जवार में ही करेंगे, फिर से अनाथों की तरह सबका मुँह तो नहीं देखना पड़ेगा, कम से कम यहाँ हमारे अपने, हमारे जानने वालों का साथ तो रहेगा।” प्रकाश बेचारगी भरी आवाज में बोला।
“पर प्रकाश! इतनी सी जमीन से हम दोनों तो गुजारा नहीं चल पाएगा….” कहकर चंद्रेश चुप हो गया।
“सोचते हैं भैया।” कहकर प्रकाश वहाँ से उठकर चला गया।
  “दीदी! डिब्बे में घी तो है ही नहीं, राजू बिना उसके दाल भात खाता ही नहीं।” घर में घुसते हुए प्रकाश के कानों में सोनाली की आवाज सुनाई दी, वो कुछ पल को वहीं ठहर गया।
“घी खत्म हो गया है, अब क्या-क्या खरीदें
पैसे का कुछ पता ही नहीं और खर्चे बढ़ते ही जा रहे।” ये भाभी की आवाज थी।
“पर कल तो उसमें आधे डब्बा घी था दीदी…” सोनाली बोल पड़ी। तभी प्रकाश आंगन में पहुँच गया। उसे देखते ही सोनाली चुप हो गयी।
“कहाँ चले गए थे सवेरे-सवेरे, बिना कुछ खाये पिये?” सोनाली प्रकाश को देखते ही बोल पड़ी।
“कहीं नहीं ऐसे ही खेतों की ओर निकल गया था। तुम खाना निकालो मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ।” कहकर वो चांपाकल पर हाथ मुँह धोने लगा।
  सोनाली कोठरी में खाना लेकर आ गई। सात साल का राजू खाना खाने में आनाकानी कर रहा था, वो उसे फुसलाकर खिलाने की कोशिश करने लगी।
“देखो सोनाली! जब तक कुछ कमाई- धमाई का जुगाड़ नहीं हो जाता तब तक किसी तरह कम ज्यादा में गुजारा करने की कोशिश करो।” प्रकाश ने कौर अपने मुँह में डालते हुए कहा।
“आप समझ नहीं रहे हैं, दीदी का व्यवहार बहुत बदल गया है..पहले यही दीदी इतनी खातिरदारी करती थीं हमारी।”
“पहले की बात और थी, साल, छः महीने में हमलोग हफ्ते-महीने के लिए आते थे, और कुछ ना कुछ लेकर आते थे साथ में पैसा भी, पर इस बार उजड़े हुए आये हैं और जाने का कोई ठिकाना भी नहीं।” प्रकाश ने सोनाली को समझाते हुए कहा।
“आप भी ना, अरे तो कौन सा बेगार का खा रहे हम, इतने सालों से हमारे हिस्से का जमीन जोत रहे हैं हमने कभी कुछ नहीं कहा। साल में एक बार आये तो जो खिलाया-पिलाया वही ना।” सोनाली तमतमाकर बोली।
“फालतू बात मत करो, आज ये लोग हैं तभी तीन महीने से जी खा रहे हैं हम।” प्रकाश ग़ुस्से में बोला।
“हाँ, तभी तो अब चीजें छुपाई जाने लगी हैं, सही कह रही थीं रमा ताई…”
“रमा ताई?? उससे बात हुई तुम्हारी? अरे उस कुटनी की बात मत सुनना, उसका तो काम ही है लोगों के कान भरना और आग लगाकर तमाशा देखना।” प्रकाश रमा ताई का नाम सुनकर चौंक गया था।
“तो क्या गलत बोल रही थीं वो…सही ही तो बोली कि प्रकाश बहुत सीधा है, खुद तो परदेश चला गया धक्के खाने और अपना सब कुछ इन लोगों को दे रखा है जिसपर ये मौज उड़ा रहे। देख नहीं रहे हो अपने बच्चों के लिए अलग-अलग पक्की कोठरी बनवा लिए और अपनी तरफ का पूरा घर भी पलस्तर करवा लिया, और हम इधर ईंट की दीवार और कच्चे छत के नीचे पड़े हुए हैं।” सोनाली नाक फुलाते हुए बोली। प्रकाश खाना खा चुका था तो उठकर बाहर निकल गया। आज उसका मन बहुत खिन्न था। वो समझ रहा था अब परिस्थितियां बदल गई हैं। घर से सीधे रामजनम ताऊ के द्वार की ओर बढ़ गया। रामजनम ताऊ प्राइमरी स्कूल के सेवानिवृत्त हेडमास्टर थे और इन दोनों भाईयों को बहुत मानते थे। वो सीधे उनके पास पहुँचा। वो भी शायद खाना खाकर अभी खाट पर लेटे ही थे।
वो जाकर दूसरी खाट पर बैठ गया।
“आओ प्रकाश! बहुत दिन बाद दिखे हो.. समय ही ऐसा चल रहा कि कोई किसी के यहाँ आ जा नहीं सकता तो इसमें तुम्हारी क्या गलती?” उन्होंने ने ठंढ़ी सांस लेते हुए कहा।
“जी ताऊ जी! पता ना कैसी बीमारी फैल गयी है….जो सबसे पहले लोगों की रोजी-रोटी ही छीनती जा रही, लोग इस बीमारी से मरे ना मरे पर भूखे जरूर मर जायेंगे।” प्रकाश बेचैनी से बोला।
“हाँ बेटा, सही कह रहे हो, कल ही रेडियो पर सुना था बहुत सी नौकरियों में छँटनी शुरू हो गई है। कितने लोगों के रोजगार चौपट हो गए…मरते-मरते ये दिन भी देखना लिखा था मुझ बुड्ढे को।”
“ताऊ जी ऐसी बात मत करिए।”
” तुम बताओ क्या सोचा है आगे?” ताऊ जी बात बदलते हुए बोले।
“अभी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा ताऊ जी।”
“अरे हाँ कल रमेश और सुरेश भी मिले थे, वही जो गुजरात में बल्ब-होल्डर बनाने वाले कारखाने में काम करते थे।”
“हाँ ताऊ वो लोग भी तो वापस आ गए हैं।”
“वो लोग कह रहे थे अब गाँव छोड़कर नहीं जाएंगे चाहे मजदूरी ही क्यों ना करनी पड़े।” ताऊ जी प्रकाश के चेहरे को गौर से देखते हुए बोले।
“सही तो कह रहे हैं वो लोग…यहाँ झोपड़ी में भी रहेंगे तो साफ हवा पानी तो नसीब होगा, कम ही खाने को मिलेगा तो भी साफ और ताज़ा तो मिलेगा। मैं भी यही सोच रहा ताऊ जी!”
“चलो कम से कम तुम जैसों का दिमाग तो ठिकाने आया, सिर्फ पैसे और दिखावे के पीछे भागना तो कम हुआ।” ताऊ जी जम्हाई लेते हुए बोले।
“चलते हैं ताऊ, प्रणाम!” प्रकाश उठते हुए बोला। वो समझ गया कि ताऊ जी को नींद आ रही है। वहाँ से वो फिर अपने मशीन पर पहुँच गया। उसे सोनाली की बात सही लग रही थी क्यों ना अपने जमीन पर खेती ही की जाए। मौसमी सब्जियां इधर भी अच्छे दाम में निकल जाती हैं। उसकी नज़र खेत में खड़े अपने भाई पर पड़ी जो खेत में सोहाई कर रहे थे।
“पानी भर गया है जरा मशीन बन्द कर देना।” चंद्रेश ने प्रकाश को वहाँ देखकर कहा। प्रकाश कोठरी में चला गया मशीन बन्द करने। फिर दोनों भाई घर की ओर लौट पड़े।
    रात में प्रकाश को नींद नहीं आ रही थी वो अपने भविष्य को लेकर बहुत असमंजस में था, आखिर कब तक ऐसे खाली बैठा रहेगा। इधर चंद्रेश और उसकी पत्नी के भी यही हाल थे।
“क्या हुआ, नींद नहीं आ रही क्या?” सोनाली ने प्रकाश को जगता देखकर पूछा।
“क्या करूँ दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा, कितने दिन ऐसे रहेंगे?” प्रकाश गहरी सांस लेते हुए बोला।
“काहे परेशान हो रहे हैं, खेती करेंगे और क्या?” सोनाली ने कहा।
“पर…”
“पर क्या वो लोग भी इतने सालों से खेती से चल रहे हैं फिर हम क्यों नहीं।” सोनाली प्रकाश के मन को ताड़ चुकी थी की उसे भाई से जमीन माँगने में संकोच हो रहा। उसकी बात सुनकर प्रकाश फिर सोच में गुम हो गया।
“आप नहीं समझते, मुझे दिन भर घर में रहना होता है, सबके व्यवहार बदल गए हैं यहाँ तक कि उन बच्चों के भी जो दिन भर चाची-चाची करते न अघाते थे।” सोनाली उदासी से बोली।
“ठीक है, खेती ही शुरू करता हूँ पर उसके लिए भी तो पैसा चाहिए।”
“तो भैया से मांग लो, आखिर इतने दिनों तक हमारे हिस्से पर वो ही तो खेती करते रहे हैं।”
“अब सो जाओ!” प्रकाश ने करवट बदलते हुए कहा।
 अगले दिन प्रकाश ने घर में सबके सामने ये बात रख दी। जिसे सुनकर चंद्रेश और मधु एक दूसरे का मुँह देखने लगे।
“तो तुमने फैसला कर लिया कि वापस शहर नहीं जाओगे!” चंद्रेश ने संयत आवाज में कहा।
“हाँ भैया, अब हिम्मत नहीं होता… आप मेरे हिस्से का जमीन मुझे दे दीजिए, मौसमी सब्जी का कारोबार करने का सोच रहा हूँ।”
“तुम बारह साल से गाँव से बाहर हो खेती कैसे होती है कितना मेहनत और पैसा लगता है, तुम्हें पता भी है? सब्जी की खेती में कितना खतरा है जानते भी हो? जम के बरसात हो गयी तो सारी सब्जी की फसल गल जाती है…और तो और पैसा कहाँ से लाओगे?” चंद्रेश के तेवर कुछ बदलने लगे थे।
“पहली बार आप पैसा लगा दीजिए फिर मैं देख लूँगा।” प्रकाश के इतना बोलते ही मधु बिफरकर बोली—“कहाँ से पैसा देंगे तुमको, पेड़ लगा है क्या हमारे पास।”
“तुम चुप रहो मधु!” चंद्रेश ने मधु को टोका।
“देखो प्रकाश! मेरे पास पैसा नहीं है…अभी इसी साल रोहन को इंजीनियरिंग की कोचिंग में दाखिल करवाया था, जहाँ फीस के साथ ही उसके रहने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से भर पाया।” चंद्रेश चिंतित लहजे में बोला।
“आप मेरी जमीन दे दीजिए, आगे मैं देखता हूँ।” कहकर प्रकाश बाहर निकल गया।
“हद है, पढ़ाया-लिखाया, शादी ब्याह किये, और जब तक शहर में धंधा नहीं जमा पैसा भी भेजे और आज हिस्सा मांग रहे बाबूसाहब।” मधु भुनभुनाते हुए भीतर जाने को हुई।
“तो हम भी तो कुछ सालों से पैसा भेजते रहे जब भी आप लोगों को जरूरत पड़ी।” सोनाली भी बोल पड़ी।
“तुम लोग अपना काम करो, फालतू के बकवास नहीं।” कहकर चंद्रेश भी बाहर निकल गया।
कभी -कभी दूरियां रिश्तों को बचाये रखती हैं। दोनों भाई की गृहस्थी बढ़िया चल रही थी..पर इस नई परिस्थिति ने आज उनके मन में कड़वाहट पैदा कर दिया।
“अरे भइवा, सुने हैं परकशवा आपन हिस्सा मांग रहा है…बड़ा खराब दिन आ गया भई।” रास्ते में चंद्रेश को हँसमल मिल गया। उसे इन दोनों भाइयों का तालमेल कभी पसन्द नहीं आया था। अपना तो सब बर्बाद कर चुका था गांजा भांग के पीछे और अब इनकी-उनकी बतियाते फिरता रहता था।
” कुछ बोल नहीं रहे हो, पंचायत बुलाओ वही फैसला करेगी। मां बाप के न रहने पर बेटे की तरह पाले हो उसे और आज वो हिस्सा मांग रहा तुमसे।” उसने चंद्रेश को उकसाते हुए कहा।
“हिस्सा तो उसका बनता ही है ना..पर इतनी जल्दी ये सब होगा नहीं पता था।” चंद्रेश चिंतित होते हुए बोला।
“काहे का हिस्सा कैसा हिस्सा? उससे ज्यादा तो तुमने उसपर खर्च कर दिया होगा।” हँसमल मौका चूकना नहीं चाहता था।
“बेटी का ब्याह कर लिए होते, लड़का भी अपने पैरों पर खड़ा हो गया होता फिर कोई चिंता नहीं थी, पर आधी जमीन से घर चल जाये वही बहुत है।” चंद्रेश के मन की बात मुँह पे आ ही गयी।
“इसीलिए तो कह रहा पंचायत बुलाओ।” हँसमल खुश होते हुए बोला।
“देखते हैं.. पहले ताऊ जी से राय ले लें वो क्या कहते है?” कहकर चंद्रेश आगे बढ़ गया।
ताऊ जी के यहाँ पहुँचा तो प्रकाश पहले से वहाँ बैठा मिल गया।
“आओ, आओ चंद्रेश! मैं तो खुद तुमको बुलवाने वाला था। आओ बैठो।” ताऊ जी उसे देखते ही बोले। चंद्रेश समझ गया कि प्रकाश ने ताऊ जी को सब बता दिया है। दोनों भाई जब भी परेशान होते उनके ही पास आते थे।
“मैं तुम दोनों से ही बात करूँगा, आगे तुम्हें जो समझ आये करो।” वो गम्भीर होते हुए बोले। दोनों भाई उनका चेहरा देखने लगे।
“देखो! हर सिक्के के दो पहलू होते है…इसमें कोई शक नहीं कि इस बीमारी ने दुनिया में तहलका मचा रखा है..
पर कहीं ना कहीं रिश्तों में आयी खाइयों को भी पाटने का काम किया है। मजबूरी में ही सही गांवों से पलायन की प्रवृत्ति पर लगाम कस गई है। मुझे याद है तुमने प्रकाश को बम्बई जाने से रोका था पर गाँव के सारे नौजवान एक दूसरे का देखादेखी बाहर निकलते गए।” वो एक पल को रुके।
“तुम लोग की जमीन जब तक एक साथ है तब तक तो खेती समझ आएगी पर उसके टुकड़े होते ही बात वो नहीं रह जाएगी और सिर्फ उसके भरोसे जिंदगी मुश्किल भी…..”
“अच्छा प्रकाश! तुम जो वहाँ इडली डोसा का दुकान चलाते थे वही काम यहाँ भी तो शुरू कर सकते हो। बगल में ही कस्बा है, इधर के सारे गाँवों का मंडी वहीं है। मेरे हिसाब से दुकान यहाँ भी अच्छी चलेगी। क्यों, क्या कहते हो?” उन्होंने प्रकाश की ओर देखते हुए कहा।
जिसे सुनकर प्रकाश के चेहरे की चमक कुछ बढ़ गयी।
मुझे लगता है तुम दोनों ही अपना-अपना काम करो, एक खेती बाड़ी और दूसरा कस्बे में अपनी दुकान। अलग होना समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि तुम दोनों साथ रहोगे तो एक दूसरे का हाथ ही बंटाओगे, एक दूसरे का सम्बल ही बनोगे।”
दोनों ही भाई इस बात से सहमत नज़र आ रहे थे पर फिर वही पैसों की चिंता।
“सही कह रहे हैं ताऊजी! प्रकाश अभी छोटे से शुरुवात करे और जब फसल हो जाएगी तो ढंग का जगह देखकर दुकान शुरू कर देंगे।” चंद्रेश भाई के चेहरे की ओर देखते हुए बोला।
“देखो बेटा! ये जो काल चल रहा है इसका हम जैसों गांवों पर दो असर पड़ने वाला है, या तो लोग जुड़ेंगे या फिर टूटेंगे। अब तुम लोग तय करो जुड़ना है या टूटना!!”
कविता सिंह 
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