“अब छिपकली
की तरह दीवार से चिपकी रहोगी क्या ?बहुत हो गयी रोशनदान की सफाई !चलो नीचे उतरो।” व्हील चेयर
खिसकाती हुए अम्मा ने थोड़ा डांटने के स्वर में सुधा से कहा। ३२ वर्षीय सुधा जो आज
पूरी तरह घर साफ़ करने के मूड में थी , मुस्कुराते हुए बोली ,”बस अम्माँ दो मिनट और ,रोज़ -रोज़ कहाँ चढ़ती हूँ?” तभी छोटा
भाई अनिकेत(गप्पू) दुपट्टा खींचते हुए बोला “दीदी भूख लगी है खाना दो ना।
सुधा दुपट्टा छुड़ाते हुए बोली ,”अले !
मेरे बेटू को भूख लगी है दीदी अभी खाना देती है।” हाँ बच्चा ही तो है २८
वर्षीय अनिकेत ………जिसकी
मानसिक बुद्धि ५ साल के बच्चे के बराबर है। और सुधा माँ है ……व्हील चेयर पर सवार माँ की ,मानसिक विकलांग भाई की ,और थैलीसीमिया मेजर से
जूझती बहन की………………… एक ३२
वर्षीय अविवाहित माँ।
“अविवाहित” यह शब्द मध्यम
वर्गीय
समाज में किसी लड़की के माथे
पर लगा वो दाग है जिसे कोई
कितना भी धोना चाहे छूटता नहीं। पर यह उसका खुद का लिया हुआ निर्णय नहीं था ,परिस्तिथियों ने उसे ऐसा
निर्णय लेने पर विवश कर दिया था। जहाँ लड़की के हांथों की
मेहँदी माता -पिता के लिए कर्ज की दीवार बन कर खड़ी हो जाती है। वहाँ उसे कौन
ब्याहता………… जिसके
साथ उसे तीन -तीन प्राणियों का बोझ ढोना पड़े। सच तो यही था …कड़वा सा सच।
पर लगा वो दाग है जिसे कोई
कितना भी धोना चाहे छूटता नहीं। पर यह उसका खुद का लिया हुआ निर्णय नहीं था ,परिस्तिथियों ने उसे ऐसा
निर्णय लेने पर विवश कर दिया था। जहाँ लड़की के हांथों की
मेहँदी माता -पिता के लिए कर्ज की दीवार बन कर खड़ी हो जाती है। वहाँ उसे कौन
ब्याहता………… जिसके
साथ उसे तीन -तीन प्राणियों का बोझ ढोना पड़े। सच तो यही था …कड़वा सा सच।
ऐसा नहीं
है की सुधा का मन किसी जीवन साथी को पाने के लिए न किया हो , सखी सहेलियों की अपने -अपने
जीवन साथी के साथ प्यार भरी मनुहार उसे विचलित करती थी पर उसने अपने मन को एक बड़े
तहखाने में बंद कर ताला लगा दिया था। नहीं सोचना है तो नहीं सोचना है। उसका
जीवन कठोर कर्तव्य के लिए हुआ है ………पगली को यह कहाँ पता था कि खुशबू ,हवाएं , और प्रेम कहीं रोके से
रुकें हैं ?
है की सुधा का मन किसी जीवन साथी को पाने के लिए न किया हो , सखी सहेलियों की अपने -अपने
जीवन साथी के साथ प्यार भरी मनुहार उसे विचलित करती थी पर उसने अपने मन को एक बड़े
तहखाने में बंद कर ताला लगा दिया था। नहीं सोचना है तो नहीं सोचना है। उसका
जीवन कठोर कर्तव्य के लिए हुआ है ………पगली को यह कहाँ पता था कि खुशबू ,हवाएं , और प्रेम कहीं रोके से
रुकें हैं ?
और अब तो यही उसका जीवन था। स्कूल में बच्चों को पढ़ाना ,माँ ,भाई -बहन की सेवा
और घर के ढेर सारे काम …फुर्सत
ही कहाँ थी कुछ और सोचने की ,ठीक से
बाल काढ़ने की या सुन्दर दिखने की। जिंदगी यंत्रवत चल रही थी। पर अभी ………कुछ महीने पहले की ही तो
बात है , जब झमाझम
बारिश में वो बुरी तरह भीग रही थी ,तभी अपनी बड़ी सी कार से उतरा था वो ………………नाम तो पता नहीं था पर पता
नहीं क्यों उसे सड़क पर भीगती सुधा पर दया आ गयी। लिफ्ट देने को कहा ,पर एक अजनबी के साथ कैसे
बैठ जाती , सुधा ने
इंकार कर दिया। वह कुछ देर गाड़ी में बैठा कुछ सोंचता रहा फिर अपनी गाड़ी से निकाल
कर रेन कोट उसे दे दिया और फुर्र्र से गाड़ी ले कर चला गया। सुधा बहुत देर तक
वहीँ खड़ी रही ,उसे कुछ अजीब सा लग रहा था , कुछ बैचैनी सी ,कुछ अपरिभाषित सा……….
कुछ तो था जो वो समझ नहीं पा रही थी. , सुधा रेन कोट पहन घर चली आई। रेन कोट उतार कर भीगा तन पोंछती जा रही
थी और मन भीगता जा रहा था कुछ अनजाने रंगों में। सुधा सोच रही थी क्या परी कथाएं सच में
भी होती हैं उसने देखा रेन कोट की जेब में कुछ पड़ा हैं ,निकाल कर देखा
एक कार्ड था” प्रशांत निगम “एक व्यापारिक प्रतिष्ठान का मालिक …. उंह ! होगा
उससे क्या ? अपने कुछ
देर पहले के विचारो
को झटकती हुई सुधा खुद से
बोली उसने तो केवल सहानुभूति दिखायी थी ,फिर क्यों वो उसके बारे में सोचे। कल ऑफिस जा कर रेन कोट वापस कर
देगी। बस!किस्सा ख़त्म।
दूसरे दिन सुधा जल्दी स्कूल
के लिए निकल गयी ,सोचा
रस्ते में प्रशांत के ऑफिस जा कर रेन कोट वापस कर देगी। प्रशांत का ऑफिस उसने यूँ
तो आते -जाते उसने कई बार देखा था पर कभी गौर कहाँ किया था। आज ठिठक से गए थे उसके
पाँव शीशे के ढाँचे में साधा सुन्दर भवन , वुडेन फर्श , वृत्ताकार
सी सीढ़ियां ,और ऊपर
प्रशांत का शीशे से बना केबिन …सुधा
बढ़ती गयी ,प्रशांत
सर झुकाएं फाइलों में उलझा था। सुधा को चपरासी ने रोक
लिया। सुधा ने
रेन कोट चपरासी
को पकड़ा दिया। तभी प्रशांत ने मुँह उठा कर देखा ……. शीशे के आर -पार दो नजरें
टकराई , जैसे
सुधा को अंदर तक ,आत्मा तक
किसी ने छू लिया हो।
उफ़ ,यह क्या
है !सुधा पलट कर तेजी से ऑफिस के बहार निकल गयी। पर पता नहीं क्यों वो दो नजरें
सारा दिन उसका पीछा करती रहीं। स्कूल में सुधा का मन पढानें में नहीं लगा। घर आकर
सुधा सीधे दर्पण के सामने खड़ी हो गयी।
सामान्य सा कद ,बेतरतीब कढ़े बाल , दुबला -पतला शरीर फिर ऐसा
क्या था जिस की वजह से प्रशांत ने उसे ऐसे देखा जैसे किसी ने आज तक नहीं देखा था।
तभी अम्माँ की आवाज़ आई “सुधा अरी ओ सुधा परचून की दुकान से जरा सेंधा नमक
लेती आना शाम तक ,कल महा
शिवरात्रि का व्रत है ” सुधा की तन्द्रा टूटी ‘अच्छा अम्माँ ‘और नारीत्व भाव दबा फिर से मशीन में तब्दील हो गयी। सुधा शाम को छोटे
गप्पू को कहानी सुना रही थी.…
“नहीं दीदी आज राजा –रानी की
कहानी नहीं आज इस किताब से पढ़ कर सुनाओ ना “कहकर गप्पू ने एक किताब उठकर सुधा
को दे दी। सुधा मुस्कुराई ,”अच्छा तो
अब हमारा गप्पू बडा हो गया है ,किताब की
कहानी सुनेगा।”सुधा ने कहानी सुनना शुरू किया,” …. बहुत दिन पहले की बात है
प्रतापगढ़ में एक धनिक व्यापारी रहता था प्रशांत सिंह” ……सुधा की सुई प्रशांत पर रुक
गयी शब्द अटक से गए ,पता नहीं
क्यों आगे पढ़ नहीं पायी। किताब बंद करते हुए बोली,”गप्पू आज
नींद आ रही है कल सुना देंगे “
के लिए निकल गयी ,सोचा
रस्ते में प्रशांत के ऑफिस जा कर रेन कोट वापस कर देगी। प्रशांत का ऑफिस उसने यूँ
तो आते -जाते उसने कई बार देखा था पर कभी गौर कहाँ किया था। आज ठिठक से गए थे उसके
पाँव शीशे के ढाँचे में साधा सुन्दर भवन , वुडेन फर्श , वृत्ताकार
सी सीढ़ियां ,और ऊपर
प्रशांत का शीशे से बना केबिन …सुधा
बढ़ती गयी ,प्रशांत
सर झुकाएं फाइलों में उलझा था। सुधा को चपरासी ने रोक
लिया। सुधा ने
रेन कोट चपरासी
को पकड़ा दिया। तभी प्रशांत ने मुँह उठा कर देखा ……. शीशे के आर -पार दो नजरें
टकराई , जैसे
सुधा को अंदर तक ,आत्मा तक
किसी ने छू लिया हो।
उफ़ ,यह क्या
है !सुधा पलट कर तेजी से ऑफिस के बहार निकल गयी। पर पता नहीं क्यों वो दो नजरें
सारा दिन उसका पीछा करती रहीं। स्कूल में सुधा का मन पढानें में नहीं लगा। घर आकर
सुधा सीधे दर्पण के सामने खड़ी हो गयी।
सामान्य सा कद ,बेतरतीब कढ़े बाल , दुबला -पतला शरीर फिर ऐसा
क्या था जिस की वजह से प्रशांत ने उसे ऐसे देखा जैसे किसी ने आज तक नहीं देखा था।
तभी अम्माँ की आवाज़ आई “सुधा अरी ओ सुधा परचून की दुकान से जरा सेंधा नमक
लेती आना शाम तक ,कल महा
शिवरात्रि का व्रत है ” सुधा की तन्द्रा टूटी ‘अच्छा अम्माँ ‘और नारीत्व भाव दबा फिर से मशीन में तब्दील हो गयी। सुधा शाम को छोटे
गप्पू को कहानी सुना रही थी.…
“नहीं दीदी आज राजा –रानी की
कहानी नहीं आज इस किताब से पढ़ कर सुनाओ ना “कहकर गप्पू ने एक किताब उठकर सुधा
को दे दी। सुधा मुस्कुराई ,”अच्छा तो
अब हमारा गप्पू बडा हो गया है ,किताब की
कहानी सुनेगा।”सुधा ने कहानी सुनना शुरू किया,” …. बहुत दिन पहले की बात है
प्रतापगढ़ में एक धनिक व्यापारी रहता था प्रशांत सिंह” ……सुधा की सुई प्रशांत पर रुक
गयी शब्द अटक से गए ,पता नहीं
क्यों आगे पढ़ नहीं पायी। किताब बंद करते हुए बोली,”गप्पू आज
नींद आ रही है कल सुना देंगे “
दूसरे दिन शिव मंदिर से
लौटते वक़्त दूर से प्रशांत आता दिखाई दिया। पर ……… यह क्या बगल में एक खूबसूरत
लड़की सफ़ेद स्कर्ट -टॉप ,कंधे तक
कटे बाल जो उड़ -उड़ कर प्रशांत के गालों को छू रहे थे , बाहों में बाहें डाले दोनों
चले आ रहे थे। आह !तुषारापात सा हुआ सुधा के मन पर। क्या
-क्या नहीं सोच डाला था उसने पिछले चौबीस घंटों में.… आँखें
छलक गयी। शायद यही नियति थी। प्रेम का अ अक्षर भी नहीं सीखा था और
पुस्तक बंद। पर प्रशांत…… वो क्यों
ठिठक गया था सुधा को देख कर , क्यों
उसकी आंसू भरी आँखों को बैचैनी से घूर रहा था, क्यों उसकी नज़रों ने सुधा के ओझल हो जाने तक उसका पीछा किया।
पर यह सब सुधा ने कहाँ देखा था। वो तो बस घर आकर बिस्तर पर औंधे मुँह
घंटों फूट -फूट कर रोती रही ,सोचती रही “हे ईश्वर
!जब आपने मुझे एक कठोर जिंदगी दी और मैं जैसे -तैसे जी भी रही थी ,तो कैसा विचित्र कर दिया
मेरा मन ,क्यों
तकलीफ हो रही है उसके साथ किसी लड़की को देखकर ,क्यों मन उसे पाना चाहता है जिसे पाने की कल्पना भी नहीं कर
सकता।”
माँ और गप्पू दोनों उसके विचित्र व्यवहार पर
परेशान थे। शाम को सुधा चाय बना ,
मन हल्का करने की असफल कोशिश करती हुई सबके बीच बैठ गयी। माँ गप्पू
को शिवरात्रि की कहानी सुनाने लगी “शिव -पार्वती का प्रेम
अलौकिक था आत्मा का बंधन ,शरीर से
परे तभी तो गौरा की
आत्मा ने ने पहचान
लिया था शिव को देखते ही ,
वैसे ही जैसे सीता ने राम को पहचान लिया था। कैसे ना पहचानती जिससे
जन्मों के घनिष्ठ सम्बन्ध होते हैं उसे देखते ही आत्मा को कुछ विचित्र अनुभव होता
है ,यह प्रेम
कोई एक जनम का खेल नहीं है जैसे कृष्ण और राधा का …………”अब बस भी करो माँ” ,सुधा बीच में बात काट कर
लगभग चीखते हुए बोली ” यह देवी -देवताओं की बातें है अब शरीर आत्मा पर भरी
है। अब रूप ओहदा देख कर साथी चुने जाते हैं और तुम आत्मा की बात करती हो , कठोर
श्रम -साध्य जीवन में साधारण इंसानों के लिए प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं है , कोई
अस्तित्व नहीं ,कोई
अस्तित्व नहीं”………………. सुधा बार -बार यह शब्द कह कर शायद खुद को
सिद्ध करना चाहती थी।
परेशान थे। शाम को सुधा चाय बना ,
मन हल्का करने की असफल कोशिश करती हुई सबके बीच बैठ गयी। माँ गप्पू
को शिवरात्रि की कहानी सुनाने लगी “शिव -पार्वती का प्रेम
अलौकिक था आत्मा का बंधन ,शरीर से
परे तभी तो गौरा की
आत्मा ने ने पहचान
लिया था शिव को देखते ही ,
वैसे ही जैसे सीता ने राम को पहचान लिया था। कैसे ना पहचानती जिससे
जन्मों के घनिष्ठ सम्बन्ध होते हैं उसे देखते ही आत्मा को कुछ विचित्र अनुभव होता
है ,यह प्रेम
कोई एक जनम का खेल नहीं है जैसे कृष्ण और राधा का …………”अब बस भी करो माँ” ,सुधा बीच में बात काट कर
लगभग चीखते हुए बोली ” यह देवी -देवताओं की बातें है अब शरीर आत्मा पर भरी
है। अब रूप ओहदा देख कर साथी चुने जाते हैं और तुम आत्मा की बात करती हो , कठोर
श्रम -साध्य जीवन में साधारण इंसानों के लिए प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं है , कोई
अस्तित्व नहीं ,कोई
अस्तित्व नहीं”………………. सुधा बार -बार यह शब्द कह कर शायद खुद को
सिद्ध करना चाहती थी।
माँ की आँखें डबडबा गयी बेटी
के चिल्लाने पर। बेटी के दर्द पर जो
उन्हें अंदर तक हिला गया। चुपचाप व्हीलचेयर खिसकती बालकनी की और चली गयी। सुधा को
अपनी गलती का अहसास हो गया चुपचाप माँ के पास जा कर बोली ,”माँ
दरअसल मेरी एक
सहेली का अपने पति से झगड़ा हो गया था ,उसी दुःख में निकल गया ,मॉफ कर दो ना माँ “आज सुधा पहली बार माँ से झूठ बोली थी। बहुत
कुछ पहली ही बार हो रहा था। कसम खा ली सुधा ने अब प्रशांत के बारे में कभी नहीं
सोचेगी। पर ये फैसले कुदरत के होते हैं। रात भर करवट बदलती रही ,बिस्तर कांटें की तरह गड़
रहा था। प्रशांत ,प्रशांत
और प्रशांत बस उसी का चेहरा ,उसी का
ख़याल आता रहा। सुबह उठी अनमयस्क सी तैयार हो कर स्कूल चल
दी। पैदल जाती थी सुधा ,पैसे बच
जाते हैं। सड़क पर
हलवाइयों की दूकानें लगी रहती
हैं। वे अपनी
भट्टी सड़क की तरफ रखते है। सुधा ने लापरवाही से अपने दुपट्टे को उछाला
, भट्टी की
चिंगारी दुपट्टे को छू गयी।
सिंथेटिक दुपट्टा भक्क से
जल उठा । जब तक समझती आँच कंधे तक आ गयी । ना जाने कहाँ से
प्रशांत आ गया । दुपट्टा खींच
कर फेंका और सुधा को अपनी ओर खींचा । सीधे प्रशांत के सीने से जा लगी थी सुधा ।
धड़कनों का शोर कानों तक सुनायी दे रहा था। शायद …………नहीं , नहीं सच
प्रशांत का दिल भी उतनी ही तेजी से धड़क रहा था । दुकान वाला पानी डाल कर दुप्पटे की आग
बुझा रहा था । एक आग बुझ रही थी एक आग सुलग रही थी । अजीब संयोग था । बिना दुपट्टे कैसे
स्कूल जाती इसलिए प्रशांत के कहने पर उसकी गाड़ी में बैठकर घर आ गयी । वो दोनो कुछ
नहीं बोले पर धड़कने ,पसीने
कीं बूँदे , यहाँ तक
उनकी साँसों से छोड़ी गयी हवा बहुत कुछ बोल रही थी ।
“क्या हुआ क्या हुआ “माँ उसे देखकर चिल्लायीं
तब होश में आई सुधा । “कुछ नहीं माँ बस दुप्पटे जल गया “। माँ व्हीलचेयर
खिसकाती घर के मंदिर में ईश्वर को धन्यवाद देने लगी। और सुधा
……………….पगली को होश कहाँ शीशे के सामने ख़ड़ी अपने को घूर रही थी. क्या
वो इस काबिल है की कोई उसे चाहे ,क्या
प्रशांत उसका पीछा कर रहा था ?तभी तो
अचानक से आ गया ,उसकी
धड़कने भी तो तेज थी। …क्या
उसके मन में भी………….”दीदी आज दवाई ख़त्म हो गयी है लानी है “बहन
नेहा का स्वर सुनायी दिया। ओह हाँ !सुधा की तन्द्रा टूटी ,क्या सोंच रही है वो ,पगली क्या सपना बुन रही है ,उसे तो ३ -३ प्राणियों की
देखभाल करनी है।
तब होश में आई सुधा । “कुछ नहीं माँ बस दुप्पटे जल गया “। माँ व्हीलचेयर
खिसकाती घर के मंदिर में ईश्वर को धन्यवाद देने लगी। और सुधा
……………….पगली को होश कहाँ शीशे के सामने ख़ड़ी अपने को घूर रही थी. क्या
वो इस काबिल है की कोई उसे चाहे ,क्या
प्रशांत उसका पीछा कर रहा था ?तभी तो
अचानक से आ गया ,उसकी
धड़कने भी तो तेज थी। …क्या
उसके मन में भी………….”दीदी आज दवाई ख़त्म हो गयी है लानी है “बहन
नेहा का स्वर सुनायी दिया। ओह हाँ !सुधा की तन्द्रा टूटी ,क्या सोंच रही है वो ,पगली क्या सपना बुन रही है ,उसे तो ३ -३ प्राणियों की
देखभाल करनी है।
अगले दिन प्रशांत नजर नहीं आया ,सुबह स्कूल जाते समय भी ,आते समय भी। बहुत उदास थी
सुधा। कभी ना कभी तो दिख जाता है हर रोज़ पर आज क्यों नहीं ? क्या अब
उसके मन में सुधा के लिए कोई जगह नहीं है ,क्या वो सफ़ेद स्कर्ट वाली ही उसकी मंजिल है ?पर जब प्रशांत ने उससे कुछ
कहा ही नहीं ,जब उसकी
कोई जगह ही नहीं है तो दूसरी ,तीसरी
चौथी कोई भी हो क्या फर्क पड़ता है। ठीक रत के १० बजे उसके घर के बाहर से
निकलती प्रशांत की गाड़ी ,और सुधा
भी किसी ना किसी बहाने पहुँच जाती बालकनी में …………दूर से देख लेती है गाड़ी और
मन एकदम शांत हो जाता जैसे सब पा लिया हो। पर आज १०,११,१२ बजते गए। सुधा की बैचैनी
बढ़ती जा रही थी……………….. रात भर बालकनी में ही बैठी रही। जाने क्या क्या ख़याल
आते रहे। सुबह तक मन बहुत अधीर हो
गया। …. कुछ अशुभ की कल्पना कर ,प्रशांत का कार्ड निकाला। बहुत देर तक आँखों में आँसू भरे नंबर को
देखती रही ,क्या करे
मिलाये या नहीं ?पता नहीं
कब कैसे दिल ने दिमाग की सुनना
छोड़ दिया। ………… दूसरी
तरफ घंटी घनघना उठी “हेलो ‘इस स्वर
के साथ ही सुधा काँप गयी ,क्या जवाब
दे , क्यों
किया है फोन , क्यों
चिंता हुई उसे , क्या
सोचेगा प्रशांत उसके बारे में ?हैलो,हैलो कौन है ?कौन है ?आवाज़ आती ही जा रही थी।
धीरे -धीरे डरते -डरते कांपती आवाज़ में बोली “जी मैं सुधा “……उधर से आवाज़ आना बंद हो
गयी। दोनों के बीच मौन बोलने लगा। एक अजीब सा रूहानी सुकून
मिलने लगा ,जब मौन
बोले तो शब्दों की क्या जरूरत। थोड़ी देर बाद प्रशांत ही चुप्पी तोड़ते हुए बोला ‘मैं ठीक हूँ ,कल काम ज्यादा था ऑफिस में
ही रुक गया था।” सुधा को काटो तो खून नहीं। चोरी पकड़ी गयी। बात पलटते
हुए सुधा बोली “लगता है गलत नंबर मिल गया ,कहते हुए सुधा ने फोन काट दिया। पर मन कहाँ कटा। …प्रशांत को कैसे पता चला की
मैं उसकी खातिर परेशान हूँ। क्या वो रोज़ रात को उसे देखते हुए देख लेता था? सुधा स्कूल जाने के लिये
तैयार होने लगी। आज इतने दिनों के बाद मन कुछ अच्छा पहनने का हुआ। वो गुलाबी सलवार
कुरता ,और
गुलाबी प्रिंट वाला दुपट्टा जिसे उसने खरीदा तो बरसों पहले पर कभी पहना नहीं था।
यूं ही नहीं कहते गुलाबी रंग नारी के कोमल भाव का प्रतीक है। अम्मा देखते ही बोली ,”आरे वाह!
काला टीका
लगाय लो बिटिया ,नज़र लग
जाएगी। ” धीरे से मुस्कुरा दी सुधा … शायद आज प्रशांत दिख जाए। और सुन ही ली थी ईश्वर ने उसकी ,प्रशांत पतली गली के नुक्कड़
पर कार में बैठा था। उसे देखते ही दरवाज़ा खोल दिया और बैठने का इशारा किया। पर
सुधा अनदेखा कर आगे बढ़ गई। सोचती जा रही थी ” प्रशांत के मन में कुछ तो है
उसके प्रति पर उसके भाई,बहन ,माँ नहीं…वह अपने स्वार्थ
के लिए अपनों को दुःख नहीं दे सकती। “
स्कूल के खाली पीरियड में
एक मशहूर लेखक की किताब “सोलमेट ” उठा कर पढ़ने लगी ....”हम सब का
एक साथी होता है जिसे सोलमेट कह सकते हैं। उसके जीवन में प्रवेश करते ही अजीब सी
कशिश होती है। आत्मा वैसे ही खिंचाव महसूस करती है जैसे लोहा चुम्बक से। उससे बात
करो न करो,आत्मा सब
पहचानती है। सुधा ने झट से किताब बंद कर दी “तो क्या प्रशांत उसका सोलमेट है? क्या प्रशांत के लिए उसके
मन में जो अजीब सी कशिश ,बेचैनी
है वो इसी वजह से है? क्या ये
तड़प ये आत्मा की पुकार है?क्या
प्रशांत भी कुछ … कुछ ऐसा
ही महसूस करता है?” धड़कनें
तेज हो गईं। सुधा ने मन हटाने के लिए अपनी सहेली के मोबाइल पर गाने सुनने शुरू कर
दिए। सुधा के मोबाइल में तो सिर्फ भजन रहते हैं जो सुबह अम्मा चलवा देती हैं और
साथ में ताली बजा-बजा गाती रहती
हैं। गाना धीरे -धीरे बज उठा “मन का मौजी ,इश्क़ तो जी … अलबेली सी राहों पे ले चले … कोई पीछे न आगे है ,फिर भी
जाने क्यों भागे है.… मारा
इश्क़ का इश्क़ का दिल मेरा….” सुधा ने ईयरप्लग निकाल लिए। पसीना
पोंछा। यही तो हुआ है उसे। पर …
प्रशांत…उसने कुछ
कहा क्यों नहीं ? आज वह
जाकर प्रशांत से बात करेगी।
एक मशहूर लेखक की किताब “सोलमेट ” उठा कर पढ़ने लगी ....”हम सब का
एक साथी होता है जिसे सोलमेट कह सकते हैं। उसके जीवन में प्रवेश करते ही अजीब सी
कशिश होती है। आत्मा वैसे ही खिंचाव महसूस करती है जैसे लोहा चुम्बक से। उससे बात
करो न करो,आत्मा सब
पहचानती है। सुधा ने झट से किताब बंद कर दी “तो क्या प्रशांत उसका सोलमेट है? क्या प्रशांत के लिए उसके
मन में जो अजीब सी कशिश ,बेचैनी
है वो इसी वजह से है? क्या ये
तड़प ये आत्मा की पुकार है?क्या
प्रशांत भी कुछ … कुछ ऐसा
ही महसूस करता है?” धड़कनें
तेज हो गईं। सुधा ने मन हटाने के लिए अपनी सहेली के मोबाइल पर गाने सुनने शुरू कर
दिए। सुधा के मोबाइल में तो सिर्फ भजन रहते हैं जो सुबह अम्मा चलवा देती हैं और
साथ में ताली बजा-बजा गाती रहती
हैं। गाना धीरे -धीरे बज उठा “मन का मौजी ,इश्क़ तो जी … अलबेली सी राहों पे ले चले … कोई पीछे न आगे है ,फिर भी
जाने क्यों भागे है.… मारा
इश्क़ का इश्क़ का दिल मेरा….” सुधा ने ईयरप्लग निकाल लिए। पसीना
पोंछा। यही तो हुआ है उसे। पर …
प्रशांत…उसने कुछ
कहा क्यों नहीं ? आज वह
जाकर प्रशांत से बात करेगी।
छुट्टी के बाद सुधा प्रशांत
के ऑफिस की तरफ चल दी। पैर आगे बढ़ते जा रहे थे। मन कह रहा था आज कुछ ज़रूर होने
वाल्ला है। आज वो बातों में से पता लगा लेगी प्रशांत के मन की बात। पर….प्रशांत
के केबिन के शीशे के दरवाज़े से अंदर देखते ही ठगी सी रह गई। एक खूबसूरत अप्सरा
प्रशांत के गालों पर…. लिपस्टिक का निशान पोंछते हुए प्रशांत ने बाहर देखा। सुधा
की आँखें बरस पड़ीं ,तेजी से
बाहर भागी।
प्रशांत भी पीछे-पीछे भगा पर कुछ बोला नहीं। ऑफिस के गेट पर खड़ा सुधा को जाते हुए
देखता रहा। शायद उसकी आँखें भी नाम थीं।
के ऑफिस की तरफ चल दी। पैर आगे बढ़ते जा रहे थे। मन कह रहा था आज कुछ ज़रूर होने
वाल्ला है। आज वो बातों में से पता लगा लेगी प्रशांत के मन की बात। पर….प्रशांत
के केबिन के शीशे के दरवाज़े से अंदर देखते ही ठगी सी रह गई। एक खूबसूरत अप्सरा
प्रशांत के गालों पर…. लिपस्टिक का निशान पोंछते हुए प्रशांत ने बाहर देखा। सुधा
की आँखें बरस पड़ीं ,तेजी से
बाहर भागी।
प्रशांत भी पीछे-पीछे भगा पर कुछ बोला नहीं। ऑफिस के गेट पर खड़ा सुधा को जाते हुए
देखता रहा। शायद उसकी आँखें भी नाम थीं।
घर आकर सुधा चुपचाप रसोई
में जाकर खाना बनाने लगी। तो ये है प्रशांत का असली रूप!छि: छि:!घिन आती है उसे
अपने ऊपर। उसका दिल धड़का भी तो किसके लिए ?!जिसे वो सोलमेट समझ रही थी वो-वो तो … नहीं अब ये किस्सा खत्म! उसका प्रेम गंगाजल है जो
चढ़ेगा तो शिव पर ! बजबजाती नालियों पर नहीं !
में जाकर खाना बनाने लगी। तो ये है प्रशांत का असली रूप!छि: छि:!घिन आती है उसे
अपने ऊपर। उसका दिल धड़का भी तो किसके लिए ?!जिसे वो सोलमेट समझ रही थी वो-वो तो … नहीं अब ये किस्सा खत्म! उसका प्रेम गंगाजल है जो
चढ़ेगा तो शिव पर ! बजबजाती नालियों पर नहीं !
अम्मा
बोलती जा रही थीं।,”बाथरूम
का बल्ब फ्यूज हो गया है बिटिया मेज लगा कर बदल दो और पिछले महीने के दूध के बिल का ५०
रूपए वापिस लेने हैं,ज़्यादा
दे दिए थे और … ।”
“बस करो अम्मा ,सब कर
दूँगी …अभी सर
दर्द कर रहा है। “सुधा
बोली। अम्मा ने कहा ,”अरे बिटिया पहले क्यों नहीं बताया ? अभी तेल लगा देती हूँ।
” माँ तेल मलने लगीं ,भाई-बहन
दीदी के पास खड़े होकर उसकी मुस्कराहट लौटने का इंतज़ार करने लगे। यही तो है उसकी
दुनिया … क्यों
पागल की तरह रेत को
मुट्ठी में बाँधने का प्रयास कर रही थी ?पर आँखें पता नहीं क्यों बहती ही जा रही थी ?शायद जितना प्रेम भरा था सब
धो-धो कर साफ़ कर देना चाहती थी। कितनी नादान होती हैं ये आँखें भी।
अगले दिन स्कूल की तरफ जा
रही थी सुधा। आज न ढंग से बाल काढ़े न ढंग से कपडे पहने। “सब ख़त्म ” मन
में कहती जा रही थी सुधा। पर मन के अंदर से कौन बोल रहा था जो कहे जा रहा था
प्रशांत !प्रशांत! …… ओह
प्रशांत ! तनाव ,बेचैनी
में चक्कर आ गया। आँख खुली अस्पताल के बिस्तर पर। नर्स उसे देख कर मुस्कुराई ,”कैसी हैं
मैडम ?बी.पी.
बहुत डाउन हो गया था रास्ते में,गिर पड़ी
थीं। ये सर आपको ले कर आये। ” सुधा ने आँख उठा कर देखा ,सामने प्रशांत था। कुछ
घबराहट थी आँखों में। उफ़ ये कशिश … सुधा ने आँखें फेर लीं।
रही थी सुधा। आज न ढंग से बाल काढ़े न ढंग से कपडे पहने। “सब ख़त्म ” मन
में कहती जा रही थी सुधा। पर मन के अंदर से कौन बोल रहा था जो कहे जा रहा था
प्रशांत !प्रशांत! …… ओह
प्रशांत ! तनाव ,बेचैनी
में चक्कर आ गया। आँख खुली अस्पताल के बिस्तर पर। नर्स उसे देख कर मुस्कुराई ,”कैसी हैं
मैडम ?बी.पी.
बहुत डाउन हो गया था रास्ते में,गिर पड़ी
थीं। ये सर आपको ले कर आये। ” सुधा ने आँख उठा कर देखा ,सामने प्रशांत था। कुछ
घबराहट थी आँखों में। उफ़ ये कशिश … सुधा ने आँखें फेर लीं।
नर्स चली
गई। प्रशांत उसके पास आया धीरे से बोला ,”मुझे आप से कुछ कहने है। “
सुधा दूसरी तरफ देखते हुए
बोली ,”मुझे
यहाँ लाने के लिए धन्यवाद ,जाइए
अपनी अप्सरा के पास। ” उफ़ ये क्या निकल गया मुंह से ?!
बोली ,”मुझे
यहाँ लाने के लिए धन्यवाद ,जाइए
अपनी अप्सरा के पास। ” उफ़ ये क्या निकल गया मुंह से ?!
पर प्रशांत गया नहीं ,वहीँ पर खड़ा रहा। उसने
बोलने शुरू किया,”तुम सही
कह रही हो सुधा। दिन-रात खूबसूरत लड़कियों से घिरा रहता हूँ मैं। मेरे पैसे ,पद के पीछे भागने वाली
लड़कियों की कमी नहीं हैं पर … पर जब
पहली बार तुम्हें देखा था ,तुम
सब्ज़ी खरीद रही थीं घर के बाहर। साधारण रूप-रंग पर पता नहीं क्यों एक
अजीब सी कशिश महसूस हुई। पर जब तुम सड़क पर आते जाते दिखती तो पता नहीं क्यों ऐसा
महसूस होता था कि कोई मेरा अपना है। किसी को तुम्हारा नाम पुकारते सुनता तो
लगता जैसे वास्तव
में कानो में अमृत पड़ गया हो।
तुम्हारा नाम कहीं पढ़ कर या बोल कर आँखें क्यों छलकती थीं पता नहीं। पता नहीं
क्यों तुम्हें सड़क पर भीगते हुए देख बहुत दुःख हुआ। तुमने जो रेनकोट वापिस किया था
उसे हज़ारों बार छुआ है मैंने क्योंकि वो तुमने पहना था। एक अजीब सी अनुभूति हुई
थी। मैं … पागलों
की तरह आधा काम छोड़ कर घर लौटता था, कि इस समय बालकनी में खड़ी हुई सुधा को देख सकूँ। तुम्हारा सुबह -सुबह फोन
आने पर न जाने क्यों बरस पड़ी थी मेरी आँखें। सुधा मेरे एक इशारे पर मुझ पर सर्वस्व
अर्पण करने वाली लड़कियों की कमी नहीं है। पर तुम्हारे लिए मेरे मन में अदभुत भाव
हैं ,शरीर गौढ़
हैं,जैसे
आत्मा ने पहचाना हो तुम्हे ,जैसे
जनम-जनम की साथी हो तुम। तुम वो हो जिसे जन्मों से मेरी आत्मा ढूंढ़ रही थी … मेरी सोलमेट। तभी तो
तुम्हारे लिए जो अनुभूति है वो दिव्य है ,अनुपम है ,अद्वितीय
है। न पहले कभी हुई
न कभी होगी।
बोलने शुरू किया,”तुम सही
कह रही हो सुधा। दिन-रात खूबसूरत लड़कियों से घिरा रहता हूँ मैं। मेरे पैसे ,पद के पीछे भागने वाली
लड़कियों की कमी नहीं हैं पर … पर जब
पहली बार तुम्हें देखा था ,तुम
सब्ज़ी खरीद रही थीं घर के बाहर। साधारण रूप-रंग पर पता नहीं क्यों एक
अजीब सी कशिश महसूस हुई। पर जब तुम सड़क पर आते जाते दिखती तो पता नहीं क्यों ऐसा
महसूस होता था कि कोई मेरा अपना है। किसी को तुम्हारा नाम पुकारते सुनता तो
लगता जैसे वास्तव
में कानो में अमृत पड़ गया हो।
तुम्हारा नाम कहीं पढ़ कर या बोल कर आँखें क्यों छलकती थीं पता नहीं। पता नहीं
क्यों तुम्हें सड़क पर भीगते हुए देख बहुत दुःख हुआ। तुमने जो रेनकोट वापिस किया था
उसे हज़ारों बार छुआ है मैंने क्योंकि वो तुमने पहना था। एक अजीब सी अनुभूति हुई
थी। मैं … पागलों
की तरह आधा काम छोड़ कर घर लौटता था, कि इस समय बालकनी में खड़ी हुई सुधा को देख सकूँ। तुम्हारा सुबह -सुबह फोन
आने पर न जाने क्यों बरस पड़ी थी मेरी आँखें। सुधा मेरे एक इशारे पर मुझ पर सर्वस्व
अर्पण करने वाली लड़कियों की कमी नहीं है। पर तुम्हारे लिए मेरे मन में अदभुत भाव
हैं ,शरीर गौढ़
हैं,जैसे
आत्मा ने पहचाना हो तुम्हे ,जैसे
जनम-जनम की साथी हो तुम। तुम वो हो जिसे जन्मों से मेरी आत्मा ढूंढ़ रही थी … मेरी सोलमेट। तभी तो
तुम्हारे लिए जो अनुभूति है वो दिव्य है ,अनुपम है ,अद्वितीय
है। न पहले कभी हुई
न कभी होगी।
नहीं जी सकता तुम्हारे बिना
ये आत्मा का बंधन है इसे चाह कर भी
झुठला नहीं सकता।
ये आत्मा का बंधन है इसे चाह कर भी
झुठला नहीं सकता।
सुधा ने
प्रशांत की तरफ देखा ,उसकी
आँखों से आंसू बह रहे थे। सुधा के गाल भी गीले होने लगे ,बोली ,”प्रशांत
मेरी माँ ,भाई-बहन … ” प्रशांत
बीच में बोल पड़ा ,”वो मेरे
भी हैं ” कहते – कहते उसने सुधा का हाथ पकड़ लिया। आंसुओं की धाराओं के बीच
अस्पताल में दो “सोलमेट ” जिसका प्रेम सबसे अलग था ,सबसे विलग था … जीवन की
अगली पारी खेलने को राज़ी हो गए।
वंदना बाजपेयी
बहुत बढ़िया कहानी।
dhanyvad