बत्तखें

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बत्तखें

विज्ञान और मनोविज्ञान के मेल पर आधारित कहानी ‘बत्तखें’ को पढने से पहले आइये थोडा सा जान लें मल्टीवर्स थ्योरी के बारे में …ये थ्योरी (हालांकि अभी हाइपोथीसिस केरूप में ही है जिसे सिद्ध किये जाना बाकी है) कहती है कि हम ही नहीं हमारा ब्रह्माण्ड  भी सृष्टि में अकेला नहीं है | करोणों ब्रह्माण्ड हैं जो एक दूसरे से डार्क मैटर से अलग -अलग हैं और अलग -अलग फ़्रीक़ुएन्सी पर कम्पन कर रहे हैं | हम सब जानते हैं कि मैटर -मैटर को आकर्षित करता है | इसी कारण पृथ्वी चंद्रमा सूरज अपने स्थान पर हैं , और पृथ्वी  में भी सब कुछ अपने स्थान पर है | परन्तु डार्क मैटर की उपस्थिति के कारण मैटर -मैटर में विकर्ष्ण  पैदा होता है | वो एक दूसरे से दूर हो जाते हैं | उनका एक दूसरे तक पहुँचना लगभग असंभव होता है | दो ब्रह्मांडो के बीच में यही डार्क मैटर होता है | इसी कारण हमें दूसरे ब्रह्मांडों के विषय में पता नहीं चल पाता | भविष्य में शायद किसी वर्महोल के द्वारा हम वहां तक पहुँच सकें |  इस डार्क मैटर को ही कुछ समानता के कारण डक (बत्तख ) का नाम दिया गया है| माना जाता है कि पृथ्वी पर सब कुछ अपनी स्थिति में है इस लिए यहाँ पर डार्क मैटर नगण्य मात्रा में है | यह तो रही विज्ञान की बात पर मनोविज्ञान कहता है कि पृथ्वी पर डार्क मैटर है जो कुछ नकारात्मक लोगों के दिमाग में छिपा हुआ है …तभी तो वो लोगों को एक दूसरे से दूर करते है | जैसे शशि भाभी ने दूर कर दिया …आइये पढ़े विज्ञान और मनोविज्ञान के जटिल  रहस्यों में उलझी हुई वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की सशक्त कहानी …

बत्तखें





मेरी नजर में पहले वह
खिड़की उतरी थी|

दो संलग्न आड़ी
दीवारों के बीच एक बुर्ज की भांति खड़ी|

बाहर की ओर उछलती
हुई|

आगे बढ़ी तो देखा
बाबूजी उस खिड़की पर खड़े थे|
क्या वह नीचे कूदने
वाले थे? क्या मैं उन्हें बचा सकूँगी?

“बाबूजी,” मैं ने
उन्हें वहीं नीचे से पुकारा| वह नीचे आ गए| हवा के रास्ते|
“तुम भी हवा के
सहारे कहींभीआ जा सकती हो,” वह मुझ से बोले|
“आप की तरह?” मैंने
पूछा|
“हाँ,” उन्होंने
मेरा कंधा छुआ मानो वह किसी जादुई छड़ी से मुझे छू रहे थे|

और उन के साथ मैं भी
हवा पर सवार हो ली|

“किधर जाएँगे?” मैंने
पूछा|

मुझे साइकल चलाना
उन्हीं ने सिखाया था और उन दिनों मैं चलने से पहले हमेशा पूछती, “किधर जाएँगे?” और
उत्तर में वह मुझ से सवाल करते, ‘तुम बताओ| आज किधर जाएँ?’ दाएं? मिल्क बूथ की
तरफ? या फिर बाएं? ऊँचे पुल पर? या फिर आज सामने ही चलें? टाउनहॉल?”
उन दिनों हम शकुंतला
निवास में रहते थे जो एक तिकोने मोड़ वाली सड़क पर स्थित था| शकुंतला बाबूजी की पहली
पत्नी थीं| उनके इकलौते बेटे, अरुण भैया की तथा पहली दो बेटियाँ – कृष्णा जीजी तथा
करुणा जीजी – की माँ|

“आकाश खटखटाएँ क्या?”
बाबूजी हँस पड़े|
“हाँ,” उत्साहित हो
कर मैंने पुरानी एक ज़ेन कहावत बोल दी, “आकाश खटखटाएँ और उसकी आवाज सुनें…..”

“और अगर आकाश ने
पूछा, ‘कौन-सा परलोक खोलूँ?’ तो क्या कहोगी…..”

लगभग आठ वर्ष पहले
हम बाप-बेटी ने अपने विषय-भौतिकविज्ञान-में एक शोध निबंध तैयार किया था-
यूनिवर्स एंड मल्टीवर्स(ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांडिकी) जिस में हमने ब्रह्मांडिकी
कीचर्चित परिकल्पनाओं एवं विचारधाराओं को प्रस्तुत किया था तथा जिन में हमारे इस
लोक के अतिरिक्त अनेक, परलोकों की उपस्थिति की बात उठायी गई थी और उसी संदर्भ में
हमने सन् १९२९ में हब्बल के टेलिस्कोप अवलोकन से सामने आए बबल्ज़ (बुलबुलों) की
परतों ब्लैक होल्ज़ (काले कुंडों) के कवकजाल से ले कर सन् अस्सी के दशक में एलेन
गूथ की इनफ़लेशनरी कौस्मौलॉजी(ब्रह्मांडिकी के फैलाव) के अंतर्गत उत्पादित हो रहे
कॉस्मिक फ़्युल अंतरिक्षीय जलावन के कारण ब्रह्मांडिकी परलोकों की चर्चा की थी|
“माँ कहाँ मिलेंगी?”
माँ को देखे-सुने मुझे अठारह वर्ष होने जा रहे थे|

माँ के साथ मुझे कई
पृष्ठ उलटने-पलटने थे| नए-पुराने, अगले-पिछले|

माँ से पूछना था
मृत्यु का वरण उन्होंने बाबूजी और मेरी अनुपस्थिति में कैसे और क्यों कर लिया था?
उस रात बाबूजी शहर से बाहर थे| अपने गाँव पर| वहां की अपनी पैतृक संपत्ति का निपटारा
करने के निमित्त और मैं मीलों दूर पड़ने वाले एक-दूसरे शहर के कॉलेज के छात्रावास
में थी, जहाँ बाबूजी ने मुझे भेज रखा था| परिवार में निरंतर बढ़ रहे तनाव से मुझे
अलग रखने के वास्ते|
माँ को बताना था कि
मानसिक संस्तभ लेकर परिवार में सब से बाद में आने वाली छुटकी पहले से कहीं बेहतर स्थिति
में है, अनियमित समतोल एवं विषम बौद्धिक स्तर के बावजूद| अपने आइ-पैड पर वह मनपसंद
संगीत सुनती है, फिल्में देखती है, विडियो गेम्ज़ खेलती है| उसके पास अपना एक पिआनो
भी है, जिसकेपैडल पर अपने पैर जमा कर वह उसकी तान बखूबी घटा-बढ़ा लेती है| कभी
ख़ालिस अपने मनोरंजन के लिए तो कभी अपनी मनःस्थिति मुझ तक पहुँचाने को|

“मेरी आवाज दमयंती
तक अभी पहुँची नहीं,” बाबूजी गंभीर हो गए, “न जाने किस परलोक में है? किस आकाशगंगा
में? किस सूर्यमंडल में? किस बबल में? किस काले कुंड में? किस वृत्त में?”

“बड़ी बत्तख तो कहीं
कोई करतब नहीं दिखा रही?” मैं भी गंभीर हो चली|

भौतिक विज्ञानियों
के अनुसार परिवर्ती हमारे आकाश और अंतरिक्ष में तिहत्तर प्रतिशत ऊर्जा विकर्षण के
सिद्धांत पर काम करती है और बिग बैन्गज द्वारा गढ़े जा रहे नए परलोकों को एक-दूसरे
से दूर रखने के लिए उत्तरदायी है और इसी विकर्षण-शक्ति की पूरी जानकारी प्राप्त
करने में अभी तक असमर्थ रहे इन विज्ञानियों ने इसे ‘डार्क एनर्जी (अज्ञात ऊर्जा)
का नाम तो दे ही रखा है, साथ ही वे इसे ‘डक’ (बत्तख) भीकहा करते हैं, इफ़ इट वॉक्स
लाइक अ डक एंड क्वैक्स लाइक अ डक, इट प्रौबब्ली अ डक…..’ यदि यह ऊर्जा एक बत्तख की
भांति अकड़ कर चलती है और फिर अपनी टर्र-टर्र रटती रहती है तो फिर यह एक बत्तख ही
है|

बत्तखें


“यही मालूम देता है,”
बाबूजी ने कहा, “उधर उस बत्तख ने अपनी डार्क एनर्जी के कारण करतब दिखलाए थे तो इधर
यह अपना काम दिखा रही है…..” हम बाप-बेटी ने अरुण भैया की पत्नी, शशि को बत्तख
का नाम दिया हुआ था उनकी दुर्बोध एवं संदिग्ध प्रकृति के कारण| जिसे उन्होंने घर
में प्रवेश पाते ही उद्घाटितकर डाली थी मेरे उस सोलहवें साल में|

सत्रह साल पुरानी एक
एल्बम से शशि भाभी ने शकुंतला आंटी की एक तस्वीर निकाली थी और उसे बड़े आकार में
फ्रेम करवा कर बैठक में टांग दी थी| घर आए सभीआगंतुकों को बोलने के वास्ते, ‘घर की
असली मालकिन तो यही हैं| हमारे इस निवास की शकुंतला| अपने पिता की इकलौती संतान
थीं| बड़े चाव से उन्होंने यह हवेली बेटी के नाम पर तैयार करवाई थी| दहेज़-स्वरुप
उन्हें भेंट दी थी| क्या जानते थे शादी के बारहवें साल ही में बेटी को कैंसर लील
ले जाएगा और घर की एक मामूली नौकरानी नई मालकिन बन बैठेगी…..”

“और शकुंतला आंटी?
वह भी इस बड़ी बत्तख ने कहीं छिपा रखी हैं?” शकुंतला आंटी से मिलने की भी मेरे अंदर
एक तीखी चाह थी| माँ से मैंने सुन रखा था वह बाबूजी को बहुत प्रिय थीं! माँ को इस
घर में वह लाई थीं, बाबूजी के गाँव से, अपनी बीमारी के दौरान, बच्चों की देखभाल के
लिए और बाबूजी के मन में माँ की जगह बनाने के पीछे भी उन्हें बच्चों की चिंता रही
थी| उस समय अरुण भैया दस वर्ष के थे और दोनों जीजी लोग आठ-आठ बरस की| जुड़वाँ होने
के कारण दोनों हम उम्र थीं|

शकुंतला आंटी से
मैंने बताना था, बाबूजी ने माँ को अपनी दूसरी पत्नी बनाने में अधिक समय नहीं
गंवाया था| भैया और जीजी लोग ने भी उन दोनों की विवाहित अवस्था को सहर्ष स्वीकार लिया
था और गाड़ी ने अपनी गति बढ़ा दी थी| गाड़ी में मेरी प्रविष्टि हुई थी दूसरे वर्ष और
छुटकी की आठवें वर्ष| बाबूजी के संरक्षण में हम दोनों ही को गाड़ी में यथेष्ट स्थान
दिया गया था और गाड़ी ने अपनी यथोचित गति बनाए रखी थी| गाड़ी को ब्रेक आन लगाया था
शशि भाभी ने| यथापूर्व चल रही हम माँ-बेटियों की स्थिति ऐसी घुमाई थी कि परिवार
में गहरे भेद उत्पन्न हो गए थे, सौतेलों और सगों के, और तो और हमारे समर्थक एवं
संरक्षक होने के नाते बाबूजी को भी बेगानों की श्रेणी में ला खड़ा किया था| उनसे
उनकी गाँव वाली पैतृक संपत्ति से तो अपने-अपने हिस्से की मांग की ही थी, साथ ही
आगे-पीछे हुए जीजी लोग के विवाह संपन्न हो जाने पर शकुंतला-निवास को एक प्लाजा में
बदल डालने का सौदा भी पक्का कर लिया था, बिना बाबूजी की जानकारी के|

कहानी -बत्तखें


“शकुंतला का भी कोई
पता नहीं” बाबूजी के स्वर में गहरी हताशा उतर आई, “लगता है बड़ी बत्तख उसे भी इतनी
दूर ले गई है कि मैं कितना भी खगोल क्यों न खंगाल लूं वह मुझे नहीं मिलने वाली…..”

“जैसे नीचे वाली
बत्तख माँ को हमसे दूर पहुँचा आई थी एक ही रात में,” प्लाजा वाले बिल्डर को माँ से
मिलवाने के लिए शशि भाभी ने वही रात चुनी थी जब माँ के पास अपनों के नाम पर केवल
छुटकी रही थी और वह यह आघात झेल नहीं पाई थीं|

“और हमारी कहानी बदल
ली थी,” बाबूजी की आवाज रूँआसी होचली, “हमें शकुंतला-निवास छोड़ देना पड़ा था जहाँ मैंने अपनी जिंदगी के पैंतालिस वर्ष गुजारे थे|
खगोलज्ञऔर गणितज्ञ बेशक बोलते रहें इहलोक में,
हमारी इस पृथ्वी में डार्क एनर्जी नगण्य मात्रा में है और इसीलिए हमारी यह सृष्टि सबलिए है: चाँद-तारों और पिंड-सूरजों से लेकर पशु-पक्षीऔरफूल-पत्तीकेसाथ-साथ अपनी यह मनुष्य जाति भी|
जो उन दूसरे पर लोकोंमें कहीं नहीं लेकिन हम बाप-बेटी जानते हैं इसी मनुष्य जाति के अंदर
कुछ लोगों में डार्क एनर्जी के कैसे-कैसे भंडार भरे पड़े हैं…..”

“ऐसा क्यों होता है,
बाबूजी,” मैं व्याकुल हो उठी|
“इस का उत्तर मैं
कहाँ से दे पाऊँगा? मानव प्रकृति का भी हमारे खगोल की भांति, कोई ओर-छोर नहीं, कोई
बांध नहीं, कोई चौहद्दी नहीं…..”
“हाँ, बाबूजी…..”
“मगर मानव शरीर जरूर
एक चौहद्दी रखता है, अंत रखता है और यह अंत भी अचानक आ टपकता है| तुम्हें ब्याहने
की मैं सोच रहा था जब ऊपर वाली बत्तख मुझे तुमसे दूर ले गई| पंजाबी में एक टप्पा
है न, कैंठे वाला आ गया परौहना, नी माए तेरे कम न मुक्के (गले में माला डाले अतिथि
दरवाजे पर आ पहुँचा है, मगरअरी माँ तेरे काम अभी भी बाकी हैं…..)”
“नहीं बाबूजी, आप ने
तो सभी काम पूरे किए हैं| मुझे डॉक्टरेट करवाई है, यूनिवर्सिटीकी नौकरी के योग्य
बनाया है…..”
“लेकिन तुम्हें दूल्हा
तो नहीं दिला पाया| छत्तीस साल की अपनी इस उम्र में तुम आज भी अविवाहित हो, सिंगल
हो…..”
“दूल्हे की मुझे कभी
जरूरत महसूस ही नहीं हुई बाबूजी| फिर परिवार में छुटकी है जिसे देखने के लिए अब
मैं ही बची हूँ|”

पिछले ही वर्ष
बाबूजी हम बहनों से विदा हो लिए थे|

लेकिन यह कैसा
चमत्कार था जो उस रात हम बाप-बेटी एक-दूसरे के इतने पास आ गए थे|
बेशक मेरी नींद में
ही|

दीपक शर्मा 

                        
लेखिका -दीपक शर्मा

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दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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